About
Editorial Board
Contact Us
Saturday, April 1, 2023
NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India
No Result
View All Result
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal
No Result
View All Result
NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India
Home Journalism

वास्‍तविक खतरे के आभासी औजार

वास्‍तविक खतरे के आभासी औजार

अभिषेक श्रीवास्‍तव।

”मेरे ख्‍याल से हमारे लिए ट्विटर की कामयाबी इसमें है, जब लोग इसके बारे में बात करना बन्‍द कर दें, जब हम ऐसी परिचर्चाएं करना बन्‍द करें और लोग इसका इस्‍तेमाल सिर्फ एक उपयोगितावादी औजार के रूप में करने लगें, जैसे वे बिजली का उपयोग करते हैं। जब वह सिर्फ संचार का एक हिस्‍सा बनकर रह जाए और खुद पृष्‍ठभूमि में चला जाए। किसी भी संचार उपकरण की तरह हम इसे भी उसी स्‍तर पर रखते हैं। यही बात एसएमएस, ईमेल, फोन के साथ भी है। हम वहां पहुंचना चाहते हैं।”
-जैक डोर्सी, सह-संस्‍थापक और कार्यकारी,
ट्विटर, फ्यूचर ऑफ मीडिया, न्‍यूयॉर्क, 2009

दिल्‍ली में विधानसभा चुनाव से एक पखवाड़े पहले 22 जनवरी, 2015 की रात समाचार चैनल न्‍यूज 24 पर एक परिचर्चा चल रही थी। परिचर्चा में आम आदमी पार्टी के नेता और पूर्व पत्रकार आशीष खेतान द्वारा कुछ देर पहले किए गए एक ट्वीट पर बहस हो रही थी जिसमें उन्‍होनें अपनी पार्टी के प्रमुख और मुख्‍यमंत्री पद के दावेदार अरविंद केजरीवाल की हत्‍या के खतरे की आशंका जतायी थी। पैनल में बैठे सत्‍ताधारी भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्‍ता सम्बित पात्रा ने बहस में एक दिलचस्‍प बात कही और बार-बार कही। उन्‍होनें खेतान को सलाह दी कि वे बार-बार ट्विटर का नाम लेकर बचकानी हरकतें ना करें और गम्‍भीर बात करें। उनके कहने का आशय था कि सिर्फ ट्विटर पर लिख देने भर से यह कैसे मान लिया जाए कि केजरीवाल की जान को वास्‍तव में खतरा है। अगर ऐसा है तो उन्‍हें ट्विटर पर लिखने के बजाय पुलिस के पास जाना चाहिए। ट्विटर पर लिखने और उसका हवाला देने को बचपना ठहराने की कोशिश लगातार भाजपा प्रवक्‍ता द्वारा इस बहस में होती रही।

एक और उदाहरण लेते हैं। उपर्युक्‍त घटना से चार दिन पहले भारत के सूचना और प्रसारण मंत्री अरूण जेटली दिल्‍ली में पहला जे.एस. वर्मा स्‍मृति व्‍याख्‍यान दे रहे थे जिसका विषय था, ‘मीडिया की आजादी और जिम्‍मेदारी’। इसमें उन्‍होनें सोशल मीडिया के महत्‍व को जताने के लिए एक घटना का उल्‍लेख किया जिसमें सैन्‍यबलों के साथ झड़प में कश्‍मीर में कुछ नौजवानों की जान चली गई थी। इस घटना की रिपोर्ट उन्‍हें सबसे पहले किसी सामान्‍य नागरिक द्वारा सोशल मीडिया पर डाली गई पोस्‍ट से मिली, जिसके बाद उन्‍होंने अपने स्‍तर पर अधिकारियों से इस बारे में पुष्टि की। दिलचस्‍प यह रहा कि इसके बारे में सेना के सम्‍बद्ध प्रभारी को भी जानकारी नहीं थी। जैसा कि उन्‍होंने बताया, बाद में जेटली ने ट्वीट कर के दो निर्दोष लड़कों के मारे जाने पर माफी मांगी। इस घटना का सन्‍दर्भ देते हुए जेटली कह रहे थे कि पहले मीडिया में अगर कोई बयान चला जाता था और उसमें कोई चूक रह जाती, तो उसे दुरूस्‍त करने के लिए फिर से सबको दोबारा नए सिरे से विज्ञप्ति भेजनी पड़ती थी। अब ऐसा नहीं है क्‍योंकि वे कोई भी भूल सुधार ट्वीट से कर देते हैं और मीडिया तक वह आसानी से पहुंच जाता है।

उपर्युक्‍त दोनों घटनाओं की तुलना करें। अगर जेटली की बताई घटना में किसी सामान्‍य नागरिक द्वारा डाली गई पोस्‍ट को विश्‍वसनीय मानकर कार्रवाई कर दी जाती है, तो फिर आशीष खेतान का ट्वीट ”बचकाना” कैसे हुआ? अगर ट्वीट करना वास्‍तव में बचपने का मामला है, तो जेटली को भी उक्‍त पोस्‍ट को गम्‍भीरता से लेने के बजाय उक्‍त पोस्‍ट डालने वाले नागरिक को कहना चाहिए था कि वह पुलिस थाने क्‍यों नहीं गया? दोनों घटनाओं के बीच विरोधाभास स्‍पष्‍ट है। यह विरोधाभास और गम्‍भीर इसलिए हो जाता है क्‍योंकि पहली बार एक सरकार देश में ऐसी आई है जिसके प्रधानमन्‍त्री से लेकर मन्‍त्रालयों तक की आधिकारिक सूचनाएँ मीडिया तक सोशल मीडिया के माध्‍यम से पहुँचायी जा रही हैं। जेटली ने अपने व्‍याख्‍यान में कहा था कि सोशल मीडिया के दौर में मीडिया पर बंदिश लगाया जाना ‘नामुमकिन’ है। विडम्‍बना देखिए कि पहली बार ऐसी सरकार देश में आई है जिसके महकमों में घुसकर खबरें लाना पत्रकारों के लिए असम्‍भव सा हो गया है। सरकारी यात्राओं में प्रधानमंत्री के सा‍थ मीडिया के जाने पर घोषित पाबन्‍दी है। नौकरशाह पत्रकारों को सूचनाएँ देने से घबराने लगे हैं और मंत्रियों को स्‍पष्‍ट निर्देश दिए गए हैं कि वे पत्रकारों को सूचनाएं न दें। यह सब सिर्फ इसलिए क्‍योंकि सरकार और पत्रकार के बीच का इकलौता संवाद सेतु अब ट्विटर है। दोहरी विडम्‍बना यह है कि जब आशीष खेतान जैसा विपक्ष का कोई शख्‍स इसी ट्विटर का हवाला देकर जान का खतरा जताता है, तो उसे सत्‍तारूढ़ दल के प्रतिनिधि द्वारा अविश्‍वसनीय और ”बचकाना” ठहरा दिया जाता है।

सोशल मीडिया की पृष्‍ठभूमि आज के दौर में भारत के सन्‍दर्भ में विशेषत: और सामान्‍य तौर पर विश्‍व के सम्‍बन्‍ध मे सोशल मीडिया पर बात करते वक्‍त हमें तीन तत्‍वों को ध्‍यान में रखना होगा। पहला तत्‍व है सत्‍ता। यह सत्‍ता लोकतान्त्रिक पद्धति से चुनी हुई भी हो सकती है, जनता की सत्‍ता भी हो सकती है या फिर कुछ विशिष्‍ट लोगों की आन्‍तरिक सत्‍ता भी हो सकती है। सत्‍ता का अर्थ कोई एक नहीं है। जो कोई माध्‍यम पर असर डाल सके, हम उसे सत्‍ता मानेंगे। दूसरा तत्‍व है सोशल मीडिया के औजार जैसे ट्विटर, फेसबुक इत्‍यादि। तीसरा तत्‍व है परम्‍परागत मीडिया जैसे अखबार और टीवी चैनल इत्‍यादि। इन तीनो के बीच सम्‍बन्‍धों को समझते हुए हम एक बात यह पाते हैं कि तीनों परस्‍पर एक-दूसरे को प्रभावित कर रहें हैं, रूपांतरित कर रहे हैं और ”मैनिपुलेट” भी कर रहे हैं। ट्विटर के सह-संस्‍थापक जैक डोर्सी की कामना, कि ट्विटर का इस्‍तेमाल एक उपयोगितावादी उपकरण की तरह हो जैसा कि लोग बिजली के साथ करते हैं, एक कारोबारी मॉडल में निहित सदिच्‍छा हो सकती है लेकिन यह बात भुलाई नहीं जानी चाहिए कि बिजली जैसी एक उपयोगितावादी चीज की भी अपनी राजनीति होती है। सवाल उठता है कि वह कौन सी राजनीति है जो सोशल मीडिया को परम्‍परागत मीडिया से अलग करती है या समानता की रेखाएं खींचती है। यह सवाल पूछते हुए हमें एक बात ध्‍यान में रखनी होगी कि परम्‍परागत मीडिया अगर बड़ी पूँजी पर टिका है तो सोशल मीडिया को संचालित करने वाली कम्‍पनियां वित्‍तीय पूँजी की वैश्विक बादशाह हैं। जैक डोर्सी चाहते हैं कि ट्विटर का सिर्फ उपयोगितावदी पक्ष ही बचा रहे और इसी में वे कम्‍पनी की कामयाबी को देखते हैं। जाहिर है इसका एक अर्थ यह हुआ कि उपयोग करने वाला सामान्‍य उपभोक्‍ता इस बात को भूल जाए कि इसके पीछे विशाल वैश्विक पूँजी काम कर रही है, तभी वे कहते हैं, ‘जब वह सिर्फ संचार का एक हिस्‍सा बनकर रह जाए और खुद पृष्‍ठभूमि में चला जाए।’ यह पृष्‍ठभूमि क्‍या है जिसे डोर्सी छुपाना चाह रहे हैं?

हम इस पृष्‍ठभूमि को दो तरीकों से समझ सकते हैं। एक आयाम खुद इंटरनेट की अपनी राजनीति का है क्‍योंकि कोई भी सोशल मीडिया अनिवार्यत: इंटरनेट का प्‍लेटफार्म है। बिना इंटरनेट के आप सोशल मीडिया का उपयोग नहीं कर सकते। जाहिर है, इंटरनेट की अपनी राजनीतिक पृष्‍ठभूमि के खिलाफ इसका कोई भी ऐप्लिकेशन नहीं जा सकता। दूसरा आयाम लोकतन्‍त्र से जुड़ा है जिसे रोजमर्रा की भाषा में हम अभिव्‍यक्ति की आजादी कहते हैं, जिसका जश्‍न पत्रकार, एक्टिविस्‍ट से लेकर सामान्‍य नागरिक और अरूण जेटली जैसे बड़े नेता सब बराबर मानते हैं। यही वह आयाम है जिसकी सबसे ज्‍यादा चर्चा सोशल मीडिया के सन्‍दर्भ में की जाती है। यह कहना अब तकरीबन रूढ़ बन चुका है कि सोशल मीडिया ने अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता को बढ़ावा दिया है। दिलीप मंडल जैसे कुछ मीडिया विश्‍लेषक ऐसा मानते हैं कि यह पत्रकारिता का स्‍वर्णकाल है क्‍योंकि एक सामान्‍य नागरिक के बतौर आपको सिर्फ दस रूपये किसी साइबर कैफे में खर्च करने हैं और आप एक ही पल में अपनी बात दुनिया के सामने पहुँचा सकते हैं। कुछ लोग इसे सिटिजन जर्नलिस्‍ट की संज्ञा देते नहीं अघाते। इस लिहाज से देखें तो सोशल मीडिया की राजनीतिक पृष्‍ठभूमि का दूसरा आयाम ना‍गरिकता में पत्रकारिता के जश्‍न से जुड़ा है। हमें दोनों की पड़ताल करनी होगी ताकि यह समझ में आ सके कि सोशल मीडिया वास्‍तव में क्‍या है, उसके आने से हैबरमास का ‘पब्लिक स्‍फीयर’ कैसे बदला है, परम्‍परागत मीडिया के साथ उसका द्वंद्वात्‍मक रिश्‍ता क्‍या है और सत्‍ता व नागरिक के संघर्षों में इसे ‘मैनिपुलेट’ कैसे किया जाता है। इसे समझने के लिए सबसे पहले हम इंटरनेट के अतीत पर एक नजर डालेंगे, जिसके बारे में मैने ‘प्रभात खबर’ के दिवाली विशेषांक 2014 में विस्‍तार से ‘विज्ञान की पीठ पर सवार सर्वेलांस पूँजीवाद’ शीर्षक से अपने एक लेख में जिक्र किया था।

यह संयोग नहीं है कि कुछ माह पहले सितंबर 2014 में सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेन्‍टर और वर्ल्‍ड वाइड वेब फाउंडेशन नाम की संस्‍थाओं ने ‘इंडियाज सर्वेलांस स्‍टेट’ नाम से संयुक्‍त रूप से जो रिपोर्ट जारी की थी (जिसे इंटरनेट से मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है), उसकी समूचे मीडिया में कहीं कोई चर्चा अब तक नहीं हुई है। ठीक यही हाल मंथली रिव्‍यू प्रेस की यशस्‍वी पत्रिका ‘एनालिटिकल मंथली रिव्‍यू’ के जुलाई-अगस्‍त 2014 संयुक्‍तांक का हुआ जिसका आवरण शीर्षक ही था ‘सर्वेलांस कैपिटलिज्‍म’, जो पूँजीवाद के ‘निगरानी और जासूसी’ के दौर में प्रवेश कर जाने की मुनादी कर रहा है। ऐसी बातें बिल्‍कुल नयी नहीं हैं। विकीलीक्‍स और एडवर्ड स्‍नोडेन द्वारा किए गए साहसिक उदघाटन लगातार हमें बता रहे थे कि सूचना-संचार के इस युग में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इस्‍तेमाल वास्‍तव में किन जनविरोधी उददेश्‍यों की पूर्ति के लिए किया जा रहा है। इसके बावजूद राष्‍ट्रीय तो क्‍या, स्‍थानीय विमर्शों में भी यह मसला प्रमुखता से नहीं उठ पाया। इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन जरूरत यह समझने की है कि इंटरनेट जैसी आधुनिक प्रौद्योगिकियों का (और अनिवार्यत: इस प्‍लेटफॉर्म पर आधारित तमाम ऐप्लिकेशंस का भी) व्‍यापक आर्थिकी, सामाजिकी, राज‍नीति और नीति-निर्माण के साथ वास्‍तविक रिश्‍ता क्‍या है और इस रिश्‍ते की ऐतिहासिकता क्‍या है? इसके लिए हमें द्वितीय विश्‍व युद्ध के बाद आधुनिक प्रौद्योगिकी के साथ ताकतवर राष्‍ट्रों के बर्ताव पर एक नजर डालनी होगी, जिस पर मंथली रिव्‍यू के जुलाई-अगस्‍त 2014 संयुक्‍तांक में जॉन बेलेमी फॉस्‍टर ने विस्‍तार से लिखा है और यहाँ साभार उसके कुछ अंश देना मुनासिब है।

अमेरिकी सेना के चीफ ऑफ स्‍टाफ जनरल आइजनहावर ने 27 अप्रैल, 1946 को ‘सैन्‍य परिसम्‍पत्तियों के तौर पर वैज्ञानिक व प्रौद्योगिकीय संसाधन’ विषय पर अपने मातहत अधिकारियों को एक मेमो जारी किया था। इस मेमो को अमेरिकी प्रोफेसर सीमोर मेलमैन ने बाद में उस अवधारणा के आधार दस्‍तावेज का नाम दिया, जिसका जिक्र राष्‍ट्रपति आइजनहावर ने 17 जनवरी, 1961 को राष्‍ट्र के नाम दिए अपने आखिरी भाषण में किया था। इस अवधारणा का नाम था ‘मिलिटरी-इंडस्ट्रियल कॉम्‍पलैक्‍स’ (सैन्‍य-औद्योगिक प्रतिष्‍ठान)। उक्‍त मेमो में जनरल आइजनहावर ने इस बात पर जोर दिया था कि वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों, उद्योगों और विश्‍वविद्यालयों का सेना के साथ निरन्‍तर चलने वाला एक ‘अनुबन्‍धात्‍मक’ रिश्‍ता कायम किया जाए। आइजनहावर ने सबसे ज्‍यादा जोर इस बात पर दिया था कि वैज्ञानिकों को शोध करने की यथासम्‍भव आजादी दी जानी चाहिए लेकिन ऐसा सेना की ‘बुनियादी समस्‍याओं’ से निर्मित हो रही परिस्थितियों के अधीन ही होगा। ध्‍यान देने वाली बात है कि इसके बाद ही अमेरिका में नेशनल सिक्‍योरिटी ऐक्‍ट, 1947 अस्तित्‍व में आया जिसके चलते नेशलन सिक्‍योरिटी काउंसिल और खुफिया एजेंसी सीआइए दोनों का गठन हुआ। जल्‍द ही 1952 में सेना के एक अंग के तौर पर नेशनल सिक्‍योरिटी एजेंसी (एनएसए) की स्‍थापना कर दी गई जिसे गोपनीय इलेक्‍ट्रॉनिक निगरानी का काम सौंपा गया। जिस सैन्‍य-औद्योगिक प्रतिष्‍ठान का जिक्र आइजनहावर ने बतौर राष्‍ट्रपति अपने आखिरी संबोधन में किया था, विज्ञान-प्रौद्योगिकी संस्‍थानों समेत ये सारी एजेंसियां उसी की स्‍थापना की दिशा में काम कर रही थीं।

मंथली रिव्‍यू के संस्‍थापक सम्‍पादक पॉल स्‍वीजी और पॉल बारन की लिखी 1966 में प्रकाशित मशहूर पुस्‍तक ‘मोनोपली कैपिटल’ में अमेरिकी साम्राज्‍य की जरूरतों को उस दौर के अमेरिकी सैन्‍यवाद और साम्राज्‍यवाद की मूल प्रेरणा बताया गया है जबकि बाद में वे उसकी परवर्ती भूमिका पर आते हैं जब अमेरिका (अपने विक्रय प्रयासों के चलते) पूँजीवादी उपभोग और निवेश समेत अर्थव्‍यवस्‍था से उपजे भारी सरप्‍लस का ‘ऐब्‍जॉर्बर’ बन गया। बारन और स्‍वीजी कहते हैं कि उस दौरान सैन्‍य खर्च अपने अन्‍तर्विरोधों से ग्रस्‍त था क्‍योंकि अमेरिका इस बात को समझता था कि इसमें बहुत इजाफे का मतलब युद्ध को आमन्‍त्रण देना है जबकि सर्वनाश से बचने के लिए तीसरा संभावित विश्‍व युद्ध टाला ही जाना होगा। यही वजह है कि दुनिया के साम्राज्‍यवादी हिस्‍से को बख्‍शते हुए उसे युद्ध को उस क्षेत्र की परिधि की ओर निर्देशित कर दिया। जाहिर है, इसका प्रतिरोध भी सामने आया जैसा कि हमने वियतनाम में देखा। वियतनाम के सबक से अमेरिका को यह समझ में आया कि तीसरी दुनिया के देशों पर कब्‍जे और हमले के लिए अब तक एक मानक की तरह चले आ रहे अमेरिकी ‘सैन्‍य दस्‍तावेज’ अव्‍यावहारिक हो चले हैं। इसके बावजूद विश्‍व साम्राज्‍य के दारोगा की अपनी स्थिति तो उसे बनाए रखनी ही थी, लिहाजा उसकी दो जरूरतें थीं- पहला, व्‍यापक स्‍तर पर प्रचारित एक प्रोपेगेंडा अभियान चलाया जाए ताकि साम्राज्‍य को उदार, सहिष्‍णु, जरूरी, अनिवार्यत: लोकतान्त्रिक, अन्‍तर्वस्‍तु में ‘अमेरिकी’ और इस तरह से वैधता के मामले में सवालों से परे दर्शाया जा सके। इसे कैसे अंजाम दिया गया, उसका एक उदाहरण वियतनाम जंग के ठीक बाद रक्षा मन्‍त्री रॉबर्ट मैक्‍नामारा का यह बयान था कि इस जंग का ‘सबसे बड़ा योगदान’ अमेरिकी सरकार के लिए यह सबक रहा हे कि ‘अब जनता के असंतोष को भड़काए बगैर युद्ध छेड़े जाएं। ऐसे युद्धों के बारे में मैक्‍नामारा ने कहा, ‘यह हमारे इतिहास में तकरीबन एक अनिवार्यता की तरह है क्‍योंकि यह एक ऐसी जंग है जो शायद अगले पचास साल तक हम झेलते रहेंगे।’ प्रोपेगेंडा के अलावा अमेरिका की दूसरी जरूरत थी कठोर शासन, जिसे देश के भीतर और इर्द-गिर्द निगरानी (सर्विलांस), दमन व प्रच्‍छन्‍न हस्‍तक्षेप के जरिये अंजाम दिया जाना था। जाहिर है, अपनी सैन्‍य-औद्योगिक दारोगा की स्थिति को दुनिया में बनाए रखने के लिए ‘प्रोपेगेंडा और सर्विलांस’ का जो दुतरफा औजार अमेरिका ने गढ़ा था, वह बुनियादी रूप से आधुनिक प्रौद्योगिकी के विकास पर ही भविष्‍य में आधारित होने जा रहा था।

‘मास कम्‍युनिकेशन एंड एम्‍पायर’ नाम की अपनी किताब में हर्ब शिलर ने अमेरिका में पचास के दशक पर एक टिप्‍पणी की है जो देखे जाने लायक है, ‘1920 के दशक में रेडियो के आ जाने और चालीस के दशक के अन्‍त व पचास के आरम्‍भ में टीवी के आ जाने से इलैक्‍ट्रानिक उपकरण सामान्‍यत: कारोबारों और विशेषकर ‘राष्‍ट्रीय विज्ञापनदाता’ पर निर्भर हो गए……. आधुनिक संचार सुविधाओं और सम्‍बद्ध सेवाओं का उपभोक्‍ताओं के इर्द-गिर्द केंद्रित उपयोग ही विकसित पूँजीवाद की पहली पहचान है…… जहां बमुश्किल ही कोई सांस्‍कृतिक स्‍पेस ऐसी बचती है जो कारोबारी जाल से बाहर हो।’ इसी ‘विकसित पूँजीवाद’ की सबसे बड़ी संचालक कम्‍पनी थी प्रॉक्‍टर एंड गैम्‍बल, जो सबसे ज्‍यादा पैक माल की मार्केटिंग करती थी। इसके अलावा, जनरल मोटर्स के बाद दूसरे नंबर पर वह विज्ञापन देने वाली कम्‍पनी भी थी। इस कम्‍पनी ने सबसे पहले ऐसी विशाल शोध प्रयोगशालाएं बनाईं जहां वैज्ञानिकों को उपभोक्‍ता उत्‍पादों के सम्‍बन्‍ध में नयी-नयी खोज करनी होती थी। इसी कम्‍पनी के कुख्‍यात प्रेसिडंट थे नील मैकेलरॉय, जो नौ साल तक प्रॉक्‍टर एंड गैम्‍बल के मुखिया रहने के बाद आइजनहावर के रक्षा मन्‍त्री बने। नवंबर 1957 में रूस ने जब अपना अ‍न्‍तरिक्ष यान स्‍पुतनिक-2 प्रक्षेपित किया, तो अमेरिकी सरकार पर दबाव बढ़ा। ऐसे में मैकेलरॉय ने एक ऐसी केन्‍द्रीकृत आधुनिक वैज्ञानिक शोध एजेंसी को स्‍थापित करने का प्रस्‍ताव रखा, जिसमें देश भर के विश्‍वविद्यालयों और कॉरपोरेट फर्मों से वैज्ञानिक प्रतिभाओं को लाकर एक व्‍यापक नेटवर्क गठित किया जा सके। इस प्रस्‍ताव पर 7 जनवरी, 1958 को आइजनहावर ने कांग्रेस से आरंभिक अनुदान देने का अनुरोध किया। एजेंसी का नाम रखा गया- एडवांस्‍ड रिसर्च प्रोजेक्‍ट्स एजेंसी (आर्पा)। बात आगे बढ़ी और मैकेलरॉय ने जनरल इलेक्ट्रिक कम्‍पनी के वाइस-प्रेसिडेंट रॉय जॉनसन को आर्पा का पहला निदेशक नियुक्‍त किया। इस कहानी को यहीं रोक कर यह बता देना जरूरी होगा कि इसी आर्पा ने बाद में इंटरनेट का आविष्‍कार किया और इसी वजह से अमेरिका पूरी दुनिया पर सर्वेलांस यानी निगरानी करने में सक्षम हो सका, जिसका उदघाटन एडवर्ड स्‍नोडेन ने हाल ही में किया है। इससे तत्‍काल एक निष्‍कर्ष यह निकाला जा सकता है कि पिछले साठ साल के दौरान प्रौद्योगिकी के विकास की केंद्रीय दिशा दरअसल अमेरिकी सैन्‍यीकरण और वैश्विक एकाधिकारी पूँजीवाद के उसके मंसूबों के हिसाब से ही तय होती रही है और आज भी यह जारी है।

बहरहाल, आर्पा ने अपने अस्तित्‍व में आते ही अन्‍तरिक्ष के सैन्‍यकरण, वैश्विक जासूसी उप्रगहों, संचार उपग्रहों, रणनीतिक हथियार प्रणाली और चंद्र अभियान को अपने केंद्रीय उददेश्‍य में ढाल लिया। 1958 में नासा के गठन के साथ ही अन्‍तरिक्ष का काम आर्पा से अलग कर दिया गया और जॉनसन ने इससे इस्‍तीफा दे दिया। मैकेलरॉय ने रक्षा विभाग को छोड़कर वापस प्रॉक्‍टर एंड गैम्‍बल में 1959 में जाने से पहले आर्पा को खत्‍म नहीं किया, बल्कि उसके घोषणापत्र में बदलाव कर के उसे घोषित तौर पर रक्षा विभाग की प्रौद्योगिकीय इकाई के रूप में तब्‍दील कर डाला। इसका नाम 1972 में बदल कर डिफेंस एडवांस्‍ड रिसर्च प्रोजेक्‍टस एजेंसी (दार्पा) कर दिया गया। 1980 के दशक में स्‍टार वॉर्स नाम के जिस अभियान को रोनाल्‍ड रीगन सरकार ने शुरू किया था, जिसे कुछ लोगों ने द्वितीय शीत-युद्ध का नाम भी दिया, उसके केंद्र में दार्पा ही थी। नब्‍बे और 2000 के दशक में दार्पा ने डिजिटल सर्वेलांस और सैन्‍य ड्रोन की प्रौद्योगिकी को एनएसए के साथ मिलकर विकसित किया। कंप्‍यूटर शोध की दिशा में इस एजेंसी ने 1961 में ही काम करना शुरू कर दिया था, जब वायुसेना के डिप्‍टी असिस्‍टेंट डायरेक्‍टर रहे जैक रूइना को इसका निदेशक बनाया गया। रूइना यहां मैसेचुएटस इंस्टिटयूट ऑफ टैक्‍नोलॉजी (एमआइटी) से जेसीआर लिकलाइडर नाम के एक वैज्ञानिक और प्रोग्रामर को लेकर आए, जिसने देश भर के कंप्‍यूटर वैज्ञानिकों को इससे जोड़ा और इंटरनेट की अवधारणा विकसित कर डाली। आज हम जिस इंटरनेट का इस्‍तेमाल करते हैं, उसका पूर्ववर्ती संस्‍करण आर्पानेट इसी एजेंसी ने सत्‍तर के दशक के आरम्‍भ में बनाया था।

दिलचस्‍प बात यह थी कि तब तक अमेरिका के सामान्‍य लोगों को आर्पा नाम की किसी एजेंसी के होने की जानकारी तक नहीं थी। अमेरिका में 1970-71 के दौरान एक घोटाला हुआ था जिसे ‘आर्मी फाइल्‍स’ या ‘कोनस’ घोटाला कहते हैं। इसमें पता चला कि वहां की सेना सत्‍तर लाख अमेरिकी नागरिकों की निगरानी कर रही थी। इसकी जांच में यह बात सामने आई कि सेना ने जिन फाइलों के नष्‍ट हो जाने की बात कही थी, उन्‍हें आर्पानेट के माध्‍यम से चुपके से एनएसए को भेज दिया गया था। यह इंटरनेट के पहले संस्‍करण ‘आर्पानेट’ का पहला कथित उपयोग था, जिसमें निगरानी से जुड़ी फाइलों को स्‍थानांतरित (ट्रांसफर) किया गया। जनता ने भी पहली बार जान कि ऐसी कोई चीज अमेरिका में बनी है। जब भारत में आपातकाल लगाकर अभिव्‍यक्ति को बन्‍धक बनाने की तैयारी चल रही थी, ठीक उस वक्‍त अप्रैल 1975 में सीनेटर सैम एर्विन (जो सीनेट वाटरगेट कमेटी के अध्‍यक्ष के रूप में बाद में मशहूर हुए) ने एमआइटी में एक भाषण देते हुए दुनिया में शायद पहली बार कहा था कि कंप्‍यूटरों के कारण हमारी निजता को खतरा बढ़ गया है। ‘आर्मी फाइल’ घोटाला सामने आने के गाद मिशिगन यूनिवर्सिटी में विधि के प्रोफेसर आर्थर मिलर ने 1971 में संवैधानिक अधिकारों पर सीनेट की उपसमिति के समक्ष एक गम्‍भीर टिप्‍पणी की थी: ”उसे पता हो या नहीं, लेकिन हर बार जब कोई नागरिक आयकर रिटर्न दायर करता है, जीवन बीमा का आवेदन करता है, क्रेडिट कार्ड के लिए आवेदन करता है, सरकारी लाभ लेता है या नौकरी के लिए साक्षत्‍कार देता है, तो उसके नाम पर एक डोजियर खोल दिया जाता है और सूचना की प्रोफाइल तैयार कर ली जाती है। अब यह स्थिति यहां तक आ गई है कि हम जब कभी किसी एयरलाइन से यात्रा करते हैं, किसी होटल में कमरा बुक करवाते हैं या कार किराये पर लेते हैं, तो हम एक कंप्‍यूटर की मेमोरी में इलेक्‍ट्रॉनिक ट्रैक छोड़ जाते हैं, जिससे हमारी हरकतों, आदतों और सम्‍बन्‍धों का पता लगाया जा सकता है। कुछ लोग ही इस बात को समझते हैं कि आधुनिक प्रौद्योगिकी इन इलैक्‍ट्रॉनिक प्रविष्टियों की निगरानी करने, इन्‍हें केंद्रीकृत करने और इनका मूल्‍यांकन करने में समर्थ हो चुकी है, चाहे इनकी संख्‍या कितनी ही हो – जिसके चलते, यह भय अ‍ब वास्‍तविक हो चला है कि कई अमेरिकियों के पास हम में से प्रत्‍येक के सिर से लेकर पैर तक का एक डोजियर मौजूद है।”

आर्पानेट को 1989 में खत्‍म कर दिया गया और उसकी जगह नब्‍बे के दशक में वर्ल्‍ड वाइड वेब (डब्‍लूडब्‍लूडब्‍लू) ने ले ली। बाकी, सब कुछ समान रहा और आज स्थिति यहां तक पहुँच चुकी है कि एनएसए के पास 80 फीसदी से ज्‍यादा अन्‍तर्राष्‍ट्रीय टेलीफोन कॉल तक पहुँच है, जिसके लिए वह अमेरिकी दूरसंचार निगमों को करोड़ों डॉलर सालाना का भुगतान करता है। इसके अलावा माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, याहू और फेसबुक हर छह माह पर दसियों हजार लोगों के आंकड़ें एनएसए और अन्‍य गुप्‍तचर एजेंसियों को मुहैया करवा रहे हैं जिनमें अहम राष्‍ट्राध्‍यक्ष भी शामिल हैं, जैसा कि स्‍नोडेन ने उजागर किया था।

अभिव्‍यक्ति और लोकतान्त्रिकता का आभास
अब सवाल उठता है दूसरे आयाम पर, जहां से ‘पत्रकारिता’ के स्‍वर्ण काल’ और ‘सिटिजन जर्नलिस्‍ट’ जैसे मुहावरे उपज रहे हैं। सतह पर देखें तो सोशल मीडिया बेशक हमें एक वैकल्पिक मंच मुहैया कराता है, जहां से हम अपनी बातें लोगों तक पहुँचा सकते हैं। सरकारों पर दबाव बना सकते हैं, परम्‍परागत मीडिया के लिए एजेंडा तय कर सकते हैं। पहली बार सोशल मीडिया और ‘पब्लिक स्‍फीयर’ के बीच इस सकारात्‍मक संवाद का जिक्र 2009 में आया था, जब अमेरिका में ‘ऑक्‍युपाई वॉल स्‍ट्रीट’ का आन्‍दोलन चला। मध्‍य-पूर्व के देशों में तानाशाहियों के खिलाफ आवाज उठी और लाखों की तादाद में जनता बरसों बाद सड़कों पर देखी गई थी। आंख मूंद कर कुछ लोगों ने उसे ‘अरब स्प्रिंग’ का नाम दे डाला। हमारे यहां भी इंडिया अगेंस्‍ट करप्‍शन ऐसा पहला आन्‍दोलन था, जिसमें सोशल मीडिया का इस्‍तेमाल बहुत कुशलता से किया गया था। यह तकरीबन एक ही दौर था, जब दुनिया के हरेक हिस्‍से में सोशल मीडिया को आन्‍दोलनों का वाहक बताया जा रहा था। सत्‍ता प्रतिष्‍ठानों और मुख्‍यधारा के मीडिया से ऊब चुके लोगों ने इसे हाथोंहाथ लिया। यह वास्‍तव में ऐसा दौर था जब यह बात परदे के पीछे चली गई कि सोशल मीडिया चलाने वाली कम्‍पनियां खुद पूँजीवाद की पोषक हैं, लिहाजा पूँजीवाद के विरोध में लोकतान्त्रिक आन्‍दोलनों को पैदा करने में उनकी क्‍या दिलचस्‍पी हो सकती है? कुछ हालिया उदाहरणों से हम समझ सकते हैं कि सोशल मीडिया के इस ‘लोकतान्त्रिक’ आयाम का फैलाव कितना जबरदस्‍त है।

तालिबान ने पेशावर में जिस दिन स्‍कूली बच्‍चों को मारा था, उस दिन तहसीन पूनावाला के दिमाग मे जो पहला विचार आया उसे उन्‍होंने हैशटैग India with Pakistan के साथ ट्वीट किया, जिसमें उन्‍होंने कहा कि ऐसे वक्‍त में भारत के नागरिक समाज को पाकिसतान के नागरिक समाज के साथ खड़ा होना चाहिए। पूनावाला को बिल्‍कुल उम्‍मीद नहीं थी कि इस ट्वीट पर इतनी सहानुभूति उमड़ेगी क्‍योंकि वे कट्टर कांग्रेस समर्थक माने जाते हैं। उन्‍होंने बाद में लिखा, ”मैं तो बस अपनी ओर से एकजुटता जाहिर कर रहा था, मुझे क्‍या पता था कि लाखों लोग मेरे साथ खड़े हो जाएंगे”। इसी तरह पाकिस्‍तान की सरकार ने मुंबई पर 26/11 को हुए हमले के षडयन्‍त्रकारी एलईटी कमांडर जकीउर्रहमान लखवी को जब रिहा किया, तो सरहद की दूसरी तरफ से एक हैशटैग उभरा : #Pak with India No to Lakhvi Bail उसी सप्‍ताह सिडनी बन्‍धक कांड के बाद राशेल जैकब्‍स नाम की एक युवा महिला ने एक दूसरी महिला को साथ चलने का प्रस्‍ताव दिया, जो डर के मारे अपना हिजाब हटा रही थी। उसने इस महिला के बारे में एक ट्वीट किया, जिसका हैशटैग Ill ride with you था। इसकी जबरदस्‍‍त प्रतिक्रिया हुई। दसियों हजारों लोग अपने आप इसके समर्थन में और मुस्लिम विरोधी असहिष्‍णुता के विरोध में उतर आए।

ये तमाम अभिव्‍यक्तियां इस बात का उदाहरण हैं कि सोशल मीडिया किस तरह ऐक्टिविज्‍म को पैदा कर रहा है और उसे पोषित करता है। जागरूकता निर्माण के अलावा उन संगठनों के लिए तो यह जादू की छड़ी है जिनके पास लोगों को संगठित करने के लिए विशाल संसाधन नहीं हैं। जिन लोगों के पास न तो वक्‍त है और न ही झुकाव कि वे किसी मार्च, धरने या अध्‍ययन समूह में जा सकें, वे आज हैशटैग ऐक्टिविज्‍म करने में लगे हैं। कुछ दिनों पहले ही हैशटैग #Mufflerman पर जंग छिड़ी थी जब बीजेपी समर्थक इसके नाम से अरविंद केजरीवाल का मजाक उड़ा रहे थे जबकि आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता इसके बहाने अपने विनम्र नायक की सहजता का जश्‍न मना रहे थे। अब तो स्थिति यह हो गई है कि हर राजनीतिक घटना को तुरंत एक चलताऊ शब्‍दावली में समेट कर उसके पीछे ट्वीट करने वालों की एक फौज लगा दी जा रही है, जो #Uternsarkar और #Secularconversions जैसे हैशटैगों को जमाने में लगे हुए हैं। हैशटैग को लेकर यह उत्‍साह इसलिए भी है क्‍योंकि लोग जानते हैं कि सोशल मीडिया पर हुआ कोई भी बवाल मुख्‍यधारा की मीडिया को आ‍कर्षित जरूर करेगा।

ऐसा भी हो रहा है। जमाम मीडिया संस्‍थानों में ट्विटर और फेसबुक के ट्रेंड को फॉलो किया जाता है। सोशल मीडिया के विभाग अलग से खोल दिए गए हैं। किसी नेता द्वारा किए गए ट्वीट को उसका बयान माना जाने लगा है और उस पर पैनल बैठाए जाने लगे हैं। कुल मिलाकर ऐसा लगने लगा है कि सोशल मीडिया असली लोकतन्‍त्र का वाहक है। दिक्‍कत यहीं है। लोकतन्‍त्र का इतिहास पूँजीवाद के इतिहास के समानांतर विकसित हुआ है। इसे इस तरह समझें कि लोकतन्‍त्र हमेशा से ही पूँजीवाद के लिए एक कवच का काम करता रहा है और जब-जब पूँजीवाद के लिए संकट पैदा हुआ है, उसने लोकतान्त्रिकता को बढ़ावा दिया है। यह संयोग नहीं है कि पूँजीवाद का मेला माने जाने वाले विश्‍व इकनॉमिक फोरम में इस बार असमानता और गैर-बराबर आय जैसे मसलों पर पैनल बैठाए गए थे। यह अपने आप में अदभुत था। शेखर गुप्‍ता लिखते हैं कि ‘अगर आप वहां चल रहीं बहसों को फॉलो करते तो आपको लगता कि आप वर्ल्‍ड सोशल फोरम में बैठे हुए हैं’। अगले ही वाक्‍य में हालांकि वे वर्ल्‍ड इकनॉमिक फोरम के इस बदले हुए मुहावरे की पोल खोल देते हैं जब वे बताते हैं कि ”यूरोपीय विद्वानों के पास इसका वाजिब तर्क मौजूद है: सभी को उम्‍मीद थी कि उछाल वाले वर्षों में हुई वृद्धि का भले सभी को बराबर लाभ न मिले लेकिन पर्याप्‍त धन सम्‍पदा नीचे की ओर रिस कर जाएगी, जिससे सामान्‍य आबादी में खुशहाली रह सकेगी। ऐसा नहीं हुआ है”। दरअसल यही पूँजीवाद का संकट है जो लगातार गहराता जा रहा है और जिसकी अभिव्‍यक्तियां लगातार अलग-अलग माध्‍यमों से देखने को मिल रही हैं। ऐसे में वैश्विक वित्‍तीय पूँजी से चलने वाले मीडिया प्‍लेटफॉर्मों की भूमिका बढ़ जाती है क्‍योंकि उन पर दिख रही लोकतान्त्रिकता दरअसल वंचित-पी‍डित जनता के प्रेशर कुकर में से गैस निकालने के काम आती है। पूँजीवाद जब-जब लोकतन्‍त्र को बढ़ावा दे तो साफ समझिए कि वह संकटग्रस्‍त महसूस कर रहा है और लोगों का गुस्‍सा बाहर निकालने की एक तरकीब उसने अपनायी है। यही सेाशल मीडिया की राजनीतिक पृष्‍ठभूमि का दूसरा आयाम है।

व्‍यावहारिक निष्‍कर्ष
उपयुक्‍त तथ्‍यों और विश्‍लेषणों से संक्षेप में हम यह निष्‍कर्ष निकाल सकते हैं कि सोशल मीडिया का राजनीतिक चरित्र मूलत: जन विरोधी है क्‍योंकि उसके उददेश्‍य जनविरोधी हैं और सत्‍ता समर्थक हैं। चंडीगढ़ 2010 में दुनिया भर से कुछ विद्वान सोशल मीडिया के विभिन्‍न पहलुओं का जायजा लेने के लिए एक सेमीनार में जुटे थे, जिसके परचों को एक पुस्‍तकाकार में संकलित किया गया है, इसका नाम है ‘दि वर्चुअल ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ दि पब्लिक स्‍फीयर’। इसमें हिबा अलीम और सुमेधा नैयर के फेसबुक और ट्विटर पर शामिल परचों को पढ़ें तो समझ में आता है कि कैसे इन दोनों माध्‍यमों का अपना-अपना वर्ग चरित्र है और वही है जो पूँजी संचालित किसी भी माध्‍यम का हो सकता है। यही वजह है कि इस आलेख के आरम्‍भ में हमने ट्विटर के सह-संस्‍थापक का एक उद्धरण दिया है, जो मूल इकाई को यानी ट्विटर को परदे के पीछे छुपा लेना चा‍हते हैं ताकि यह सिर्फ उपयोग की वस्‍तु बनी रह सके। इसी एक वाक्‍य में सोशल मीडिया की समूची राजनीति सिमटी हुई है। चूंकि मुख्‍यधारा का मीडिया वर्ग चरित्र और स्‍वामित्‍व में मामले में सोशल मीडिया से अलहदा नहीं है, इसलिए दोनों के बची के परस्‍पर रिश्‍तों पर बात करना सिर्फ और सिर्फ केस दर केस प्रभाव आकलन ही हो सकता है क्‍योंकि दोनों के बीच में कोई राजनीतिक और वैचारिक द्वंद्व नहीं है। यह निष्‍कर्ष निकालना कि मुख्‍यधारा के मीडिया का विकल्‍प सोशल मीडिया है, वास्‍तव में बचकानी वातें हैं जिनमें ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टि का अभाव है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों ही अपने-अपने तौर से वैश्विक जनविरोधी पूँजी की सेवा में जुटे हुए हैं।

इस विश्‍लेषण के आखिर में सिर्फ एक बात ध्‍यान रखने की है। थॉमस फीडमैन ने दिल्‍ली में कुछ साल पहले दिए अपने एक व्‍याख्‍यान में कहा था, ‘हर बाजार में एक स्‍पेस होता है और हर स्‍पेस में एक बाजार होता है।’ मीडिया और सोशल मीडिया जनविरोधी बाजार के सेवक हैं लेकिन इसमें एक स्‍पेस है। इस स्‍पेस का पहले और सबसे तेजी से कौन इस्‍तेमाल कर ले जाता है, सारा खेल वहीं है। इसकी सीमा भी स्‍पष्‍ट है। सारा मामला जनमत को शक्‍ल देने का है और जनविमर्शों को प्रभावित करने या उनाक एजेंडा सेट करने का है। इसीलिए जो बात परम्‍परागत मीडिया पर जनता के सन्‍दर्भ में लागू होती है, वही सोशल मीडिया पर भी लागू होगी। सत्‍ता के दूसरे छोर पर खड़ा एक सामान्‍य नागरिक आज के दौर में अधिकतम यही कर सकता है कि सत्‍ता, मुख्‍यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया के बीच के अन्‍तर्विरोधों को पकड़े और एक के खिलाफ दूसरे का इस्‍तेमाल करें। जाहिर है इसमें निजता का हनन होगा, लेकिन घर बैठे भी आधार कार्ड जैसे पहचान पत्र बनवाकर और सोशल मीडिया से बचकर आप सर्वेलांस से बच नहीं पाएंगे। पुरानी कहावत है, ”गुड खाकर गुलगुले से परहेज क्‍यों”। निजता को संवैधानिक दायरे के हवाले कर के जितना सम्‍भव हो, पूँजीवाद द्वारा प्रदत्‍त लोकतान्त्रिकता का इस्‍तेमाल किया जाए। सूचनाओं और सूचना माध्‍यमों से घिरे व आतंकित एक गरीब समाज के लिए मुक्ति का यही एक व्‍यावहारिक रास्‍ता हो सकता है।

(साभार: मीडिया का वर्तमान -संपादक अकबर रिज़वी, अनन्य प्रकाशन)

Tags: Abhishek SrivastavaCommunicationmediaThreatTwittervirtual toolsअभिषेक श्रीवास्तवआभासी औजारखतरेट्विटरमीडियासंचार
Previous Post

भूमण्‍डलीकरण, पूंजी और मीडिया

Next Post

खबर केवल नेपाल से रिश्ते का बिगड़ना है

Next Post
खबर केवल नेपाल से रिश्ते का बिगड़ना है

खबर केवल नेपाल से रिश्ते का बिगड़ना है

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

No Result
View All Result

Recent News

Citizen Journalism for hyper-local coverage in print newspapers

March 31, 2023

Uncertainty in classrooms amid ChatGPT disruptions

March 31, 2023

 Fashion and Lifestyle Journalism Course

March 22, 2023

SCAN NOW FOR DONATIONS

NewsWriters.in – पत्रकारिता-जनसंचार | Hindi Journalism India

यह वेबसाइट एक सामूहिक, स्वयंसेवी पहल है जिसका उद्देश्य छात्रों और प्रोफेशनलों को पत्रकारिता, संचार माध्यमों तथा सामयिक विषयों से सम्बंधित उच्चस्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना है. हमारा कंटेंट पत्रकारीय लेखन के शिल्प और सूचना के मूल्यांकन हेतु बौद्धिक कौशल के विकास पर केन्द्रित रहेगा. हमारा प्रयास यह भी है कि डिजिटल क्रान्ति के परिप्रेक्ष्य में मीडिया और संचार से सम्बंधित समकालीन मुद्दों पर समालोचनात्मक विचार की सर्जना की जाय.

Popular Post

हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता

टेलीविज़न पत्रकारिता

समाचार: सिद्धांत और अवधारणा – समाचार लेखन के सिद्धांत

Evolution of PR in India and its present status

संचार मॉडल: अरस्तू का सिद्धांत

आर्थिक-पत्रकारिता क्या है?

Recent Post

Citizen Journalism for hyper-local coverage in print newspapers

Uncertainty in classrooms amid ChatGPT disruptions

 Fashion and Lifestyle Journalism Course

Fashion and Lifestyle Journalism Course

Development of Local Journalism

Audio Storytelling and Podcast Online Course

  • About
  • Editorial Board
  • Contact Us

© 2022 News Writers. All Rights Reserved.

No Result
View All Result
  • Journalism
    • Print Journalism
    • Multimedia / Digital Journalism
    • Radio and Television Journalism
  • Communication
    • Communication: Concepts and Process
    • International Communication
    • Development Communication
  • Contemporary Issues
    • Communication and Media
    • Political and Economic Issues
    • Global Politics
  • Open Forum
  • Students Forum
  • Training Programmes
    • Journalism
    • Multimedia and Content Development
    • Social Media
    • Digital Marketing
    • Workshops
  • Research Journal

© 2022 News Writers. All Rights Reserved.