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आदिवासी क्षेत्र की समस्याएं और मीडिया

आदिवासी क्षेत्र की समस्याएं और मीडिया

स्वर्णताभ कुमार।

हजारों वर्षों से जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को हमेशा से दबाया और कुचला जाता रहा है जिससे उनकी जिन्दगी अभावग्रस्त ही रही है। इनका खुले मैदान के निवासियों और तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले लोगों से न के बराबर ही संपर्क रहा है। केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी 6-7 दशक में उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएं, पीने का साफ पानी आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं।

इन सभी बातों को जानने के बावजूद आदिवासियों की समस्या को तय कर पाना कतई आसान नहीं है। हर क्षेत्र की परिस्थितियां अलग-अलग हो सकती है, जैसे कि कई क्षेत्रों के आदिवासी बिना मूलभूत सुविधा के ही संतुष्ट हों तो कहीं इन सब की दरकार भी हो सकती है। कहने का अर्थ यह है कि समस्या अलग-अलग क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों की भिन्न-भिन्न हो सकती है। वैसे सामान्यतः ऐसा होता नहीं है क्योंकि आदिवासी समाज की अपनी एक पहचान है जिसमें उनके रहन-सहन, आचार-विचार एक जैसे ही होते हैं। इधर बाहरी प्रवेश, शिक्षा और संचार माध्यमों के कारण इस ढांचे में भी थोड़ा बदलाव जरूर आया है।

वैसे वर्षों से शोषित रहे इस समाज के लिए परिस्थितियां आज भी कष्टप्रद और समस्यायें बहुत अधिक हैं। ये समस्यायें प्राकृतिक तो होती ही है साथ ही यह मानवजनित भी होती है। विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों की समस्या थोड़ी बहुत अलग हो सकती है किन्तु बहुत हद तक यह एक समान ही होती है। आदिवासी क्षेत्रों की प्रमुख समस्यायें निम्न हैं-

1.ऋणग्रस्तता– आदिवासी लोग अपनी गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी तथा अपने दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण ऋण लेने को मजबूर होते हैं, जिसके कारण दूसरे लोग इनका फायदा उठाते हैं। आदिवासियों के लिए ऋणग्रस्तता की समस्या सबसे जटिल है जिसके कारण जनजातीय लोग साहूकारों के शोषण का शिकार होते हैं।

अपनी पुस्तक जनजातीय भारत में नदीम हसनैन बताते हैं कि किस तरह ठेकेदारों तथा अन्य लोगों से सीधे संपर्क के कारण उत्तरपूर्व के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर समस्त भारतीय जनजातीय जनसंख्या ऋण के बोझ से दबी हुई है। नृजातीय अध्ययनों तथा प्रमाणों से यह स्पष्ट पता चलता है कि ठेकेदारों तथा अन्य लोगों के द्वारा इनके क्षेत्रों में हस्तक्षेप से पूर्व ये जनजातियां इतनी दुर्बल, निर्धन तथा विवश नहीं थीं। ये लोग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थे। वन सम्पदा पर इनका अधिकार था। दुर्भाग्यवश जब आर्थिक विकास की योजनाओं के अंतर्गत जनजातीय क्षेत्रों में विकास की बयार आई तथा इनके क्षेत्र सभी प्रकार के लोगों के लिए खोल दिए गए, तो विकास का लाभ उठाने के लिए ये जनजातियां तैयार नहीं थीं। प्रशासन के संगठित प्रयास की अनुपस्थिति में बाहरी तथा तथाकथित सभ्य लोगों ने इन जनजातियों की संवेदनशीलता का भरपूर लाभ उठाया। समय के साथ-साथ ये जनजातियां कठिन स्थितियों में पहुंच गयीं। यद्यपि हमारे पास ऋणग्रस्तता से संबंधित वैज्ञानिक तरीकों से इकट्ठा किए गए आंकड़ें बहुत कम हैं फिर भी यह कहा जा सकता है कि यह समस्या गंभीर है।

2.भूमि हस्तांतरण- आदिवासी समाज मुख्य रूप से अपनी जीविका के लिए कृषि पर ही आश्रित होता है। आकड़ों के अनुसार लगभग 90प्रतिशतजनजातीय आबादी कृषक है। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों को अपनी भूमि से बहुत लगाव होता है। जबकि जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि की मांग में वृद्धि हुई है। साथ ही संचार व्यवस्था का विस्तार होने से समस्त जनजातीय क्षेत्र बाहरी लोगों के लिए खुल गया है। इससे भूमि हस्तांतरण जैसी समस्या बढ़ी है। बाहरी वर्ग के कारण भूमि अधिग्रहण काफी हुआ है। मेरे एमफिल शोध के दौरान मेरा अध्ययन क्षेत्र बिहार काअधौराप्रखंड था हम उसकी बात करें तो यहां बाहरी लोग काफी संख्या में आये और उन्होंने आदिवासियों से सस्ते दामों पर जमीन खरीदा और यहीं बस गए। आदिवासियों की जमीन पर अब वह खुद मकान बना कर रह रहे हैं, कृषि के साथ-साथ वह यहाँ व्यवसाय भी कर रहे हैं। भूमि हस्तांतरण एक मुख्य कारण है जिससे आज उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय हुई है। जब से ये जनजातियां मुख्य धारा और इनकी वित्त संस्थाओं के सम्पर्क में आयीं, धन की कमी के कारण उनकी भूमि का हस्तांतरण बढ़ता गया। सीमित संसाधनों में रहने वाले आदिवासियों को आज विवाह, उत्सवों, कपड़ों, मदिरा तथा अन्य आवश्यकताओं के लिए सदैव धन की आवश्यकता रहने लगी है। साथ ही कृषि भूमि भी कम उपज वाली होने के कारण इन्हें खाने की सामग्री भी बाजार से खरीदनी पड़ती है। यहां देखने वाली बात यह है कि पैसों के अभाव में ये साहूकारों और दुकानदारों से ऋण लेते हैं और बाद में वही कर्ज चुकता नहीं कर पाने के कारण उन्हें अपनी भूमि से हाथ धोना पड़ता है, यही वजह है कि भूमि हस्तांतरण का एक मुख्य कारण ऋण भी है।

3.गरीबी- निश्चित रूप से कहीं न कहीं आदिवासी समस्याओं का महत्वपूर्ण तत्व गरीबी से जुड़ा है। ऋणग्रस्तता हो या भूमि हस्तांतरण सभी के पीछे गरीबी ही मुख्य कारक है। पूरे भारत के लिए गरीबी एक अभिशाप है, हमारे यहां गरीबी का स्तर यह है कि बहुत से लोगों को बमुश्किल एक वक्त का ही भोजन नसीब हो पाता है। यह हालात अनुसूचित जनजातियों के लिए और भी सोचनीय है।

गरीबी की इस स्थिति के लिए बहुत से कारण जिम्मेदार हैं जिसमें आदिवासी तो हैं ही पर देश के सामाजिक और राजनीतिक हालात उससे कहीं ज्यादा इसके लिए दोषी हैं। देश में ‘गरीबी हटाओ’ जैसे कार्यक्रम भी बने, मगर उसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पाया। राज्य सरकार ने भी गरीबी कम करने के लिए भूमि सुधार, कृषिगत आय और अधिक्य का पुनः वितरण और रोजगार बढ़ाने की दृष्टि से शिक्षा सम्बन्धी कई योजनाएं चलाई किन्तु उसे भी पूर्ण रूप नहीं दिया जा सका। साथ ही आदिवासियों से जंगलों के वन-उत्पाद संबंधित उनके परम्परागत अधिकार पूरी तरह से छिन लिए गए। जनजातियों की अच्छी उपजाऊ जमीनें बाहरी लोगों के हाथ में चली गई। सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी दर उन्हें मजदूरी करने के बाद भी प्राप्त नहीं हो पाती है, जिससे उनकी गरीबी कम होने की जगह बढ़ी ही है।

4.बेरोजगारी- आदिवासी हमेशा से दूर-दराज के क्षेत्रों में मुख्य धारा के लोगों से दूर रहे हैं, किन्तु इधर बाहरी लोगों के प्रवेश के कारण आज उनकी उपजाऊ जमीन खुद उनकी नहीं रही। साथ ही जंगलों पर अपना अधिकार समझने वाले आदिवासियों का इनपर भी अब कोई अधिकार नहीं रहा। अशिक्षित और कम शिक्षित होने के कारण इनके रोजगार के साधन भी सीमित ही है। कल तक कृषि को मुख्य पेशा बनाने वाले यह लोग अब मजदूरी करने को मजबूर हैं। सरकार के द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए जवाहर रोजगार योजना जैसी रोजगार की योजना चलाई जा रही है, किन्तु वह भी अपर्याप्त है। रोजी-रोटी कमाने के कम साधन के कारण इनमें असंतोष का भाव पैदा हो रहा है।

5.स्वास्थ्य- आदिवासियों की एक समस्या स्वास्थ्य भी है। आम तौर पर उनका स्वास्थ्य बढ़िया होता है पर कम पढ़े-लिखे होने के कारण और जागरूकता के आभाव में अक्सर आदिवासी अपने स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान नहीं दे पाते हैं। साथ ही दूर-दराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधा की कमी के कारण उनको काफी असुविधा का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी तो हालात काफी मुश्किल हो जाते हैं और तब अस्पताल के अभाव में इनके जीवन-मृत्यु तक बात पहुंच जाती है।

सरकार स्वास्थ्य तथा चिकित्सा की दिशा में अधिक से अधिक सुविधायें प्रदान करने की इच्छुक है किन्तु यह भी एक सच्चाई है कि अधौरा में जिस जमीन को अस्पताल के लिए आवंटित किया गया था उसपर आज तक अस्पताल नहीं बन पाया और सालों से उस जमीन पर सीआरपीएफ का कैम्प लगा हुआ है। इसके विरोध में आदिवासियों और कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हाल ही में आंदोलन भी किया मगर इसका कुछ भी फायदा होता नहीं दिख रहा है। साथ ही अधौराप्रखंड की ही बात करें तो वहां के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र देवरी गांव में एक उप स्वास्थ्य केंद्र है जो नाम मात्र का है, वहीं भडेहरा गांव में तो नाम मात्र का भी कोई स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है।

6.मदिरापान- आदिवासियों में मदिरापान काफी लोकप्रिय है। चाहे वह अपने प्रमुख पेशे के रूप में हो या सेवन के लिए। अधिकांशतः आदिवासी मदिरा का निर्माण स्वयं करते हैं। मदिरा बनाने के लिए वह महुए के फल को इस्तेमाल में लाते हैं। मदिरापान सदियों से उनकी सामाजिक परम्परा का भाग रहा है। आदिवासी महुए के अलावा बाजरे और चावल से भी मदिरा का निर्माण करते हैं।

आदिवासियों के पास अपनी बनाई मदिरा पर्याप्त मात्रा में होने के बावजूद सरकार द्वारा लाइसेंस प्राप्त ठेकेदारों द्वारा बाहरी मदिरा के विक्रय ने आदिवासियों को बहुत सी समस्याओं में उलझा दिया है। मदिरा एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा बाहरी असामाजिक तत्व इन पिछड़े समुदायों के बीच पहुंचकर आपत्तिजनक कार्य करते हैं। साथ ही इसके लत में पड़कर आदिवासी अपने को आर्थिक रूप से और भी कमजोर करते हैं।

7.शिक्षा- शिक्षा मानव के विकास में सहायक होता है। आदिवासी समाज का शिक्षित न होना बहुत बड़ी समस्या है। आदिवासी समाज का शिक्षा से कम सरोकार होना उनके कई समस्या से जुड़ा हुआ है। ऋणग्रस्तता, भूमि हस्तांतरण, गरीबी, बेरोजगारी, स्वास्थ्य आदि कई समस्यायें हैं जो शिक्षा से प्रभावित होती हैं। जनजातीय समूहों पर औपचारिक शिक्षा का प्रभाव बहुत कम पड़ा है। इधर शिक्षा से जुड़ी कई योजनायें हैं जिनमें से कुछ केंद्र सरकार ने सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर ही केंद्रित रखा है। 1950 से पहले जनजातीय लोगों को शिक्षित करने के लिए भारत सरकार की कोई भी प्रत्यक्ष योजना नहीं थी। संविधान के प्रभावी होने के पश्चात अनुसूचित जनजाति के लोगों के शिक्षा स्तर में वृद्धि करना केन्द्र तथा राज्य सरकारों का उत्तरदायित्व हो गया है।जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 1991 के जनगणना में भारत के अनुसूचित जनजातियों की साक्षरता दर 29.6 प्रतिशत थी जो वर्ष 2001 में बढ़ कर 47.1 प्रतिशत हो गई।

सरकार के इस पक्ष के अलावा भी कुछ दूसरे पक्ष हैं जिस पर सरकार को सोचने की बहुत जरूरत है जिसे रमणिका गुप्ता ने अपनी पुस्तक आदिवासी कौन में उभारा है। उन्होंने इस ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की है कि, पूर्वोतर के राज्यों को छोड़ कर अभी तक पश्चिम बंगाल के अलावा किसी भी अन्य प्रदेश में आदिवासियों को उनकी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा नहीं दी जाती है। ऐसे में यह समाज कैसे विकसित होगा जिसे अपनी मातृभाषा से ही दूर रखा गया हो। अगर हम बिहार की बात करें तो राज्य सरकार ने, जिसमें झारखंड भी शामिल था, बरसों पहले आदिवासियों को मातृभाषा में पढ़ाने का कानून बना दिया था। राजनीतिक स्वार्थवश इस पर आगे कार्य नहीं हो सका और आज झारखंड के अलग होने के बाद भी प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने का प्रावधान लागू नहीं हुआ है।

ऐसी स्थिति में जनजातीय लोग देश के अन्य लोगों से बहुत पीछे रह जाते हैं। हमें इस स्थिति का विश्लेषण करना चाहिए। शिक्षा प्राप्त कर लेना ही विकास का प्रभावी मापदंड नहीं होना चाहिए।

8.संचार- सदियों से आदिवासी समाज के लोग घने जंगलों और दूरवर्ती क्षेत्रों में रहते आए हैं, जहां आम लोगों का पहुंचना बहुत ही मुश्किल होता है। यही कारण है कि वहां संचार माध्यम की कमी है। आज के परिवेश में ये मानी हुई बात है कि किसी भी क्षेत्र के विकास में संचार व्यवस्था का होना अत्यंत आवश्यक है। आज जिस समाज में टेलीविजन, समाचारपत्र, रेडियो तथा टेलीफोन जैसे संचार माध्यम का अभाव हो वहां का विकास स्वतः ही धीमा पड़ जाता है। यहां कमी सरकार के प्रयास की भी है जिन्होंने इन बातों पर प्रभावी ढंग से विचार नहीं किया। हांलाकि इधर कुछ सालों से आदिवासी क्षेत्रों में संचार माध्यमों का विकास बहुत तेजी से हुआ है, किन्तु वह पर्याप्त नहीं है। अगर मैं अपने एमफिल ले दौरान अध्ययन क्षेत्र की बात करूं तो देवरी और भडेहरा गांव में जहां बिजली ही नहीं है वहां हम टेलीविजन की कल्पना कैसे करें? वही हाल समाचारपत्रों के मामले में है।जहां पूरे गांव में मात्र दो ही समाचारपत्र आते हैं, वहां की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है! कारण शिक्षा और जागरूकता की कमी है। यहां रेडियो तो है पर उन्हें समाचारों से कोई मतलब ही नहीं है। टेलीफोन और मोबाइल की तो बात ही करनी बेईमानी है, जहां खाना ही काफी मुश्किल से मिल पाता हो वहां कोई मोबाइल रखे तो कैसे?

आज हम भले ही कितना भी क्यों न कह लें कि आदिवासी क्षेत्रों में संचार माध्यमों का विकास बहुत तेजी से हुआ है, किन्तु हकीकत है कि मेरे अध्ययन क्षेत्र में संचार माध्यमों का विकास कुछ ही प्रतिशत तक सीमित है और उसकी भी क्या सार्थकता है यह हमें समझने की जरूरत है। जनजातियों के लिए सड़कें सबसे महत्वपूर्ण साधन हैं पर इसी के बन जाने मात्र से ही विकास संभव नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह संचार माध्यम से होने वाले विकास के प्रति आदिवासियों को जागरूक करें और साथ ही इसके विपरीत पड़ने वाले प्रभाव के प्रति भी उन्हें सचेत रखें।

इसके अलावा भी आदिवासी समाज की कई समस्यायें हैं जो उनके अस्तित्व और उनकी पहचान के लिए खतरनाक है। आज बड़े ही सूक्ष्म तरीके से इनकी पहचान मिटाने की राजनीतिक साजिश चल रही है। इस ओर ध्यान दिलाते हुए रमणिका गुप्ता अपनी पुस्तक आदिवासी कौन में लिखती हैं कि- 2001 की जनगणना में छोटानागपुर में आदिवासी लोहरा को लोहार लिखकर, बड़ाइक को बढ़ई लिखकर गैर–आदिवासी बना दिया गया है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी विमुक्त, भटकी बंजारा जातियों की जनगणना नहीं की जाती है। तर्क यह दिया जाता है कि वे सदैव एक स्थान पर नहीं रहते। इतना ही नहीं हजारों आदिवासी दिल्ली या अन्य जगहों पर रोजगार के लिए बरसों से आते-जाते हैं पर उनका आंकड़ा भी जनगणना में शामिल नहीं किया जाता है, न ही उनके राशन कार्ड बनते हैं और न ही वे कहीं के वोटर होते हैं। अर्थात इन्हें भारतीय नागरिकता से भी वंचित रखा जाता है। आदिवासियों की जमीन तो छीनी ही गई उनके जंगल के अधिकार भी छिन गए। अब गैर आदिवासी लोगों के बसने के कारण उनकी भाषा भी छिन रही है क्योंकि उनकी भाषा समझने वाला अब कोई नहीं है। जिन लोगों की भाषा छिन जाती है उनकी संस्कृति भी नहीं बच पाती। उनके नृत्य को अन्य लोगों द्वारा अजीब नजरों से देखे जाते हैं इसलिए वे भी सीमित होते जा रहे हैं। जहां उनका ‘सरना’ नहीं है वहां उनपर नए-नए भगवान थोपे जा रहे हैं। उनकी संस्कृति या तो हड़पी जा रही है या मिटाई जा रही है। हर धर्म अपना-अपना भगवान उन्हें थमाने को आतुर है। हिंदुत्ववादी लोग उन्हें मूलधारा यानी हिंदुत्व की विकृतियों और संकीर्णताओं से जोड़ने पर तुले हैं और उनको रोजी-रोटी के मुद्दे से ध्यान हटा कर अलगाव की ओर धकेला जा रहा है।

मेरी नजर में स्थानीय ताक़तें उनकी दुर्दशा के लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं। आदिवासियों की ऐसी स्थिति तब है जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासी को भारत का मूल निवासी माना है लेकिन आज वे अपने ही देश में परायापन, तिरस्कार, शोषण, अत्याचार, धर्मान्तरण, अशिक्षा, साम्प्रदायिकता और सामाजिक एवं प्रशासनिक दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं। आदिवासी वर्ग की मानवीय गरिमा को प्रतिदिन तार-तार किया जा रहा है। इसके उपरान्त भी आदिवासी वर्ग की चुप्पी को नजरअन्दाज करने वाली अफसरशाही और राजनीतिक जमात को आदिवासियों के आहत-अन्तरमन में सुलग रहा गुस्सा तथा आक्रोश दिखाई नहीं पड़ रहा है। मीडिया भी इस पर बहुत ज्यादा वाचक की भूमिका में नहीं है। कभी-कभी खानापूर्ति के लिए मीडिया में इन समस्याओं को जरूर उठा दिया जाता है किन्तु आमतौर पर जनांदोलन को दिशा देने वाली मीडिया इसपर चादर ढकने का ही काम करती है।

मीडिया को आज और भी ज्यादा प्रखर होने की आवश्यकता है। उसे यह अकाट्य सत्य पता है कि भारत की एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। उस आबादी को दो जून का सन्तुलित भोजन भी उपलब्ध नहीं है, खासकर यह स्थिति आदिवासी इलाकों में और भी भयभीत करती है। हमने ऊपर जिन समस्याओं पर बात की है जिनमें ऋणग्रस्तता, भूमि हस्तांतरण, स्वास्थ्य आदि जैसी समस्याएं हैं उनके मूल में आदिवासी समाज की एक और समस्या गरीबी ही है जो सही अर्थों में बेरोजगारी से जुड़ा हुआ है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि देश के सामने सबसे बड़ी समस्या गरीबी व बेरेाजगारी है। अगर समय रहते इसका समाधान नहीं हुआ तो विकास की सारी उपलब्धियां बेकार साबित होंगी। यह समस्या जितनी सरकार के लिए महत्वपूर्ण है उतनी ही यह मीडिया के लिए भी है। गरीबी और बेरोजगारी किसी विशेष समाज तक ही सीमित नहीं रह सकती बल्कि यह पूरे देश से जुड़ा मसला है। इस समस्या के साथ सामाजिक-आर्थिक विकास के सारे महत्वपूर्ण सवाल जुड़े हुए हैं। इसके प्रति मीडिया को गंभीर होने की जरूरत है साथ ही इन समस्याओं को उठाने और इसका बेबाक विश्लेषण इस तरह से करना चाहिए कि जनता इसके मर्म को आसानी से समझ सके।

सवाल यहां कई हैं किन्तु सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि मीडिया में आदिवासी समाज या ग्रामीण इलाकों की समस्याओं को कितनी जगह मिल पाती है? मीडिया लोगों तक पहुंचने और उनके विकास के लिए काफी प्रभावशाली माध्यम माना जाता है। मीडिया ने ग्रामीण और कृषि क्षेत्रों के विकास में आजादी से पूर्व और बाद में बहुत बढ़िया कार्य किया है किन्तु आज के समय में मीडिया को भी बाजारवाद के चलन ने प्रभावित किया है। समाचारों में आज गांवों और आदिवासी समाज की खबरें नगण्य रहती है। सुधीश पचौरी ने अपनी पुस्तक भूमंडलीय समय और मीडिया में अपने एक लेख अहा ग्राम जीवन तू कहाँ में इस बात का उल्लेख किया है कि मीडिया में बाजारवाद का भी बहुत असर हुआ है। आज हमारे यहां सौ से भी ज्यादा समाचार चैनल हैं मगर ग्रामीण खबर दिखाने वाले एक-दो ही हैं । जबकि भारत में टी.वी. शुरू हुआ तो उसका एकल लक्ष्य ग्रामीण जीवन को संबोधित करना था। अब समाचार पत्र, रेडियो और टी.वी. में गांव का जिक्र हत्या या अपराध के लिए ही आता है।

वहीं रमणिका गुप्ता से लिए गए साक्षात्कार में जब मैंने यह प्रश्न किया कि आदिवासियों की समस्याओं को मीडिया क्यों नहीं प्रस्तुत करता तो उसके जवाब में उन्होंने कहा की मीडिया में आदिवासियों पर खबरें आनी अब तो शुरू ही हुई हैं, पहले तो खबरें आती ही नहीं थीं, उस समय मीडिया जंगलों में जाता ही नहीं था। आज मीडिया खबर प्रधान हुआ है, वह लालायित रहता है कि कोई सनसनीखेज खबर मिले तो उसकी टीआरपी बढ़े। उनके अनुसार बिहार में विस्थापन को लेकर उन्होंने 1980 में जब आंदोलन किया तो दो हजार लोगों को तीन दिनों तक जेल में बंद रखा गया और मीडिया में कोई खबर तक नहीं आई। बाद में दिल्ली के एक पत्रकार के कहने पर कलकत्ता से अमृत बाजारसमाचार पत्र के रिपोर्टर ने आकर जानकारी हासिल की और तब इसपर खबर छपी और फिर दूसरे समाचार पत्रों ने भी खबरें छापी मगर स्थानीय समाचार पत्र इस पर चुप ही रहे। उन्होंने साथ में यह भी कहा कि कुछ हद तक प्रभात खबर ही इस पर कुछ संजीदा है जो आदिवासी समस्या और आदिवासी इलाके की घटनाओं पर खबरें छापता है।

मीडिया आज बाजारवाद के प्रभाव में है, जहां टीआरपी को सबसे ज्यादाप्राथमिकता दी जाती है। सरकारी मीडिया की बात करें तो आकाशवाणी और दूरदर्शन की भूमिका अन्य के मुकाबले कुछ अलग है। पिछले दशक में दूरदर्शन का तेजी से प्रसार हुआ है फिर जितना व्यापक क्षेत्र आकाशवाणी का है उतना किसी माध्यम का नहीं है। आकाशवाणी ने व्यापक स्तर पर सामाजिक और आर्थिक विकास की दिशा में योगदान दिया है जिसमें आदिवासी मुद्दों से जुड़े कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते रहे हैं और इस समाज की समस्याओं को भी उठाया गया है। आकाशवाणी में गरीबी उन्मूलन, लिंग समानता, शुद्ध पेयजल, परिवार नियेाजन आदि जैसे सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण खबरों को विशेष रूप से समय दिया जाता है। आकाशवाणी ने समाचार पत्रों से कहीं अधिक ध्यान कृषि क्षेत्रों पर दिया है जहां कई बार ऐसी महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करायी जाती है जो पढ़े लिखे किसानों के साथ-साथ अन्य किसानों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हो, पर इसके लिए जरूरी है कि वह इन खबरों पर ध्यान दें और इसलिए उन्हें जागरूक करने का कार्य भी सरकार और मीडिया के द्वारा ही किया जाना चाहिए।

इसके लिए आकाशवाणी ही सबसे बेहतर विकल्प है क्योंकि टेलीविजन सशक्त माध्यम तो है मगर भारत जैसे देश में आज भी अधिकांश आदिवासी इलाकों में बिजली नहीं है। समाचार पत्रों को पढ़ने के लिए उसकी उपलब्धता और लोगों का शिक्षित होना जरूरी है। कुछ वर्षों में रेडियो के क्षेत्र में निजी एफएम चैनलों का विस्तार हुआ है। इनका अपना श्रोता वर्ग है, जो शहरों में रहता है। इन एफएम चैनलों के दायरे में ग्रामीण आबादी नहीं आती। ऐसे में देश की वह अधिकांश जनसंख्या जो गांवों में रहती है उसकी सूचना को लेकर निर्भरता आकाशवाणी पर बढ़ जाती है।

इस मामले में उदाहरण के तौर पर बताऊँ तो आकाशवाणी के सासाराम केंद्र की भूमिका प्रशंसनीय रही है। मेरे अध्ययन क्षेत्र अधौराप्रखंड पर आकाशवाणी सासाराम ने बेहतरीन कार्य किया है। आकाशवाणी के इस केन्द्र ने अधौराप्रखंड के कई आदिवासी गांवों में लोगों के बीच और उनकी भागीदारी से चौपाल आयोजित करवाया। यह कार्यक्रम जिसका नाम “आकाशवाणी गांव में” है आदिवासी समस्या को लेकर बनाया गया है, जिसमें कृषि से संबंधित, पेय जल, स्वास्थ्य आदि से जुड़ी समस्याओं को उठाया गया और गांव के लोगों से इस पर बातचीत की गई। इसका असर यह हुआ कि लोगों ने अपनी आवाज सुनने के लिए रेडियो खरीदा, आकाशवाणी पर आने वाले कार्यक्रम को सुनना शुरू किया। उन्हें यह नहीं बताया गया कि इस कार्यक्रम को कब प्रसारित किया जायेगा, जिसके कारण लोगों में रेडियो सुनने की आदत विकसित हुई। साथ ही इससे सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि लोग जागरूक हुए, साथ ही अधौरा में स्थित कृषि विज्ञान केंद्र से भी जुड़े, जहां से उन्हें कृषि से संबंधित समस्याओं के हल आसानी से मिल सका।

वहीं आकाशवाणी रांची से आदिवासियों पर केंद्रित बीस मिनट का कार्यक्रम आदिवासी अखाड़ा भी लगातार झारखण्ड के बनने के बाद से आज तक प्रसारित किया जा रहा है, जिसे अधौराप्रखंड में भी खासतौर पर सुना जाता है। इसकी सबसे बड़ी खासियत है कि सोमवार से शुक्रवार पांच दिन अलग-अलग आदिवासी भाषा में यह प्रसारित किया जाता है। सोमवार को ओरांव, मंगलवार को अगडिया, बुधवार को निंदारी, गुरूवार को संथाली और शुक्रवार को हो भाषा में इस कार्यक्रम को प्रसारित किया जाता है। साथ ही यह आदिवासियों से जुड़ी समसामयिक, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे को उठाता है, किसी खास राष्ट्रीय मुद्दा होने पर इसका विषय भले ही परवर्तित हो जाए किन्तु आदिवासी भाषा में ही इसका प्रसारण होता है। आदिवासी अखाड़ा पूर्णतः आदिवासियों पर ही केंद्रित कार्यक्रम प्रस्तुत करता है।

वहीं हम प्रिंट मीडिया की बात करें तो आदिवासियों से संबंधित खबरें न के बराबर ही आती हैं। कुछ दिन पहले अधौराप्रखंड में सामाजिक सरोकार से जुड़ी बहुत बड़ी घटना में मीडिया का मौन रहना क्षुब्ध करता है। दरअसल बात अधौराप्रखंड के गांव भुडली की है जिसे विस्थापित गांव की संज्ञा दी गई है। वहां स्थित कर्मनाशा नदी पर कर्मचट बांध का निर्माण किया जा रहा था जिसके कारण भुडली गांव में स्थित 60 घरों के कुल 379 चेरो जाति के लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। वर्षों से रह रहे लोगों को अपना घर-बार, अपनी जमीन छोड़कर रामपुरप्रखंड में मजबूरन आना पड़ा, पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनको मिलने वाली सुविधा न तो उन्हें रामपुरप्रखंड से ही मिल पा रही है और न ही अधौराप्रखंड से। अधौराप्रखंड के रिकॉर्ड बुक से उनका नाम हटा दिया गया है तो रामपुरप्रखंड में उनका नाम अरसे तक जोड़ा नहीं गया था। ये हताश करने वाली बात है कि इतनी बड़ी घटना पर भी सिर्फ प्रभात खबर ने ही अपने समाचार पत्र में इसे प्रकाशित किया। यह मीडिया के नैतिक गिरावट को ही दर्शाता है।

में यहां यह तय करने कि आवश्यकता है कि आदिवासी समाज के विकास में मीडिया की भूमिका क्या होनी चाहिए? यह भी सत्य है कि आज के समय में हम मीडिया की भूमिका और उसके प्रभाव को नकार नहीं सकते। मीडिया का प्रभाव हर जगह किसी न किसी रूप में पड़ता ही है। मीडिया द्वारा विकास प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आदिवासी समाज पर भी पड़ता है।

आवश्यकता इस बात की है कि मानसिक स्थिति के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक दशा के संबंध में भरपूर जानकारी प्राप्त किये बिना विकास के कदम को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए। इस दायित्व को मीडिया के माध्यम से ही पूरा किया जा सकता है। पत्र पत्रिकाओं सम्पादक, संवाददाता वैसे अविकसित क्षेत्रों में जाये जहां विकास की शुरूआत ही नहीं हुई है अथवा अभी-अभी शुरू हुई है और वहां के सभी पक्षों का अध्ययन करके समाज और सरकार को बतायें कि वहां के लोगों की मूलभूत आवश्यकताएं क्या हैं? विकास कैसे किया जा सकता है।

Tags: JournalismmediaSwarntabh KumarTribal Communities and Mediaआदिवासीमीडियासमस्याएंस्वर्णताभ कुमार
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