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राजनीति के मीडियाकरण का दौर: सरकारी योजनाओं पर आलोचनात्मक क्यों नहीं है मीडिया?

राजनीति के मीडियाकरण का दौर: सरकारी योजनाओं पर आलोचनात्मक क्यों नहीं है मीडिया?

सीमा भारती।

इन दिनों टेलीविज़न पर प्रधानमंत्री के स्वच्छता मिशन से सम्बद्ध एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है। इस विज्ञापन में “जहां सोच वहां शौचालय” के टैग लाइन के साथ शौचालय बनवाओ और इस्तेमाल करो की बात कही जाती है। संदेश देने वाली अभिनेत्री विद्या बालन है, जिसकी छवि एक खास फिल्म “इश्किया” के बाद अधिकार-चेतस ग्रामीण स्त्री की बनी। विद्या बालन की इसी छवि का इस्तेमाल विज्ञापन में किया गया है और जिनको वह संदेश देती है उन्हें घूँघट की पुरानी प्रथा पर यकीन करने वाले यानी स्त्री को ‘लाज या संरक्षा की वस्तु’ मानने वाले परिवार के रूप में चित्रित किया गया है। विज्ञापन में नयी दुल्हन के आने के बाद उसके प्रति उसके ससुराल के रवैये को चित्रित करने की कोशिश में यह दिखाया जाता है कि अगर घूँघट का अर्थ बचाये रखना है तो ससुराल वालों को शौचालय जरूर बनवा लेना चाहिए।

विज्ञापन का मूल विचार है सरकार द्वारा खुले में शौच करने की भारतीयों की आदत को शर्मनाक ठहराना। यह विज्ञापन एक नैतिक शिक्षा की तरह है। खुले में शौच का संबंध आदत या अभ्यास से तो है ही, उसका संबंध साफ-सफाई के साधनों के अभाव से भी है। यानी खुले में शौच करने से होने वाली बीमारियों के बारे में जानकारी के अभाव के साथ-साथ शौचालय का ना होना इस बात का भी संकेतक है कि लोगों को गरिमापूर्वक जीवन जी पाने की स्थितियां (शिक्षा, जीविका, आवास, स्वास्थ्य सुविधा आदि) प्रदान करने के अपने जरुरी कर्तव्य के निर्वाह में राज्यसत्ता असफल रही है। विज्ञापन विकास विषयक एक जटिल संदेश को एक सरल संदेश में बदल देता है, कुछ ऐसे कि राज्यसत्ता के कर्तव्य निर्वाह में असफल रहने की बात सामने ही नहीं आ पाती, सिर्फ इतना सामने आता है कि खुले में शौच करना शर्मनाक है और इसका सारा दोष परंपरागत जीवन जीने वाली जनता का ही है।

मई के महीने में जब एनडीए सरकार ने अपने एक साल पूरे किए तो एकबारगी शौचालय संबंधी समाचारों की बाढ़ आ गई। इस समय एनडीए सरकार अपनी उपलब्धियों को शोकेस कर रही थी और उसने अपनी उपलब्धियों में एक बिन्दु स्वच्छता मिशन को भी बनाया था। यह कहना मुश्किल है कि शौचालय संबंधी समाचारों का संबंध स्वच्छता मिशन की उपलब्धियों के बखान से था तो भी यह जरुर कहा जा सकता है कि मई महीने में अखबारों में आये शौचालय संबंधी समाचारों का एक निश्चित रिश्ता उपर्युक्त विज्ञापन से है। ये समाचार विज्ञापन में प्रस्तुत विचार के रिश्तेदार जान पड़ते हैं। परंपरागत जीवन जीने वाले समुदाय (ग्रामीण) के खुले में शौच की आदत को शर्मनाक ठहराने के सरकारी विज्ञापन के विचार को समाचारों में नया परिवेश प्रदान किया गया। इस परिवेश को समझने के लिए हमें इस बीच छपे कई समाचारों पर गौर करना होगा।

शौचालय संबंधी समाचारों में मूल समाचार तीन तरह का था—एक, शौचालय ना होने पर तलाक लेना, दो, दहेज के रुप में शौचालय मिलना, तीन, शौचालय होने की स्थिति के पक्ष में पुरस्कार प्रदान करना. तीनों तरह के समाचारों के केंद्र में स्त्री है और कथा-परिवेश विवाह का है। समाचारों का स्वरुप अखिल भारतीय है यानी उत्तर दक्षिण (महाराष्ट्र, यूपी आदि) ऐसे समाचारों में यह भी छपा देखा कि प्रधानमंत्री का स्वच्छता मिशन रंग ला रहा है, औरतें शौचालय निर्माण को लेकर आगे आ रही हैं।

इसी महीने दैनिक जागरण में यह खबर छपी कि महाराष्ट्र के अकोला जिले में शादी में जूलरी की जगह शौचालय की मांग करने वाली लड़की को सुलभ शौचालय की तरफ से दस लाख का नगद पुरस्कार देकर पुरस्कृत किया जाएगा। यह पुरस्कार उसकी इच्छा शक्ति और स्वच्छ भारत मिशन कैंपेन में सहभागिता को देखते हुए दिया जाएगा। गौरतलब है कि अकोला जिले के एड्यूरा गांव की चैताली गलाखे ने अपनी शादी में जूलरी को कम तवज्जो देते हुए अपने घरवालों से शौचालय की मांग की थी। ऐसी ही एक दूसरी खबर है “शौचालय बगैर ससुराल, शादी से इनकार” यह खबर नवभारत टाइम्स में आयी है। एक खबर यह भी आई कि “बारात लौटी बिन शादी के” इससे भी बढ़कर एक खबर आयी है कि “दहेज में शौचालय लेकर ससुराल पहुंची बहू” यहां यह देखना अत्यंत रोचक है कि जिस दहेजप्रथा कि कुरीतियों से हमारा समाज आक्रांत है और लम्बे समय से जिसके उन्मूलन के प्रयास किये जा रहे हैं मीडिया एक तरह से उसी की पैरवी में क्यों जुटा है।

क्या खुले में शौच की समस्या का सम्बंध सिर्फ स्त्रियों से है, क्या शादी नाम की परिघटना में स्त्री की निजी पसंद को प्रकट करने का मामला सिर्फ शौचालय के होने या ना होने से जुड़ा है, जिस वर से उसका ब्याह हो रहा है उसके रुप-गुण के पसंद-नापसंद से नहीं? क्या शौचालय सिर्फ इसलिए बनवाये जायें ताकि नयी बहू, जिसे की परंपरागत समाज लाज और इज्जत की वस्तु समझता है, उसकी लाज ढंकी रहे? साथ ही शादी जैसा मुद्दा जो कि एक नितांत ही निजी फैसला होता है उसपर राज्य के द्वारा अपने एजेंडे को थोपने का क्या मतलब है? क्या यह एक तरह से हमारे मौलिक अधिकारों का हनन नहीं? स्त्री सशक्तिकरण में ही सहयोग देना है तो उसे अपने आगामी जीवन के फैसलों के अधिकार की जागृति क्यों नहीं? वह किससे शादी करेगी यह फैसला उसका अपना क्यों नहीं? सिर्फ शौचालय के होने या ना होने से ही वह भ्रमित क्यों हो? बात को अगर दूर तक ले जा कर सोचें तो यह नागरिकों के लोकतान्त्रिक अधिकारों का हनन है और उसमे मीडिया सहयोगी की भूमिका में नज़र आ रहा है।

विकास-केंद्रित नीतियों के प्रचार का काम स्त्री के बारे में खास तरह का विचार गढ़ रहा है और स्त्री को लेकर चले आ रहे कुछ पूर्वाग्रहों को और ज्यादा पुष्ट करने का काम भी कर रहा है। अजब यह है कि ऐसा स्त्री-सशक्तिकरण के नाम पर हो रहा है, जताने की कोशिश है कि विकास का विचार स्त्रियों के सबलीकरण के पक्ष में है। मीडिया राज्य केंद्रित विकास के विचार को विश्लेषण करने की जगह उसमें सहयोगी की भूमिका निभाता दिख रहा है। ऐसे संकेत हाल-फिलहाल शौचालय को लेकर छपे समाचारों को पढ़ने से मिलते हैं। साफ-सफाई की आदतों को सिर्फ नव ब्याहता स्त्री से जोड़कर देखने वाले समाचार एक बड़ी समस्या का लाघवीकरण करते हैं। यह भी समझ से बाहर है कि शौच जैसी समस्या जो कि एक आम समस्या है और उसमे सिर्फ स्त्री-पुरुष ही नहीं बच्चे भी शामिल हैं, उसे सिर्फ स्त्रियों से ही जोड़कर दिखाने या समझाने के मूल कारण क्या हो सकते हैं। यहां यह भी जानना रोचक है कि मल- मूत्र की गन्दगी से सभी एक सामान रूप से प्रभावित होते हैं वहां भी स्त्रियों को विशेष सुरक्षा की जरुरत नहीं है। ऐसे में मीडिया द्वारा उसे स्त्री-प्रजाति की मुख्य समस्या के रूप में क्यों प्रस्तुत किया जा रहा है।

सबसे पहले हम उन तथ्यों की और देखें जहां से शौचालय की कवायद शुरू हुई। हम पाते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में 1990 के एक विश्व सम्मेलन में यह वादा किया गया था कि सन 2000 तक सभी को आधुनिक शौचालय मुहैया करा दिया जाएगा। उसके बाद सन 2000 में वादा किया गया कि 2015 तक विश्व के आधे लोगों को आधुनिक शौचालय मुहैया करा दिये जायेंगे। भारत समेत दुनिया के तमाम देशों ने इस वचनपत्र पर हस्ताक्षर किये हैं और इस दिशा में काम भी कर रहे हैं। भारत के आंकड़ों को देखें तो ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 3% लोगों के पास फ्लश टायलेट हैं और शहरों में भी यह आंकड़ा 22.5% को पार नहीं करता।

भारत में स्वच्छता का नारा काफी पुराना है, लेकिन अब भी देश की एक बड़ी आबादी गंदगी के बीच अपना जीवन बिताने को मजबूर है। 2011 की जनगणना के अनुसार, राष्ट्रीय स्वच्छता कवरेज 46.9 प्रतिशत है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह औसत केवल 30.7 प्रतिशत है। अब भी देश की 62 करोड़ 20 लाख की आबादी यानी राष्ट्रीय औसत 53.1 प्रतिशत लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं। राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय के उपयोग की दर 13.6 प्रतिशत, राजस्थान में 20 प्रतिशत, बिहार में 18.6 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत है। केवल ग्रामीण ही नहीं, बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी शौचालयों का अभाव है। यहां सार्वजनिक शौचालय भी पर्याप्त संख्या में नही हैं, जिसकी वजह से हमारे शहरों में भी एक बड़ी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है।

गौरतलब है कि सरकार द्वारा 1999 में संपूर्ण स्वच्छता अभियान कार्यक्रम शुरू किया गया था, जिसका मूल उद्देश्य ग्रामीण भारत में संपूर्ण स्वच्छता लाना और 2012 तक खुले में शौच को सिरे से खत्म करना था। इसमें घरों, विद्यालयों तथा आंगनबाड़ियों में स्वच्छता सुविधाओं पर विशेष बल दिया गया है। स्वच्छता अभियान के तहत स्थानीय स्तर पर पंचायतों को जिम्मेदारी दी गई है कि वे गांव के स्कूल, आंगनबाड़ी, सामुदायिक भवन, स्वास्थ्य केंद्र और घरों में समग्र रूप से बच्चों को पेयजल, साफ -सफाई तथा स्वच्छता के साधन उपलब्ध कराएं, लेकिन यह कार्यक्रम अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में बुरी तरह असफल रहा।

अगर साफ-सफाई की कमी को दूर कर लिया जाए तो न केवल बच्चों की गंदगी जनित बीमारियों से हो रही मौतों में कमी आएगी, बल्कि उन्हें घरों, स्कूलों और आंगनबाड़ियों में शुद्ध पेयजल, शौचालय और सफाई के अवसर भी उपलब्ध हो सकेंगे, लेकिन अभी भी यह सपना दूर की कौड़ी लगता है। सच्चाई यह है कि सभी बच्चों को स्वास्थ्य, शारीरिक और मानसिक विकास देने की दिशा में अभी लंबा सफर तय करना है।

यह सारी ख़बरें मीडिया चालित राजनीति की सटीक तस्वीर पेश करता है। इस तरह के प्रकरणों से यह सहज ही प्राकट्य है कि किस तरह से संचार माध्यम राजनीति की महत्वपूर्ण नीतियों के मामलों में जनता की समझ को परिचालित करते हैं। यहां मीडिया चालित समाज की स्थितियों के पीछे राजनीति या सत्ता के साथ उसके गठजोड़ की बारीकियों को समझना होगा। राजनीति के कारोबार को सफल रूप से चलाने के लिए कुशल संचार की आवश्यकता होती है, इसलिए अब राजनीति बिना मीडिया के सहयोग के अपने कदम आगे बढ़ा ही नहीं सकती। यह दौर राजनीति के मीडियाकरण का दौर है और ऐसे में हमें उसके विज्ञापनदाताओं के दर्शक भर बनने से परे जा कर सोचना होगा। जनकेंद्रित विकास की नीतियों को समाज के बीच पहुंचाते वक्त ध्यान रखा जाना चाहिए कि संदेश स्त्री सम्बंधित विषय में रुढ़ छवियों को पुष्ट करने वाले ना हो जैसा कि विद्या बालन वाले विज्ञापन या शौचालय संबंधी समाचारों में है।

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