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परंपरागत संचार – अस्तित्व के लिए संघर्षरत

परंपरागत संचार – अस्तित्व के लिए संघर्षरत

डॉ. देवव्रत सिंह।

संचार किसी भी समाज की आधारभूत आवश्यकता है। ये भी कहा जा सकता है कि संचार समाज के निर्माण की पहली शर्त है। सदियों से अलग-अलग समाजों ने संचार के लिए विशिष्ट माध्यमों को विकसित किया है। आदिम समाजों में सामूहिक नृत्य-गायन और भोजन करना संचार का सशक्त माध्यम होते थे। आज भी आदिवासी समाजों में ये परंपरा जीवित है तो इसके पीछे मजबूत आधार भी है। एक साथ नाचने-गाने और भोजन करने से आदिवासी समाज के बीच-बीच ना केवल गहरा संवाद स्थापित होता है बल्कि पूरा आयोजन अपने सदस्यों के बीच ये संदेश भी छोड़ता है कि वे आपस में गहरे जुड़े हुए हैं। आधुनिक समाज यदि डिस्को या पब संस्कृति को जन्म देते हैं तो ये उनकी उसी आदिम इच्छा का परिणाम है जिसमें प्रत्येक मनुष्य दूसरों से जुड़ना चाहता है और इसी प्रकार समाज का निर्माण होता है। भले ही आज के पब या अन्य सामाजिक आयोजन आदिम समाजों से भिन्न हैं लेकिन इससे साबित यही होता है कि संचार मनुष्य की पहली जरूरत है। संचार के माध्यम से ही संस्कृति का निर्माण होता है और मनुष्य अपनी संचार गतिविधियों से ही संस्कृति को निरंतर उत्कृष्ट बनाता है और उसे अगली पीढि़यों तक पहुंचाता है।

मानव विकास और संचार का इतिहास
मानव विकास का इतिहास प्रकृति से जुझते हुए निरंतर अपने अस्तित्व को बचाये रखने का इतिहास है। इस संघर्ष के दौरान ही उसने समूह में रहना आरंभ किया। आदिमानव अपने सहयोगियों के साथ शिकार के दौरान संकेतों और ध्वनियों के रूप में संचार करता था। लेकिन ये संचार बहुत व्यवस्थित नहीं था। कुछ ध्वनियों और इशारों के सामूहिक रूप में विशेष अर्थ थे। इसी दौरान अनेक आदिमानव समाजों ने अपनी गुफाओं में भिति चित्रों की मदद से अपनी भावनाओं को उकेरना भी आरंभ कर दिया। दुनिया के अनेक हिस्सों में इस प्रकार के चित्र पाये गये हैं। मध्यप्रदेश के भीम बेटका में भी शिकार करते मानव के चित्र पाये गये जिन्हें विद्वान आदि मानव काल का बताते हैं। संचार का ये आदिम रूप था।

मानव जब झुंडों में रहने के बजाये कबीलों में व्यवस्थित जीवन व्यतीत करने लगा तो उसका संचार भी पहले से व्यवस्थित हुआ। सभ्यता के विकास से काफी पहले ही मानव ने तस्वीरों और प्रतीकों के जरिये संचार करना सीख लिया था। लेकिन व्यवस्थित भाषा का जन्म मनुष्य की एक बड़ी उपलब्धि थी। भाषा की उत्पत्ति लगभग 7000 ईसा पूर्व हुई। यही वो समय है जब सभ्यता का जन्म माना जाता है। मनुष्य केवल शिकार पर निर्भर करने के स्थान पर खेती करने लगा। घुमंतू जीवन छोड़ एक स्थान पर नगर बसाने लगा। सुमेर और हड़प्पा की सभ्यता इस काल के प्रमुख उदाहरण हैं। हड़प्पा संस्कृति में हम मूर्तियों और सिक्कों के रूप में अनेक प्रतीक पाते हैं जिससे पता चलता है कि ये नगरीय समाज एक समृद्ध भाषा विकसित कर चुका था। यही नहीं प्रतीकों की भाषा (पिक्टोग्राफिक्स) के अनेक हिस्से मिले हैं जिन्हें अभी तक पूरी तरह पढ़ा नहीं जा सका है।

वैदिक काल में श्रुतियां और वेद सभी कुछ वाचिक परंपरा में मौजूद था। यज्ञों में मंत्रोच्चारण के जरिये ही देवताओं को खुश करने की कोशिश की जाती थी। सारा ज्ञान भी वाचिक परंपरा के माध्यम से ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता था। वेदों को बहुत बाद में लिपिबद्ध किया गया। गुरू अपने शिष्यों को पूरा का पूरा वेद याद करवा देता था। पहले-पहल ऋचाओं को पत्तों पर लिखकर सहेजने की कोशिश की गयी। बौद्ध और जैन काल में समृद्ध भाषा विकसित हो चुकी थी और उसको पत्थरों पर उकेर कर स्थाई बनाने की भी परंपरा थी। महात्मा बुद्ध ने आम लोगों द्वारा बोले जाने वाली और प्रकृत भाषा में अपने प्रवचन दिये ताकि जन-जन तक उनकी बात पहुंचे। मंदिर संचार के प्रभावशाली केन्द्र होते थे। जहां मूर्तियों के अलावा धार्मिक कर्म-कांडों के जरिये भी सामाजिक संचार होता था। इस काल में ढ़ोल-नगाड़ों के माध्यम से गांव-गांव में मुनादी भी राजा के आदेशों को जनता तक पहुंचाने का एक माध्यम थे। रोमन समाज में पत्थरों पर खुदाई करके सूचना पट बनाये जाते थे। बाजारों में विशेष स्थानों पर इन पटों को लगाने का नियत स्थान होता था। ये एक प्रकार के पोस्टर होते थे जिन्हें सूचना पुरानी पड़ने पर बदल दिया जाता था। इस सब के बावजूद प्राचीन समाज में वाचिक परंपरा ही लंबे समय तक प्रमुख संचार माध्यम बनी रही।

मध्ययुगीन समाजों में कला-संस्कृति का समृद्ध रूप दिखाई देता है। जिसमें लोक संस्कृति के रूप में विभिन्न विधाओं में नाटक, गीत, नृत्य इत्यादि विकसित होते हैं। ये सब एक तरफ सामाजिक रीति रिवाजों के रूप में समाज में विद्यमान रहे वहीं ये साझा मनोरंजन और संचार के साधन भी बने रहे। इन सांस्कृतिक गतिविधियों में संचार के साथ-साथ धर्म, परंपराएं, मनोरंजन, सामाजिक मेलजोल सभी कुछ मिलेजुले रूप में मौजूद था। समाज का एक विशिष्ट हिस्सा इन सांस्कृतिक गतिविधियों को आयोजित करने में लग गया। लोक कलाओं की खूबी ये रही कि आम लोग भी इसमें उतनी ही तल्लीनता से हिस्सा लेता जितना कि कलाकार, क्योंकि ये अधिक मुश्किल नहीं थी। दरअसल, लोक कला में आम लोग ही नये प्रयोग करते थे और उसे परिमार्जित करते थे। अधिकांश लोक गीतों के रचयिता का नाम किसी को मालूम नहीं है। राजाओं की तरफ से भी इस प्रकार के सामाजिक आयोजनों के लिए मदद दी जाती थी। लेकिन अधिकांश समाजों में कुछ परिवार इस कला के माध्यम से अपना गुजर बसर करते थे इसलिए वही कला विशेष को जिंदा रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।

लोक कलाओं के समानांतर दरबारी कला भी विकसित होने लगी जो अधिक व्यवस्थित और शास्त्रीय थी। शास्त्रीय संगीत केवल समाज के संभ्रांत तबके के लोगों के लिये ही उपलब्ध था। राजाओं और नवाबों के विशेष आश्रय में पहले वाले शास्त्रीय कलाकार अधिक गूढ़ता और बारीकी लिये संगीत और नृत्य की साधना करते। शास्त्रीय संगीत के जानकार कलाकारों ने अपने घराने बना लिये। जो पीढ़ी दर पीढ़ी इस कला को सहेज कर रखते थे। भारत में शास्त्रीय संगीत की समृद्ध परंपरा मौजूद है। इसके अलावा भारतीय संदर्भ में मेले परंपरागत संचार के प्रमुख माध्यम रहे। मेले अकसर बड़े मंदिरों के आसपास किसी धार्मिक मौके पर आयोजित किये जाते हैं। मेले एक साथ धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और आर्थिक गतिविधियों भरे होते हैं। मेले समाज के लिये मेलजोल के साथ-साथ मनोरंजन का माध्यम भी होते हैं। मेलों की परंपरा भारत में आज भी विद्यमान है। कुंभ मेले की विशालता इसका एक सशक्त उदाहरण है। पुराने समय में राजा मेलों का उपयोग अपने प्रभाव को बढ़ाने और जनता में संदेश फैलाने के लिए करते थे।

परंपरागत संचार की अवधारणा
परंपरागत संचार से आशय ऐसे संचार से है जो आधुनिक जनसंचार माध्यमों की बजाए परंपरागत माध्यमों से किया जाता हो। परंपरागत संचार सदियों से चला आ रहा है। सभी समाज परंपराओं में रचे बसे अनेक ऐसे माध्यमों के जरिये संचार करते हैं जिनमें निहायत देसज और ग्रामीण प्रतीकों-संकेतों को उपयोग में लाया जाता है। उदाहरण के रूप में सभी प्रकार की लोक कथा, लोक नृत्य, लोक गीत, लोक नाटय विधाएं, कटपुतली कला और चित्रकलाएं इस श्रेणी में आती हैं। संचार की दृष्टि से परंपरागत संचार में अंतर व्यैक्तिक और समूह दोनों स्तरों पर संचार होता है।

भारत में परंपरागत संचार का स्वरूप
लोक नाटक या रंगमंच – सदियों से लोक रंगमंच विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग रूपों में मनोरंजन का साधन रहा है। भारत में लोकमंच के अनेक स्वरूप मिलते हैं। यहां तक कि भारतीय संदर्भ में यदि लोक रंगमंच की सभी विधाओं को ध्यान से देखा जाए तो अनेक तत्व भी इन विधाओं में मिलते जुलते नजर आते हैं। लोक नाटकों में कहानी ज्यादातर पुराने मिथकों एवं किंवदंतियों से ली जाती थी। कलाकार कहानी कहने के लिए संवाद, संगीत तथा नृत्य तीनों कलाओं का इस्तेमाल करते थे। भारतीय संदर्भ में शास्त्रीय कलाओं और लोक कलाओं के बीच लगातार आदान-प्रदान होता रहा है। लोक रंगमंच में भी शास्त्रीय रंगमंच की तरह विदूषक या सूत्रधार का प्रयोग होता रहा है। सूत्रधार एक ऐसा पात्र है जो बीते हुए कल को आज के साथ जोड़ता है। सूत्रधार दर्शक और अभिनेता के बीच कड़ी का काम करता है। सूत्रधार विविध लोकमंच शैलियों में विविध नामों से जाना जाता है।

जात्रा- जात्रा पूर्वी भारत यानी बंगाल का प्रसिद्ध नाटक है। हालांकि उड़ीसा और बिहार के कुछ हिस्सों में जात्रा का प्रचलन है। इस नाटक में पात्र काफी अधिक संख्या में होते हैं और सामान्यत ये द्वारपाल अथवा जमादार और उसकी पत्नी या कंजर जाति से संबंधित चरित्रों की भूमिका में होते हैं। ये पात्र नाटक में हास्य परिस्थितियों के निर्माण में सहायक एवं माहिर होते हैं। जात्रा के नाटक ज्यादातर व्यंगात्मक होते हैं। जात्रा का संगीत भी काफी लोकलुभावन, सजीव एवं मस्ती भरा होता है। जात्रा में प्राय बुराई पर अच्छाई की जीत की कहानियां मंचित की जाती हैं। मंदिर का प्रांगण इनका मंच होता है। जात्रा के लिए आयताकार रंगशाला होती है। स्टेज थोड़ा ऊंचा होता है, पात्रों के आने जाने के लिए एक ढलवां रास्ता भी स्टेज पर बना होता है।

तमाशा- महाराष्ट्र की ये लोकप्रिय नाटय कला अपनी कथा वस्तु में धार्मिक नहीं है। लेकिन इसमें अनेक बार जीवन का दार्शनिक विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है। तमाशा पूरी तरह एक मनोरंजक शैली है। इसमें महिला पात्र अपने पति या प्रेमी के गुणगान मे गीत गाती है। कलाकार अपनी बात गीत, वार्तालाप और नृत्य के मिलेजुले रूप में करते हैं। तमाशा के बीच-बीच में लावणी और पोवड़ भी प्रस्तुत की जाती है। लावणी दरअसल महाराष्ट्र की ग्रामीण महिलाओं का नृत्य है। तेज लय पर गीत और नृत्य लावणी की विशेषता है। तड़क-भड़क वाली पोशाकों में लावणी कलाकार मादक और मनमोहक लगती है।

नौटंकी- उत्तर भारत की लोक नाटय कला नौटंकी को खुले स्टेज पर मंचित किया जाता है। पौराणिक कहानियों पर आधारित नौटंकी की कथाएं एक सूत्रधार प्रस्तुत करता है। ढोलक तेज लय में नौटंकी कलाकार गाते भी हैं और नाचते भी हैं। इसमें लैला मजनू, लोकप्रिय राजाओं और डकैतों की कहानियों को भी बीच-बीच में सुनाया जाता है।

कठपुतली- ये भी एक भिन्न प्रकार की लोक कला है। बेजान होते हुए भी सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। पहले इसका प्रयोग सिर्फ मनोरंजन के लिए होता था लेकिन आज शिक्षा के क्षेत्र में इसकी असीम संभावनाएं देखी जा रही हैं। कठपुतली का लोक नाटकों में इस्तेमाल काफी प्राचीन समय से हो रहा है। इनकी विषय-वस्तु मुख्यतः रामायण और महाभारत से संबंधित ही रहती थी। भारत के साथ-साथ अनेक पड़ोसी एशियाई देशों में भी कठपुतली नाटकों का मंचन किया जाता है। आजादी आंदोलन में भी इनकी भूमिका रही है।

यक्षगान- उतरी कर्नाटक के यक्षगान को बयालाट भी कहा जाता है। जिसका मतलब है खुले मैदान का नाटक (बयालू) इसके अलावा यक्षगान को दोद्दात के नाम से भी जाना जाता है, यह नाटक हमेशा खुले में प्रदर्शित होता है। भागवत की विषय-वस्तु पर आधारित होता है। इस नाटक में एक व्याख्याकार तथा एक मसखरा (विदूषक) होता है। व्याख्याकार को भगवता कहा जाता है जिसका मुख्य काम तुकबंदियों व गायन के जरिये कहानी कहना होता है।

भवई- ये नाटक उतरी गुजरात में खेला जाता है। यह विशुद्ध धार्मिक नाटक है जो अम्बा देवी माता के स्थान के आस-पास या उसके सम्मुख ही प्रस्तुत किया जाता है। इसमें तीन मुख्य पात्र होते हैं- नायक, रंगलो और रंगली। नायक नाटक का सूत्रधार है या उसे प्रबंधक भी कह सकते हैं। नायक एक गायक, कथा वर्णनकर्ता अथवा वाचय की भूमिका एक साथ निभाता है। रंगलो (विदूषक) मसखरा की भूमिका में होता है तथा रंगली का काम होता है रंगलों का उसकी बातों में साथ देना तथा ये नजर रखना कि कहीं वो अपनी पटरी से उतर तो नहीं रहा है या भटक तो नहीं रहा है। रंगलो अपने व्यंगात्मक अंदाज में अनेक सामाजिक और राजनैतिक बुराइयों का खुलासा कर लोगों को जागरूक बनाता है। भवई में स्वतंत्रता पूर्वक एक साथ कई विधाओं-संवाद, एकल या सामूहिक नृत्य, गीत, माइम, जादुई तरीके, दोहा, चैपाई और गरबा का प्रयोग कर लिया जाता है। केतन मेहता की एक फिल्म भी है भवनी भवई, जिसमें इस लोक नाटक को सिनेमाई भाषा में ज्यों का त्यों रूपांतरित किया गया है।

नुक्कड़ नाटक- नुक्कड़ नाटकों का जन्म अधिक पुराना नहीं है। दरअसल, बीसवीं सदी में अनेक जनसंगठनों ने लोक कलाओं की मदद लेकर नुक्कड़ नाटकों को लोकप्रिय बनाया। इन संस्थाओं में इप्टा का नाम प्रमुख है। नुक्कड़ नाटक मूल रूप से संस्थागत नाटकों के खिलाफ एक विद्रोह कहा जा सकता है। इप्टा नाटक को संभ्रांत लोगों के मनोरंजन का साधन की बजाए आम लोगों की समस्याओं के खिलाफ लड़ाई लड़ने के औजार के रूप में देखता था। इप्टा ने नुक्कड़ नाटक के जरिये गावों में आम लोगों को विभिन्न मसलों पर जागरूक बनाया है।

लोक गीत – भारतीय समाज में जीवन के हर मौके के लिए गीत मौजूद है। जन्म, विवाह से लेकर मृत्यु के भी गीत गाये जाते हैं। ये लोक गीत ना केवल खुशियां और गम मनाने का साधन हैं बल्कि इनके जरिये भारतीय समाज अपनी संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रवाहित करता है। विवाह के अनेक गीतों में युवा लड़के-लड़कियों को वैवाहिक जीवन के लिए अनेक सीख दी जाती है।

लोक कथा और लोक गाथा- कथा कहने और प्रवचन देने की भारत में लंबी परंपरा है। जो आज भी बड़े-बड़े गुरूओं के रूप में जारी हैं। आल्हा-उदल के किस्से हों या फिर भागवत कथा आज भी खुशी के मौकों पर लोग अपने घरों में कथा वाचन के लिए ज्ञानियों को बुलाते हैं और अनेक दिनों तक बैठकर कथा सुनते हैं। ये वाचिक परंपरा है।

कीर्तन- गांधी जी ने कीर्तन जैसे परंपरागत माध्यम का अंग्रेजों के खिलाफ बखूबी इस्तेमाल किया था। भक्ति आंदोलन में अधिकांश संतों ने भी आम लोगों को कीर्तन में लगाया था। इसके जरिये ना केवल सामाजिक संगत होती थी बल्कि गीतों और भजनों की मदद से अनेक धार्मिक-सामाजिक संदेश प्रचारित किये जाते थे। आजादी आंदोलन में भी कीर्तन का खूब प्रयोग किया गया है।

लोक कला – सभी प्रकार की लोक चित्रकला इस श्रेणी में आती हैं। ग्रामीण समाज में महिलाएं घरों को लीपपोत कर सजाती हैं। बिहार की मधुबनी पेंटिंग इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। वहां महिलाएं घरों की दीवारों पर ये चित्रकारी करती हैं। हरियाणा में गोबर से सांझी का निर्माण भी लोक कला का एक उदाहरण है। राजस्थानी महिलाएं अपने घरों के बाहर विशेष प्रकार की सजावट करती हैं। इन सबके अलावा भी ग्रामीण जीवन में लकड़ी, कपड़े, लोहे और मिट्टी के सामान में जुलाहे, कुम्हार, खाती, सुनार आदि सभी लोग सदियों से ना केवल कलात्मकता को बचाये हुए हैं बल्कि वे कला असली सृजक और उपासक हैं।

परंपरागत संचार की विशेषताएं

  • परंपरागत संचार की सभी विधाएं सामाजिक परंपराओं में इस तरह से गुंथी हुई हैं कि उनका होना स्वयं में कोई विशेष आयोजन ना होकर एक सहज सामाजिक प्रक्रिया सा होता है। इसी कारण उसकी स्थिति समाज में सहज, स्वाभाविक विश्वसनीय और स्वीकार्य होती है।
  • परंपरागत संचार में प्रयोग होने वाली भाषा, जिसमें सभी प्रतीक और चिन्ह भी शामिल हैं, इतनी सरल और ग्राह्य होती है कि आम लोगों को उन्हें समझने में आसानी होती है। भाषा की ये सरलता परंपरागत माध्यमों को आधुनिक माध्यमों की तुलना में अधिक प्रभावशाली बनती है।
  • परंपरागत संचार की कथा वस्तु भी परंपराओं के रूप में समाज में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही होती है। जिसमें कहानी, किस्से, चुटकले, गीत इत्यादि लोगों के जीवन से ही जन्म लेते हैं और उनसे जुडे़ होते हैं। इसकी मनोरंजक कथा वस्तु लोगों को अधिक प्रिय लगती है। उदाहरण के तौर पर रामलीला में रामायण की कहानी को मंचित किया जाता है। जिससे सभी परिचित हैं।
  • परंपरागत संचार में प्रयोग होने वाली सभी विधाओं की प्रस्तुति के लिए तैयारी अधिक नहीं करनी पड़ती। क्योंकि शास्त्रीय कलाओं की तरह लोक कलाएं अधिक नियमबद्ध या गूढ नहीं होती। बहुत कम खर्च और तैयारी के साथ ही लोक कलाओं को प्रस्तुत किया जा सकता है। तैयारी में इस्तेमाल किये जाने वाला साजो-सामान भी आसानी से उपलब्ध हो जाता है। परंपरागत संचार सस्ता और सुलभ है।
  • परंपरागत संचार बहुत ही लचीला है। परंपरागत संचार माध्यमों का उपयोग कहीं भी-कभी भी, किसी भी परिस्थिति में किया जा सकता है। जैसे कठपुतली कला और लोक संगीत कभी भी कम तैयारी में ग्रामीण परिवेश में भी आसानी से आयोजित किया जा सकता है।
  • भारत में आज भी बड़ी तादाद में लोग अनपढ़ और गरीब हैं। ये लोग गावों में रहते है और परंपराओं में जीते हैं। परंपरागत संचार इस पृष्ठभूमि में काफी प्रासंगिक और लाभकारी हैं।

परंपरागत संचार की सीमाएं
1. परंपरागत संचार की सबसे बड़ी कमजोरी इसका परंपराओं में जकड़ा होना है। परंपराएं नूतन परिवर्तनों को निरूत्साहित करती हैं। जिस कारण परंपरागत माध्यम बदलते समय के मुताबिक अपनी प्रासंगिकता बरकरार नहीं रख पाते।
2. परंपरागत संचार की विषय वस्तु सदियों पुरानी है। पीढ़ी दर पीढ़ी वही किस्से-कहानियां दोहराई जाती हैं। नवीनता के अभाव के कारण नौजवान पीढ़ी उससे मुख मोड़ लेती है।
3. परंपरागत संचार माध्यमों का स्वरूप अत्यधिक स्थानीय होने के कारण ये संचार सीमित समुदाय में तो प्रभावी रहता है। लेकिन व्यापक लोगों तक पहुंचने में परंपरागत संचार माध्यम नाकाफी साबित होते हैं।
4. परंपरागत संचार की अधिकांश विधाएं समाज के एक विशिष्ट समुदाय के लिए रोजी रोटी का एक जरिया हैं। इन लोगों की जीविका इन कलाओं पर निर्भर होती है। एक समय राजाओं और आम लोगों की सहायता से ये अपना गुजर-बसर कर लेते थे। लेकिन आधुनिक युग में मनोरंजन की अपार सुविधाएं उपलब्ध होने के कारण इन कला समुदायों को रोजी जुगाड़ कर पाना मुश्किल हो गया है। परंपरागत संचार माध्यम बदलते आर्थिक परिवेश में अलग-थलग पड़ गये हैं। इसलिए अनेक परंपरागत संचार के माध्यम तो मृत प्राय हो चुके हैं।

आधुनिक मीडिया का परंपरागत संचार पर प्रभाव
आधुनिक युग में फिल्में लोकप्रिय संस्कृति की सबसे बड़ी संवाहक बन गयी है। सभी प्रकार की कलाओं का संगम होने के कारण फिल्में समाज पर ना केवल चैतरफा असर डालती हैं बल्कि ये असर गहरा और दूरगामी भी होता है। इसके अलावा टेलीविजन, रेडियो और समाचार पत्र भी सांस्कृतिक बदलाव के सशक्त माध्यम बन गये हैं। आरंभिक दिनों में लोकप्रिय मीडिया विशेषकर फिल्मों ने लोक कलाओं से धुनें, गीत, नृत्य और कहानियां उधार लेकर काम चलाया। सत्तर के दशक तक फिल्म जगत में बड़ी तादाद में गांव-देहात से कलाकार काम की तलाश में गये और उन्हें विभिन्न रूपों में काम मिला भी। स्वाभाविक रूप से ये कलाकार अपने साथ वो कस्बाई और देहाती सांस्कृतिक परिवेश और परंपराएं भी लेकर गये जो उनके काम में झलकीं। भोजपुरी, अवधी, पंजाबी, पहाड़ी, बुंदेली, राजस्थानी संस्कृति लिये ये कलाकार फिल्मों में लंबे समय से काम कर रहे हैं। सत्तर के दशक तक ग्रामीण परंपरागत परिवेश की कहानियों पर फिल्में भी बनती थीं लेकिन अस्सी के दशक में ये सांस्कृतिक प्रवाह लगभग रूक सा गया है। अब फिल्में मेट्रो और विदेशी संस्कृति को अपना विषय अधिक बनाती हैं। उल्टा अब लोककलाएं फिल्म संस्कृति से प्रभावित और प्रेरित हो रही हैं। देशभर में लोक कलाकार फिल्मी धुनों पर लोकगीत गाने लगे हैं। इलैक्ट्रोनिक साजों का प्रयोग होने लगा है। लोक कलाओं में नवनिर्माण की प्रक्रिया मृतप्राय हो गयी है। वे फिल्म संस्कृति की भौंडी और घटिया नकल भर बन कर रह गयी हैं।
फिल्मी धुनें ही नहीं कलाकार पोशाक, नृत्य और भाव भंगिमाएं भी फिल्मों से उठा रहे हैं। दरअसल फिल्मों ने इतना प्रभाशाली माहौल बना दिया है कि वो एक स्टीरियो टाइप फैशन के रूप में हमारे सामने स्थापित हो गया है। जिससे लोक कलाओं का मर्म कहीं खो गया है। टेलीविजन पर प्रसारित सभी प्रकार के गीत, संगीत और नृत्य प्रतियोगिताएं दरअसल फिल्मी प्रतियोगिताएं बन गयी हैं। लोकगीतों और नृत्यों का जो रूप फिल्मों में दिखाया जाता है वही नयी पीढ़ी के लिए सांस्कृतिक सच बन गया है। दूसरी तरफ आधुनिक माध्यमों ने लोक कलाओं की रीढ़ की हड्डी यानी आर्थिक आधार को तोड़ दिया है। अब आम लोगों में टेलीविजन प्रमुख मनोरंजन का साधन बन चुका है। स्वाभाविक रूप से लोक कलाकारों की जीवंत प्रस्तुतियां देखने और उसके लिये धन राशि देने की जहमत कोई नहीं उठाना चाहता। नतीजन लोक कलाकार कला के सहारे अपनी रोजी-रोटी नहीं चला पा रहे। आर्थिक तंगहाली झेल रहे अधिकांश लोक कलाकारों की युवा पीढ़ी अब इन कलाओं को सीखने में विशेष रूचि नहीं दिखा ही हैं। जिससे कुछ कलाएं तो खत्म होने के कगार पर हैं।

विकास में परंपरागत संचार का योगदान
देश के विकास का अर्थ है बहुसंख्यक आबादी का चहुंमुखी विकास। देश की 70 फीसदी आबादी आज भी ग्रामीण है। परंपराओं और रीति रिवाजों में रचा-बसा देहाती समाज आज भी अपनी अलग दुनिया में जीता है। आधुनिक मीडिया अपने शानदार विस्तार के बावजूद इस परिवेश को भेद नहीं पाया है। छिटपुट ऊपरी प्रभाव के अलावा ग्रामीण सामाजिक तानाबान और मानसिकता परंपरागत ढ़र्रे से ही चल रही है। ऐसे माहौल में परंपरागत माध्यमों का महत्व अधिक बढ़ जाता है। प्रसिद्ध संचार विज्ञानी डेनियल लर्नर ने लंबे अध्ययन के बाद बताया था कि परंपरागत समाज बंद समाज होते हैं। नये विचारों को अकसर ये परंपरागत समाज आशंका की निगाह से देखते हैं। नये प्रयोगों की बजाए ये समाज परंपराओं पर अधिक भरोसा करते हैं। इन्हें आधुनिक बनाने के लिए जन माध्यमों का इस्तेमाल उपयोगी हो सकता है। यूनेस्कों के प्रयासों से आयोजित संचार विज्ञानियों के एक सम्मेलन में पहली बार विकास में परंपरागत संचार माध्यमों की उपयोगिता के बारे में गंभीरता से चिंतन किया गया। सन् 1974 में वल्र्ड पोपूलेशन कांफ्रेंस के तहत एक आयोजन बुखारेस्ट में किया गया। इसी क्रम में 1974 में दिल्ली में भी यूनेस्को ने एक सेमिनार का आयोजन किया जिसमें परिवार नियोजन को प्रभावी रूप से लागू करने में परंपरागत माध्यमों के इस्तेमाल पर चर्चा-विमर्श किया गया।

आजादी आंदोलन में सेनानियों ने लोकगीतों और नाटकों के माध्यम से लोगों को जागरूक बनाया था। आजादी के बाद विकास के जितने भी कार्यक्रम चलाये, सरकार ने विकास योजनाओं और अभियानों के प्रचार-प्रसार के लिये जन माध्यमों का सहारा लिया। विकास के संदेशों को फैलाने के लिए पंरपरागत संचार माध्यमों की भी मदद ली गयी। सरकार ने दृश्य-श्रव्य प्रचार निदेशालय और संगीत नाटक अकादमी का गठन किया। जिसने हरित क्रांति के संदेश को कठपुतली, लोकगीतों, और नाटकों के जरिये दूरदराज में फैलाया। छोटी बचत कने के संदेश को लेकर यूनियन बैंक आॅफ इंडिया ने कठपुतली शो आयोजित किये जिसका गावों मे काफी असर हुआ और किसानों ने बैंक में बचत करना आरंभ किया। देशभर में साक्षरता मिशन परंपरागत माध्यमों के बेहतर इस्तेमाल का एक शानदार उदाहरण है। पढ़ने-लिखने और स्कूल जाने के संदेशों को घर-घर तक ले जाने के लिए आम लोगों की जुबान में नारे, गीत, किस्से, कहानियां, सांग, रागणी बनायी गयी। नुक्कड़ नाटकों और नौटंकियों के जरिये ग्रामीणें के दिलों तक बात पहुंचाने की कोशिश की गयी।

वर्तमान में परंपरागत संचार की प्रासंगिकता
आधुनिक युग में भी परंपरागत संचार माध्यमों की प्रासंगिकता बरकरार है। ये तब तक बनी रहेगी जब तक परंपरागत देहाती समाज बचा रहता है। दुनियाभर में पोपूलर मीडिया लोकमाध्यमों को पूरी तरह खत्म कहीं भी नहीं कर पाये हैं। क्योंकि दोनों की उपयोगिता अलग-अलग है। लोकप्रिय माध्यम अपनी सामग्री में राष्ट्रीय हैं वहीं लोक माध्यम स्थानीयता लिये हुए हैं। जिस प्रकार भारतीय समाज में मल्टीप्लैक्स और हाट बाजार दोनों एक साथ मौजूद रहेंगे उसी प्रकार दोनों का अस्तित्व भविष्य में भी बना रहेगा। बल्कि रोचक बात तो ये है कि दोनों माध्यम एक दूसरे को कई मायने में मजबूत कर रहे हैं। संचार विज्ञानी अब इस बात पर आम राय बना चुके हैं कि भारतीय ग्रामीण परिवोश में प्रभावी संचार करना है तो आधुनिक जन संचार माध्यमों और लोक माध्यमों के एक रचनात्मक मेल को अपनाना होगा। जैसे लोग कथा सुनने में रस लेते हैं तो रेडियो जैसे माध्यम से कथा सुनाई जाए। जनसंचार माध्यम संदेश को व्यापक विस्तार देते हैं वहीं लोक माध्यम नये तरीके से संचार करने की दिशा प्रदान करते हैं। बदलती जरूरतों के हिसाब से लोक माध्यमों को नये विषय तलाशने होंगे। सदियों पुराने किस्से कहानियों के स्थान पर आज की बात करनी होगी। बेहतर होगा पुरानी कथा वस्तु को नये संदर्भों में पेश किया जाये। जनसंचार माध्यम की क्षमता किसी भी संदेश को हजारों गुणा फैला देने की है। आधुनिक जनसंचार माध्यमों और लोक माध्यमों में आदान-प्रदान स्वाभाविक और आवश्यक है लेकिन खतरा इस बात का है कि ये लेनदेन एकतरफा ना बने। इस गैरबराबरी के मेल में लोककला कुचली जायेगी।

आधुनिक युग में परंपरागत माध्यमों के उपयोग पर एक नजर डालें तो हम पाते हैं कि नयी तकनीक से मिलकर परंपरागत माध्यम और कलाएं निरंतर अपनी उपस्थिति महसूस करा रही है। लोक कथा और प्रवचनों के क्रम में आज भी मुरारी बापू आसाराम, राधा स्वामी जैसे अनेक आध्यात्मिक गुरू लोक प्रतीकों का सहारा लेकर ठेठ परंपरागत अंदाज में पौराणिक कहानियां सुनाते हैं। जिन्हें आम लोग बड़ी तादाद में घंटों सुनते हैं। यही नहीं धार्मिक गुरू इन प्रवचनों के वीडियो टेप का प्रसारण आस्था और जागरण जैसे टेलीविजन चैनलों पर करवाते हैं। भारतीय समाज में मेले आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाये हुए हैं बल्कि मेलों में लोगों की संख्या पहले से बढ़ी है। रामलीलाओं का आयोजन पहले से भव्य हुआ है। आधुनिक तकनीक की मदद से अब वो पहले से अधिक आकर्षक बन गयी है। अनेक कंपनियों ने लोक कलाकारों के गाये गीतों को ऑडियो टेप और सीडी के रूप में बाजार में उतार दिया है। आधुनिक फैशन में लोक प्रतीकों को अपना कर एक किस्म का एथनिक फ्यूजन बनाया जा रहा है।

परंपरागत संचार का भविष्य
पोपूलर मीडिया के प्रतिस्पर्धात्मक बाजार में लोक संचार निरंतर सिकुड़ता जा रहा है। बाजार की शक्तियों के आगे लोक कलाकार कमजोर पड़ते दिखाई दे रहे हैं। सदियों पुराने विषयों के सहारे लोक कलाएं अधिक दिनों तक अपनी प्रासंगिकता नहीं बना पायेगी। मौलिकता के अभाव और फिल्मों की घटिया नकल से आम लोगों का लोक कलाओं से मोहभंग होने लगा है। ऐसे में सरकारी मदद से लोक कलाओं को कुछ हद तक संरक्षित करने में मदद मिल सकती है। लेकिन बेहतर विकल्प ये होगा कि समाज के बदलते स्वाद और पसंद के मुताबिक लोक कलाओं को ढ़ाला जाये और उन्हें आधुनिक युग के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में मदद की जाये।

बेहतर भविष्य के लिए सुझाव

  • सरकार को परंपरागत संचार माध्यमों के संरक्षण के लिए सक्रिय हस्तक्षेप करना चाहिए। इसके लिए ऐसे परिवारों की आर्थिक मदद की जानी चाहिए जो सदियों से परंपरागत कलाओं को सहेज कर जिन्दा रखे हुए हैं।
  • परंपरागत संचार को शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाया और सीखाया जाना चाहिए। इससे एक तरफ लोककलाकारों को काम मिलेगा और दूसरी तरफ युवा पीढ़ी को परंपरागत कलाओं को सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा।
  • सरकार को परंपरागत कलाओं को बचाने के लिए इनके विशेष आयोजन करने चाहिए और लोक कलाकारों को सुविधाएं मुहैया कर उनकी कलाओं को परिमार्जित करने में मदद करनी चाहिए।
  • परंपरागत संचार और लोक माध्यमों के संरक्षण के लिए अधिकाधिक संग्रहालय बनाये जाने चाहिए। जहां न केवल दर्शकों के लिए लोक माध्यमों को देखने सुनने का मौका मिले, बल्कि लोक कलाकारों से भी मिलने का अवसर उपलब्ध हो सके।
  • सरकार को लोक कलाओं का विधिवत दस्तावेजीकरण (डॉक्यूमेंटेशन) करना चाहिए ताकि लुप्त होती कलाओं के कम-से-कम अवशेष तो बचाये जा सकें।
  • लोक कलाकारों द्वारा बनाई गयी कला वस्तुओं को उचित बाजार मुहैया कराये जाने चाहिएं।

डॉ. देवव्रत सिंह झारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।

Tags: Dr. Devvrat SinghJharkhand Central UniversityTraditional Mediaजनसंचार विभागझारखंड केन्द्रीय विश्वविद्यालयडॉ. देवव्रत सिंहपरंपरागत संचार
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