सुरेश नौटियाल।
कई साल पहले, ब्रिटिश उच्चायोग के प्रेस एवं संपर्क विभाग ने नई दिल्ली में “भाषाई पत्रकारिता: वर्तमान स्वरूप और संभावनाएं“ विषय पर गोष्ठी का आयोजन किया था। जनसत्ता के सलाहकार संपादक प्रभाष जोशी ने इस गोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा था कि मैंने अपनी जिंदगी के नौ साल अंग्रेजी पत्रकारिता में व्यर्थ किए, क्योंकि इस देश में जनमत बनाने में अंग्रेजी अखबारों की भूमिका नहीं हो सकती है। इसी आख्यान में आदरणीय प्रभाष जोशी जीने कहा था कि अंग्रेजी इस देश में सोचने-समझने की भाषा तो हो सकती है लेकिन महसूस करने की नहीं। और जिस भाषा के जरिए आप महसूस नहीं करते, उस भाषा के जरिए आप लोगों को इतना प्रभावित नहीं कर सकते कि वे अपनी राय, अपनेतौर-तरीके आदि बदल सकें।
उन्होंने यह भी कहा कि हिंदी और अंग्रेजी में लिखने पर पाठक वर्ग मेंअलग-अलग तरह की प्रतिक्रिया होती हैं। केवल भाषाई अखबार ही लोगों में आवाज और सही सोच पैदा कर सकते हैं यानी यही पत्र जनमत बनाने के सही माध्यम औरसही हकदार भी हो सकते हैं। प्रभाष जी का यह कथन भी प्रासंगिक है कि जोसचमुच का राजनेता है, वह इस देश के भाषाई अखबारों को ज्यादा महत्व देता है।किसी भी राजनेता का भविष्य कोई बना या बिगाड़ सकता है, तो वे भाषाई अखबारही हैं।
उत्तराखंड प्रभात नामक पाक्षिक पत्र का संपादन करते हुए मुझे महसूस हो रहा है कि मैंने भी 6-7 वर्ष अंग्रेजी दैनिक में बर्बाद किए। हां, इससे पहले आठ साल से अधिक समय यूनीवर्ता हिन्दी समाचार एजेंसी में रहते हुए जनता को नजदीक से देखा और काफी कुछ सीखा। आॅब्जर्वर में इसलिए नहीं सीखा क्योंकि यह अंग्रेजी पत्र ऐसे लोगों के लिए छापा जाता था जो करोड़ों को अरबों बनाने के फेर में होते थे और हम पत्रकारों का बखूबी इस्तेमाल करना जानते थे। इस पत्र के राजनीतिक ब्यूरों में आने से पहले मेरा आचरण किसी पंचतारा पत्रकार जैसा हो गया था। पैसेवालों के प्रलोभनों से स्वयं को बचाए तो रखा लेकिन छोटे-मोटे उपहार बैग-फोल्डर आदि लेकर और उनकी शराब पीकर पंचतारा छलावे में जीता रहा। राजनीतिक ब्यूरों में आने के बाद फिर से जनप्रतिनिधियों के करीब आया। अपने आचरण को सुधारा और महसूस किया कि जिस तरह पीआर एजेंसियां प्रलोभन देकर वचिकनी-चुपड़ी बातें कर अपने ग्राहकों का काम निकलवा देती हैं।
बहरहाल, अखबार बंद हुआ और फिर सड़क पर आ गए। तीन-चार महीने अमर उजाला केराजनीतिक ब्यूरो में लगाए लेकिन इसी दौरान ‘उत्तरांचल‘ नाम राज्य की विधानसभा के चुनाव सामने आ गए। ठान लिया कि अब तो अखबार निकालना ही है। अमर उजाला छोड़ दिया और एक दिन राजेंद्र धस्माना जी को बताया कि उत्तराखंड प्रभात नाम से पत्र का पंजीकरण हो गया है। उन्होंने बहुत समझाया कि सोच लोक हीं बीच में आर्थिक तंगी के चलते बंद न करना पड़े। अखबार निकला और आज तकभी निकल रहा है। आगे भी इसे निकालते रहेंगे, ऐसा मानवीय संकल्प है यहभूमिका इसलिए बांधी क्योंकि मैं यह बताना चाहता हूं कि उत्तराखंड प्रभात के दूसरे अंक से ही अद्भुत अनुभव होने शुरू हो गए। रोज चार-पांच चिट्ठियां आने लगीं। सबमें एक जैसी ही पीड़ा होती।
अस्पताल नहीं है, सड़क कागजों में है, बिजलीकरण फाइलों में बंद है, पानी को सांप सूंघ गया है, नौकरियां विलुप्त हो गई हैं, राजनीतिक नेता जनता की नहीं सुनते हैं आदि। 18-19 वर्ष के पत्रकारिता जीवन में मेरे लिए ऐसे अनुभव अद्भुत हैं जब सीधे जनता से संवाद हो रहा है। हमने इन्हीं पत्रों कोसमाचार या चिट्ठी का रूप देकर छापना शुरू कर दिया। गढ़वाल के सिल्सू-भोटागांव के एक सज्जन का पत्र आया कि उत्तराखंड प्रभात में उनके गांव के स्कूलमें अध्यापक न होने के बारे में छपने के 20-25 दिन के भीतर नियुक्तियां होगई हैं। बहुत अच्छा लगा कि जिस उद्देश्य के लिए यह पाक्षिक निकाला जा रहाहै, उसमें सफलता मिलती दिखाई दे रही है। एक-दो और ऐसे उदाहरण हैं।
ऐसे में निश्चित तौर पर लगेगा कि जनता की भाषा में उससे संवाद करने वालापत्र निकालना ही पत्रकारिता की सार्थकता है। ब्रिटिश उच्चायोग की इस गोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकार और एक दौर में दूरदर्शन के महानिदेशक रहे कमलेश्वर ने कहा कि अंग्रेजी दैनिक का जीवन केवल एक दिन का होता है जबकि भाषाई अखबार निश्चित रूप से दो दिन, चार दिन परिवार के साथ रहते हैं। उनका कहना था कि दलितों के अधिकारों का सवाल, महिलाओं के अधिकारों का सवाल, पर्यावरण का सवाल, संस्कृति का सवाल और इनसे जुड़े तमाम मुद्दे जो देश को व्याकुल करते हैं वे किन अखबारों में आ रहे हैं। उन्हीं का जवाब था कि ऐसे मुद्दे भाषाई अखबारों में आ रहे हैं। हिंदी और अन्य भाषाई पत्रों में मौजूद हैं। कुलमिलाकर कुछ अपवाद छोड़ दें तो देश की बदलती हुई संस्कृति और सांस्कृतिकमूल्यों को जिस तरह से भाषाई पत्र पेश कर रहे हैं, अंग्रेजी अखबार नहीं।
सरसरी तौर पर देखें तो पत्रकारिता सूचनाओं से भरा ऐसा लेखन है जो तथ्यपरक होने के साथ-साथ निष्पक्ष और निर्भीक भी हो। मीडिया की तमाम विधाओं पर यही लागू होता है, लेकिन अंतर भी जानना होगा। सूचनाएं तो किसी शोधग्रंथ में भी मिल सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि पत्रकारिता जन के लिए होती है और यही उसके केंद्र में भी रहना चाहिए।
क्षेत्रीय पत्रकारिता पर यह जिम्मेदारी कुछ ज्यादा ही है। यह पत्रकारिता जनता के जितने करीबी होगी, उतनी ही ज्यादा सफलता इसके उद्देश्य की होगी।लेकिन जन के निकट जाने के तौर-तरीके सतही नहीं होने चाहिए। उत्तराखंड मेंहर छोर पर उपलब्ध दैनिक पत्र जिस तरह से जनता के निकट जा रहे हैं, उससे उत्तराखंड की समग्रता खंडित होती जा रही है। एक क्षेत्र को दूसरे से, एक जनपद को दूसरे जनपद से और कुमाऊं को गढ़वाल से दूर रखने की कोशिशें दैनिकपत्रों में देखने को मिल सकती हैं। ये उनकी व्यावसायिक मजबूरी हो सकती है लेकिन फिर उन्हें अखबार छोड़कर पंसारी का सामान बेचना चाहिए। उसमें ज्यादाफायदा हो सकता है।
ग्राम प्रधान की बेटी के ब्याह की खबर तो इन दैनिकों में आपको मिल जाएगी और यह भी कि उसमें कौन-कौन सरकारी अधिकारी या नेता शामिल हुआ, लेकिन यह खबर नहीं मिलेगी कि इस मौके पर एकत्रित अधिकारियों ने ग्राम प्रधान के भ्रष्टाचार को दबाने के लिए क्या कुछ नहीं किया। सड़कों-पुलों के निर्माणकी जानकारी तो इन अखबारों से मिल जाती है लेकिन यह नहीं कि किस ठेकेदार नेकिस नेता की सिफारिश पर कितने कमीशन पर ठेका लिया। आप बताएं कि कितने दैनिकपत्र छापते हैं कि उत्तराखंड नकली सामान की खपत का बहुत बड़ा क्षेत्र बनगया है। लोगों के स्वास्थ्य पर इससे असर पड़ने के साथ-साथ सरकार की जेब परभी कैंची चल रही है। कितने बड़े अखबार हैं उत्तराखंड में जिन्होंनेगांव-गांव तक पहुंची शराब की थैली को रोकने के लिए अभियान छेड़ा हो और शराबमाफिया को ध्वस्त करने के प्रयास किए हों। उत्तर पूरी तरह नकारात्मक है।
मैं यह नहीं कह रहा कि छोटे अखबार ऐसा कर पा रहे हैं। लेकिन छोटे अखबारोंकी अपनी समस्याएं हैं। छोटे अखबार गरीबी रेखा से नीचे रह रहे नागरिकों कीतरह हैं जो अपने अस्त्तिव की लड़ाई में वास्तविक लड़ाई के पचड़े में पड़नेसे बचते हुए दिखाई देते हैं।
ऐसे में कौन लड़ेगा उस जन की जंग, जो सरकारी व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और आसपास के माहौल से पीड़ित है?
आज उत्तराखंड में कितने पत्रकार हैं जो वास्तव में उन रास्तों पर चलने का साहस कर रहे हैं जिन पर उमेश डोभाल भयमुक्त चला? क्या आज उत्तराखंड मेंजल-जंगल-जमीन और शराब माफिया नहीं हैं? क्या उमेश डोभाल के बाद लड़ाई खत्महो गई या हो जानी चाहिए? क्या आज पत्रकारों को मालूम नहीं कि कौन सा नेता किस भ्रष्टाचार में लिप्त है? कौन कहां होटल बनवा रहा है और कौन माफिया के पैसे पर पल रहा है? इस श्रेणी में कई तरह के पत्रकार शामिल हैं।
एक वे जो नेताओं की तरह माफिया से लाभान्वित हो रहे हैं। दूसरे वे जिन्हें माफिया से डर लगता है और उनसे टक्कर नहीं लेना चाहते और तीसरे वे पत्रकार जिन्हें सरकारी विज्ञप्तियों, अफसरों-ठेकेदारों के दावों, मंत्रियों की घोषणा और नेताओं की चतुर बातों के अलावा कुछ भी ‘समाचार’ नजर नहीं आता है।ये लोग वास्तव में सुविधाभोगी पत्रकार हैं। किसी मिशन से इनका लेना-देनानहीं। अपनी सुख-सुविधाओं में कमी न हो पाए, इसी की लड़ाई उनके श्रेष्ठ है।
पत्रकारिता कैसे और क्यों शुरू हुई, इसका कारण तो आस-पास और समाज को अधिकाधिक जानकारी हासिल कराना ही रहा होगा लेकिन इसका अब क्या उद्देश्य हैइस पर थोड़ी बातचीत होनी चाहिए। देश के संदर्भ में और खासकर नवोदितउत्तराखंड के संदर्भ में पत्रकारिता यानी पत्र-पत्रिकाओं और टी.वी. समाचारचैनलों का आज के जीवन में पहले से कहीं ज्यादा महत्व हो गया है। सूचनाक्रांति की प्रगति के साथ-साथ इसका महत्व निरंतर बढ़ते जाने की पूरीसंभावना तो है ही। पत्र छोटा हो या बड़ा, उसका उद्देश्य जनता तक ज्यादा सेज्यादा और बढ़िया से बढ़ियाजानकारियां निष्पक्ष ढंग से पहुंचाते रहने कीहोनी चाहिए। जन-संचार में पत्रों की भूमिका कितनी सशक्त हो सकती है इसकाअंदाजा लगाने के लिए उदाहरणों की कमी नहीं। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीरहते जब बोफोर्स रक्षा सौदे की बात अखबारों में उछली तो इस सरकार के जानेही राह अपने आप बन गई। केंद्र में वर्तमान भाजपा सरकार के पेट्रोलपम्पघोटाले की खबरें अभी भी आ रही हैं।
दिल्ली और देहरादून से लेकर अन्य शहरों में पार्टी कार्यकर्ताओं को कौड़ियों के भाव जमीने दिए जाने जैसे मामले प्रकाश में लाकर अखबारों और खासकर अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस ने सरकार की नींद हराम कर दी है।यानी अखबार ईमानदारी से अपना काम करते रहें तो सरकार या किसी भी अन्य की कारगुजारियों का भंडाफोड़ कर जनता को जागरूक बनाने का काम तो कर ही सकते हैं। बल्कि केवल एक अखबार ही काफी है।
आज अखबार पढ़े-लिखे परिवारों का अटूट हिस्सा है। यदि किसी को सुबह-सुबह उसका प्रिय अखबार पढ़ने को न मिले तो वो बेचैन हो इधर-उधर घूमते देखे जासकते हैं। दुर्भाग्य या संयोग से छोटे अखबारों और ‘पत्रिकाओं को यह सौभाग्यकम ही प्राप्त है। थोड़े लोग हैं जिनके घरों में नैनीताल समाचार, युगवाणी, पिंडारी मेल, गढ़वालैधै, प्यारा उत्तराखंड, मध्य हिमालय, उत्तरांचलपत्रिका, गढ़वाल पोस्ट, हिमालय के स्वर, उत्तराखंड खबरसार, पर्वतजन औरउत्तराखंड प्रभात जैसे छोटे कहे जाने वाले पत्र या पत्रिकाएं आती हों। इनकारूपरंग इंडिया टुडे-आउटलुक या टाइम्स आफ इंडिया जैसा लुभावना नहीं होता। ये पत्र-पत्रिकाएं किसी सीधे-साधे और ईमानदार ग्रामीण की तरह अनाकर्षक होती हैं। अब लोगों को कौन समझाए कि शहर के चिकने आदमी की तरह दिखने वाली रंगीन शहरी पत्रिका से बेहतर सामग्री अनाकर्षक लेकिन सजग ग्रामीण जैसे लगने वालीपत्रिका में हो सकती है। यह तो तभी पता चलेगा यदि इस ग्रामीण व्यक्ति याछोटी कही जाने वाली पत्रिका में लिखे को पढ़ा जाए। इतनी मेहनत कम लोग करतेहैं।
उत्तराखंड में पर्यावरण को बचाने की चिंता रही हो या स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय लोगों के अधिकार बहाली का मुद्दा, इन सब विषयों को बिना किसी लाग-लपेट के और बिना किसी शाब्दिक जाल के स्थानीय पत्रों ने हीनिर्भीकता से उठाया है। टिहरी में बांध की वजह से विस्थापित हो रहे लोगोंका मामला जितने प्रभावी ढंग से उत्तराखंड प्रभात, युगवाणी या किसी स्थानीयऔर छोटे पत्र ने उठाया, उतना शायद ही किसी बड़े पत्र ने उठाया हो। ऐसेउदाहरणों की भी कमी नहीं जब जल, जंगल, जमीन से जुड़ी अनेक समस्याएंक्षेत्रीय अखबारों में छपने के बाद ही बड़े और राष्ट्रीय अखबारों में आई।
छोटी जगह पर कम पैसे में काम करने वाले पत्रकार के लिए चुनौतियां छोटी नहींहोती हैं और न ही संकट और खतरे छोटे होते हैं। इस पत्रकार के पीछे उसकामालिक और संपादक भी खड़े नजर नहीं आते हैं। उदाहरण के लिए यदि पौड़ी केशराब माफिया को लगता कि उमेश डोभाल के साथ उसके अखबार के मालिक और संपादकहैं तो क्या वह उमेश को जान से मारने से पहले दस बार नहीं सोचता? यह तोबिल्कुल ही अलग मुद्दा है कि उमेश की हत्या के बाद पूरे देश की पत्रकारबिरादरी एकजुट हो गई थी और पत्रकारिता पर आसन्न खतरों को लेकर नई बहस हीछिड़ गई थी।
कहने का अर्थ है कि गैरसैंण, मोरी, असकोट, आराकोट, माणा, मुनस्यारी जैसेदूरस्थ इलाकों की सुध लेने वाले पत्रकारों की सुरक्षा के लिए क्या बंदोबस्तहैं? क्या वह डीएम-एसपी से लेकर स्थानीय माफिया, प्रभावशाली ठेकेदार याभ्रष्ट अधिकारी के गलत क्रियाकलापों के बारे में निडर होकर लिख सकता है? इसपत्रकार के साथ कोई हादसा होने की स्थिति में उसके परिवार के भरण-पोषण केलिए क्या कोई उपाय हैं? टीवी के एक कार्यक्रम में तहलका डाटकाम के संपादकतरुण तेजपाल ने ठीक ही कहा कि पत्रकार की अपनी सीमाएं हैं। उसका कामभ्रष्टाचार या अच्छे कार्यों को उजागर करना होता है। इन पर क्या कार्रवाईहोनी चाहिए यह दूसरी एजेंसियों का काम है। मैं इससे सहमत हूं लेकिन आग्रहकरना चाहूंगा कि पत्रकार समाज तक तो सीधे पहुंच ही सकता है। उसे ऐसा करकेसमाज को सही दिशा देने का काम कर ही लेना चाहिए। उत्तराखंड में इसके लिएसंभावनाएं अनंत हैं।
कोई पत्रकार जान गंवाने का जोखिम भी नहीं उठाएगा। उमेश डोभाल तो हर कोईनहीं बनना चाहेगा। मेरा निवेदन है कि जब तक पत्रकारों की बिरादरी संगठितनहीं होगी, जब तक वे एक-दूसरे के संकट में खड़ा होना नहीं सीखेंगे, तब तकनिर्भीक पत्रकारिता केवल रोमांस की तरह ही रह जाएगी। पत्रकार बिरादरी औरप्रबुद्धजन को एक कोष की स्थापना भी अपने ही बल पर करनी चाहिए ताकि बूरे याआड़े वक्त में धन की कमी महसूस न हो। किसी को भी इस जिम्मेदारी से बचनानहीं चाहिए।
एक बात और कहना चाहूंगा कि प्रेस की स्वतंत्रता का कतई गलत विवेचन नहींकिया जाना चाहिए। स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि आप किसी के भी पक्ष-विपक्षमें जो चाहे और जिस तरह से लिख दें। याद रहे कि अंतः पत्रकार भी समाज केप्रति जवाबदेह है। उसे चौथे खंबे पर खड़ा होने का दंभ नहीं होना चाहिए। शेषतीन खंभों की तरह यह लोकतंत्र का चौथा खंभा भी समाज पर खड़ा है। जन कोआधार बनाकर खड़ा है। संपादकों या मालिकों के दबाव में न आने की बात भीइसमें शामिल है। सरकार, संपादक, मालिक या किसी अन्य के कहने पर किसी केबारे में कुछ भी लिखने वाला पत्रकार कहलाने लायक नहीं हो सकता है। आजपत्रकारिता ने संस्थागत स्वरूप ले लिया है लेकिन कोई भी संस्था तभी तक रहतीहै जब तक उसके मूल्यों में गिरावट नहीं आती है। उम्मीद है उत्तराखंड में पत्रकारिता की मशाल लेकर चलने वाले इसे याद रखेंगे।
सुरेश नौटियाल ने 1984 में पत्रकार के रूप में जार्ज फर्नांडिस द्वारा संपादित हिंदी साप्ताहिक “प्रतिपक्ष” से कैरियर आरंभ और अगले साल के आरंभ में इस पत्र से त्यागपत्र दिया. 1985 में दूरदर्शन समाचार में अतिथि संपादक के रूप में कार्य आरंभ और करीब 24 वर्ष यह काम किया. साथ ही, आठ-दस साल आकाशवाणी के हिंदी समाचार विभाग में भे अतिथि संपादक के रूप में कार्य किया. 1985 में ही “यूनीवार्ता” हिंदी समाचार एजेंसी में प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में कार्य आरंभ और 1993 में वरिष्ठ उप–संपादक पद से स्वेच्छा से त्यागपत्र दिया. 1994 में अंग्रेज़ी दैनिक “ऑब्ज़र्वर ऑफ बिजनेस एंड पालिटिक्स” संवाददाता के रूप में ज्वाइन किया और जनवरी 2001 में विशेष संवाददाता के रूप में त्यागपत्र दिया. 2001 अक्तूबर में “अमर उजाला” हिंदी दैनिक पत्र विशेष संवाददाता के रूप में ज्वाइन किया और अगले वर्ष जनवरी में छोड़ दिया. 2002 सितंबर से 2005 जून तक सी.एस.डी.एस. के एक प्रोजेक्ट में समन्वयक के साथ-साथ संपादक रहे. 2002 से 2012 तक स्वयं का हिंदी पाक्षिक पत्र “उत्तराखंड प्रभात” भी प्रकाशित किया. 2005 जुलाई से 2006 जनवरी तक सिटीजंस ग्लोबल प्लेटफ़ार्म का समन्वयक और संपादक रहे. 2006 मई से 2009 मार्च तक अंग्रेज़ी पत्रिका “काम्बैट ला” का सीनियर एसोसिएट एडीटर रहे और साथ ही इस पत्रिका के हिंदी संस्करण का कार्यकारी संपादक भी रहे।
2001 से निरंतर पी.आई.बी. (भारत सरकार) से मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार. 1985 से लेकर अब तक हिंदी-अंग्रेज़ी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति, पारिस्थितिकी, मानवाधिकार, सिनेमा सहित विभिन्न विषयों पर लेखन जारी।
सुरेश अनेक इंटरनेशनल संस्थाओं से जुड़े हैं. वे डेमोक्रेसी इंटरनेशनल, जर्मनी के बोर्ड मेम्बर हैं. ब्रुसेल्स स्थित ग्लोबल ग्रीन के सदस्य हैं. वे थिंक डेमोक्रेसी इंडिया के चेयरपर्सन भी हैं. स्वीडन स्थित फोरम फॉर मॉडर्न डायरेक्ट डेमोक्रेसी से भी जुड़े हैं।
सुरेश पत्रकार के अलावा एक आदर्शवादी एक्टिविस्ट भी हैं जो इससे जाहिर है की वे किस तरह से नौकरियां ज्वाइन करते रहे और छोड़ते रहे पर समझौता नहीं किया