गोविन्द सिंह।
‘पपराज़ी’ (फ्रेंच में इसे पापारात्सो उच्चारित किया जाता है) यह एक ऐसा स्वतंत्र फोटोग्राफर जो जानी-मानी हस्तियों की तस्वीरें लेता और पत्रिकाओं को बेचता है। ‘ पपराज़ी’ शब्द कहां से आया? ‘ पपराज़ी’ की उत्पत्ति महान इतालवी फिल्मकार फेरेरिको फेलिनी की 1960 में बनी फिल्म ‘ला डोल्से विटा’ नाम की फिल्म के एक पात्र ‘पपराजो’ से हुई। यह एक फ्रीलांस फोटोग्राफर था जो हॉलीवुड के सितारों की निजी जिन्दगी के फोटो खींचने के लिए किसी भी हद तक जा सकता था। फेलिनी को ‘पपराजो’ नाम के इस चरित्र की प्रेरणा भी प्रसिद्ध इतालवी स्ट्रीट छायाकार ताजियो सेक्सियारोली से मिली। जब फेलिनी फिल्म की पटकथा पर काम कर रहे थे, तब उन्होंने सेक्सियारोली से सलाह-मशविरा किया। सेक्सियारोली ने बताया कि उन्हें अपने जीवन में हमेशा उन चित्रों ने प्रतिष्ठा दिलाई जो अनौपचारिक तौर पर लिए गए थे।
मुम्बई के अंग्रेजी टैब्लॉयड ‘मिडडे’ ने फिल्म कलाकार शाहिद और करीना कपूर के प्रगाढ चुम्बन के फोटो छापकर एक बार फिर से पपराजी पत्रकारिता को बहस के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया। फोटो छापकर, सम्भव है, अखबार ने अपना सर्कुलेशन कुछ बढ़ा लिया हो या इस बहाने उसका नाम चर्चा में आ गया हो, लेकिन उससे ज्यादा फायदा उठाया उन टीवी चैनलों ने जिन्होने उन चुम्बन-दृश्यों पर जैसे अपना कैमरा फोकस कर दिया था। हालांकि सभी समाचार चैनलों ने इसका भरपूर लाभ उठाने की कोशिश की, लेकिन ‘स्टार न्यूज’ ने तो हद ही कर दी। उन दृश्यों को केन्द्र में रखकर जबरन झूठ-मूठ की बहसें दिखाई जाती रहीं। जाहिर है यह सब अपनी रेटिंग बढाने की गवायद थी लेकिन असली बहस शायद कहीं पीडे छूट कई थी कि पपराजी पत्रकारिता का कहां तक औचित्य है? लोग चुम्बन दृश्यों की हकीकत पर तो सवाल खडे कर रहे थे, पत्रकारिता की नैतिकता पर कोई नहीं बोल रहा था । आज की मीडिया शायद ऐसे सवाल उठा भी नहीं सकता, क्योंकि ऐसा करके वह खुद को ही कठघरे में खड़ा कर देता है। लेकिन पत्रकारिता की की प्रवृत्तियों पर नजर रखने वालों के लिए यह एक गम्भीर प्रश्न है। महज प्रेस की आजादी या अधिकार कहकर इस मुददे को टाला नहीं जा सकता, इसलिए यहां पपराजी पत्रकारिता के उद्भव और विकास पर एक नजर डालना अनिवार्य है।
‘पपराजी’ क्या है? यह शब्द कहां से आया? ‘पपराजी’ की उत्पत्ति महान इतालवी फिल्मकार फेरेरिको फेलिनी की 1960 में बनी फिल्म ‘ला डोल्से विटा’ नाम की फिल्म के एक पात्र ‘पपराजो’ से हुई। यह एक फ्रीलांस फोटोग्राफर था जो हॉलीवुड के सितारों की निजी जिन्दगी के फोटो खींचने के लिए किसी भी हद तक जा सकता था। फेलिनी को ‘पपराजो’ नाम के इस चरित्र की प्रेरणा भी प्रसिद्ध इतालवी स्ट्रीट छायाकार ताजियो सेक्सियारोली से मिली। जब फेलिनी फिल्म की पटकथा पर काम कर रहे थे, तब उन्होंने सेक्सियारोली से सलाह-मशविरा किया। सेक्सियारोली ने बताया कि उन्हें अपने जीवन में हमेशा उन चित्रों ने प्रतिष्ठा दिलाई जो अनौपचारिक तौर पर लिए गए थे। उन्होंने एक बार मिस्र के सुल्तान फारूक का फोटो खींचा और उसी रात फिल्म अभिनेता एनीनी रूऔल और अभिनेत्री एनिटा एक्बर्ग के चोरी-छिपे फोटो खींचे। यूरोपीय पत्रकारिता में इन फोटो ने तहलता कचा दिया था। हालांकि इन फोटो में शाहिद व करीना कपूर के फोटो जैसा कुछ भी नहीं था, लेकिन फिर भी ये फोटो वैसे नहीं थे, जैसे उस जमाने के बड़े लोगों के प्रायोजित फोटो होते थे। इससे यूरोपीय प्रेस फोटोग्राफरों में मशहूर हस्तियों के अनौपचारिक तौर पर लिए गए चित्रों के प्रति जबरदस्त क्रेज पैदा हुआ। सेक्सियारोली तो पीछे छूट गए। उनकी नकल करने वाला अभिनेता पपराजो हिट हो गया और पपराजो का बहुवचन ‘पपराजी’ आज पत्रकारिता की एक महत्वपूर्ण व विवादास्पद विधा बन गई है।
चूंकि यूरोप में मशहूर हस्तियों के निजी जीवन में ताक-झांक का चलन रहा है, इसलिए पपराजी लोगों का व्यवसाय फलता-फूलता रहा। कई-कई पपराजी साल भर एक ऐसे बिकाऊ फोटो के लिए भटकते रहते हैं। लेकिन एक ही फोटो इतना महंगा बिकता है कि पपराजी को मालामाल कर देता है। जैम्स टेलर और बेन ब्रेट नाम के दो पपराजी 22 साल की उम्र में ही यूरोप के सर्वाधिक चर्चित छायाकार बन गए हैं। ये दोनों रात भर नाइट क्लबों में आने वाली मशहूर हस्तियों, फिल्मी सितारों की गतिविधियों पर नजर रखते हैं। एक-एक शॉट के लिए इन्हें कई-कई रातें खराब करनी पड़ती हैं। इनका काम किसी जासूस से कम नहीं होता। पहले ये मामूली फोटोग्राफर थे, एक रात अचानक इन्हें अभिनेत्री विक्टोरिया बेखम के साथ अभिनेता डेविड दिखाई पड़े। इनका यह फोटो 30 हजार पाउण्ड का बिका। इसी तरह बेन ब्रेट जेम्स हेविट नामक हस्ती के पीछे पड़ गए। जेम्स हेविट भी कभी राजकुमारी डायना के प्रेमी रह चुके थे। सन् 2000 में हेविट किसी मामले में गिरफ्तार हुए, तब बेन ही अपने कैमरे के साथ वहां मौजूद थे। हेविट की तो जमानत हो गई लेकिन गिरफ्तारी का दुर्लभ फोटो होने के कारण यह फोटो बेन को एक लाख पाउण्ड दिला गया।
नाइट क्लबों के गेटकीपर या गार्ड पपराजियों के सबसे महत्वपूर्ण सूत्र होते हैं। ये गार्ड इन फोटोग्राफरों को यह सुराग देते है कि अन्दर कौन-कौन सी हस्तियां मौजूद हैं और किसे आने की सम्भावना है। बदले में फोटोग्राफर उन्हें मोटी टिप देते हैं। कई बार तो फोटो से होने वाली आमदनी का 10 प्रतिशत तक होती है यह बख्शीश। उनकी कई-कई रातें बेकार भी जाती हैं और कई बार वे मशहूर हस्ती समझकर किसी मामूली आदमी का ही फोटो खींच डालते हैं। एक बार जेम्स और बेन को सुराग मिला कि एक नाइट क्लब में अभिनेत्री जेनिफर एलिसन आने वाली हैं। वे मन-ही-मन प्रार्थना करने लगे कि काश! वह कुछ खास कपड़े पहन कर आती ! लेकिन जब जेनिफर आई तो न तो वह कुछ अलग कपड़े पहने हुए थीं और न ही फोटो खींचते वक्त उनके चेहरे पर कोई भाव आया। लिहाजा बने को कड़ी निराशा हुई। ऐसे फोटो यदि बिक भी जाएं तो मुश्किल से 100 पाउण्ड तक दिला पाऍंगें।
यूरोप-अमेरिका में पपराजियों का पेशा इतना लोकप्रिय इसलिए हुआ, क्योंकि वहां ऐसे चटखारेदार फोटो या किस्से छापने की अपनी एक परम्परा रही है। वहां टैब्लॉयड खूब छपते हैं, खूब बिकते हैं। ‘सन’, ‘मिस’ जैसे टैब्लॉयडों का प्रसार 10-20 लाख तक होता है। हालांकि कोई इन्हें गम्भीरता से नहीं लेता, लेकिन हल्के-फुल्के मनोरंजन के लिए लोग इन्हें पढ़ना पसन्द करते हैं। इन्हें अपनी विक्री करकरार रखने के लिए हमेशा मसालेदार किस्सों व फोटो की दरकार रहती है। इनकी इसी जरूरत के चलते यूरोप-अमेरिका में पपराजियों का पेशा फल-फूल रहा है। अमेरिका में इन्हें काफी अधिकार भी प्राप्त हैं। लगभग उतने ही, जितने कि रिपोर्टरों को। साथ ही सामाजिक स्तर पर यह तर्क भी इनके पक्ष में जाता है कि चूंकि सार्वजनिक जीवन जीने वाली हस्तियों का अपना कोई निजी जीवन नहीं होता और उनके जीवन के पल-पल पर जनता का अधिकार होता है, जिसे जानने की इच्छा जनता को रहती है, इसलिए पपराजियों का काम भी जनता की भूख को ही शान्त करना है। इस तर्क के चलते पपराजी भी प्रेस की स्वतंत्रता के दायरे में आ जाते हैं।
इस सबके बावजूद पपराजी-कर्म को कभी भी आदर की उस नजर से नहीं देखा जाता जैसे पत्रकारिता को देखा जाता है। यूरोप में भी ‘पपराजी’ एक ऐसा शब्द है, जिसे कभी कोई प्रेस-फोटोग्राफर अपने नाम के साथ जुड़ा नहीं देखना चाहता। पपराजी कभी भी प्रेस फोटोग्राफरों की जगह धड़ल्ले से नहीं घूम सकते। उन्हें अपनी पहचान छिपा कर रखनी पड़ती है। वे हस्तियों की नजर बचाकर उनकी इच्छा के विरूद्ध उनके फोटो खींचते हैं। राजकुमारी डायना का उदाहरण हमारे सामने है। 31 अगस्त, 1997 को पेरिस के पास राजकुमारी डायना अपने पुरूष मित्र डोडी-उल-फहद के साथ मर्सिडीज कार में जा रही थीं कि उनकी एक झलक को अपने कैमरे में कैद कर लेने को बेताब पपराजियों ने उनका पीछा शुरू किया। पपराजी मोटरसाइकिलों में थे। उनके कैमरे मोटरसाइकिल में ही फिट थे। पपराजियों से पिण्ड छुडाने के चक्कर में डोडी ने ड्राइवर को कार तेज चलाने का आदेश दिया। हड़बड़ी में कार सुरंग के एक खम्भे से टकराई और डायना व डोडी सहित ड्राइवर की वहीं मौत हो गई। सिर्फ डायना का अंगरक्षक बच गया जिसका कहना था कि पपराजियों के आतंक के कारण ही यह दर्घटना हुई। नौ पपराजियों के खिलाफ मुकदमा चला, हालांकि पपराजी छूट गए लेकिन यूरोप भर में उनकी बड़ी बदनामी हुई। उनके खिलाफ जगह-जगह प्रदर्शन हुए और उन्हें कातिलों की उपाधि से विभूषित होना पड़ा ।
पपराजी-कर्म के खिलाफ अलग से कोई कानून नहीं है। डायना की मौत के बाद जरूर इस संबंध में कुछ सुगबुगाहट हुई थी लेकिन कहीं कोई कानून बना हो, ऐसा सुनाई नहीं दिया। भारत में भी ऐसा कोई कानून नहीं है, हमारे यहां ‘पपराजी’ जैसी कोई जमात नहीं है। अखबारों के अपने फोटोग्राफर ही गाहे-ब-गाहे यह कर्म करते रहते हैं। इसलिए जब भी कोई ऐसी घटना घटती है, थोड़ी-बहुत गर्मा-गर्मी के बाद मामला ठण्डा पड़ जाता है। इसलिए यह जरूरत बनी हुई है कि पपराजी-कर्म पर बहस होनी चाहिए।
भारत में अभी तक पीत पत्रकारिता और गॉसिप पत्रकारिता की चर्चा होती रही है। हाल के वर्षों में तीसरे पन्ने की पत्रकारिता ने भी महानगरीय अंगेजी अखबारों में एक अलग जगह बनाई है। लेकिन पपराजी पत्रकारिता सक्रिय रूप से कभी दिखाई नहीं पड़ी। हालांकि पपराजी पत्रकारिता के हथकण्डे खोजी पत्रकारिता के लिए खूब अपनाए जाते रहे हैं। टेलीविजन पत्रकारिता में सूक्ष्म कैमरे का इस्तेमाल हो या तहलका के टेप हों, उन सब में सब पपराजी के तौर-तरीकों का बखूबी इस्तेमाल होता रहा है। खोजी पत्रकारिता में जब भी ऐसे तौर-तरीकों का इसतेमाल हुआ है, उनकी सराहना ही हुई है। लेकिन पपराजी पत्रकारिता को कभी भी सम्मान से नहीं देखा गया। पर जिस तरह से हमारे यहां तीसरे पन्ने की पत्रकारिता पनप रही है और फिल्मी गॉसिप को बाकायदा फिल्म इंडस्ट्री की ही सह मिली हुई है, उसकी स्वाभाविक परिणति है पपराजी पत्रकारिता, क्योंकि जिन लोगों के फोटो तीसरे पन्ने पर छपते हैं, वे ही पपराजियों के शिकार भी बनते हैं। जब भी पत्रकारिता के पास मुददे नहीं होते, ऐसे विषय सतह पर आ जाते हैं। निरर्थक मुददे हावी होने लगते हैं। ये सर्कुलेशन बढाने के आसान हथकण्डे हैं। धीरे-धीरे ये विषय तीसरे पन्ने से उठकर पहले पन्ने पर आ जाते हैं। निश्चित ही यह कोई बहुत शुभ संकेत नहीं हैं। हिन्दी पत्रों के रविवारीय परिशिष्टों का जिस तरह से पतन हुआ है, यदि वह नहीं रूका और अंग्रेजी पत्रों से पी-3 पत्रकारिता पर लगाम नहीं कसी गई तो पपराजी पत्रकारिता का हावी होना लाजमी है, इसलिए लगाम पत्र-स्वामियों के ही हाथ में है।
प्रोफेसर गोविंद सिंह उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग के निदेशक हैं। वे हिंदुस्तान, अमर उजाला, स्पेन मैगज़ीन , ज़ी न्यूज़ और आजतक में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुकें हैं।