उदय चंद्र सिंह | देश में उदारीकरण का दौर शुरु होने के साथ हीं तमाम उद्योग धंधों की तरह खबरों का बाजार भी खूब चमका । टेलीविजन न्यूज चैनलों की तो जैसे बाढ़ सी आ गई है । हर कोई यही कहता फिर रहा है कि टीवी मीडिया बहुत ‘ताकतवर’ हो गया है । आज तीन सौ से ज्यादा न्यूज चैनल हैं । इनमें सौ से ज्यादा हिंदी के, बाकी अंग्रेजी और स्थानीय भाषाओं के है । इनके अलावा 60 से अधिक न्यूज चैनल अभी लाइसेंस के इंतजार में हैं । क्या वाकई टीवी मीडिया बहुत ताकतवर है या फिर हकीकत कुछ और है ? क्या ऊपर से ताकतवर नजर आने वाले टीवी मीडिया की नाड़ी, भुजाएं, दिल, दिमाग, स्नायु, नेत्र, अस्थि, मज्जा भी क्या उतने ही ताकतवर हैं? इसका जवाब बेहद चौंकानेवाला है ।
दरअसल, न्यूज चैनलों का पूरा अर्थशास्त्र ही डगमगाया हुआ है । टॉप के चार पांच चैनलों को छोड़ दें तो सारे चैनलों की बैलेंस शीट घाटे के समंदर में गोता लगा रही हैं । इनमें छोटे चैनलों की हालत तो बेहद खराब है । दो चार चैनलों को छोड़ दिया जाये तो कहीं भी टीवी पत्रकार या दूसरे कर्मचारी अपनी नौकरी से संतुष्ट नहीं हैं । छोटे चैनलों के कर्मचारियों को दो-दो, तीन-तीन महीने तक तनख्वाह नहीं मिलती । ऊपर से 12-12 घंटे की शिफ्ट होती है । होली-दीपावली पर अखबारों में छुट्टियां होती है लेकिन टीवी चैनलों में कोई अवकाश नहीं होता । होली-दीपावली के दिन भी टीवी चैनलों में रोज की तरह काम होता है । बदले में, चार –चार साल तक न तो कोई प्रमोशन मिलता है और न ही कोई इंक्रीमेंट । यानि टीवी पत्रकारों की हालत मजदूर से भी बदतर है । चौंकानेवाली बात यह भी है, टीवी पत्रकार वर्किंग जर्नलिस्टर ऐक्ट के दायरे में आते हीं नहीं है ।
एक मोटे अनुमान के मुताबिक बीते दस सालों में भारतीय मीडिया उद्योग में पांच हजार से अधिक टीवी पत्रकारों और गैरपत्रकारों को को अपनी नौकरीगंवानी पड़ी है । टीवी मीडिया के मामले में देश के श्रम कार्यालयों और कानूनों के पूरी तरह मृतप्राय होने के कारण पत्रकार-गैरपत्रकारों की बेरोजगारी या उन्हें नौकरी से हटाए जाने के बारे में कोई अधिकृत आंकड़ा उपलब्ध नहीं है । टीवी चैनलों में तो पत्रकार यूनियन नाम की कोई चीज है भी नहीं ।, इसलिए उनसे भी सही आकड़े नहीं मिल सकते । सरकार और पक्ष-विपक्ष के राजनेताओं को टीवी पत्रकारों की मौजूदा दशा के बारे में सबकुछ मालूम है, लेकिन वे भी पत्रकारों या कर्मचारियों के लिए कुछ भी नहीं करना चाहते,क्योंकि उन्हें मालूम है कि मालिक से रिश्ते मधुर हैं, तो सब ठीक है
वैसे सच पूछिए तो देश के मीडिया उद्योग के लिए मानों कोई नियम-कानून नहीं हैं. बड़े संपादक-पत्रकार भी नियंत्रण या रेगुलेशन के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, पर वे कतई यह सवाल नहीं उठाते कि मीडिया की स्वतंत्रता या स्वनियंत्रण की बात सिर्फ लिखने-बोलने के मामले के लिए है, मीडिया-बिजनेस के लिए नहीं. मीडिया-मालिक और उनकी कठपुतलियों के तौर पर काम करने वाले प्रबंधकनुमा संपादक शायद भूल गए हैं कि हमारे देश में एक ‘श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मी कानून-1955’ भी है. इसे सरकार या संसद ने अभी खत्म नहीं किया, इसका अस्तित्व बरकरार है, पर सच यह है कि इस कानून का कोई नामलेवा नहीं बचा है । इसमें टीवी और वेब पत्रकार शामिल भी नहीं हैं ।
सवाल उठता है कि आखिर टीवी इंडस्ट्री और उसके पत्रकारों की हालत इतनी खराब क्यों हैं ? एक एमबीसीएस को हीं आप मेडिकल प्रैक्टिस करने की अनुमति देते हैं । इसी तरह अगर आपने फ़ॉर्मेसी का कोर्स किया है तो आपको मेडिकल स्टोर चलाने का लाइसेंस मिलेगा । तो फिर टीवी चैनल का लाइसेंस बिल्डर, चिट फंड कंपनी चलाने वाले या फिर राजनेताओं के रिश्तेदारों को किस आधार पर दिये जा रहे हैं । आखिर टीवी चैनल का लाइसेंस देते समय भी कुछ ऐसे मापदंड क्यों तय नहीं किये जाते ? चैनलों का शुरु होना और फिर उससे मुनाफा कमाना दो अलग स्थितियां हैं । चार साल पहले तक तक हर वह व्यक्ति न्यूज चैनल का लाइसेंस पा सकता था जिसकी जेब में तीन करोड़ रुपये हो ।अक्टूबर, 2011 में जाकर सरकार ने न्यूज चैनल के लाइसेंस के लिए नेट वर्थ क्राइटेरिया तीन से बढ़ाकर 20 करोड़ किया है और बोर्ड में एक पीआईबी पत्रकार का होना जरुरी कर दिया है । यानि अगर किसी की जेब में 20 करोड़ रुपये और एक पीआईबी पत्रकार हो तो वो टीवी चैनल का लाइसेंस ले सकता है । नेट वर्थ क्राइटेरिया बेशक तीन से बीस करोड़ कर दिया गया हो लेकिन सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों की मानें तो अब भी लाइसेंस की चाह रखने वालों की लाइन लगी हुई है । 65 न्यूज चैनल अब भी सूचना प्रसारण मंत्रालय से लाइसेंस पाने के इंतजार में हैं ।
सरकार तीन करोड़ या बीस करोड़ में लाइसेंस बेचने के बाद इस बात से मतलब नहीं रखती कि उनके पास चैनल चलाने और पत्रकारों –गैर पत्रकारों को वेतन देने के लिए पैसा है या नहीं । सरकार इस बात पर भी ध्यान नहीं देती कि जो लाइसेंस दिये गये हैं उसका इस्तेमाल कैसे हो रहा है ?। दरअसल, पचास फीसदी से ज्यादा चैनलों के पास अपना लाइसेंस तक नहीं है । वे दूसरों के लाइसेंस किराये पर लेकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं । ऐसे चैनलों को श्रम कानूनों की कोई चिता नहीं रहती ।
वह सिर्फ चुनावी मौसम में अपना उल्लू सीधा करने बाजार में उतर जाते हैं । सरकार को भी यह पता है । पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय के उन अधिकारियों को भी इन बातों की कोई परवाह नहीं जिनके ऊपर लाइसेंस का दुरुपयोग रोकने की जिम्मेदारी है । नतीजतन, पत्रकारों का अहित हो रहा है । हालत कितनी बुरी है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुछ समाचार चैनल अपनी महिला पत्रकारों को कानूनी तौर पर अनिवार्य मैटर्निटी लीव तक की सुविधाएं नहीं देते ।
टीवी पत्रकारों की दयनीय हालत के लिए बेशक गैर पेशेवर चैनल मालिक और सरकार को हम दोषी मानें लेकिन कहीं ना कहीं अपनी बिरादरी की दुर्शशा के लिए वो पत्रकार भी जिम्मेदार हैं जो मोटी जेब वाले मालिकों को आधी अधूरी जानकारी देकर टीवी चैनल खोलने के लिए तरह तरह के सब्जबाग दिखाते हैं । जबकि यह कोई छोटा-मोटा धंधा नहीं है । इस धंधे के लिए कम से कम सौ करोड़ का बजट और मुनाफे के लिए चार-पांच साल तक इंतजार करने का धैर्य होना चाहिये । धंधे की इस बारीकी को गैर पेशेवर मालिक नहीं समझ पाता । बड़े पत्रकार सिर्फ 20 से 25 करोड़ में चैनल चला लेने का भरोसा दिला कर सिर्फ अपनी जेब भरते हैं । बेशक वो मोटी तनख्वाह के नाम पर हो या फिर चैनल के तकनीकी सेट अप के नाम पर कमीशन के रुप में । साल भर के भीतर ऐसे चैनल हांफने लगते हैं । लेकिन सवाल उठता है कि इसकी कीमत कौन चुकाता है ? पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मचारी ।
टीवी न्यूज चैनल के संचालन में हर रोज लाखों का खर्च है । चार –पांच साल बाद धीरे-धीरे कमाई आनी शुरु होती है । अब जिन मालिकों को पत्रकारों ने आधी-अधूरी जानकारी देकर धंधे में उतार दिया है वे चैनल लॉन्चिंग के बाद ही सकते में आ जाते हैं. विजिबिलिटी की समस्या उन्हें घेर लेती है। चैनल का मतलब ही क्या जब वह कहीं दिखे ही नहीं. यहां उनका सामना केबल और डिश ऑपरेटरों के गिरोहनुमा समूह से होता है. यहां एक तरह से चैनल बेबस हो जाते हैं । इनसे केबल ऑपरेटर मनमर्जी पैसा लेते हैं और ‘ताकतवर’ मीडिया उनके सामने गिड़गिड़ाता रहता है । बिना केबल ऑपरेटर को खुश किए आपका चैनल कहीं दिखेगा हीं नहीं ।
अगर आपके चैनल को देश भर में दिखना है तो डिस्ट्रीब्यूशन का बजट ही लगभग अस्सी करोड़ रुपये सालाना है । छोटे या क्षेत्रीय चैनलों के लिए यह लागत 25 से 30 करोड़ रुपये बैठती है । जितने में चैनल शुरु हुआ है, उससे से दो गुना डिस्ट्रीब्यूशन के लिए लगाने की बात सुनते ही मालिक के हाथ पैर सुन्न पड़ जाते हैं । तब मालिक की सेहत सुधारने के लिए संपादक मंडली तरह-तरह के रास्ते बताती है । सबसे पहला रास्ता होता है कॉस्ट कटिंग का । और यह कॉस्ट कटिंग कर्मचारियों की छंटनी से शुरु होती है । इससे भी मालिक की सेहत नहीं सुधरती तो वेतन लटका दिया जाता है ।
कम से कम लोगों से ज्यादा से ज्यादा काम लेने की प्रवृत्ति शुरु बढ़ने लगती है, नतीजतन छुट्टियों, कामकाजी घंटों आदि की अवधारणा ही यहां खत्म हो जाती है । जब इस तरह की मानसिकता में चैनल जी रहे हों तब प्रमोशन, इन्क्रीमेंट जैसी चीजें तो दूर की बात हो जाती है ।
इतना हीं नहीं, टीवी न्यूज़ चैनलों के बढ़ती भीड़ के बीच मीडिया संस्थानों के अंदर प्रबंधन के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की आवाज़ उठाने का चलन ख़त्म हो गया है। अपनी तमाम खूबियों और क्षमताओं के बावजूद मीडिया संस्थान में टिकने की गारंटी बॉस की गुडबुक में नाम लिखा देना भर रह गया है ।। किसी भी तरह की यूनियन की सुगबुगाहट को मीडिया के भीतर तकरीबन अपराध जैसा घोषित कर दिया गया है। कटु सत् यह भी है कि, यूनियन को ख़त्म करने की प्रबंधन की चाह को ऊपर के पदों पर बैठे पत्रकारों का भी लगातार समर्थन रहा है ।
ऊपर मैंने, “गैर पेशेवर मालिक” शब्द का जिक्र किया है । इससे मेरा आशय उन चैनल मालिको से हैं जो पत्रकार नहीं हैं । लेकिन जिन चैनलों के मालिक पेशेवर यानि पत्रकार हैं ,उनकी हालत बेहतर है । आज शीर्ष पर जो भी चैनल हैं, उनके मालिक या तो पूर्ण रुप से पत्रकार हैं या फिर उनका मूल कारोबार मीडिया है । मसलन आजतक के मालिक अरुण पुरी , एनडीटीवी के प्रणय रॉय, इंडिया टीवी के रजत शर्मा ।
इसी तरह टाइम्स नाऊ और एबीपी है जिसके पीछे क्रमश: बैनेट कॉलमेन और आनंद बजार पत्रिका जैसा मीडिया समूह है । आखिर ,ये चैनल क्यों नहीं बदं हुए ? आखिर ये टॉप पर क्यों हैं ? जवाब साफ है, इनके मालिकों को मीडिया के धंधे की बारीकी मालूम है । लेकिन चिट फंड, बिल्डर या फिर राजनेताओं के रिश्तेदार जब चैनल लेकर आते हैं तो वो तुरंत फायदे की उम्मीद लगाने लगते हैं , और यहीं से चैनल और उससे जुड़े पत्रकारों की दुर्दशा शुरु हो जाती है ।
ऐसा भी नहीं है कि पत्रकारों के हितों के लिए मालिकों पर नकेल कसने की कोशिशें नहीं हुई । सूचना तकनीक पर बनी संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने सुझाव दिया है कि अब मीडिया नियमन के लिए एक वैधानिक अधिकारों वाली संस्था बनानी जरूरी हो गई है जिसमें प्रिंट के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नियमन का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। कमेटी ने इसके लिए एक नई मीडिया काउंसिल बनाने का सुझाव दिया है और किन्हीं वजहों से ऐसा न हो पाने की स्थिति में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अलग-अलग वैधानिक अधिकार प्राप्त कमेटी बनाने पर जोर दिया है।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कमेटी ने नियमन के लिए प्रस्तावित किसी भी तरह की संस्था से मीडिया मालिकों को पूरी तरह बाहर रखने को कहा है। इस रिपोर्ट में मीडिया कंपनियों से उनकी वार्षिक आय को सार्वजनिक किए जाने और पत्रकारों की काम करने की स्थितियों में सुधार किए जाने की भी वकालत की गई है। इन बातों से लगता है कि कमेटी ने चलताऊ रवैया अपनाने के बजाय भारतीय मीडिया की वर्तमान हालत को गंभीरता से समझने की कोशिश की है।
लेकिन स्टैंडिंग कमेटी की इस रिपोर्ट को निजी मीडिया घराने और उनके समर्थक सिरे से खारिज कर रहे हैं, वे दोहरा रहे हैं कि स्व नियमन ही सबसे बेहतर तरीका है और उनकी तरफ से बनायी गई स्वनियमन की संस्थाएं इसको बखूबी अंजाम दे रही हैं। कमिची ने इस बात पर भी रोक लगाने का सुझाव दिया है कि ऐसे प्रावधान होना चाहिये कि कोई पूंजीपति अपने बाकी धंधों को चमकाने के लिए मीडिया में पैसा लगाकर उसका इस्तेमाल अपने हित में न कर सके। क्रॉस मीडिया ऑनरशिप की बात पर भी कमेटी ने चिंता दर्शाई है।
बहरहाल, सरकार टीवी उद्योग और उसके पत्रकारों की हालत सुधारने की दिशा में कहीं से भी गंभीर नजर नहीं आती । सरकार ने कभी भी मीडिया संस्थानों में श्रमिक नियमों का सख्ती से पालन कराने की कोशिश नहीं की । बल्कि, उदारीकरण के दौर में सरकार ने श्रम नियमों को किस तरह तिलांजलि दी है ये किसी से छिपा नहीं । ये तो उसकी मज़बूरी है कि भारतीय लोकतंत्र में कुछ समाजवादी रुझान वाले तत्व संस्थागत रूप ले चुकी हैं जिन से खुद को अलग करना सरकार के लिए अब आसान नहीं है । अख़बारों के पत्रकारों और कर्मचारियों के लिए बना वेज बोर्ड उसी श्रेणी में आता है । ये बोर्ड तब अस्तित्व में आया जब बाक़ी संचार माध्यमों का विकास नहीं हुआ था । सरकार चाहती तो तो वो वक़्त बदलने के साथ टेलीविजन, रेडियो और वेब के भी सारे पत्रकारों और कर्मचारियों को वेज बोर्ड में शामिल कर लेती या सभी क्षेत्रों के श्रमिकों के लिए वेज बोर्ड बना लेती । मतलब साफ़ है कि अतीत से चली आ रही संस्थागत परंपराओं को पूरी तरह त्यागने में सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं इतना वो भी जानती है । ये कुछ ऐसा ही है जैसे सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कई कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने की पूरी इच्छा के बाद भी जन विरोध की वजह से उन्हें वो अब तक निजी हाथों के हवाले नहीं कर पाई है। हालांकि, मजीठिया को लेकर जो कुछ चल रहा है वो भी किसी से छिपा नहीं है ।
पत्रकारों और बाक़ी अख़बारी कर्मचारियों के लिए बने वेज बोर्ड की सिफ़ारिशें जिन उलझनों में फंसी है उससे लगता नहीं है कि ये सिफ़ारिशें आसानी से लागू हो पाएंगी और टीवी पत्रकारों को भी उसमें शामिल किया जायेगा । सिर्फ़ पत्रकारों की एकता ही उद्योगपतियों और सरकार से अपने अधिकार छीन सकती है । इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है. हर मीडिया घराने/यूनिट में पत्रकार संगठन की अनिवार्य मौज़ूदगी ही मालिकों के बेलगाम फ़ैसलों पर कुछ रोक लगा सकती है. इसके लिए उनका श्रमिक आंदोलनों के राजनीतिक इतिहास से जागरूक होना भी ज़रूरी है. वरना मौजूदा विकल्पहीनता छाई रहेगी ।
उदय चंद्र सिंह, singhudaychandra@gmail.com Mobile:9910085823