भूपेन सिंह।
फ्रांस सिनेमा की जन्म भूमि रही है। अठारह सौ पिचानबे में लुमिये बंधुओं ने पेरिस के एक कैफे में पहली बार फिल्म दिखाकर एक नया इतिहास बनाया था। उसके बाद ये कला पूरी दुनिया में फैल गई। सिनेमा के क़रीब सवा सौ साल के इतिहास में अनगिनत प्रयोग हुए हैं और उन्होंने इस कला में बहुत कुछ नया जोड़ा है। लेकिन विश्व सिनेमा को जो मायने फ्रेंच न्यू वेव (फ्रांसीसी नई लहर) ने दिए वैसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। बीसवीं सदी के पांचवें दशक के अंतिम सालों में शुरू हुए इस आंदोलन को अब पचास साल पूरे होने को हैं। फिल्म आलोचना और सिद्धांत के लिहाज से इस आंदोलन की आज भी अनदेखी नहीं की जा सकती है। इसने फिल्म निर्माण की प्रक्रिया में तो बदलाव किए ही विषय, शैली और सरोकारों के लिहाज़ से भी बहुत सारे नए प्रयोग किए।
पृष्ठभूमि
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भी फ्रांस में राजीनतिक उथल-पुथल जारी थी। युद्ध के दौरान उन्नीस सौ चालीस से चौवालीस तक फ्रांस को जर्मन प्रभुत्व में रहना पड़ा था। इस वजह से रेने क्ले, दुविविये, ज्यां रेनुआं और ज्याक्स फेदर जैसे कई फिल्मकारों को देश छोड़ना पड़ा। जर्मन प्रभुत्व ख़त्म होने के बाद देश में नए सिरे से फिल्म बननी तो शुरू हुईं लेकिन उनमें कोई नयापन नहीं था। युद्ध के दौरान फिल्म उद्योग पूरी तरह तहस-नहस हो चुका था। युद्ध के बाद जब उद्योग जब कुछ संभलने लगा तो फिल्मकारों ने नए विचारों की जगह शिल्प पर ज़्यादा ध्यान देना शुरू कर किया। तात्कालिक विषयों के बजाय उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए अतीत की बड़ी साहित्यिक रचनाओं को चुना।
उन्नीस सौ पचास के दशक में ऐसा लगने लगा था कि फ्रेंच सिनेमा कहीं भटक गया है। ज्यॉक्स ताती और रॉबर्ट ब्रेसन जैसे फिल्मकार दुर्लभ होते जा रहे थे। फिल्में समकालीन ज़िंदगी की सच्चाईयों से लगातार दूर होती जा रही थी। युद्ध के दौरान फ्रांसीसी बुद्धिजीवियों और कलाकारों ने ज़बरदस्त प्रतिरोध का आंदोलन चलाया था। इतनी उथल- पुथल से गुजरने के बाद भी ब्रेशन और ताती को छोड़ कर फ्रेंच सिनेमा में इन घटनाओं का कोई खास असर नहीं दिखाई पड़ा। ऐसे वक़्त में एक नये सिने आंदोलन की ज़रूरत गहराई से महसूस की जा रही थी।
युद्ध के बाद जो भी फिल्में बन रही थीं उनका एकमात्र लक्ष्य सिर्फ़ मनोरंजन रह गया था। उन्नीस सौ पैंतालीस से उनसठ तक बने इस सिनेमा को ट्रेडिशन ऑफ़ क्वालिटी के नाम से जाना जाता है। फ्रांस की सोचने-समझने वाली नई पीढ़ी में इस सिनेमा को लेकर काफ़ी आक्रोश भरा हुआ था। फ्रांसुआ त्रुफ़ो ने ट्रेडिशन ऑफ़ क्वालिटी को डैडी’ज सिनेमा (बूढ़ों का सिनेमा) कहा था। उन्नीस सौ अठावन में सिनेमा58 के संपादक पियरे बिलार्द ने इस सिनेमा को आर्थिक तौर पर समृद्ध और कलात्मक तौर पर बहुत ही दरिद्र बताया।
उन्नीस सौ इक्यावन में फिल्म सिद्धांतकार आंद्रेई बाज़ां और ज्याक्स ड्वानियल वेलाक्रोज़ ने फिल्म आलोचना की पत्रिका कहिये दू सिनेमा (सिनेमा नोट बुक) का प्रकाशन शुरू किया। बाज़ां का मानना था कि फिल्म देखना सिर्फ बौद्धिक और तार्किक अनुभव ही नहीं बल्कि एक भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक अनुभव भी है। इसलिए व्यक्ति की रचनाशीलता को इस माध्यम में भी उभर कर सामने आना चाहिए। ये लोग फिल्म क्रिटिक अलेजांद्र ऑस्त्रक से काफी प्रभावित थे। जो फिल्म को नैरेटिव की अधीनता से मुक्त कर सिनेमा की एक नई भाषा इजाद करने पर ज़ोर दे रहे थे। कहिये दू सिनेमा की टीम के साथ कुछ नया कर गुज़रने की इच्छा लिए कई युवा फिल्म आलोचक जुड़े थे।
कहिये दू सिनेमा के दो मुख्य मार्गदर्शक सिद्धांत थे। पहला उन्होंने शात्रीय मोंताज़ शैली में फिल्म निर्माण का विरोध किया। जिसे उस वक़्त स्टूडियो में काफ़ी पसंद किया जाता था। इसके बदले उन्होंने मीज अ सीन (शॉट्स का सीन में संयोजन) को ज़्यादा अहमियत दी। यानी एडिटिंग के ज़रिए जोड़-तोड़ करने की बजाय जो फिल्माया गया है उस यथार्थ को सादगी से प्रस्तुत करने पर ध्यान दिया। इसके लिए उन्होंने लॉन्ग टेक का काफ़ी इस्तेमाल किया। उनका कहना था कि जिस तरह से किसी साहित्यित्क रचना को लेखक के नाम से जाना जाता है उसी तरह फिल्में भी डायरेक्टर की रचना होती हैं।
फ्रेंच न्यू वेव सिनेमा ने उन सामाजिक परिवर्तनों को चिन्हित किया जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद की पीढ़ी में दिखाई दे रहे थे। फ्रेंच युवा पिछली पीढ़ी की भाव भूमि से खुद को एक अलग सांस्कृतिक धरातल पर पाते थे। न्यू वेव नाम से सिनेमा आंदोलन शुरू होने से पहले फ्रांस में ये शब्द बचकाने व्यवहार और जीवन शैली के लिए इस्तेमाल किया जाता था। यह चमड़े की काली जैकेट पहनकर पेरिस की सड़कों में शोर मचाकर मोटरसाइकिल चलाते युवाओं से संबंधित था। उन्नीस सौ पचपन से साठ के बीच में उस पीढ़ी को समझने के लिए कई अध्ययन किये गये। मिशेल मैरी (2003) के मुताबिक़ न्यू वेव सबसे पहले एक पत्रकारीय नारा था। उन्नीस सौ सतावन में फ्रांसीसी पत्रिका ल एक्सप्रेस (L’ Express) ने बीस से तीस साल के अस्सी लाख युवाओं के बीच एक सर्वे कराया।
इस सर्वेक्षण के परिणामों को तीन अक्टूबर और बारह दिसंबर के बीच द न्यू वेव अराइव्स के नाम से छापा गया। बाद में इस रिपोर्ट को फ्रांसुआ गिरोद (Francoise Giroud) ने द न्यू वेव : पोट्रेट्स ऑफ़ यूथ के नाम से छापा। जिसमें नई पीढ़ी की जीवन शैली, सोच, नैतिकता और सांस्कृतिक जागरूकता के बारे में विस्तार से चर्चा की गई। न्यू वेव सिनेमा ने भी ये शब्द वहीं से लिया।
नई लहर की शुरुआत कहिए दू सिनेमा से जुड़े युवा फिल्म समीक्षक ही बाद में फ्रेंच न्यू वेव सिनेमा आंदोलन के फिल्मकार बने। आम तौर पर न्यू वेव की शुरुआत उन्नीस सौ उनसठ में रिलीज फ्रांसुआ त्रुफ़ो की फोर हंड्रेट ब्लोज से मानी जाती है लेकिन कई बार इसकी शुरुआत उन्नीस सौ अठावन में बनी क्लाउदे शेब्रोल की स्मार्ट सर्गेई से मानी जाती है। ज़्यादातर फिल्म इतिहासकार न्यू वेव की समय सीमा उन्नीस सौ उनसठ से उन्नीस सौ चौहत्तर तक मानते हैं। लेकिन कभी इसे उन्नीस सौ अठहत्तर तक भी खींचा जाता है। कुछ ऐसे भी आलोचक हैं जो न्यू वेव निर्देशकों की सक्रियता के हिसाब से इस आंदोलन का निर्धारण करते हैं। यानी न्यू वेव का कोई निर्देशक आज भी सक्रिय है तो उसके सिनेमा को वे न्यू वेव की श्रेणी में ही रखते हैं।
मिशेल मैरी (2003) के मुताबिक़ पचास के दशक के अंतिम सालों में फ्रांस नए फिल्मकार अपने प्रयोग करने में जुटे थे। क्लाउदे शैब्रोल की स्मार्ट सर्गेई दिसंबर दो हज़ार सात और आठ के बीच बनकर तैयार हो गई थी। लेकिन इसका प्रीमियर ग्यारह फ़रवरी उन्नीस सौ उनसठ को हुआ। शैब्रोल की दूसरी फिल्म कजन को उन्नीस सौ अठावन में फिल्माया गया और इसका प्रीमियर ग्यारह मार्च उन्नीस सौ उनसठ को हुआ। दो महीने बाद मई में फ्रांसुआ त्रुफ़ो की फिल्म फोर हंड्रेड ब्लोज और मार्शल कामू की फिल्म ब्लैक ऑर्फियस को कान फिल्मोत्सव में फ्रांस की प्रतिनिधि फिल्म के तौर पर प्रवेश मिला। जहां त्रूफो को बेस्ट डायरेक्टर और कामू को बेस्ट फिल्म का पाम डी ऑर पुरस्कार मिला। इस समारोह में त्रूफ़ो की फिल्म को फ्रांस की तरफ़ से ऑफिशियल एंट्री बनाने का काफी विरोध हुआ था क्योंकि कुछ ही वक़्त पहले त्रुफ़ो ने मुख्यधारा के फ्रांसीसी फिल्म उद्योग की अपने लेख में तीखी आलोचना की थी। कान फिल्मोत्सव के तुरंत बाद रेसने की हिरोशिमा मॉन अमोर भी रिलीज हुई। अगले साल उन्नीस सौ साठ के वसंत में आई गोदार की फिल्म ब्रेथलेस ने अभूतपूर्व क़ामयाबी हासिल की।
न्यू वेव फिल्मकारों ने उस दौर के फ्रांसीसी जनजीवन के सवालों को अपनी फिल्मों के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश की। फ्रांसीसी समाज दूसरे विश्व युद्ध के झटकों से मुक्त नहीं हो पा रहा था। हालांकि जर्मन प्रभुत्व ख़त्म होने के बाद वहां चौथे गणतंत्र की स्थापना हो चुकी थी लेकिन इससे भी राजनीतिक अस्थिरता पर लगाम नहीं लग पायी। फ्रांसीसी उपनिवेश अल्जीरिया और इंडो-चाइना में विद्रोह चल रहे थे। इन हालात में फ्रांस ने चौथे गणतंत्र को ठुकराकर उन्नीस सौ अठावन में नया संविधान बनाकर पांचवें गणतंत्र की स्थापना की। चार्ल्स दे गॉल नए राष्ट्रपति बने। न्यू वेव सिनेमा एक तरह से फ्रांस की इन्हीं राजनीतिक-सामाजिक हलचलों का नतीजा था। युवा निर्देशकों के साथ अच्छी बात ये थी कि वे फिल्म क्रिटिक होने की वजह से फिल्म सिद्धांत और आलोचना से भली भांति वाक़िफ़ थे। देश के राजनीतिक-आर्थिक हालात को लेकर भी उनमें गहरी जागरूकता थी।
उन्नीस सौ पचास और साठ के दशक में ही सिनेमा और दूसरे सांस्कृतिक क्षेत्रों में बदलाव होने लगे थे जिसका विश्वव्यापी असर था। उपनिवेशों को आज़ादी मिल रही थी। जैसे नवयथार्थवाद की शुरूआत,टेलीविजन के आ जाने पर हॉलीवुड और दूसरे मुख्यधारा के सिनेमा के दशर्कों में कमी आना, कला सिनेमा की शुरूआत, युवा संस्कृति का विकास, फिल्म निर्माण में नयी तकनीक का आना और बर्तोल्त बेख्त (1898-1956) के विचारों और काम का फैलाव हुआ।
न्यू वेव सिनेमा राष्ट्रीय सिनेमा की अवधारणा से भी सीधे जुड़ा हुआ है। क्योंकि इस आंदोलन के दौरान जितनी भी फिल्म बनीं, उनका पैसा देश के भीतर से ही आया। साथ ही इनमें देश की सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं को भी विषयवस्तु बनाया गया। ये कहीं गहराई से फ्रांसीसी जनमानस के मनोविज्ञान को भी व्यक्त करती हैं।
न्यू वेव के ज़्यादातर फिल्मकारों पर इतालवी नव यथार्थवादी सिनेमा और क्लासिकल हॉलीवुड सिनेमा का जबरदस्त असर था। न्यू वेव के फिल्मकारों ने नव यथार्थवादी सिनेमा के राजनीतिक और सामाजिक लक्ष्यों को भी हासिल करने की कोशिश की। जिनके मूल में समाज के सबसे निचले पायदान के इंसान की तक़लीफ़ों को सामने लाना था। इसके अलावा तकनीकी तौर पर स्टूडियो की बजाय ऑन लोकेशन शूट करना, फिल्म में वास्तविक चरित्रों से अभिनय कराना भी न्यू वेव में नव यथार्थवादी सिनेमा से ही आया। न्यू वेव का निर्देशक किसी कसी हुई स्क्रिप्ट का पालन नहीं करता था, बल्कि ज़रूरत के हिसाब से तात्कालिक तौर पर अभिनेताओं से संवाद बुलवाए जाते थे। यानी इप्रोवाइजेशन पर जोर था। इस आंदोलन के निर्देशक क्लासिकल हॉलीवुड सिनेमा के जॉन फोर्ड, चार्ली चैपलिन, एलफ्रेड हिचकाक, ऑर्सन वेल्स और निकोलस रे जैसे हॉलीवुड निर्देशकों के गहन अध्येता थे। वे इन निर्देशकों को उनकी फिल्मों का लेखक मानते थे।
निर्देशक का है सिनेमा !
मार्च उन्नीस सौ अड़तालीस में अलेक्जांदर ऑस्त्रक का लेख बर्थ ऑफ़ अ न्यू अवां गार्द: कैमरा स्टाइलो प्रकाशित हुआ। इस लेख में उन्होंने कहा कि फिल्मकार का कैमरा भी वही काम करता है जो एक लेखक की पेन करती है। मतलब ये था कि एक फिल्मकार अपनी फिल्म का लेखक होता है। सिनेमा की अलग भाषा होती है जिसके माध्यम से फिल्मकार अपने विचारों को व्यक्त कर सकता है। उनके मुताबिक़ सिनेमा के माध्यम से विचारों को व्यक्त करना सबसे बड़ी चुनौती है।
उन्नीस सौ चौवन में त्रुफो ने कहिए दू सिनेमा में एक विवादास्पद लेख अ सर्टेन टेंडेंसी इन फ्रेंच सिनेमा लिखा। इसमें उन्होंने ऑस्त्रक के विचारों को कई नए आयाम दिए। इस लेख में ट्रेडिशन ऑफ़ क्वालिटी के फिल्मकारों की आलोचना की गई थी। इसे लेकर ख़ुद पत्रिका के संपादक आंद्रई बाज़ा, त्रुफ़ो से पूरी तरह सहमत नहीं थे। त्रूफो का पहले से ही ये भी मानना था कि अच्छा या बुरा सिनेमा जैसी कोई चीज़ नहीं होती है। अच्छे और बुरे तो डायरेक्टर होते हैं। यानी वे ऑस्त्रक की तरह सिनेमा को निर्देशक का ही माध्यम मानते थे। इसी को बाद में अमेरिकन आलोचक एंड्रयू सारिस ने ऑत्योर थ्योरी का नाम दिया। उनके मुताबिक फिल्म एक व्यक्तिगत कला अभिव्यक्ति है और सबसे बेहतरीन फिल्में वहीं हैं जो फिल्मकार की खास शैली को व्यक्त करती हैं।
औत्योर थ्योरी के सिद्धांतकारों ने व्यावसायिक फ्रांसीसी सिनेमा के निर्देशकों का विरोध किया और ऐसे फिल्मकारों की तारीफ़ की जिनकी फिल्मों में वैयक्तिक विशेषताओं को देखा जा सके। ऐसे निर्देशकों के तौर पर उन्होंने फ्रांसीसी निर्देशकों के साथ ही अमेरिकी निर्देशकों को भी चिन्हित किया। फ्रांसीसी निर्देशकों में ज्यां विगो, रेनुआं, रॉबर्ट ब्रेसन और मार्सल ऑफुल्स (Marcel Ophüls) शामिल थे तो अमेरिकन निर्देशकों में जॉन फोर्ड, हॉवर्ड हॉक्स, एल्फ्रेड हिचकॉक, फ्रिट्ज लैंग, निकोलस रे और ऑर्सन वेल्स जैसे निर्देशक शामिल थे।
ज्यादातर फिल्म इतिहासकार न्यू वेव सिनेमा को इसकी नयी निर्माण प्रकिया, अटपटी कहानी और प्रयोगात्मक शैली के तौर पर दर्ज करते हैं। उनका मानना है कि उस दौरान सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी और सिनेमाई कारकों ने सिनेमा के इतिहास का एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया। लेकिन इसी पांच दस साल के भीतर ही इस आंदोलन ने दम तोड़ दिया। लेकिन जो लोग औत्योर थ्योरी को मुख्य कारक मानते हैं उनका कहना है कि अगर फिल्म के निर्देशक ने समय के निरपेक्ष अपनी विशिष्ट शैली बचाए रखी है तो उसे भी न्यू वेव का हिस्सा माना जाना चाहिए।
कला की धंधेबाज़ी पर सवाल
दूसरे विश्व युद्ध के बाद फ्रांस में जो फिल्में बननी शुरू हुईं उनमें पूरी तरह से व्यावसायिकता हावी थी। हालांकि सिनेमा को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने सीएनसी (Centre national du cinéma) का गठन किया लेकिन सीएनसी सिर्फ़ उन्हीं निर्देशकों को पैसा देता था जिनका पहले से इस क्षेत्र में बड़ा नाम हो। जिस वजह से नए सोच के साथ आने वाले निर्देशकों को उभरने का कोई मौक़ा नहीं मिल पाता था। तब न्यू वेव की शुरूआत करने वाले निर्देशकों ने व्यावसायिक और निश्चित कथानक वाली फिल्मों का विरोध कर एक नयी राह निकाली। उन्होंने अपनी फिल्में बनाने के लिए खुद पैसा जुटाया या फिर कम बजट में फिल्म बनाने वाले गैर पारंपरिक निर्माताओं की मदद ली। उनकी फिल्मों के केंद्र में समकालीन फ्रांस और मध्य वर्ग के युवा थे। इन निर्देशकों ने सिनेमा में तरह के नए प्रयोग कर अपनी आर्थिक तंगी को ताकत में बदल डाला।
युवा फिल्मकारों के लिए स्टूडियो, चमक-दमक वाली लाइटिंग, शानदार क्रेन शॉट और शास्त्रीय तरीके के मिक्स साउंड ट्रैक्स न सिर्फ पहुंच से बाहर थे बल्कि एक बेहूदा और पतनशील सिनेमा के लक्षण भी थे। उन्होंने इनसे बचते हुए नए प्रयोग किए और क़ामयाबी हासिल की। जैसे ही फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों ने देखा कि इस तरह सस्ते में भी फिल्में बनायी जा सकती हैं और तारीफ भी बटोर सकती हैं तो फ्रांस में पहली बार फिल्म बनाने वालों का तांता लग गया।
उन्नीस सौ उनसठ में पूरे साल भर न्यू वेव सिनेमा की सबसे ज्यादा धूम रही। यही वह साल था जब त्रूफो, शैब्रौल और एलेन, रैस्ने की फिल्मों के लिए सार्जनिक रूप से बड़े पैमाने पर न्यू वेव शब्द का इस्तेमाल किया गया। जब फिल्म बनाने की हसरत रखने वालों ने देखा कि कम लागत में भी फिल्म बनाई जा सकती है तो अचानक फिल्म बनाने वालों की बाढ़ सी आ गई। दिसंबर उन्नीस सौ बासठ में कहिये दू सिनेमा का एक पूरा अंक न्यू वेव सिनेमा पर केंद्रित था। इसमें शैब्रोल, गोदार्द और त्रुफो के बड़े-बड़े इंटरव्यू प्रकाशित किये गए थे। मैगजीन में छोटी-बड़ी फिल्में बनाने वाले 162 फिल्मकारों के नाम शामिल थे। हालांकि इन नामों को लेकर बाद में विवाद भी खड़ा हुआ। क्योंकि इनमें से कुछ लोग पहले ही काफी फिल्में बना चुके थे और अपनी उम्र के अंतिम दौर में थे।
उन्नीस सौ तिरेसठ आते-आते न्यू वेव सिनेमा के फिल्मकारों की संख्या गिरनी शुरू हो गई। इसलिए न्यू वेव के अंत को उन्नीस सौ तिरेसठ से अड़सठ के बीच माना जाता है। लेकिन न्यू वेव से जुड़े कुछ फिल्मकार लगातार नए-नए प्रयोग करते रहे। मई उन्नीस सौ अड़सठ में फ्रांस का मशहूर छात्र विद्रोह हुआ। गोदार की फिल्मों ने इसके लिए खाद-पानी का काम किया था। सत्तर के पूरे दशक में गोदार सिनेमा बनाने के वैकल्पिक तरीक़े तलाशते रहे। इस दौरान कम लागत में उन्होंने कई महत्वपूर्ण फिल्में बनाई।
नैरेटिव से विद्रोह
न्यू वेव के फिल्मकार किसी निश्चित नैरेटिव (कहानी) के सख्त विरोधी थे। इसलिए उनकी फिल्मों में कई बार एक रेखीय कहानियों का अभाव दिखता है। इसकी व्याख्या कई बार ब्रेख्त के अलवाव सिद्धांत के हिसाब से भी की जाती है। जहां पर दर्शक कहानी के साथ नहीं बहता है बल्कि लगातार इस बात का अहसास कर रहा होता है कि वो एक फिल्म देख रहा है। फिल्म उसके दिमाग में कई सवाल उठाती है। इस लिहाज़ से न्यू वेव की ज़्यादातर फिल्में अटपटी सी लगती थीं लेकिन यही अटपटापन बाद में एक स्टाइल बन गया। न्यू वेव फिल्मकारों ने इस बात को मानने से इनकार कर दिया कि सिनेमा सिर्फ़ साहित्य का ही विस्तार है। परिणामस्वरूप उन्होंने सिनेमा की नई भाषा और सौंदर्यशात्र गढ़ने की कोशिश की।
न्यू वेव सिनेमा ने नैरेटिव के पीछे न भागने के लिए सबसे पहले कॉन्टिन्यूटी एडिटिंग के मिथक को तोड़ा। कॉन्टीन्युटी एडिटिंग में हर शॉट का अगले शॉट के साथ सामन्जस्य होना ज़रूरी है। लॉन्ग शॉट और जम्प-कट की अवधारणा एडिंटिग के पुराने तरीक़ों से आगे ले जाती है। न्यू वेव सिनेमा में ये भी ज़रूरी नहीं कि मुख्य पात्र कहानी को आगे बढ़ाए और उसका एक निश्चित लक्ष्य फिल्म में पूरा हो। इसकी जगह मुख्य पात्र आम तौर पर पूरी फिल्म में बिना मक़सद के घूमता रहता है। उसके बिखराव में ही दर्शक को फिल्म के मायने तलाशने होते हैं। इसके अलावा कहानी की क्रमबद्धता यानी नैरेटिव का कार्य-कारण रिश्ता मौजूद हो, ये भी ज़रूरी नहीं। न्यू वेव के फिल्मकारों को हॉलीवुड सिनेमा में कलाकारों के हर वक्त कॉस्ट्यूम और मेकअप में रहने पर भी आपत्ति थी। पुराना नैरेटिव फ्रेंच सिनेमा उनको बिल्कुल मंजूर नहीं था। इस तरह ये लोग फिल्म में किसी निश्चिट प्लॉट और उसके निर्माण के परंपरागत तरीक़ों के ख़िलाफ़ थे। न्यू वेव फिल्मों की कहानी आमतौर पर जटिल, अस्त व्यस्त और मनमौजी चरित्रों के आसपास घूमती थी।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद फ्रांस में अस्तित्ववाद का गहरा प्रभाव था। ज्यां पॉल सार्त्र, सिमोन द बोउवा और कामू जैसे लेखक और बुद्धिजीवी इसके हीरो थे। इस दर्शन का भी न्यू वेव पर गहरा असर पड़ा। अस्तित्वाद व्यक्तिवाद और चुनने की आज़ादी पर ज़्यादा ध्यान देता है। दुनिया की किसी तार्किक समझदारी पर भी भरोसा नहीं करता और मानव जीवन में एक तरह की असंगतता की बात करता है। इसलिए न्यू वेव सिनेमा के ज़्यादातर चरित्र एंटी हीरो या हाशिए के युवाओं के तौर पर दिखाई देते हैं। जिनके परिवार का कुछ पता नहीं होता। मर्जी के मालिक होते हैं। कई बार अनैतिक नज़र आते हैं। कुल मिलाकर व्यवस्था विरोधी नज़र आते हैं।
उन्नीस सौ उनसठ में त्रुफो ने अपने ससुर से पैसा उधार लेकर दि फोर हंड्रेड ब्लोज बनाई। तब त्रुफो की उम्र सिर्फ सत्ताईस साल थी। ये फिल्म एक बाल अपराधी की कहानी को कहती है। फिल्म की पूरी शूटिंग ऑन लोकेशन की गई । इस फिल्म को आंद्रेई बाजां को समर्पित किया गया था जिनकी शूटिंग के दौरान ही मौत हो गई थी। फिल्म में त्रुफ़ो के बचपन की कई आत्मकथात्मक छवियां मिलती हैं। इस लिहाज़ से ये औत्योर शैली की फिल्म है। इसमें दर्शक किसी कहानी का पीछा करने की बजाय अलग-अलग टुकड़ों में यथार्थ से रू-ब-रू होता है। गोदार की फिल्म ब्रेथलेस के नायक मिशेल का ज़िक्र इस सिलसिले में किया जा सकता है। जिसकी ज़िंदगी की हर घटना असंगत जान पड़ती है। कुछ आलोचकों ने इस सिनेमा को मार्क्सवादी तरीक़े से भी परिभाषित करने की कोशिश की है। उनका कहना है कि न्यू वेव सिनेमा के चरित्र सत्ताधारी वर्ग की मान्यताओं को चुनौती देने का काम करते हैं। गोदार ने तो बाद की फिल्मों में घोषित तौर पर कई मार्क्सवादी प्रयोग किए थे।
सन् साठ में रिलीज गोदार की फिल्म ब्रेथलेस ने न्यू वेव सिनेमा आंदोलन को एक नई पहचान दी। इस फिल्म को सिर्फ चार हफ्तों में पूरा कर लिया गया था। फिल्म अमेरिका के मोनोग्राम पिक्चर्स को समर्पित है। मोनोग्राम पिक्चर्स तीस और चालीस के दशक में बी ग्रेड की फिल्में बनाने के लिए जाना जाता है। जो कम बजट और कम समय में फिल्में तैयार करता था। इस फिल्म में न्यू वेव सिनेमा की सभी बड़ी विशेषताओं को देखा जा सकता है। जिनमें हाथ से पकड़े 35 एमएम कैमरा से लिए गये हिलते हुए शॉट, ऑनलोकेशन शूटिंग, कुदरती प्रकाश व्यवस्था, इंप्रोवाइज्ड संवाद और सीधी साउंड रिकॉर्डिंग महत्वपूर्ण है।
विश्व सिनेमा पर न्यू वेव का असर
फ्रांस के इस आंदोलन का असर दुनिया के बाक़ी देशों की फिल्म निर्माण पर भी पड़ा और वहां पर कम बजट में राजनीतिक-सामाजिक उद्देश्यों को ध्यान रखने वाले सिनेमा आंदोलन शुरू हुए। उन्नीस सौ साठ के दशक में जगह-जगह पुराने विषयों और स्टाइल को दरकिनार कर डॉक्यूमेन्टरी और राजनीतिक फिल्में बनने लगीं। लगभग फ्रेंच न्यू वेव के दौरान ही ब्रिटिश न्यू वेव की लहर भी चली। इसका काल उन्नीस सौ उनसठ से लेकर पैंसठ तक था। इसके प्रमुख फिल्मकार टॉनी रिचर्डसन, लिंडसे एंडरसन, जॉन श्लैसिंजर और जैक क्लेटन थे। तभी ब्रिटेन में श्रमिक वर्ग के लिए एंग्री यंग मैन सिनेमा अस्तित्व में आया।
चैकोस्लोवाविया में उन्नीस सौ तिरेसठ से अड़सठ के बीच में लीक से हट कर फिल्में बनीं। इस बदलाव को भी न्यू वेव कहा गया। इसमें मिलोस फोरमैन, वेरा चितिलोवा, जारोमिल जिरेस, इवॉल्ड स्क्रॉम, जेन नेमेक, और जिरी मेंजेल की फिल्में शामिल की जाती हैं। इसके अलावा पूर्वी यूरोप के दूसरे देशों में भी बेहतरीन फिल्में और फिल्मकार सामने आये। जिसमें पॉलेण्ड के रोमन पोलंस्की और जेरी स्कोलिमोवस्की, हंगरी के मिकलोस जैंक्सो, एंड्रस कोवाक्स और इस्तवान जैबो और यूगोस्लाविया के दुसान मकावेजेव और एलेक्जेंडर पेट्रोविक थे। पश्चिमी यूरोप में इटली के बर्नान्दो बेर्चोलुची, मार्को बेलोचियो, अरमानो ओल्मी, पियर पाओलो पासोलिनी और फैंसैस्को रोजी, स्वीडन के बो वाइडरबर्ग और विल्गोट जोमैन और फिनलैंड के रिस्ट्रो जार्वा जैको ने भी अपनी फिल्मों नए प्रयोग शुरू किए। 1962 में ओबरहॉसन मैनीफेस्टो ने जर्मन सिनेमा को न्यू वेव का ऋणी कहा। इसे जर्मन सिनेमा में ऑत्योर शैली लाने का श्रेय दिया गया। साठ के दशक में ही जर्मनी में एक फिल्म स्कूल खुला और नये फिल्मकारों को पहली फिल्म के लिए लोन मिलने लगा। अलेक्जेंडर क्लूग ने 1966 में ‘यस्टरडे गर्ल’ बनाई इसके बाद वोल्कर श्लोनडॉर्फ, ज्यां मैरी स्ट्रॉब एंडले हिलेट, रैनर वर्नर फैसबाइंडर, वर्नर हर्जॉग और विम वैंडर्स जैसे निर्देशक भी सामने आये।
ब्राजील में 1961-62 के दौरान ग्लौबर रोचा और रू ग्वैरा की भी पहली फिल्म बन रही थी। साठ के दशक के बीच में ही क्यूबा में क्लॉड जूत्रा, गिल्स ग्रोल्स और ज्यां पियरे लेफेबर्व अपनी शुरूआती फिल्में बना रहे थे। जापान में नागीसा ओसिमा 1959-60 में अपनी पहली फिल्म बना रहे थे। भारत में उन्नीस सौ उनसठ में बनी मृणाल सेन की भुवन सोम को पहली न्यू वेव फिल्म माना जाता है। बाद में श्याम बेनेगल, मणि कौल, कुमार साहनी, केतन मेहता, सईद मिर्जा़ आदि ने भी इस धारा में काफ़ी प्रयोग किए। साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में भारतीय न्यू वेव ने व्यावसायिक और मेलोड्रामाई सिनेमा को तगड़ी चुनौती दी। आज़ादी के बाद पहली बार भारत में सांस्कृतिक-राजनीतिक मुद्दों को गंभीरता से उठाया गया और भारतीय राष्ट्रीय सिनेमा की एक नई परिभाषा देखने को मिली। फ्रेंच न्यू वेव की तरह ही इसमें भी कई तरह की विविधता और प्रयोग थे। उन्नीस सौ उनहत्तर में ही ईरान में भी न्यू वेव की शुरुआत हुई। दौरियस मेहरिजू की फिल्म द काव से इसकी शुरुआत मानी जाती है। न्यू वेव का ही असर है कि आज ईरानियन सिनेमा का दुनियाभर में इतना नाम है।
आधी सदी की उपलब्धियां
फ्रेंच न्यू वेव सिनेमा की शुरुआत हुए क़रीब पचास साल होने को हैं। एक आंदोलन के तौर पर इसकी समाप्ति की घोषणा भी की जा चुकी है। लेकिन इसने विश्व सिनेमा में जो भी नया जोड़ा उसका असर आज तक दिखाई देता है। उस आंदोलन की मुख्य विशेषताओं वाला सिनेमा आज भी कई देशों में बन रहा है। अमेरिकी निर्देशक क्वान्तिन तारांतिनो और हांगकांग के वांग कार वाई जैसे मशहूर निर्देशकों की फिल्मों में भी न्यू वेव की कई प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं। न्यू वेव के फिल्मकारों ने जो प्रयोग किए थे आज भी उनका उपयोग फिल्म के कई ज़ोनर में हो रहा है।
उन्नीस सौ चौरासी में फ्रांसुआ त्रुफो और उन्नीस सौ नब्बे में ज्याक्स देमी दुनिया छोड़कर चले गए लेकिन कहिए दू सिनेमा के साथ न्यू वेव आंदोलन की जमीन तैयार करने वाले उनके कई साथी उम्र के अंतिम पड़ाव में भी फिल्में बना रहे हैं। गोदार, शैब्रोल, रोमर, रिवेते जैसे निर्देशक अब तक सक्रिय हैं। उन्नीस सौ तीस में पैदा हुए क्लाउदे शैब्रोल ने अब फ्रांसीसी सिनेमा में लगभग हिचकॉक जैसा दर्जा पा चुके हैं। उनके थ्रिलर फ्रांसीसी जनता को लुभाते हैं। इक्कीसवीं सदी में भी उन्होंने मर्सी पोर ले चॉकोलेट (Merci pour le chocolat, 2000) और ल इवरेस दू पोउवोर (L’ivresse du pouvoir, 2006)जैसी फिल्म बनाई है। गोदार सिनेमा के नए रास्ते तलाशने में जुटे हुए हैं। ज्याक्स रिवेते ने भी वा सवोइर (Va savoir, 2001) और ल हिस्ट्री दे मैरी एट जूलियन (L’histoire de Marie et Julien , 2003)फिल्म बनाई है। रोमर ने 2001 में बनी फिल्म ल एंजेला एट ले दुक (L’Anglaise et le duc) से काफ़ी सुर्खियां बटोरी।
फिल्म निर्माण, तकनीक और फिल्म संस्कृति के दृष्टिकोण से फ्रेंच न्यू वेव के इन पुराने दिग्गजों की फिल्मों का मूल्यांकन किया जाए तो ये आज भी अपनी फिल्मों के लेखक (औत्योर) हैं। इनमें से कई ने तमाम चुनौतियों के बावजूद फिल्म निर्माण को लेकर अपनी आत्मनिर्भरता बनाये रखने की कोशिश की है। ये भी नहीं भूला जा सकता कि सिनेमा की दुनिया में इनकी मूल पहचान ही न्यू वेव से शुरू होती है।
जिन हालात में फ्रेंच न्यू वेव फला-फूला था आज भी दुनिया के कई देशों के सिनेमा में उसी तरह के हालात दिखाई दे रहे हैं। मुख्य धारा के व्यायसायिक सिनेमा और बड़ी पूंजी की वजह से सरोकार ग़ायब होते जा रहे हैं। इन सारी स्थियों से उबरने के लिए फिर से नई परिभाषाएं और पहलकदमी लेने की ज़रूरत बची हुई है। इस लिहाज़ से कहा जाए तो बेहतर सिनेमा के लिए न्यू वेव की प्रेरणा आज़ भी ज़रूरी है।
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