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खबरें कहां से आती हैं ?

खबरें कहां से आती हैं ?

टेलीविजन समाचार चैनलों में अगर न्‍यूज़ डेस्‍क को धुरी मानकर चलते हैं, तो सवाल उठता है कि इस धुरी के इर्द-गिर्द लगा खबरों का अंबार आखिर कहां से आता है ? या फिर आखिर वे कौन से स्रोत हैं, जिनके जरिए खबरें न्‍यूज़ डेस्‍क तक पहुंचती हैं ? आजकल हर समाचार चैनल में एसाइनमेंट डेस्‍क की व्‍यवस्‍था है, जो खबरों को न्‍यूज़ डेस्‍क और इससे जुड़े अन्‍य डेस्‍क तक पहुंचाने का काम करती है। यानी एसाइनमेंट डेस्‍क को खबरों की पाइपलाइन कहें तो गलत नहीं होगा। एसाइनमेंट डेस्‍क के कारिंदों की टीम खबरों, उनसे जुड़े वीडियो, तस्‍वीरों, ऑडियो, लि‍खित सामग्री और दूसरी चीजों को न्‍यूज़ डेस्‍क के लिए मुहैया कराने का काम करती है। ऐसे में कुछ और सरल तरीके से समझा जाए, तो एसाइनमेंट डेस्‍क समाचार चैनलों के इनपुट डिपार्टमेंट यानी खबरों के स्रोतों और आउटपुट डिपार्टमेंट यानी खबरों को प्रसारण योग्‍य बनाने वाले न्‍यूज़ डेस्‍कके बीच सेतु का काम करता है।

इस तरह एसाइनमेंट डेस्‍क की भूमिका समाचार चैनलों में काफी अहम हो जाती है, क्‍यों उन पर समय से खबरों को प्रसारण के लिए हासिल करने और संबंधित लेागों तक पहुंचाने की जिम्‍मेदारी होती है। चूंकि एसाइनमेंट डेस्‍क खबर के समाचार चैनल तक पहुंचने की राह में पहला चेक पोस्‍ट है, लिहाजा उससे खबरों की खबरिया गुणवत्ता जांचनेकी भी उम्‍मीदकी जाती है, हालांकि सरसरी तौर पर देखें, तो आजकल ऐसा कम ही होताहै और सारा का सारा कच्‍चा माल सीधे आउटपुट को सौंप दिया जाता है, इस उम्‍मीद में कि वे जैसे चाहें उनका इस्‍तेमाल करें या न करें।इस प्रक्रिया में कई बार वास्‍तविक खबरें कच्‍चे माल के बाहर नहीं निकल पातीं और दबी रह जाती हैं, क्‍योंकि न्‍यूज़ डेस्‍क के पास कच्‍ची स्क्रिप्‍ट नहीं होता। ऐसे में जब किसी और प्रतिद्वंद्वी समाचार संगठन की ओर से कई खबरें पेश की जाती हैं, उसके बाद खोजबीन होती है और पता चलता है कि हम खबर के मामले में पिछड़ गए। ये खबरों के प्रवाह की उस व्‍यवस्‍था की गड़बड़ी के कारण होता है, जिसकी शुरुआत एसाइनमेंट डेस्‍क की होती है। दरअसल इसके पीछे वजह ये है कि एसाइनमेंट डेस्‍क पर काम करने वाले लोग भी खबर या उससे जुड़ एंगल की पहचान और खोजबीन खुद नहीं करते, बल्कि उसके लिए उन स्रोतों के विवेक पर निर्भर रहते हैं जहां के वास्‍तव में उन्‍हें खबरों का कच्‍चा माल हासिल होता है। उदाहरण के लिए फील्‍ड में मौजूद संवाददाता फील्‍ड से घटना को कवर करके भेजते हैं, और घटना का पूरा ब्‍योरा भी देते हैं, लेकिन उक्‍त घटना विशेष में खबर निकल रही है या नहीं इसके बारे में वे नहीं बता पाते क्‍यों उन्‍हें इसकी समझ नहीं होती। लिहाजा घटना जुड़े ब्‍योरे, वीडियो फीड, ऑडियो की छानबीन के बाद कई बार इतनी बड़ी खबरें निकलती हैं, जो समाचारों की दुनिया में तहलका मचा सकती हैं।

मसलन, ऐसी स्थिति कई बार नेताओं या किसी बड़ी हस्‍ती के बयान की कवरेज में सामने आती है, जब आधे घंटे का पूरा भाषण रिकॉर्ड करके भेज दिया जाता है, लेकिन खबर के नजरिए से उसमें क्‍या महत्‍वपूर्ण है, इसकी कोई जानकारी किसी को नहीं होती। फीड में कुछ काम का है, ये तब पता चलताहै, जब कोई समय निकालकर उसकी पड़ताल करता है या इवेंट या हस्‍ती के नाम पर कुछ तलाशने की कोशिश करता हैा उदाहरण के लिए, प्रधानमंत्री अगर विज्ञान भवन में भाषण देते हैं तो उनका हर लाइन खबर नहीं हो सकती, लेकिन अगर सरकार पर खतरे की चर्चा खबर की दुनिया में गर्म हो और वे अपने भाषण में इससे जुड़ा कुछ बोल जाएं तो वह बात खबर बन सकती है, लिहाजा एसाइनमेंट डेस्‍क और फिर न्‍यूज़ डेस्‍क से जुड़े लोग समय और परिस्थितियों पर पैनी निगाह रखतेहुए तमाम खबरिया कच्‍चे माल से खबरों की खोजबीन में लगे रहते हैं। इसका एक और ज्‍वलंत उदाहरण वित्‍तमंत्री का डेढ़ घंटे का बजट भाषण है, जिसमें टैक्‍स से राहत और सामानों के सस्ते-महंगे होने की जानकारियां ही आम दर्शकों के लिए खबरिया महत्‍व रखती हैं, इस बात से आम तौर पर लोगों को कोई मतलब नहीं होता कि सरकार की आमदनीकितनी घटी या बढ़ी या किस मद में कितनी रकम आवंटित की गई है।

हां,चुनिंदा दर्शकवर्ग की दिलचस्‍पी उन चीजों में भी हो सकती है, जिनका बड़े दर्शक वर्गसेककोईलेना-देना न हो, लेकिन समाचार का कारोबार सीमित ऑडिएंस के लिए नहीं चलता,उनकेलिएज्‍यादाविस्‍तारसे जानकारी अखबारों और वेबसाइट पर मुहैया करा दी जाती है। तो मुद्दा ये है कि बजट भाषण में खबर के लिहाज से क्‍या जरूरी निकल रहा है या नहीं, इस पर पूरे भाषण के दौरान निगाह रखनी पड़ती है। ऐसे ही और भी मामलों में होता है। जैसे चोरी-डकैती जैसे अपराधों की कवरेज तो बड़े स्‍तर पर रोजाना होती है, लेकिन अगर सिर्फ ये दिखाया जाए कि आज अमुक इलाके में इतने की चोरी हो गई, तो बात नहीं बनती, खबर तो तब निकलती है जब उसमें कुछ और एंगल हो। मुंबई से चोरी की खबर एक कच्‍ची स्क्रिप्‍ट की बानगी देखें—’मुंबई में आजकल चोरों का आतंक बढ़ गया है।

कल रात जुहू इलाके में चोरों ने धावा बोलकर लाखों का माल उड़ा लिया। पुलिस ने कई चोरों को पकड़ा भी है, जिनमें से एक अमुक संगीतकार के घर नौकर का काम करता था।’ यूं तो पहली लाइन भी खबर है, लेकिन खबर के दूसरे पहलू को देखें तो इसमें आखिरी जानकारी ज्‍यादा अहमियत रखती है कि ‘मुंबई में बॉलीवुड के संगीतकार का नौकर निकला चोर। वह चोरों के उस गिरोह में शामिल था, जिसने जुहू इलाके के कई घरों से लाखों का माल गायब किया।’ ऐसी रोजाना आने वाली खबरों में अगर कोई खास और दिलचस्‍प एंगलन निकले तो उन्‍हें इस्‍तेमाल करना जरूरी नहीं लगता। यहां मुद्दा इस बात पर आकर टिक जाता है कि असल में खबर क्‍या है और इसकी समझदारी खबर की दुनिया में काम करने वालो को है या नहीं।

खबर असल में क्‍या है, इस मुद्दे पर तो विस्‍तार से अलग से चर्चा की जा सकती है, लेकिन फिलहाल बात ये हो रही है कि खबरें आती कहां से हैं, तो इस सवाल का एक सीधा सा जवाब तो ये है कि खबर, खबर की समझदारी से आती है और खबरों की समझदारी रखने वाले लोग तमाम घटनाओं और जानकारियों में से जरूरत के मुताबिक खबर निकालकर इस्‍तेमाल करते हैं। लेकिन मुद्दा सिर्फ ये नहीं है कि खबर कैसे निकाली जाए। 24 घंटे का समाचार चैनल चलाने के लिए ऐसी तमाम घटनाओं और जानकारियों का प्रवाह जारी रहना चाहिए, जिनसे खबर निकलने वाली हो। इसके तमाम स्रोत इन दिनों खबर की दुनिया में मौजूद हैं।

खबरों का सबसे बड़ा स्रोत समाचार एजेंसियों और वायर सर्विसेज है, जो तमाम समाचार चैनलों को रोजाना घटित होने वाली घटनाओं की फीड और कच्‍ची स्क्रिप्‍ट मुहैया कराती हैं। भारत में प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया, भाषा, यूनाइटेड न्‍यूज़ ऑफ इंडिया, वार्ता, एएनआई और कई और ऐसी एजेंसियां हैं, जो खबरों का कारोबार करती हैं और समाचार संगठनों को खबरें मुहैया कराती हैं। विदेशी एजेंसियों में रॉयटर्स, एसोसिएटेड प्रेस, ब्‍लूमबर्ग, बिजनेस वायर, मार्केट वायर जैसी एजेंसियां हैं। समाचार एजेंसियां कई तरह की हो सकती हैं—सरकारी मदद से चलने वाली, कॉरपोरेट और समाचार संगठनों के सहकारी प्रबंधन वाली।

आम तौर पर तमाम देशों की सरकारी समाचार एजेंसियां हैं, जिनका काम सरकार और देश की घटनाओं से जुड़ी बड़ी जानकारियां देना है—मसलन चीन की शिन्‍हुआ और रूस की इतर—तास जैसी एजेंसियां। रॉयटर्सऔर एपी जैसी एजेंसियां अब कॉरपोरेट रूप ले चुकी हैं, वहीं भारत की पीटीआई और यूएनआई सहकारी समाचार व्‍यवस्‍था के उदाहरण हैं। समाचार एजेंसियों से खबर लेने के लिए समाचार संगठन निर्धारित फीस देकर उनकी सदस्‍यता लेते हैं या जरूरतके मुताबिक उनसे खबरें खरीदते हैं। इन समाचार एजेंसियों से और संगठनों तक पहुंचाया जाता है। पहले ये काम टेलीप्रिंटर और डाक से वीडियो टेप भेजकर किया जाता था, अब कंप्‍यूटरीकृत व्‍यवस्‍था में ‘लाइव’ हो चुका है।

समाचार एजेंसियों के अपने संवाददाता और संवाद-सूत्र तमाम इलाकों में मौजूद होते हैं, जो घटना की कवरेज कर उनकी कच्‍ची जानकारी एजेंसीज तक भेजते हैं और एजेंसीज बजरिए एसाइनमेंट डेस्‍क, समाचार चैनलों को वे चीजें मुहैया कराती हैं। समाचार एजेंसीज की भूमिका आजकल इस लिहाज से बढ़ गई है कि उनके संवाद-सूत्र चप्‍पे-चप्‍पे पर मौजूद होते हैं और त्‍वरित गति से जानकारी मुहैया कराते हैं। ऐसे में समाचार चैनलों को अब अपने संवाददाताओं पर निर्भरता लगभग खत्‍म होती जा रही है। समाचार चैनलों के पास भी संवाददाता होते हैं, लेकिन इतनी संख्‍या में नहीं, कि वे हर मौका-ए-वारदात पर मौजूद रह सकें। ऐसे में खबरों के मामलें में पिछड़ने के बजाय समाचार चैनल एजेंसि‍यों पर ज्‍यादा भरोसा करने लगे हैं। अपने संवाददाताओं की अहमियत अब सिर्फ मौके पर चैनल की उपस्थिति दर्ज कराने के लिए या किसी बड़ी घटना के बारे में लाइव चैटिंग के लिए ही देखी जा सकती है। ऐस कम ही मामले होते हैं, जब संवाददाताओं को घटनास्‍थलों से लाइव रिपोर्टिंग करते देखा जा सकता हो।

कहने को लाइव रिपोर्टिंग जो होती है, वह घटना घटने के बाद उसके विश्‍लेषण के लिए न कि खबर निकालने के लिए। कुछ खास मौकों पर खास मामलों में तैनात खास संवाददाता अपने समाचार चैनलों के लिए खास स्‍टोरीज भी करते हैं, जो किसी खबर पर आधारित होती है और उसका महत्‍व उक्‍त खबर की पड़ताल, उसके विश्‍लेषण से जुड़ा होता है। राष्‍ट्रपति-प्रधानमंत्री के विदेश दौरों पर भी समाचार चैनलों के संवाददाताओं के साथ जाने की परंपरा चली आ रही है, लेकिन उनसे खबरों की उम्‍मीद कम ही की जाती है क्‍योंकि जो खबरें आती हैं, वे सार्वजनिक होती हैं, एक्‍सक्‍लूसिव के नाम पर कोई संवाददाता किसी बड़ी हस्‍ती का इंटरव्‍यू करने में कामयाब रहता है, जिससे शायद ही कभी कोई बड़ी खबर निकले, तो कुल मिलाकर समाचार चैनल के अपने संवाददाता का काम मौके पर चैनल की उपस्थिति रजिस्‍टर कराने

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