राजेश कुमार।
पत्रकारिता अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। जिसके जरिए समाज को सूचित, शिक्षित और मनोरंजित किया जाता है। पत्रकारिता के माध्यम से आने वाले किसी भी संदेश का समाज पर व्यापक असर पड़ता है, जिसके जरिए मानवीय व्यवहार को निर्देशित और नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसे में एक विशाल जनसमूह तक भेजे जाने वाले किसी संदेश का उद्देश्य क्या है और यह किससे प्रेरित है? यह सवाल काफी मायने रखता है।
पत्रकारिता के बदलते परिदृष्य में संदेशों को विभिन्न तरीके से जनसमूह के समक्ष पेश करने की होड़ मची है। लगातार यह प्रयास हो रहा है कि संदेश कुछ अलग तरीके से कैसे प्रकाशित प्रसारित हो। इस होड़ ने प्रयोग को बढ़ावा दिया है, जिससे समाचारों के प्रस्तुतीकरण का तरीका थोड़ा रोचक जरूर लगता है, लेकिन यह बनावटी है। इसके पीछे होने वाले तथ्यों के तोड़ मरोड़ और सनसनीखेज बनाने की प्रवृति ने कई विकृतियों को जन्म दिया है, जो पीत पत्रकारिता के दायरे में आता है।
समाचारों के प्रस्तुतीकरण से जुड़े प्रयोग पहले भी होते रहे हैं, लेकिन उनमें पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों के साथ कभी समझौता नहीं किया गया। यह विकृति विकसित देशों की पत्रकारिता से होते हुए विकासशील देशों तक पहुंची है और आज एक गंभीर समस्या का रूप धारण कर चुकी है। इसकी प्रमुख वजह विकसित देशों को मॉडल मानकर उनके पत्रकारिता के प्रयोगों को बिना सोचे समझे अपनाना है। पीत पत्रकारिता इसकी ही देन है।
खासकर वैश्वीकरण के बाद जिस तरीके से समाचारों के प्रस्तुतीकरण का तरीका बदला है और बदलता जा रहा है। इसने कई सवाल खड़े किए हैं। ऐसा नहीं है कि ये सवाल सिर्फ आज से जुड़े हैं। पहले भी थे और भविष्य में भी होंगे, लेकिन इसकी गंभीरता को अब महसूस किया जाने लगा है। कई स्तर पर इस मुद्दे को लेकर बहस जारी है। हर समाचार संगठन यह दावे के साथ कहता है कि वह स्वस्थ पत्रकारिता का पोषक है और समाचार प्रस्तुतीकरण के क्षेत्र में होने वाले सारे प्रयोग पत्रकारिता के सिद्धांतों और आचार संहिता को ध्यान में रखकर किया जा रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि पत्रकारिता ने एक नया चोला पहन लिया है, जो सिर्फ व्यवसाय की भाषा समझता है। इसके लिए नए नए तरीके ढूढे गए हैं। हर तरीका जाने-अनजाने में पीत पत्रकारिता को बढ़ावा देता है।
सूचना क्रांति के इस दौर में इंफोटेनमेंट और एडुटेनमेंट किसी भी समाचार संगठन की संपादकीय नीति का अहम हिस्सा बन गया है। तकनीकी रूप से इंफोटेनमेंट कहने का अर्थ सूचना को मनोरंजन के साथ और एडुटेनमेंट का अर्थ शिक्षा को मनोरंजन के साथ प्रस्तुत करना है। इसने समाचारों में घालमेल की स्थिति उत्पन्न कर दी है। सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का ऐसा घोल तैयार किया गया है, जिसमें समाचार और विचार के बीच फर्क करने में परेशानी हो रही है। सूचना और मनोरंजन के संयोजन में तथ्यों के तोड़ मरोड़ की प्रक्रिया ने पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों को ही चुनौती दे दी है। इन प्रवृतियों के बीज पीत पत्रकारिता में निहित हैं।
पीत पत्रकारिता और समाज
पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों को ताक पर रखकर की जाने वाली पत्रकारिता ही पीत है। इसके दायरे में पत्रकारिता के दौरान की जाने वाली निम्न गतिविधियां आती हैं।
- किसी समाचार या विचार का प्रकाशन प्रसारण पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर करना।
- किसी समाचार या विचार को बढ़ा चढ़ाकर पेश करना।
- किसी समाचार या विचार का प्रस्तुतीकरण सनसनीखेज तरीके से करना।
- फीचर के रूप में चटपटी, मसालेदार और मनगढ़ंत कहानियों को पेश करना।
- मानसिक और शारीरिक उत्तेजना को बढ़ावा देने वाले चित्रों और कार्टूनों का प्रकाशन प्रसारण।
- समाज के अहम मुद्दों को दरकिनार कर अपराध और सिनेमा से जुड़ी गतिविधियों का सनसनीखेज प्रस्तुतीकरण।
- राजनीतिक और आर्थिक प्रभुत्व वाले समूह से प्रभावित होकर पत्रकारिता करना।
आज के दौर में पत्रकारिता का स्वरूप बदल गया है। ज्यादातर समाचार संगठन आगे निकलने की होड़ में पत्रकारिता के सिद्धांतों की अनदेखी कर रहे हैं। यही वजह है कि पीत पत्रकारिता धीरे–धीरे अपना दायरा बढ़ाता जा रहा है। किसी भी समाचार संगठन का मूल उद्देष्य एक बड़े जनसमूह को किसी भी तरीके से बांधे रखना है, ताकि उनके व्यवसाय का श्रोत विज्ञापन स्थायी रूप से बना रहे। इस बात से हर समाचार संगठन के नीति निर्धारक भली भांति परिचित हैं। उन्हें यह भी मालूम है कि विशाल जनसमूह को हमेशा के लिए बांधे रखना दोहरी चुनौती है। पहला उनकी रूचियों का ध्यान रखना, जो बदलती रहती हैं।दूसरा अन्य जनसंचार माध्यमों के साथ होड़ में खुद को बनाए रखना। इस प्रवृति ने पीत पत्रकारिता को बढ़ावा दिया है।
हर समाचार संगठन की नीतियों में अलग प्रस्तुतीकरण को लेकर मंथन जारी है। इस मंथन के केंद्र में हर हथकंडे अपनाने पर चर्चा होती है, जो जाने अनजाने पीत पत्रकारिता की गतिविधियों को बढ़ावा देती है। ऐसा नहीं है कि शुरू से ही पत्रकारिता का यह स्वरूप सर्वमान्य रहा। शुरूआती दौर में कई समाचार संगठनों ने इसकी जमकर आलोचना की और इस तरीके को एक सिरे से खारिज किया, लेकिन समय के साथ-साथ मिशन का प्रोफेशन होना और इस प्रोफेशन को एक दम अलग तरीके से स्थापित करना कई समाचार संगठनों के लिए परेशानी का सबब बन गया।
बाजारवादी ताकतों ने पत्रकारिता को व्यवसाय की जगह व्यापार का स्वरूप प्रदान कर दिया। इसे ध्यान में रखते हुए कई बड़े राजनीतिक और व्यावसायिक घरानों का पत्रकारिता के क्षेत्र में आगमन हुआ, जिनका मुख्य उद्देश्य जनसेवा न होकर समाज और सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखना है। उन्हें यह भली भांति मालूम है कि पत्रकारिता एक ऐसा जरिया है जिससे जनसमूह में पैठ बनाई जा सकती है। उन्होंने जनसमूह को आकर्षित करने के लिए उनकी रुचियों को बदलने का प्रयास किया, जो पीत पत्रकारिता के तरीकों से ही संभव हुआ।
बदलते पत्रकारीय परिदृष्य में प्रबंधन ने तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने, समाचार को सनसनीखेज बनाने, चटपटी कहानियां प्रस्तुत करने और भडकाऊ चित्रों को प्रकाशित प्रसारित करने को संपादकीय नीति का हिस्सा बना दिया। संपादकों पर ऐसा करने का दबाव डाला गया। धीरे–धीरे पीत पत्रकारिता समाज में अपनी जड़ें मजबूत करता गया।
इस परिस्थिति ने छोटे और मझोले पत्रकारिता संगठनों के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी और प्रबंधन के बनाए मापदंडों के अनसुरण को बाध्य किया। कई सैद्धांतिक रूप से मजबूत समाचार संगठन भी डगमगाने लगे, लेकिन कुछ ने अब भी संतुलन बनाए रखा है और पीत पत्रकारिता को संपादकीय नीति का हिस्सा नहीं माना है।
पत्रकारिता की साख बनाए रखना हमेशा से चुनौतीपूर्ण रहा है, क्योंकि इसमें निम्न सिद्धांतों का पालन करना अत्यंत जरूरी होता है।
- यथार्थता
- वस्तुपरकता
- निष्पक्षता
- संतुलन
- श्रोत
पीत पत्रकारिता इन सिद्धांतों की पूरी तरीके से अनदेखी करता है। यदि यथार्थता की बात करें तो इसका संबंध किसी घटना के यथार्थ चित्रण से है। जो तथ्य है, वही प्रकाशित या प्रसारित किया जाना चाहिए। यह अपने आप में जटिल प्रक्रिया है, क्योंकि कई बार एक पत्रकार भी घटनास्थल पर नहीं होता, लेकिन वह समाचार का प्रकाशन प्रसारण करता है। इसके लिए वह तथ्यों की अच्छी तरीके से जांच परख करता है। यदि वह तथ्यों को बिना जांचे परखे समाचार का प्रसार करेगा तो निश्चित तौर पर वह इसे गलत तरीके से पेश करेगा, जो पीत पत्रकारिता है।
वस्तु परकता का संबंध इस बात से है कि कोई पत्रकार किसी तथ्य को कैसे देखता है।कई बार ऐसा होता है कि किसी मुद्दे पर पहले से बनी छवि हमारे निर्णय को प्रभावित करती है। यह पूर्वाग्रह है।यदि इसी पूर्वाग्रह के साथ एक पत्रकार समाचार निर्माण की प्रक्रिया के दौरान काम करता है तो यह पीत पत्रकारिता है।
निष्पक्षता को यथार्थता और वस्तुपरकता से अलग हटाकर नहीं समझा जा सकता।पत्रकारीय लेखन के दौरान अगर एक पत्रकार इसकी अनदेखी करता है तो वह जाने-अनजाने में पीत पत्रकारिता को ही बढ़ावा दे रहा है।
एक पत्रकार के लिए समाचार प्रस्तुतीकरण के दौरान संतुलन का ध्यान रखना अत्यंत जरूरी होता है। यदि वह किसी एक पक्ष को ध्यान में रखकर काम कर रहा है तो वह पूर्वाग्रह से ग्रसित है। इसका तात्पर्य है कि किसी एक पक्ष को फायदा पहुंचाने और दूसरे पक्ष की छवि बिगाड़ने के लिए वह तथ्यों के साथ खेल रहा है और समाचार को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहा है, जो पीत पत्रकारिता है।
श्रोत एक अहम जरिया है जो इस बात की पुष्टि करता है कि कोई घटना सही मायने में (कब, कहां, क्या, कौन, कैसे और क्यों) घटित हुई है। आज की पत्रकारिता में बिना श्रोत के भी समाचार लिखे जा रहे हैं।उनका चुनाव भी राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। यह पत्रकारीय सिद्धांतों के खिलाफ है और पीत पत्रकारिता को बढ़ावा देता है।
पीत पत्रकारिता ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
पत्रकारिता के विकास के साथ साथ कई विकृतियों ने जन्म लिया, जिसमें पीत पत्रकारिता भी एक है। यह बिलकुल स्पष्ट है कि जब जब पत्रकारीय सिद्धांतों और आचार संहिता को ताक पर रखा गया तो यह पीत पत्रकारिता के दायरे में आया। शुरुआती दौर में यह प्रभावी रूप से सामने नहीं आया, क्योंकि आज की तरह जनसंचार माध्यमों में लोगों तक सूचना पहुंचाने की होड़ नहीं मची थी और न ही प्रबंधकीय तंत्र का विज्ञापन को लेकर इतना दबाव था।
यूरोप में 17वीं शताब्दी में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद पीत पत्रकारिता का उद्भव हुआ। मुद्रण की नई तकनीक ने समाचार पत्रों के प्रकाशन में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। एक समय में हजारों प्रतियों की छपाई ने पत्र पत्रिकाओं के प्रसार बढ़ाने में अहम योगदान दिया। इसे भांपते हुए कई समाचार संगठनों में आगे निकलने की होड़ मच गई। समाचार प्रस्तुतीकरण से जुड़े नए नए प्रयोग शुरू हुए, जिसने आने वाले समय में पीत पत्रकारिता को बढ़ावा दिया।
19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में अमेरिका में जोसेफ पुलित्जर की स्वामित्व वाली न्यूयार्क वर्ल्ड और विलियम रैंडोल्फ हटर्ज की न्यूयार्क जर्नल के बीच प्रसार संख्या को लेकर मची होड़ ने पीत पत्रकारिता को पूरी तरह स्थापित किया। दोनों पत्रों ने समाचार प्रस्तुतीकरण का एक नया तरीका ईजाद किया, जिसमें तथ्यों के तोड़ मरोड़ और सनसनीखेज प्रस्तुतीकरण पर काफी ध्यान दिया गया।
इसी दौरान पुलित्जर ने एक प्रयोग किया। उन्होंने येलो किड नाम से एक कार्टून का प्रकाशन शुरू किया, जो उस दौर में काफी लोकप्रिय हुआ। रिचर्ड एफ आउटकॉल्ट द्वारा रचित इस कार्टून ने पीत पत्रकारिता शब्द का प्रचलन कराया। पुलित्जर के प्रतिद्वंद्वी हर्स्ट ने इस कार्टून की लोकप्रियता को भांपते हुए कार्टूनिस्ट रिचर्ड एफ आउटकॉल्ट को धन बल पर न्यूयार्क जर्नल से जोड़ लिया। पुलित्जर ने भी एक नए कार्टूनिस्ट जार्ज ल्यूक को नियुक्त कर येलो किड कार्टून को जारी रखा। इसके बाद धन बल से पत्रकारों को प्रभावित करने का दौर शुरू हुआ। दोनों समाचार पत्रों ने प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए हर हथकंडे अपनाए। विभिन्न तरीकों से पत्रकारों को अपनी ओर खींचने का प्रयास किया गया और कुछ अलग कर दिखाने की नसीहत दी गई।
पीत पत्रकारिता का भयावह रूप तब देखने को मिला, जब न्यूयार्क वर्ल्ड और न्यूयार्क जर्नल ने अमेरिका और स्पेन के बीच युद्ध को हवा दी। दोनों पत्रों ने इसे प्रसार संख्या बढ़ाने और राष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभुत्व कायम करने के अवसर के रूप में लिया। लगातार ऐसे समाचारों का प्रकाशन हुआ, जिसने युद्ध को अवश्यंभावी बना दिया।
पीत पत्रकारिता की औपचारिक शुरुआत का यह दौर आने वाले समय के लिए एक खतरा बन गया। प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध में भी पत्रकारिता का जमकर दुरुपयोग हुआ। जनसमूह को अपने पक्ष में करने के लिए संदेशों के साथ खिलवाड़ आम बात रही। इसके लिए पत्रकारिता के सभी साधनों पर नियंत्रण कर कई देशों को युद्ध करने पर मजबूर किया गया, जब कि कई देशों पर युद्ध थोपा गया। यह दौर आगे भी चलता रहा।
जनसंचार के नए माध्यमों रेडियो, टीवी और न्यू मीडिया के आगमन के बाद प्रतिस्पर्धा का एक नया दौर शुरू हुआ, जिसने पीत पत्रकारिता को बढ़ावा दिया। पहले सिर्फ पत्र पत्रिकाओं के बीच प्रसार संख्या और विज्ञापन को लेकर होड़ थी, लेकिन रेडियो के बाद टीवी और फिर टीवी के बाद न्यू मीडिया के आने से यह होड़ काफी बढ गई। पत्रकारिता का परिदृष्य एकदम बदल गया। बाजार में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए हर माध्यम को काफी जद्दोजहद करनी पड़ी। सबसे तेज और सबसे अलग दिखने वाले इस माहौल में पत्रकारीय भूल आम बात हो गई, जिससे पीत पत्रकारिता को हर माध्यमों के जरिए पनपने का अवसर मिला।
भारत में पीत पत्रकारिता
29 जनवरी 1780 को भारत में पत्रकारिता की नींव जेम्स अगस्टस हिकी ने बंगाल गजट के जरिए रखी। इसके बाद सैकड़ों पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन विभिन्न भाषाओं में हुआ। भारत में पत्रकारिता का शुरुआती दौर स्वच्छ रहा, क्योंकि यह एक मिशन के साथ आगे बढ़ रहा था, जिसका उद्देश्य आजादी की प्राप्ति थी, हालांकि ब्रिटिश सरकार ने इसे अस्त व्यस्त करने के लिए कड़े–कड़े कानून थोपे। विज्ञापन के माध्यम से भी कुछ पत्र पत्रिकाओं को आकर्षित करने का प्रयास किया गया, लेकिन कई प्रभावशाली जननेताओं की पत्रकारिता ने ब्रिटिश शासन के इस प्रयास को नकार दिया। इनकी पत्रकारिता ने देश के एक विशाल जनसमूह को आजादी की प्राप्ति के लिए लामबंद किया। इसमें खासकर राजा राममोहन राय, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और बाबूराव विष्णु पराड़कर सहित कई उल्लेखनीय नाम हैं। इनकी पत्रकारिता जन सेवा से जुड़ी थी।यही कारण है कि महात्मा गांधी ने अपनी पत्र पत्रिकाओं में विज्ञापन को स्थान देने से इंकार कर दिया था।उनका मानना था कि यह नई विकृतियों को जन्म देगा।
आजादी के बाद भारतीय पत्रकारिता ने एक अलग दौर में प्रवेश किया, जिस पर देश के विकास को बढ़ावा देने की महती जिम्मेदारी थी। 1947 से लेकर 1975 के दौरान पत्रकारिता की भूमिका और उससे जुड़े कई पहलुओं पर विमर्श शुरू हुआ। प्रथम प्रेस आयोग और द्वितीय प्रेस आयोग ने कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की, जिसमें समाचार पत्र पंजीयक, प्रेस परिषद और छोटे समाचारपत्रों के लिए आयोग की स्थापना, पत्रकारों के वेतन निर्धारण के लिए वेज बोर्ड का गठन, समाचार और विज्ञापन के अनुपात का निर्धारण और पत्रकारों के प्रशिक्षण की व्यवस्था आदि प्रमुख हैं। इनके लागू होने की उम्मीद से यह लगा कि पत्रकारिता की दषा में व्यापक सुधार होंगे और यह दिशाहीन नहीं होगा, लेकिन बदलते परिदृष्य में यह अलग स्वरूप लेने लगा। जाहिर है कि यहां भी प्रसार संख्या और विज्ञापन की होड़ शुरू हो गई, जिसने पीत पत्रकारिता को पनपने का मौका दिया। इन परिस्थितियों के कुछ खास कारण रहे।
- आपातकाल के बाद मुद्रण क्रांति
- रेडियो और टीवी का विकास
- वैश्वीकरण का आगमन
- संदेश प्रस्तुतीकरण का पश्चिमी मॉडल
भारत में 1975-77 के दौरान आपातकाल लागू हुआ, जिससे देश में राजनीतिक भूचाल आ गया। इसने पत्रकारिता को भी प्रभावित किया। सत्तासीन दल ने पत्रकारीय स्वतंत्रता को कुचलने का प्रयास किया। इसने पत्रकारिता के राजनीतिक दुरुपयोग का अहसास कराया। जिन पत्रकारों ने इस परिस्थिति में सरकार के समक्ष हथियार डाले, वे उनके कोपभाजन से बचे रहे, लेकिन जिन्होंने इसका विरोध किया, उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। यहां से पीत पत्रकारिता के पनपने का दौर शुरू हुआ। सरकार के समक्ष घुटने टेकने वाले पत्रकारों ने खुद को बचाने के लिए पत्रकारीय मापदंडों से खिलवाड़ किया। राजनीतिक दबाव में कैसे पत्रकारिता बिखरी, आपातकाल इसका बेहतरीन उदाहरण रहा, हालांकि कुछ पत्रकारों ने इसका जबर्दस्त प्रतिरोध किया।
70-80 के दशक में पंजाब केसरी, मनोहर कहानियां, सत्यकथा, और नूतन कहानियां जैसी पत्र पत्रिकाओं ने लगातार ऐसे प्रयोग किए, जिन्हें पीत पत्रकारिता की श्रेणी में रखा जा सकता है। इन्होंने प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए अपराध, सेक्स और मनोरंजन को विशेष तवज्जो दी। भड़काऊ तस्वीरों के साथ अपराध के समाचारों के प्रस्तुतीकरण ने एक खास पाठक वर्ग को बहुत आकर्षित किया। इससे इनकी प्रसार संख्या में काफी इजाफा हुआ। इस दौरान बड़े पैमाने पर होने वाली गंभीर पत्रकारिता ने पीत पत्रकारिता को हावी नहीं होने दिया। बाद में अन्य माध्यमों द्वारा ट्रिपल सी फार्मूला (क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा) अपनाए जाने के कारण पत्रकारिता में पीत का समावेश होता चला गया।
इस दौरान की पत्रकारिता पर रॉबिन जेफ्री के अध्ययन में यह बात सामने आई कि आपातकाल के तुरंत बाद तक पत्र पत्रिकाओं के प्रसार में खासा इजाफा नहीं हुआ था। 1976 तक 80 लोगों को एक समाचार पत्र के साथ संतोष करना पड़ रहा था, लेकिन 1996 तक 20 लोगों पर एक समाचार पत्र निकलने लगा। इस क्षेत्र में चौगुना इजाफा हुआ। जेफ्री ने इसे भारत में मुद्रण क्रांति की संज्ञा दी है। छपाई की आधुनिक तकनीक के कारण समाचार पत्रों के रंग रूप में बदलाव आया। ऑफसेट प्रेस ने प्रसार संख्या बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया। सजावट पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। स्थानीयता संपादकीय नीति का हिस्सा बन गया। इस कारण भाषायी पत्र पत्रिकाओं का विकास हुआ, जिसने 90 के दशक तक प्रसार के मामले में अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं को पीछे छोड़ दिया, जिससे प्रसार संख्या और विज्ञापन को लेकर जबर्दस्त होड़ शुरू हुई। यहां से पीत पत्रकारिता ने अपना पांव पसारना शुरू किया।
इस दौरान तक टीवी और रेडियो एक माध्यम के रूप में स्थापित हो चुके थे, लेकिन दोनों माध्यमों पर सरकारी नियंत्रण का असर साफ झलक रहा था। 1977 में आपातकाल के बाद जब जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली में रैली का ऐलान किया तो दूरदर्शन ने रैली को कथित तौर पर असफल दिखाने का प्रयास किया। इसके लिए दूरदर्शन ने पूरी ताकत झोंक दी। कैमरे उन्हीं जगहों पर लगाए गए थे, जहां लोग कम दिखाई दे रहे थे। रात के प्रसारण में दूरदर्शन ने इस रैली को असफल साबित कर दिया, लेकिन पत्र पत्रिकाओं ने अपने कवरेज से इसकी पोल खोल दी। जयप्रकाश नारायण को लाखों लोगों को संबोधित करते हुए दिखा गया। इन्हीं भूमिकाओं के कारण दूरदर्शन पर सरकारी भोंपू का ठप्पा लग गया। पीसी जोशी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में दूरदर्शन की भूमिका को नाकाफी बताया। उन्होंने कहा कि यह असली भारत का चेहरा नहीं दर्शाता। देश के विकास की तस्वीर बदलने में यह महती भूमिका निभा सकता है, हालांकि मनोरंजन के मोर्चे पर दूरदर्शन के कार्यक्रमों में साफ सुथरापन नजर आया। हमलोग, बुनियाद, रामायण और महाभारत जैसे कार्यक्रमों ने समाज को एक स्वस्थ संदेश दिया, जिसमें पीत जैसी कोई बात नहीं थी।
शुरू से ही रेडियो के प्रति आम लोगों का विशेष लगाव रहा है। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी हमेशा पैठ रही है। युववाणी, कृषि दर्शन और विविध भारती जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से रेडियो ने अपनी जिम्मेदारियों का अहसास कराया है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में सामुदायिक रेडियो के विकास ने ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में लोगों को जागरूक किया है। रोजगार से जुड़े कार्यक्रमों के प्रसारण से लोगों को फायदा हुआ है। रेडियो के मनोरंजन का तरीका भी अनूठा रहा है, लेकिन जिस तरीके से एफएम रेडियो शहरी और अर्द्ध शहरी क्षेत्रों में अपना पांव पसार रहा है, इसने एक नई संस्कृति को जन्म दिया है। कुछ समय पहले तक शालीन रहने वाले रेडियो के प्रसारण में अब फूहड़ता को काफी सलीके से पेश किया जा रहा है। इसमें हिंग्लिश का प्रचलन और द्विअर्थी संवाद आम बात हो गई है। मनोरंजन के नाम पर रात के समय ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता है, जिसे कतई सही नहीं कहा जा सकता। इसमें कोई शक नहीं कि अन्य माध्यमों की प्रतिस्पर्धा ने रेडियो को बदलने पर मजबूर किया है। यह पीत पत्रकारिता का ही प्रभाव है।
वैश्वीकरण और पीत पत्रकारिता
वैश्वीकरण के इस दौर में पत्रकारिता का परिदृष्य पूरी तरह बदल गया है, जिसने विभिन्न माध्यमों के जरिए पीत पत्रकारिता को स्थापित होने का भरपूर अवसर दिया है। 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक में भारत में निजी चैनलों का आगमन शुरू हुआ। जी न्यूज ने जब पहली बार समाचारों का प्रसारण किया तो वह समाचार दूरदर्शन के उन समाचारों से बिल्कुल अलग हटकर थे। पारंपरिक तरीके से समाचार देखने के आदी दर्शकों को एक मसालेदार और सनसनीखेज अंदाज में समाचार देखने का मौका मिला। इसने दर्शकों को तुरंत अपनी ओर खींच लिया। इस रूझान को देखते हुए आने वाले समय में चैनलों की बाढ़ आ गई, जिन्होंने मसालेदार और सनसनीखेज तरीके को ही समाचार प्रस्तुतीकरण का हिस्सा बनाया। राजनीति के अलावा अपराध की खबरों को सबसे अधिक बिकाऊ माना गया, जिसमें रहस्य, रोमांच, जिज्ञासा, सेक्स और मनोरंजन का पुट डाला गया। टीवी चैनल के मालिक यह भली भांति समझ गए कि ऐसे कार्यक्रमों से टीआरपी, विज्ञापन और दर्शक आसानी से मिल जाते हैं। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं रही कि इस तरीके से नई पत्रकारीय संस्क्रति का जन्म होगा और प्रकाशित प्रसारित होने वाले ज्यादातर समाचार पीत पत्रकारिता की श्रेणी में आ जाएंगे।
वैश्वीकरण का असर भी भारतीय पत्रकारिता पर साफ दिखा, जब पष्चिमी देषों में प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की नकल की गई। 1995 में जीटीवी ने इंडियाज मोस्ट वांटेड नामक कार्यक्रम के जरिए अपराध जगत से जुड़ी समाचारों का प्रसारण शुरू किया। यह पूरी तरह ब्रिटेन और अमेरिकी टीवी चैनलों में प्रसारित होने वाले कार्यक्रम की नकल थी। भारतीय दर्शकों ने इसे काफी पसंद किया। इसे भांपते हुए एक के बाद एक चैनल इस तरह के कार्यक्रमों की कड़ी में जुड़ गए। सनसनी और क्राइम रिपोर्टर जैसे कार्यक्रमों ने सनसनाहट पैदा कर दिया। यह चैनलों की मजबूरी भी रही कि उन्हें 24 घंटे कुछ न कुछ प्रसारित करते रहना है। प्रसारण भी ऐसा हो, जो टीआरपी, विज्ञापन और दर्शक बनाए रखे, इसलिए उन्होंने पश्चिमी देशों के कई कार्यक्रमों की नकल करने में भी कोई गुरेज नहीं की। आज जीटीवी, एनडीटीवी, आज तक, स्टार न्यूज, सहारा, सीएनबीसी, सीएनईबी, पी सेवन, टाइम्स नाउ, इंडिया टीवी और इंडिया न्यूज सहित सैकड़ों ऐसे चैनल हैं, जो ऐसा कर रहे हैं। इस रूझान का नकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि हर कार्यक्रम को मसालेदार और सनसनीखेज बनाने का दबाव बढ़ता गया। समाचार मूल्य पर मनोरंजन मूल्य हावी हो गया। हर मीडिया समूह ट्रिपल सी (क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा) फार्मूले पर काम करने लगा। इसने अन्य मुद्दों को हाशिए पर भेज दिया। इसके अलावा ब्रेकिंग न्यूज, सबसे तेज, सबसे पहले की हड़बड़ी में मीडिया ने कई भारी भरकम भूलों को अंजाम दिया।कई बार गैर जिम्मेदाराना और आपत्तिजनक प्रकाशन प्रसारण ने तो पत्रकारिता पर लगाम लगाने की बहस नए सिरे से छेड़ दी।
बीसवीं सदी के अंत तक जनसंचार के सशक्त माध्यम के रूप में न्यू मीडिया का आगमन भी हुआ, जिसने आते ही अपनी धमक दिखा दी है। आज जिस न्यूज पोर्टल पर नजर डालिए, उसमें समाचार लिंक के अलावा कई ऐसे लिंक हैं, जो सेलिब्रिटी और सेक्स से जुड़े हैं। कई चटपटी खबरें आसानी से मिल सकती हैं। ये लिंक भी ऐसे होते हैं, जिसमें एक के बाद एक कई समाचारों को पाठक पढ़ सकता है। वीडियो देखने की सुविधा भी उपलब्ध होती है। न्यूज वेबसाइट का एक कोना ऐसा भी होता है, जिसमें मॉडलों और सेलिब्रिटी की हजारों तस्वीरें होती हैं। इसके अलावा भी कई तरह की लिंक होती हैं, जो सूचनात्मक हैं, लेकिन जिस तरीके से एक वेबसाइट को सजाया जाता है, उससे यह साफ प्रतीत होता है कि कुछ प्रमुख समाचारों को छोड़कर ज्यादातर जोर मॉडल और सेलिब्रिटी वाले भाग पर है। टाइम्स ऑफ इंडिया और नवभारत टाइम्स इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जिसका अनुसरण अन्य न्यूजपोर्टल भी कर रहे हैं।
यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि भारतीय मीडिया में केंद्रीयकरण लगातार बढ़ता जा रहा है, जिस कारण कुछ समाचार समूहों का एकछत्र राज कायम हो गया है। वे जो प्रकाशित प्रसारित करते हैं, उन्हें ही समाचार या विचार माना जाने लगा है। बड़े समूह के इस दाव पेंच ने अन्य छोटे और मझोले समाचार समूह के लिए भारी मुसीबत खड़ी कर दी है। इस कारण ये कुछ समय बाद दम तोड़ देते हैं। किसी भी समाचार समूह के लिए प्रसार संख्या, टीआरपी और विज्ञापन सबकुछ हो गया है, लेकिन जैसे ही छोटे व मझोले समाचार समूह बड़े समूहों को चुनौती पेश करते हैं। इनसे निपटने के लिए कई हथकंडे अपनाए जाते हैं। मसलन राजनीतिक और आर्थिक दबाव से उन्हें बर्बाद करना। एकाधिपत्य का फायदा उठाते हुए उन्हें मजबूरन ऐसे समाचारों के प्रकाशन प्रसारण के लिए बाध्य करना, जिसके लोग आदी करवाए जा चुके हैं। इस प्रवृति को तोड़ना छोटे व मझोले समूहों के लिए कठिन होता जा रहा है और वे धीरे–धीरे मीडिया परिदृष्य से गायब हो रहे हैं।
मौजूदा समय में होने वाला समाचारों का प्रस्तुतीकरण भारतीय मीडिया के केंद्रीयकरण को दर्शाता है, जिसे नई पत्रकारीय संस्कृति माना गया है, जो वास्तव में पीत पत्रकारिता के काफी करीब है और पश्चिमी देशों की नकल से प्रेरित है। यहां कुछ ऐसे उदाहरण दिए जा रहे हैं, जो पीत पत्रकारिता की हद को दर्शाते हैं।
पीत पत्रकारिता के उदाहरण
1999 में कारगिल युद्ध के दौरान सभी चैनलों को इस युद्ध का लाइव प्रसारण करने का मौका मिला। इन चैनलों के मालिकों को यह अवसर कुछ उसी प्रकार दिखाई दिया, जैसा कि 1990 में खाड़ी युद्ध के लाइव प्रसारण से सीएनएन इंटरनेशनल चैनल अमेरिका में स्थापित हो गया था। कुछ अलग करने की होड़ में एक भारतीय टीवी चैनल के पत्रकार ने गंभीर भूल कर दी। जिस कारण चार भारतीय जवानों को जान से हाथ धोना पड़ा। ऐसा माना गया कि टीवी पत्रकार के कैमरे की उपस्थिति से ही पाकिस्तानी सेना को इस बात का अंदाजा लगा कि एक खास बटालियन की तैनाती किस दिशा में है। इस गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग से यह दुखद घटना हुई। ऐसी कई घटनाएं हैं जो साफ दर्शाती हैं कि सारे सिद्धांतों और आचार संहिता को ताक पर रखकर काम किया गया। 2008 में मुंबई पर हुए आतंकी हमले के दौरान भी पत्रकारों ने एक के बाद एक कई गंभीर गलतियां कीं, जिसने पत्रकारिता की भूमिका पर सवाल खड़े किए और इसके नियमन के लिए कई कानूनों पर विमर्श करने पर मजबूर किया।
2000 में अचानक मीडिया में मंकी मैन छा गया। इस समाचार की जांच पड़ताल किए बिना समाचार समूहों ने लगातार इसका प्रकाशन प्रसारण किया। दिल्ली के पास स्थित गाजियाबाद के कुछ लोगों के कहने पर एक स्थानीय समाचार पत्र में यह समाचार छपा कि एक अदृष्य शक्ति ने रात को लोगों पर हमला किया, जिसे बाद में दिल्ली के अन्य समाचार पत्रों ने भी छापा। कुछ ही दिनों के भीतर ऐसे समाचार पिछडे़ इलाकों से आने लगे। टीवी चैनलों ने भी इस मौके को खूब भुनाया। कुछ लोगों के माध्यम से यह साबित करने का प्रयास किया गया कि मंकी मैन को देखा गया है। इससे जुड़े रोचक किस्से गढे़ जाने लगे। हर शाम एक नई कहानी का प्रसारण होने लगा, जिसमें कोई दावा करता कि मंकी मैन चांद से आया है तो कोई कहता कि मंगल ग्रह से। एक चैनल ने तो एनिमेषन के जरिए इस कथित मंकी मैन का चित्र ही बना डाला और टीवी पर बताया कि अपने स्प्रिंगनुमा पंजों से मंकी मैन एक साथ कई इमारतें फांद लेता है। इससे जुड़ी कई कहानियां साथ–साथ चलने लगीं। करीब एक महीने बाद यह खबर बासी हो गई, क्योंकि इसमें कोई ऐसा साक्ष्य सामने नहीं आया जिससे यह साबित हो कि कोई मंकी मैन जैसी कोई चीज है। जैसे जैसे लोगों की रूचि इसमें घटने लगी, मीडिया भी अन्य कहानियों को ढू़ढ़ने में व्यस्त हो गया। मंकी मैन अचानक कहीं गुम सा हो गया।इस प्रकार समाचारपत्रों से शुरू हुए पीत पत्रकारिता को टीवी चैनलों ने भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
बाद में दिल्ली पुलिस की रिपोर्ट में इन सभी बातों को एक सिरे से खारिज कर दिया गया। जो जानकारी सामने आई, वह काफी रोचक थी। जानकारी के मुताबिक मंकी मैन का सारा हंगामा निचली बस्तियों में हो रहा था, जहांबिजलीकीभारीकमीरहतीथी।गर्मी के दिन थे और एकाध जगह वास्तविक बंदर के हमले पर जब मीडिया को मजेदार कहानियां मिलने लगीं तो वह भी इसे बढ़ा वादे कर इस में रस लेने लगा। लोग भी देर रात पुलिस और मीडिया की मौजूदगी की गुहार लगाने लगे।नतीजन रातभर गुल रहने वाली बिजली अब भरपूर मजे से कायम रहने लगी और गर्मी का मौसम सुकून मय हो गया।इस सुकून की तलाश में ही मंकी मैन खूब फलाफूला और कहानी की तलाश में घूम रहे पत्रकारों का लोगों ने इस्तेमाल किया।
2001 में अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के बाद पत्रकारिता की भूमिका से जुड़े दो पहलू सामने आए। पहला यह कि अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हुए हमले के दौरान अमेरिकी समाचार समूहों के कवरेज में एक परिपक्वता नजर आई। इस हमले की रिपोर्टिंग के दौरान ऐसी कोई बचकाना हरकत नहीं की गई कि जिससे यह लगे कि मीडिया माहौल को और बिगाड़ रहा है या फिर राहत कार्य में किसी प्रकार की बाधा पहुंचा रहा है, लेकिन मुंबई पर हुए हमले के दौरान भारतीय समाचार समूहों ने जिस तरीके से इसका कवरेज किया, इसने हर स्तर पर एक बहस छेड़ दी।
9/11 मीडिया का दूसरा पहलू तब सामने आया जब हमले के बाद राहत से जुड़े सारे कार्य पूरे हो गए। अमेरिका ने आतंक के खिलाफ जंग का ऐलान किया और वैश्विक स्तर पर इसके लिए कूटनीतिक प्रयास तेज कर दिए। इस दौरान कई समाचार समूहों को हमले के लिए माहौल बनाने का काम सौंपा गया। ऑपरेशन एंडयोरिंग फ्रीडम के नाम से अमेरिका ने अफगानिस्तान में छिपे आतंकियों पर हमला किया। फिर ऑपरेशन इराकी फ्रीडम के नाम से इराक पर हमले हुए। अब यही माहौल ईरान के खिलाफ भी तैयार किया जा रहा है। कहने का साफ मतलब है कि वैश्विक स्तर पर अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए अमेरिका ने समाचार समूहों के जरिए हर तरह के हथकंडे अपनाए। अगर विराधी टीवी चैनलों ने अमेरिका के इस प्रयास में खलल डालने की कोशिश की तो वह उन पर हमले कराने से भी गुरेज नहीं किया। इसका बेहतरीन उदाहरण इराक युद्ध के दौरान अल जजीरा चैनल पर किया गया हमला है। असल में अफगानिस्तान हमले के समय से ही अल जजीरा चैनल ने वहां हो रही जान माल की क्षति का लाइव प्रसारण किया, जो काफी भयावह था। इस प्रसारण को उसने इराक हमले के दौरान भी जारी रखा, जिससे कई देशों में अमेरिका के खिलाफ माहौल तैयार होने लगा। अमेरिका सहित यूरोप में विरोध के स्वर तेज होने लगे। इस कारण अमेरिका ने अल जजीरा के नेटवर्क को ध्वस्त करने का प्रयास किया, ताकि ऐसा कोई कवरेज न हो, जिससे अमेरिका के अभियान में परेशानी खड़ी हो।
2002 में देश में गुजरात दंगा हुआ। इसमें कई पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों की भूमिका इसलिए संदिग्ध रही, क्योंकि उनके प्रस्तुतीकरण का तरीका पत्रकारीय सिद्धांत और आचार संहिता को तार–तार करता था। ऐसी पत्रकारिता ने दंगे रोकने के बजाए भड़काने का काम किया। दंगे जैसी विकट परिस्थिति में यह पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह काफी संभलकर काम करे। ऐसा कुछ न लिखे और दिखाए जो दंगे भड़काए। खासकर हेडलाइन के जरिए एक खास समुदाय को निशाना बनाने और वीभत्स तस्वीरों के माध्यम से किसी समुदाय की भावनाओं को उग्र बनाने से साफ बचना चाहिए, लेकिन गुजरात में भड़के दंगे के दौरान कई समाचार समूह लगातार यह भूल करते रहे। हो सकता है यह भूल जाने अनजाने में हुई हो, लेकिन इससे जो जान माल की क्षति हुई, उसे कतई नहीं भुलाया जा सकता। कहने का तात्पर्य कई बार पत्रकारीय भूल सिर्फ हड़बड़ी के कारण होती है, जबकि कई बार इसे जान बूझकर अंजाम दिया जाता है। गुजरात दंगे के दौरान दोनों स्थितियों की झलक देखने को मिली।समाचार समूहों ने जाने-अनजाने गैर-जिम्मेदाराना कवरेज करके माहौल को बिगाड़ने का प्रयास किया।इससे पहले बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला था।
2003 में एक कार्टून प्रतियोगिता के माध्यम से पीत पत्रकारिता की स्थिति का पता चला। दिल्ली की एक गैर सरकारी संस्था सौवे फाउंडेशन की ओर से आयोजित कार्टून प्रतियोगिता का विषय था (व्हाट मेक्स न्यूज)। इसमें बड़ी तादाद में पत्रकारों ने हिस्सा लिया। प्रतियोगिता के दौरान सबसे ज्यादा वह कार्टून सराहा गया, जिसमें टीवी का एक पत्रकार बलात्कार की शिकार एक युवती के सामने कैमरामैन से कहता है कि काश ! इस घटना के कुछ विजुअल मिल जाते।यह कार्टून मौजूदा समय की पीत पत्रकारिता की सही दास्तां बयां करता है।
2004 में गुडि़या प्रकरण भी सामने आया। जब कई टीवी चैनलों में इस बात की होड़ लग गई कि गुड़िया किसकी पत्नी होगी। बेहद निजी मामले को ऐसे प्रकाशित प्रसारित किया गया कि पत्रकारिता तार–तार नजर आई। असल में हुआ यूं कि पाकिस्तान की जेल से दो कैदी रिहा हुए। इनमें से एक आरिफ जब अपने गांव पहुंचा तो उसने देखा कि उसकी पत्नी गुड़िया की शादी हो चुकी है और वह 8 महीने की गर्भवती है। वापसी पर आरिफ का कथित तौर पर मानना था कि गुड़िया को अब भी उसके साथ रहना चाहिए, क्योंकि शरीयत के मुताबिक वह अब भी उसकी पत्नी है। जी न्यूज ने फैसला सुनाने के लिए लाइव पंचायत ही लगा दी। कई घंटे तक चली पंचायत के बाद यह फैसला किया गया कि वह आरिफ के साथ रहेगी। इसका दूसरा पहलू और भी दुखद था। पत्रकारों ने गुड़िया, आरिफ और उसके रिश्तेदारों को अपने गेस्ट हाउस में काफी देर तक रखा, ताकि कोई और चैनल गुड़िया के परिवार की तस्वीर न ले पाए। इसके लिए खींचतान जारी रही। इस मुद्दे को मसालेदार बनाकर पेश किया गया।
2004 में ही दिल्ली के प्रतिष्ठित दिल्ली पब्लिक स्कूल के विद्यार्थी मोबाइल के जरिए एक अशलील फिल्म बनाते हैं। यह एक ऐसी घटना थी, जिसे हर समाचार समूह को काफी संभलकर प्रस्तुत करना था, ताकि इस अशलीलता का पूरे देश में प्रकाशन प्रसारण न हो, लेकिन टीवी चैनलों ने इसे ऐसे पेश किया, मानों यह उस दिन की सबसे बड़ी खबर है। यह घटना पल भर में पूरे देश में हर जगह गूंजने लगी। यह साफ देखा गया है कि सेक्स और बलात्कार जैसी घटनाओं को टीवी चैनल बड़े चटकारे के साथ पेश करते हैं, वहीं विकास से जुड़ी कई ऐसी घटनाएं हैं, जो इनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं।
2005 में भारतीय टीम के तत्कालीन कप्तान सौरव गांगुली और कोच ग्रेग चैपल के बीच विवाद शुरू हुआ। यह विवाद इतना बढ़ा कि देशभर में एक बड़ी खबर बन गया। हर तरफ चैपल के पुतले जलाए जाने लगे। यह कोई नई बात नहीं है कि एक टीम में कुछ मुद्दो को लेकर कोच और कप्तान के बीच मतभेद होते हैं। शुरुआती दौर में यह सामान्य मतभेद की तरह ही सामने आए, जिसे विचार विमर्श के जरिए सुलझाया जा सकता था, लेकिन समाचार समूहों ने इसे ऐसी हवा दी कि यह भारत बनाम आस्ट्रेलिया बन गया। हर समाचार पत्र और टीवी चैनलों के पत्रकार ने इससे जुड़ी हर बातों का प्रकाशन प्रसारण किया। उल्लेखनीय है कि भारत में क्रिकेट किसी अन्य मुद्दों से ज्यादा महत्व रखता है। ऐसे में लोगों का इसमें विशेष रुचि रखना सामान्य बात है। इस स्थिति को भांपते हुए समाचार समूहों ने विभिन्न तरीकों से लीक हुई सूचनाओं को गांगुली बनाम चैपल करके प्रस्तुत करना शुरू कर दिया, जिससे देश में चैपल विरोधी लहर चल पड़ी। चैपल की भी कुछ हरकतों ने पत्रकारों को मुद्दे को उछालने का भरपूर मौका दिया। समाचार समूहों के लगातार कवरेज से ऐसा माहौल बन गया कि उन्हें इस्तीफा देकर जाना पड़ा।
2007 में समाचार समूहों के कवरेज ने ऐष्वर्य राय और अभिषेक बच्चन की शादी को राष्ट्रीय शादी घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस कारण यह घटना तथाकथित रूप से उस दौरान देश की सबसे बड़ी घटनाओं में शामिल हो गया। इसके कवरेज के लिए समाचार पत्रों से लेकर टीवी चैनलों के पत्रकारों की एक टीम बनाई गई, जिन्होंने इस शादी से जुड़े हर पहलुओं का कवरेज किया। शादी में ऐष्वर्य और अभिषेक क्या पहनेंगे? उनके पोषाक कहां से मंगाए गए हैं? कौन कौन से मेहमान आने वाले हैं और उनके भोजन के क्या इंतजाम हैं? इसके लिए अमिताभ बच्चन के घर के सामने पत्रकारों ने जमावड़ा लगा दिया। इसके अलावा पंडितों की एक टीम बुलाकर मांगलिक जैसे मुद्दों पर घंटों विचार विमर्श कराया गया। पंडितों ने विभिन्न तर्क दिए, जिसमें कुछ ने कहा यह शादी सफल होगी तो कुछ ने असफल होने के संकेत दिए। ऐसा माहौल तैयार किया गया मानो यह कोई राष्ट्रीय शादी है। ऐसा नहीं है कि समाचार समूहों ने ऐसा पहली बार किया हो, सेलिब्रिटी से जुड़े हर मुद्दों को बड़े चटकारे के साथ पेश किया जाता रहा है। चाहे वह सलमान और सैफ अली खान की शादी का सवाल हो या सलमान शाहरूख के बीच ब्रांड वार का या फिर रणवीर दीपिका का ब्रेकअप। हर मुद्दे पर पर विशेष नजर होती है।
2008 में एक और दुखद घटना तब हुई, जब आतंकवादियों ने मुंबई पर हमला कर दिया। करीब तीन दिनों तक ऐसा प्रतीत हुआ कि आतंकियों के खिलाफ कमांडो कार्रवाई के साथ साथ सभी टीवी चैनल भी एक मिशन पर हैं। खासकर कमांडो कार्रवाई के दृश्य और हड़बड़ी में लोगों तक पहुंचाए गए संदेशों ने कई सवाल खड़े किए। आतंकी हमले के दौरान कई बार इस तरह के दृश्य देखने को मिले, जिसमें सेना के जवानों को अहम स्थानों पर मोर्चा संभालते दिखाया गया। एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, एसीपी अशोक आम्टे और विजय सालस्कर को तैयार होते दिखाया गया, जो कवरेज का हिस्सा नहीं होना चाहिए था, क्योंकि यहां कई लोगों की जिंदगियां दांव पर थीं। इस दौरान आतंकी भी अपनी साजिश अंजाम देने के लिए पाकिस्तान स्थित अपने आकाओं के संपर्क में थे। ऐसे में बार–बार इन दृश्यों को दिखाने से सवाल उठना लाजिमी था। इस हमले में एटीएस प्रमुख सहित तीन आला अधिकारी शहीद हो गए और आतंकियों से मुठभेड़ भी करीब तीन दिनों तक चलती रही। टीवी चैनलों के इस तरह के कवरेज को न तो नैतिक रूप से सही ठहराया जा सकता है और न ही सुरक्षा के दृष्टिकोण से। यही कारण है कि मुंबई आतंकी हमले के बाद सरकार और न्यायालय को हस्तक्षेप कर कहना पड़ा कि ऐसे दृश्य न दिखाएं, जिससे सेना की कार्रवाई को फायदा होने के बजाए नुकसान हो और जनसमूह में गलत संदेश जाए।
संकट की घड़ी में समाचार समूहों पर दोहरी जिम्मेवारी होनी चाहिए। पहला सतर्कता के साथ कवरेज करना और दूसरा उसका सही तरीके से प्रस्तुतीकरण करना, लेकिन सबसे तेज बनने के चक्कर में टीवी चैनलों की संवेदनहीनता और गैरजिम्मेदाराना रवैया साफ नजर आया। यह संकट का समय था और खबरों को भुनाने के बजाए उसे परिपक्वता के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए था। इस दौरान ज्यादातर समाचार समूह पूर्वाग्रह से ग्रसित तब नजर आया, जब सभी ने होटल ताज और ओबेराय के बाहर जमावड़ा लगा दिया। इस दौरान छत्रपति शिवाजी टर्मिनल की सुध किसी ने नहीं ली, जहां 47 लोग मारे गए थे। यह कवरेज असंतुलित नहीं तो और क्या था। इससे साफ लगता है कि चैनलों की नजर में होटल ताज और ओबेराय में गए विदेशी और उच्च वर्ग के लोगों के जान की कीमत ज्यादा थी, जबकि छत्रपति शिवाजी टर्मिनल में मारे गए लोगों की कम। हद तो तब हो गई, जब होटल से छुड़ाए बंधकों के पीछे पत्रकार कैमरे और माइक लेकर दौड़ने लगे। भय के इस माहौल में उन्हें तंग करना कितना सही था। ऐसे में स्वाभाविक है कि टीवी चैनलों के कवरेज पर सवाल खड़े होंगे।
इसी साल आरुषि हत्याकांड के रूप में एक और दुखद घटना घटित हुई। इसके कवरेज के दौरान भी समाचार समूहों ने पत्रकारीय सिद्धांतों को तार–तार कर दिया। ऐसी ऐसी कहानियां गढ़ी गई, जिसने पुलिस और सीबीआई को भी दिग्भ्रमित किया। चूंकि यह उस समय की एक बड़ी घटना थी, जिसे लोग जानना चाहते थे।इस बात को भांपते हुए टीवी चैनलों ने हर बार एक नए आयाम के साथ आरुषि से जुड़ी हर बातों का घंटों प्रसारण किया। समाचार पत्र भी इस मामले में पीछे नहीं रहे।कभी आरुषि तो कभी हेमराज तो कभी तलवार दंपति। इन सभी से जुड़ी कहानियों के कारण देशभर में अन्य सभी मुद्दे गायब हो गए।
2010 में हरियाणा के उप मुख्यमंत्री चंद्रमोहन और अनुराधा बाली के प्रेम संबंधों को भी समाचार समूहों ने राष्ट्रीय प्रेम घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। असल में एक बड़े राजनीतिक घराने के पारिवारिक झमेले को समाचार समूहों ने बड़े चटकारे के साथ पेश किया। चंद्रमोहन और अनुराधा बाली ने भी इनका जमकर इस्तेमाल किया। जब भी इस मामले से जुड़ी कोई नई बात सामने आती, दोनों पत्रकारों को बुलाकर इसे सार्वजनिक करने लगते। समाचार समूह भी इसे एक चटपटे समाचार के रूप में पेश करते रहे। इस दौरान हरियाणा में ऑनर किलिंग से जुड़ी कई घटनाएं लगातार होती रहीं, लेकिन इस ओर उतना ध्यान नहीं गया, जितना कि इस राजनीतिक घराने पर रहा। ऑनर किलिंग संबंधी एक समाचार छापने के बाद समाचार समूह चुप हो जाते, लेकिन चंद्रमोहन से चांद मोहम्मद ओर अनुराधा बाली से फिजा बनने वाली इस घटना को पत्रकारों ने राष्ट्रीय सुर्खियों में ला दिया। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि एक कलाकार सुर्खियों में आने के लिए समाचार समूहों का इस्तेमाल करते हैं। राखी सावंत इसका बेहतरीन उदाहरण है। बेबाक बोलने वाली इस कलाकार की हर बात को पत्रकार प्रस्तुत करने में कोई गुरेज नहीं करते हैं। इसने एक नई संस्कृति को जन्म दिया है। यदि सुर्खियों में आना है तो कुछ ऐसा कर दो, जो एक दम अलग हट कर हो।
2011 में कुछ ऐसा ही वाकया सामने आया, जो अब तक पश्चिमी देशों में होता रहा है। एक नवोदित मॉडल ने यह कहा कि यदि भारतीय क्रिकेट टीम विश्व कप जीतती है तो वह नग्न हो जाएंगी। समाचार समूहों को तो जैसे मनचाहा समाचार मिल गया। यह तुरंत हर न्यूज पोर्टल, टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में आ गया। विश्व कप में हार जीत के फैसले पर कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसे में शायद मॉडल ने भी यह नहीं सोचा होगा कि भारतीय क्रिकेट टीम ही विश्व कप जीतेगी। सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए उसने यह कह दिया। समाचार समूहों को भी ऐसे मौके का इंतजार था, इस बयान को हर स्तर पर प्रकाशित प्रसारित किया गया, लेकिन भारतीय टीम के जीतने पर मॉडल गुम सी हो गई। खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।इसमें एक बात तो खुलकर सामने आई कि पत्रकारिता का किस हद तक इस्तेमाल हो रहा है।
समाचार समूहों के कवरेज का फार्मूला ट्रिपल सी पर आधारित है, जो क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा है। इसके बाद ही अन्य मुद्दे आते हैं। 2012 में अब तक हुई घटनाओं में आईपीएल हर जगह छाया रहा। इसके कवरेज के लिए कई विशेष कार्यक्रम तैयार किए गए। समाचार पत्रों में विशेष पृष्ठ रखे गए। इस दौरान मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन और कोलकाता नाइटराइडर्स के मालिक शाहरूख खान के बीच हुई भिड़ंत को पत्रकारों ने खूब उछाला। इसके अलावा एक बार फिर मॉडलों ने समाचार समूहों के इस्तेमाल का प्रयास किया। 2011 क्रिकेट विश्वकप में नग्न होने की घोषणा करने वाली मॉडल के साथ एक अन्य मॉडल जुड़ गई। दोनों ने फिर अलग–अलग घोषणा की। एक मॉडल ने कहा कि यदि शाहरूख खान की टीम कोलकाता नाइटराइडर्स जीतती है तो वह नग्न प्रदर्शन करेंगी, जबकि दूसरे मॉडल ने यही घोषणा धोनी की टीम चेन्नई सुपरकिंग्स के जीतने पर की। इस घोषणा को समाचार समूहों ने उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आईपीएल फाइनल के बाद दोनों मॉडलों ने अपनी कही बातों पर अमल करने का प्रयास किया, जिसे समाचार समूहों ने प्रकाशित प्रसारित करने में कोई गुरेज नहीं की।
गुवाहाटी में हुई एक दुखद घटना में पब के बाहर लोगों के समूह ने एक लड़की के साथ वहशियाना हरकत की। इस घटना का प्रस्तुतीकरण जिस तरीके से समाचार समूहों ने करना शुरू किया, वह वास्तव में ऐसी मानसिकता को दर्शाता है, जो ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं। कुछ टीवी चैनलों के कवरेज इस प्रकार हैं:
स्क्रिप्ट 1 : धिक्कार है…………..
घटना नौ जुलाई की है। गुवाहाटी के जीएस रोड पर एक पब में जन्मदिन की पार्टी। हर कोई खुशियां मनाने में मशगूल। लड़की घर जाने के लिए पब से बाहर निकली। बाहर निकलते ही टूट पड़ते हैं 12 दरिंदे। कोई दरिंदा उसके बाल खींचता। कोई हैवान उसे थप्पड़ मारता। कोई गुंडा उसके शरीर को नोंचता। कोई अपराधी उसके कपड़े फाड़कर फेंक देता। कोई जालिम उसे सड़क पर घसीटता। दरिंदों के बीच लड़की तार–तार होकर जमीन पर गिर पड़ती है……..
स्क्रिप्ट 2 : बीस सर वाला रावण……….
उसके बाल नोचे गए। उसके कपडे़ फाडे़ गए। उसे जलील किया गया। कोई उसकी मदद को नहीं आया। देखिए गुवाहाटी के बीस रावण।
ये गुहार है उस मासूम की जो एक दो नहीं, बीस बीस रावणों के बीच अकेली थी। हर रावण उसकी इज्जत तार–तार कर रहा था। गुंडों के झुंड ने उसे दबोच लिया। एक गुंडे ने लड़की का बाल पकड़ा। दूसरे ने उसका हाथ। फिर उसे खींचकर सड़क किनारे ले गए। जरा गौर से देखिए गुवाहाटी के इन रावणों को……….
स्क्रिप्ट 3 : वो चीखती रही। भीड़ नोचती रही। लोग तमाशबीन रहे।
एक लड़की सड़क पर हैवानियत का शिकार हो रही है……..
स्क्रिप्ट 4 : देश को दुस्साहन से बचाओ।
एक चीख से हिल गया हिंदुस्तान। मासूम चिल्लाती रही। वो नोचते रहे। आधी रात का सबसे घिनौना चेहरा………
एक दो चैनलों को छोड़कर बाकी सभी ने कुछ इस तरीके से घटना का कवरेज किया। इस दौरान चलने वाले वीडियो फुटेज ने इस स्क्रिप्ट को मसालेदार और सनसनीखेज बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जो साफ दर्शाते हैं कि भारत में पत्रकारिता के पीत का स्तर क्या है?
ये भी तो पीत है
समाचार समूह संदेशों के चयन में बचकाना हरकतें करते रहे हैं। एक दौर ऐसा भी रहा, जब हर टीवी चैनल के पत्रकारों की एक टीम ने देशभर में घूम-घूमकर भुतहा बंगलों हवेलियों की खोज की और इससे जुड़़ी कहानियां गढ़कर घंटों दर्शाकों को बांधे रखा।कुछ समय तक नाग-नागिन की रोचक कहानियों ने भी खूब मनोरंजन किया। इन कार्यक्रमों के कारण टीआरपी में जबर्दस्त हेर-फेर हुआ। औसत प्रदर्शन करने वाले इंडिया टीवी चैनल ने लगातार इन कार्यक्रमों के प्रदर्शन के दम पर पहला स्थान पा लिया।मजबूरन अन्य चैनलों को भी ऐसे कार्यक्रमों की झड़ी लगानी पड़़ी। एक बार फिर न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। कई टीवी चैनलों को फटकार लगाकर ऐसे कार्यक्रमों के प्रसारण पर रोक लगाई गई।
समाचार समूह अपने कवरेज के दौरान अपराधियों को बाहुबली और दबंग के रूप में पेश करते रहे हैं। कई बार ऐसा हुआ है कि अपराधियों के लिए बाहुबली और दबंग जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ऐसे शब्दों के प्रचलन से यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि वास्तव में हत्या, बलात्कार, लूट और भ्रष्टाचार की घटनाओं को अंजाम देने के बाद कोई बाहुबली और दबंग कैसे हो सकता है? इन शब्दों का यह सकारात्मक उपयोग है या फिर नकारात्मक, यह तय करना मुश्किल हो जाता है। यह समाचार समूहों की ही देन है कि दाउद इब्राहिम और वीरप्पन सहित कई अपराधी समाज में मॉडल की तरह नजर आते हैं।
कई समाचार समूहों के एक अनोखे प्रयोग ने पीत पत्रकारिता के चरम का बोध कराया है। उनका मानना है कि यदि किसी अपराध का भंडाफोड़ करना है तो अपराधियों के ही तरीकों को अपनाकर समाचार प्रकाशित प्रसारित करने में कोई गुरेज नहीं करना चाहिए। इसने एक खतरनाक प्रवृति को जन्म दिया है। खासकर ऐसे खबरों के प्रकाशन प्रसारण के लिए स्टिंग ऑपरेशन का सहारा लिया जाता है, लेकिन कई बार यह पत्रकारों के लिए जी का जंजाल बन जाता है, जब वह खुद अपराधी की तरह कटघरे में खड़े हो जाते हैं। तहलका पत्रिका की रिपोर्टिंग के तरीके कुछ ऐसे ही रहे हैं, जिसे बाद में कुछ अन्य टीवी चैनलों ने भी अपनाने का प्रयास किया। यह इतनी खतरनाक प्रवृति है, जिसमें एक पत्रकार अपराधी की भूमिका में नजर आता है।
यह हमेशा से होता रहा है कि चुनाव जीतने के लिए कोई दल किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। इसके लिए वे पानी की तरह पैसा बहाते हैं। उन्हें यह भी पता है कि सबसे पहले समाचार समूहों को प्रभावित करना जरूरी है, क्योंकि इनकी पहुंच एक विषाल जनसमूह तक होती है। इस कारण पिछले कुछ वर्षों के दौरान हुए चुनावों में एक नए तरह की पत्रकारीय विचलन का पता चला है, जो पेड न्यूज के रूप में सामने आया है। इसमें कोई दल चुनाव के दौरान अपने पक्ष में समाचार प्रकाशित करने के लिए करोड़ों रुपए एक समाचार समूह को देते हैं, जिसके बाद वह समाचार समूह पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर दल विशेष के पक्ष में समाचार पेश करता रहता है। इस दौरान एक पत्रकार को वो हर सुविधाएं देने का वादा किया जाता है, जिसकी वह कल्पना नहीं कर सकता। हर चुनाव के दौरान ऐसा लुक छिपकर किया जा रहा है। इसके साथ साथ एडवर्टोरियल का चलन बढ़ा है, जिसका मतलब एक विज्ञापन को समाचार के रूप में प्रकाशित करना है। यह एक ऐसा तरीका है, जिसमें पाठकों के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि यह समाचार है या विज्ञापन। इसका मुख्य उद्देश्य पाठकों को भ्रम में रखकर उत्पाद की बिक्री बढ़ाना या फिर अपने संदेश से उन्हें जबरन अवगत कराना है। हालांकि इसे रोकने के लिए प्रयास हो रहे हैं, लेकिन फिलहाल ये नाकाफी हैं। ऐसे में पत्रकारिता में पीत का स्तर किस हद तक पहुंच चुका है, इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है।
पीत पत्रकारिता के दौर में अन्य मुद्दे
भारत जैसे विकासशील देश में समाचार समूहों के लिए विकास सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए। इसके साथ ही उसका सही और संतुलित प्रस्तुतीकरण भी बहुत जरूरी है, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। कभी कभार इससे जुड़ी कोई खबर प्रकाशित प्रसारित हो जाए तो यह काफी है। ऐसी कई घटनाएं लगातार होती रहती हैं, लेकिन समाचार समूह इसे कभी कभार प्रकाशित प्रसारित कर हल्का बना देता है। पिछले 10 साल के दौरान आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में हजारों किसानों ने आत्महत्या की, लेकिन द हिंदू को छोड़कर ऐसा कोई समाचार समूह नजर नहीं आया, जो लगातार समाचार प्रकाशित करता रहा हो। इसी प्रकार ऑनर किलिंग और दहेज से जुड़ी कई घटनाएं लगातार हो रही हैं, जो ऐसे प्रस्तुत की जाती हैं, जिससे यह बात आई और गई लगती है, लेकिन लक्मे फैशन वीक हो या फिर कांस फिल्म फेस्टिवल। इनका स्पेशल कवरेज हमेशा नजर आता है, जिसके जरिए ऐष्वर्य का बेबी फैट राष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है। जिस ट्रिपल सी (क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा) को आधार मानकर समाचार समूह संदेशों का प्रकाशन प्रसारण कर रहा है, उसमें विकासात्मक समाचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। आज के समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर नजर डालें तो यह साफ नजर आता है कि समाचार वही है, जो प्रबंधन की नजर में प्रसार संख्या और टीआरपी बढ़ाए, जिससे विज्ञापन स्थायी रूप से बना रहे।
समाचार समूहों का नकारात्मक पहलू यह भी है कि कई बार वे ऐसी घटनाओं का प्रकाशन प्रसारण लगातार करते हैं, जो वास्तविक मुद्दे जैसे लगते हैं, लेकिन ऐसा होता नहीं है। जाने माने पत्रकार पी साईनाथ के मुताबिक 1996 से लेकर 1999 तक टीवी चैनलों ने मोटापा घटाने संबंधी इतनी खबरें प्रचारित और प्रसारित कीं और विज्ञापन दिखाए कि उसमें यह तथ्य पूरी तरह छिप गया कि तब 10 करोड़ भारतीयों को हर रोज 74 ग्राम से भी कम खाना मिल पा रहा था।
नियमन या स्वनियमन
ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर समाचार समूहों के सही दिशा और दशा का निर्धारण कैसे हो? आखिर ऐसी कौन सी व्यवस्था बनाई जाए, जिससे वे सही दिशा में काम करे? इसे लेकर प्रथम और द्वितीय प्रेस आयोग की सिफारिशों के बाद कई ऐसे महत्वपूर्ण फैसले लिए गए, जिससे इस क्षेत्र में सुधार हुए, लेकिन बदलते परिदृष्य के साथ साथ कुछ अन्य उपाय भी किए जाने चाहिए थे, जिससे पत्रकारों को हमेशा यह अहसास रहता कि उन्हें एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई है, जिसमें थोड़ी सी भूल समाज के लिए काफी घातक हो सकती है। ऐसी स्थिति में उन्हें भी कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए, लेकिन ऐसी व्यवस्था नहीं बनाई जा सकी। इसकी प्रमुख वजह शुरू से ही नियामक संस्थाओं को ऐसा कोई दंडात्मक अधिकार प्रदान नहीं किया गया, जिससे पत्रकारों की गलतियों पर काबू पाया जा सके। प्रेस परिषद के रहते हुए भी समाचार समूह बेलगाम रहे, जिस कारण प्रेस परिषद को नखदंत विहीन की संज्ञा दी गई।
टीवी चैनलों के आगमन के बाद पत्रकारों की गैरजिम्मेदाराना गतिविधियों में लगातार इजाफा हुआ। आचार संहिता होने के बावजूद उसकी अवहेलना की गई। खासकर मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद नियामक संस्थाओं के गठन पर गंभीरता से विमर्श शुरू हो गया। ऐसे किसी भी पहल का सभी समाचार समूह यह कहकर पुरजोर विरोध करते रहे हैं कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। हजारों की तादाद में मौजूद इन समाचार समूहों के विरोध को सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती, इसलिए वह भी फूंक–फूंक कर कदम रख रही है। कई ऐसे कानून पर गंभीरता से चर्चा हो रही है, जिसे भविष्य में अमलीजामा पहनाया जाएगा, लेकिन जब तक ये कानून अस्तित्व में नहीं आ जाते, तब तक कुछ नहीं कहा जा सकता।
चंदा समिति, नैयर समिति, वर्गीज समिति, जोशी समिति और प्रधान समिति ने भी पत्रकारिता के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए, जिसमें कुछ पर अमल भी किया गया, लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण सुझाव पत्रकारों के प्रशिक्षण की लगातार अनदेखी होती रही है। पत्रकारिता के दौरान कई बार पत्रकारों खासकर नवोदित को यह समझ नहीं रहता कि वे क्या कर रहे हैं? उनकी इस गैरजिम्मेदाराना हरकत से पीत पत्रकारिता को किस स्तर तक बढ़ावा मिलेगा और समाज को इससे कितना नुकसान होगा? मीडिया की हड़बड़ाहट ने इस स्थिति को और विकट बना दिया है। एक के बाद एक भूल हो रही है। ऐसे में यदि समय समय पर प्रशिक्षण की पर्याप्त व्यवस्था की जाए तो इससे सर्वाधिक फायदा पत्रकारिता को ही होगा। पत्रकारों को उनकी जिम्मेदारियों को अहसास कराने से स्वनियमन को बढ़ावा मिलेगा, जिससे धीरे–धीरे पीत पत्रकारिता समाप्त हो जाएगी। पत्रकार किसी भी राजनीतिक और आर्थिक दबाव से मुक्त होकर काम करेंगे। स्वनियमित होने से किसी भी स्तर पर ऐसा कोई कानून बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, जिस पर अभी लगातार बहस हो रही है। इस दिशा में प्रयास करते हुए कई समाचार समूहों ने मिलकर न्यूज ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन (एनबीए) का गठन किया है, जिसका मुख्य कार्य टीवी चैनलों में होने वाले किसी भी गैर जिम्मेदाराना गतिविधियों पर नजर रखना है। यह एक सराहनीय प्रयास है, लेकिन इस प्रयास के प्रभाव के बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इससे पहले भी नियामक संस्थाओं के गठन के बाद गलती होती रही हैं और अब भी हो रही हैं। इसका सीधा समाधान है स्वनियमन। यदि इस मोर्चे पर समाचार समूह और पत्रकार खरे नहीं उतरते तो नियामक संस्थाओं का गठन करना अवश्यंभावी हो जाता है और इसके जरिए पत्रकारीय सिद्धांतों और आचार संहिताओं का सख्ती से अनुपालन कराना ही अंतिम विकल्प रह जाता है।
राजेश कुमार,
असिस्टेंट प्रोफेसर, सेंटर फॉर मास कम्युनिकेशन
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ झारखंड
मोबाईल– 9631488108
ई मेल : rajesh.iimc@gmail.com
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