
अमित दत्ता
“Journalism is printing something that someone does not want printed. Everything else is public relations.” ― George Orwell
जॉर्ज ऑरवेल का यह कथन पत्रकारिता के मूल को दर्शाता है. सत्ता को चुनौती देना, सच उजागर करना, और उन बातों को सामने लाना जिन्हें लोग छुपाना चाहते हैं। लेकिन आज के समय में पत्रकारिता इन आदर्शों से दूर होती नजर आ रही है। डिजिटल मीडिया के इस दौर में, जहां सूचनाओं की बाढ़ है, पत्रकारिता से उम्मीद की जाती थी कि वह और गहराई से सच को सामने लाएगी। इसके बावजूद, ऐसा कहा जा रहा है कि पत्रकार आज पहले की तरह गहन सवाल नहीं पूछ रहे हैं।
2019 में Pew Research Center द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में 71% पत्रकारों ने महसूस किया कि पिछले 5 वर्षों में उनकी पेशेवर प्रतिष्ठा कम हुई है। यह सवाल उठता है कि पत्रकारों के सवाल पूछने की प्रवृत्ति क्यों घट रही है, और इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?
पत्रकारिता का मूल उद्देश्य कठिन सवाल पूछना है—ऐसे सवाल जिनसे कई लोग बचना चाहते हैं। पत्रकारिता का काम सिर्फ सूचना देना नहीं, बल्कि जनता को जागरुक करना, सत्ता को जवाबदेह बनाना और पारदर्शिता को बढ़ावा देना है। ऑरवेल के अनुसार, पत्रकारिता का असली काम वही है जो शक्तिशाली लोग छुपाना चाहते हैं, बाकी सब पब्लिक रिलेशंस है।
इतिहास में कई ऐसे क्षण आए हैं जब पत्रकारिता के साहस ने बड़े बदलाव लाए।
- वॉटरगेट स्कैंडल (1970s): The Washington Post के पत्रकार बॉब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन ने लगातार कठिन सवाल पूछते हुए वॉटरगेट घोटाले का पर्दाफाश किया, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रपति निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा। यह घटना पत्रकारिता की शक्ति का प्रमाण है, जो तब सामने आती है जब पत्रकार गहराई तक जाते हैं।
- पेंटागन पेपर्स (1971): The New York Times ने गुप्त दस्तावेज़ प्रकाशित किए, जिनमें वियतनाम युद्ध के बारे में अमेरिकी सरकार के झूठ उजागर हुए। यह साहसी पत्रकारिता ऑरवेल की चेतावनी को सिद्ध करती है—पत्रकारिता का काम सत्ता को चुनौती देना है, चाहे उस पर कितना भी दबाव क्यों न हो।
लेकिन आज के समय में, मीडिया पर बढ़ते दबावों के कारण इस तरह की गहन पत्रकारिता दुर्लभ हो गई है।
पत्रकार कम सवाल क्यों पूछ रहे हैं?
1. व्यावसायिक दबाव और मीडिया स्वामित्व
आज के दौर में पत्रकारिता पर व्यावसायिक दबावों का गहरा असर है। मीडिया कंपनियों का केंद्रीकरण हुआ है, जिससे कुछ ही बड़ी कंपनियां अधिकांश मीडिया संस्थानों का स्वामित्व रखती हैं। Reporters Without Borders के Media Ownership Monitor के अनुसार, कई देशों में कुछ चुनिंदा कंपनियां मीडिया उद्योग पर नियंत्रण रखती हैं, जिससे पत्रकारिता की गुणवत्ता पर असर पड़ा है।
इसके अलावा, विज्ञापन राजस्व पर निर्भरता भी पत्रकारिता को प्रभावित कर रही है। कई बार मीडिया संस्थान विज्ञापनदाताओं को नाराज़ करने से बचने के लिए आलोचनात्मक रिपोर्टिंग नहीं करते। डैन राथर ने इस संदर्भ में कहा था, “अब कॉर्पोरेट मीडिया सच की खोज नहीं करता… खबर वह है जिसे लोग छुपाना चाहते हैं, बाकी सब पब्लिसिटी है।”
(“The corporate news media no longer pursue the truth… News is what people want to keep hidden; everything else is publicity.”- Dan Rather)
2. 24×7 न्यूज़ का दौर और क्लिकबेट की होड़
24 घंटे की खबरों के चक्र ने पत्रकारिता को गति के खेल (स्पीड गेम) में बदल दिया है, जहां तेजी से समाचार प्रकाशित करने का दबाव बढ़ गया है। Columbia Journalism Review के एक सर्वेक्षण में 65% पत्रकारों ने माना कि गति पर अत्यधिक जोर देने से रिपोर्टिंग की गुणवत्ता पर नकारात्मक असर पड़ा है।
आज की क्लिकबेट संस्कृति में, ऐसे आकर्षक शीर्षक बनाए जाते हैं जो अधिक से अधिक क्लिक हासिल कर सकें, भले ही उनकी सामग्री सतही ही क्यों न हो। इस प्रकार की पत्रकारिता गहराई से सवाल पूछने के बजाय त्वरित और वायरल सामग्री पर केंद्रित हो गई है।
3. राजनीतिक दबाव और सेल्फ-सेंसरशिप
दुनिया भर में पत्रकारों पर राजनीतिक दबाव बढ़ता जा रहा है। कई देशों में सरकारें मानहानि कानूनों और कानूनी धमकियों का उपयोग पत्रकारों को डराने के लिए करती हैं। The Committee to Protect Journalists के अनुसार, 2021 में 293 पत्रकारों को उनके काम के कारण कैद किया गया—जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है।
इस तरह के माहौल में, पत्रकार अक्सर सेल्फ-सेंसरशिप का सहारा लेते हैं ताकि कानूनी मुश्किलों और उत्पीड़न से बचा जा सके। यह “चिलिंग इफेक्ट” पत्रकारों को महत्वपूर्ण मुद्दों पर सवाल उठाने से हतोत्साहित करता है, खासकर राजनीतिक मामलों पर।
4. संसाधनों की कमी और खोजी पत्रकारिता का पतन
वित्तीय कठिनाइयों के कारण कई मीडिया संस्थानों में बजट कटौती और कर्मचारियों की छंटनी हुई है। Pew Research Center के अनुसार, 2008 से 2020 के बीच अमेरिकी न्यूजरूम में रोजगार 26% घटा है। खोजी पत्रकारिता के लिए आवश्यक संसाधन अब कम हो गए हैं, जिससे जटिल मुद्दों पर गहन रिपोर्टिंग मुश्किल हो गई है।
प्रसिद्ध खोजी पत्रकार सेमुर हर्श ने चिंता जताते हुए कहा था, “अब असली जांच-पड़ताल के लिए पैसे नहीं हैं… परिणामस्वरूप, हम एक ऐसी प्रेस देखते हैं जो केवल आधिकारिक बयानों को दोहरा रही है।”
(“There’s just no money to do real investigations… The result is we get a press corps that’s just repeating the official line.”- Seymour Hersh)
5. जनसंपर्क (पीआर) के बढ़ते प्रभाव और नियंत्रित नैरेटिव
आज के समय में पीआर विशेषज्ञों की संख्या पत्रकारों से कहीं अधिक हो गई है। U.S. Bureau of Labor Statistics के आंकड़ों के अनुसार, 2019 में हर 1 पत्रकार पर 6 पीआर विशेषज्ञ थे। इसका मतलब है कि पत्रकारों पर तैयार किए गए प्रेस विज्ञप्तियों और नियंत्रित नैरेटिव का दबाव बढ़ गया है।
नोम चोम्स्की और एडवर्ड एस. हर्मन ने अपनी पुस्तक “Manufacturing Consent” में तर्क दिया है कि मीडिया अक्सर शक्तिशाली हितों के एजेंडे को बढ़ावा देने का काम करता है।
कम सवाल पूछने के परिणाम
1. लोकतंत्र का कमजोर होना
लोकतंत्र की एक मजबूत आधारशिला है—सत्ता की जवाबदेही। जब पत्रकार सरकार, राजनीतिक दलों, और अन्य शक्तिशाली संस्थाओं से कठिन सवाल पूछते हैं, तो वे सत्ता के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार और अन्याय को सामने लाते हैं। लेकिन जब पत्रकार कम सवाल पूछते हैं, तो लोकतंत्र की पारदर्शिता और जवाबदेही खतरे में पड़ जाती है। सत्ता में बैठे लोगों को जनता के सवालों से बचने का अवसर मिल जाता है, जिससे निर्णय प्रक्रिया और सत्ता का संचालन अनियंत्रित हो सकता है।
जब मीडिया शक्तियों को चुनौती देने में विफल रहता है, तो भ्रष्टाचार, सत्ता का दुरुपयोग और गलत नीतियों को रोकना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के तौर पर, बड़े घोटाले, भ्रष्टाचार के मामलों या नीतिगत निर्णयों में पारदर्शिता की कमी तब और बढ़ जाती है जब मीडिया अपनी निगरानी भूमिका छोड़ देता है। यही कारण है कि पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका का क्षय लोकतंत्र की सेहत पर गहरा असर डाल सकता है।
2. जनता का गलत जानकारी से प्रभावित होना
पत्रकारिता का असली उद्देश्य जनता को सही, प्रामाणिक और व्यापक जानकारी देना है ताकि वे सही निर्णय ले सकें। लेकिन जब पत्रकार गहन सवाल नहीं पूछते और सतही रिपोर्टिंग पर निर्भर हो जाते हैं, तो जनता को आधी-अधूरी जानकारी मिलती है। इससे जटिल और महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनता की समझ कमजोर हो जाती है।
उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक सुधार, और सामाजिक न्याय जैसे जटिल मुद्दों पर सतही रिपोर्टिंग के कारण जनता गुमराह हो सकती है। गहन और विस्तृत सवालों की कमी से इन मुद्दों की गहराई को समझना मुश्किल हो जाता है, और इससे गलत निर्णय लेने की संभावना बढ़ जाती है। इसके अलावा, जब पत्रकार गंभीर मुद्दों पर सवाल उठाने के बजाय सिर्फ “क्लिकबेट” शैली की रिपोर्टिंग करते हैं, तो जनता के बीच गलत सूचनाओं का प्रसार भी बढ़ता है।
3. सार्वजनिक अविश्वास का बढ़ना
जब पत्रकार कठिन सवाल नहीं पूछते, तो इसका एक अन्य गंभीर परिणाम है जनता का मीडिया से विश्वास उठ जाना। लोग मीडिया को निष्पक्ष और भरोसेमंद मानते हैं, लेकिन जब मीडिया कठिन सवालों से बचता है, तो वह अपने ही अस्तित्व के मूल सिद्धांत से समझौता कर लेता है।
एडलमैन ट्रस्ट बैरोमीटर 2021 के अनुसार, वैश्विक स्तर पर मीडिया पर विश्वास घटता जा रहा है, और इसका एक मुख्य कारण है कि जनता को लगता है कि मीडिया गंभीर मुद्दों पर सवाल उठाने में विफल हो रहा है। जब जनता को यह महसूस होता है कि मीडिया सत्ता से टकराने से डर रहा है या मुद्दों की पूरी सच्चाई नहीं दिखा रहा है, तो मीडिया की विश्वसनीयता पर गंभीर असर पड़ता है।
संभावित समाधान और सुझाव
1. स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करना
जिन मीडिया संस्थानों का मुख्य मकसद सच्चाई को उजागर करना है, उन्हें जनता का समर्थन आवश्यक है। ऐसे संस्थानों की फंडिंग के लिए सब्सक्रिप्शन और डोनेशन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, The Guardian का सदस्यता मॉडल पत्रकारिता को स्थिर रखने में सहायक होता है, जिससे वे विज्ञापन पर निर्भर हुए बिना काम कर सकते हैं।
ProPublica और Pulitzer Center जैसे संस्थान स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए अनुदान और फेलोशिप प्रदान करते हैं, जो पत्रकारों को बड़े और गहन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट्स पर काम करने की सुविधा देती है। इस तरह के अनुदान और डोनेशन पत्रकारिता की गहराई और स्वतंत्रता को बनाए रखने में मदद करते हैं।
2. मीडिया साक्षरता का प्रसार करना
मीडिया साक्षरता बढ़ाने से लोग यह जान सकते हैं कि किस प्रकार की खबरें सच्ची हैं और किस प्रकार की फेक न्यूज हो सकती हैं। The News Literacy Project जैसे संगठन लोगों को सिखाते हैं कि समाचार स्रोतों की पहचान कैसे करें और उनकी सत्यता का मूल्यांकन कैसे करें।
यह पहल खासकर ऐसे समय में महत्वपूर्ण है जब सोशल मीडिया पर गलत जानकारी और अफवाहें तेज़ी से फैल रही हैं। पत्रकारिता तभी सफल हो सकती है जब जनता सच और झूठ के बीच फर्क करने में सक्षम हो।
3. खोजी पत्रकारिता में निवेश करना
खोजी पत्रकारिता लोकतंत्र की नींव है, लेकिन इसके लिए संसाधनों की आवश्यकता होती है। इसलिए, अधिक अनुदान और फेलोशिप पत्रकारों को बड़े और जटिल मुद्दों पर काम करने की स्वतंत्रता देते हैं। Pulitzer Center जैसे संस्थान अंडररिपोर्टेड कहानियों पर काम करने वाले पत्रकारों के लिए अनुदान प्रदान करते हैं, जिससे पत्रकार उन मुद्दों पर भी सवाल उठा सकते हैं, जिन्हें अक्सर मुख्यधारा का मीडिया नजरअंदाज करता है।
4. प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए समर्थन
पत्रकारिता की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए ऐसे संगठनों का समर्थन जरूरी है, जो पत्रकारों की सुरक्षा और उनके अधिकारों के लिए लड़ते हैं। Freedom of the Press Foundation जैसे संगठन प्रेस की स्वतंत्रता के लिए कानून और नीतिगत सुधारों की मांग करते हैं, जिससे पत्रकारों को कानूनी खतरों और उत्पीड़न से बचाया जा सके।
हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम पत्रकारिता की स्वतंत्रता को बनाए रखें। मीडिया संस्थानों को मुनाफे के बजाय सत्यनिष्ठा को प्राथमिकता देनी चाहिए, पत्रकारों को गति के बजाय गहराई पर ध्यान देना चाहिए, और जनता को गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता का समर्थन करना चाहिए। पत्रकारिता का काम केवल सूचना देना नहीं, बल्कि कठिन सवाल पूछना और सत्ता को चुनौती देना है। जब हम सवालों की इस कला को महत्व देंगे, तभी हम लोकतंत्र के स्तंभों को सुरक्षित रख सकेंगे और एक सशक्त समाज का निर्माण कर सकेंगे।
Amit Dutta is Executive Editor at Zee Business. A seasoned financial journalist with an impressive track record of around two decades. As the Executive Editor at Zee Business, Amit leads with a wealth of experience in business and economic journalism especially in financial markets . His keen insight into market dynamics and economic trends has positioned him as a trusted personality in financial journalism. Throughout his career, Amit has demonstrated a relentless pursuit of excellence and a deep curiosity for the ever-evolving area of finance and economics.