उदय चंद्र सिंह
टीवी की दुनिया में खूब अजब-गजब होता है। कभी नोएडा को बंदर खा जाता हैतो कभी तेल लगाने के मुद्दे पर हैदराबाद में सैकड़ों किसान गिरफ्तारी देते हैं । गजब तो तब हो गया जब एक न्यूज चैनल की ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी पर- “हीथ्रो हवाई अड्डे पर विमान से कुचलकर पायलट की मौत” चलते देखा । खूब माथा-पच्ची करने पर भी समझ नहीं आया कि आखिर पायलट ने खुदकुशी की या फिर वह रनवे पर दौड़ लगाते जहाज से ही कूद गया ।
पत्रकार मन बेचैन हो रहा था। जिस चैनल पर खबर देखी, वो भी विस्तार से कुछ नहीं बता रहा था। बस हर पांच सेकेंड के अंतराल पर टीवी स्क्रीन पर विमान से पायलट के कुचले जाने की खबर की पट्टी नजर आ रही थी । हीथ्रो हवाई अड्डा दुनिया के आधुनिकतम हवाई अड्डों में से एक है । नाश्ता करने बैठा तो भी सत्तू पराठा गले के नीचे नहीं उतर रहा था। उतरता भी कैसे। मन में कुलबुली मची थी कि आखिर पायलट पर पूरा जहाज कैसे चढ़ गया ? क्या हीथ्रो हवाई अड्डे पर हमारे रांची हवाई अड्डे जैसी सुविधाएं भी नहीं है। रांची में दिन में दो-चार जहाज उतरते हैं। उतरने के पहले हवाई अड्डे का एक कर्मचारी लाल जीप पर सवार होकर रनवे के आसपास चरती गाय-भैंसों को हांकता है ताकि कोई हवाई जहाज के नीचे ना आ जाये या फिर हवाई जहाज में बैठे लोगों को फिर से ऊपर ना भेज दे।
जब मन शांत नहीं हुआ तो उस चैनल में काम कर रहे एक पत्रकार मित्र को फोन खड़का दिया। सोचा, आखिर दोस्ती किस काम की। पहले उसका हाल पूछा फिर पायलट की चाल का । बात उसे भी कुछ समझ नहीं आई जबकि वो खुद टीवी न्यूजरूम में मौजूद था। उसने मुझे भरोसा दिलाया कि जल्द ही वो खबर की तफ्तीश कर मेरे अशांत मन को शांत करेगा। उसने दोस्ती निभाई भी। तफ्तीश के बाद उसने जो जानकारी दी, उसे सुनकर मैंने माथा पकड़ लिया। इस बीच पायलट वाली खबर ब्रेकिंग न्यूज से हटा ली गई थी। इसलिए नहीं कि खबर बासी हो गई थी बल्कि इसलिए कि खबर का अनुवाद गलत हो गया था। दरअसल पायलट की मौत हीथ्रो हवाई अड्डे से बाहर निकलते समय कार से कुचलकर हुई थी। अंग्रेजी में कहीं से कोई छोटी-सी खबर आई थी और जल्दी में किसी ने गलतअनुवाद कर गजब ढा दिया।
टीवी चैनलों में काम करनेवालों के पास अपनी गलतियों को ढंकने का एक ही बहाना है–टीवी न्यूजरुम में बहुत प्रेशर रहता है भाई। शिफ्ट खत्म होने के बाद दफ्तर से निकलता हूं तो लगता है कि स्कूल की छुट्टी हुई है।
ठीक है, भाई। प्रेशर तो मुझे भी लगता है, सुबह-सुबह। अब इसका मतलब यह तो नहीं कि बिस्तर हीं गंदा कर दूं।
अब जरा सोचिये, आपको टीवी पर यह पट्टी दौड़ती दिख जाये– नोएडा को बंदर खा गया। इसे देखकर कौन नहीं चौंकेगा। एक पूरे शहर को भला एक बंदर कैसे खा सकता है? लेकिन इस खबर ने मन बेचैन नहीं किया। दिमाग दौड़ाया तो समझ आ गया कि मामला क्या है।
दरअसल नोएडा को बुलंदशहर से जोड़ने के तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार के फैसले के खिलाफ उस दिन नोएडा बंद रखा गया था। लेकिन “बंद “शब्द के साथ “रखा” का “र” जोड़ दिया गया और “खा “ को अलग कर दिया गया। नतीजा टीवी के पर्दे पर जो वाक्य विन्य़ास दिखा वो यही था-नोएडा को बंदर खा गया। माना कि हड़बड़ी में गलती हो गई लेकिन पूरे दो मिनट तक ब्रेकिंग न्यूज बन कर एक बंदर नोएडा को खाता रहा लेकिन न्यूजरूम में किसी टीवी पत्रकार की नजर उस गलती पर नहीं पड़ी।
हद तो तब हो गई जब एक चैनल पर एक न्यूज रीडर ने हंसते-हंसते हमें यह खबर सुनाई-तेल लगाने के मुद्दे पर हैदराबाद के सैकड़ों किसान सड़कों पर उतरे । माथा घूम गया लेकिन बात समझ नहीं आई, आखिर इन किसानों को को तेल लगाने का इतना शौक कब से हो गया कि वो इसके लिए अपनी गिरफ्तारी तक डे डाली । खैर, पड़ताल करने पर पता चला कि एक बिंदी ने चिंदी कर दी। डेस्क पर बैठे पत्रकारों ने हेडलाइन लिखते समय तेलंगाना में ल शब्द पर की बिंदी तो छोड़ी ही, कंप्यूटर के की-बोर्ड ने भी धोखा दिया। तेलगाना शब्द दो हिस्सों में बंट गया- तेल और गाना। ऐन मौके पर न्यूजरीडर ने टेली प्राम्पटर देख कर खबरें पढ़नी शुरु की तो उसे कुछ समझ नहीं आया, लेकिन उसने अपने बुद्धि बल का प्रयोग करते हुए आनन-फानन में वाक्य को अपने मन से संपादित करते हुए पढ़ा- तेल लगाने के मुद्दे पर हैदराबाद के सैकड़ों किसान सड़कों पर उतरे ।
ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर टीवी चैनलों पर ऐसी गलतियां अब आम हो चली है । लेकिन इससे भी चिंताजनक स्थिति यह है कि आखिर यह कौन तय करे कि ब्रेकिंग न्यूज की परिभाषा क्या हो ? टीवी चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज की ऐसी पट्टियां आम बात हो गई है, जो किसी भी रुप में ब्रेकिंग न्यूज के दायरे में नहीं आती । टीवी कलाकार प्रत्युषा की फांसी लगा कर मौत तो ब्रेकिंग न्यूज हो सकती है लेकिन उसके अंतिम संस्कार की खबर भला कैसे ब्रेकिंग न्यूज हो सकती है। प्रत्युषा का निधन हुआ है तो अंतिम संस्कार तो होना ही था। तो फिर ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी पर यह खबर क्यों?
जाने माने पत्रकार एमली जैंटलमैन ने ब्रेकिंग न्यूज की जो परिभाषा दी है, वो कुछ इस तरह है– जब समाचार के प्रसारण के दौरान कोई ऐसी बड़ी खबर आ जाये जिसकी कल्पना दूर-दूर तक किसी ने न की हो और जिसका असर समाज के एक बड़े हिस्से पर पड़ता हो, वो ब्रेकिंग न्यूज है।
लेकिन एमली साहब की परिभाषा भारत में दम तोड़ती दिख रही है। दिल्ली में भारतीय जनसंचार संस्थान के कुछ छात्रों ने ब्रेकिंग न्यूज पर एक रिसर्च किया तो उन्हें दिलचस्प तथ्य हाथ लगे। बीबीसी जहां चौबीस घंटे में औसतन 1 घंटा 20 मिनट ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चलाता है वहीं भारतीय टीवी चैनल औसतन 6 घंटे ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी दौड़ाते हैं। इनमें से कई ब्रेकिंग न्यूज ऐसी होती है जो उनके अगले बुलेटिन में गायब रहती है। मतलब जिस खबर को वो आधा घंटा पहले ब्रेकिंग न्यूज के रूप में दर्शकों को परोस रहे होते हैं, उससे जुड़ी कोई भी खबर अगले बुलेटिन या हेडलाइन में भी नहीं होती।इससे अंदाजा लगया जा सकता है कि टीवी चैनलों में ब्रेकिंग न्यूज को कितनी गंभीरता से लिया जाता है।
साल 2000 में सिडनी ओलंपिक के दौरान एक मुकाबले में भारतीय हाकी खिलाड़ी दीपक ठाकुर को दिल का दौरा पड़ने की खबर एक चैनल ने चलाई थी जबकि दीपक ठाकुर को सिर्फ जांच के लिए अस्पताल ले जाया गया था। दीपक ठाकुर को तो कुछ नहीं हुआ। यहां भारत में खबर देखने के बाद उनकी मां को जरुर दिल का दौरा पड़ गया और उनकी जान जाते-जाते बची। ऐसी गलतियां रोज हो रही है । लेकिन हम टीवी पत्रकार हंस कर अपनी गलतियों को पचा जाते हैं। यह किसी एक चैनल की कहानी भर नहीं है, हर खबरिया चैनलों की यही कहानी है।
पठानकोट हमले के बाद गुरदासपुर के एसपी सलविंदर सिंह को लेकर चैनलों ने रोज कितनी खबरें ब्रेक की और किस तरह वो खबरें बाद में चारो खाने चित होकर गिरीं, वो पूरे देश ने देखा । वैसे खबरिया चैनलों के संगठन न्यूज ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन ने खबरों के बारे में दर्शकों की शिकायतों को सुनने के लिए एक अथॉरिटी बनाकर यह संकेत दे दिया है कि उन्हें अपनी गलतियों का अहसास है। चैनलों ने अपनी आचार संहिता भी बनाई है। अगर किसी को लगता है कि आचार संहिता का उल्लंघन हो रहा है तो वो अथॉरिटी के सामने अपनी शिकायत रख सकते हैं। लेकिन ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में जिस तरह हर पल खबरों को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है वो बेहद चिंताजनक है। और यह सब हो रहा है टीआरपी के लिए, यह बात भी किसी से छिपी नहीं है।। खबरिया चैनलों की यह पहल तभी सफल हो सकती है जब उन पर हर हफ्ते टीआरपी का दबाव नहीं होगा।
लेखक उदय चंद्र सिंह टीवी पत्रकार हैं