सुनील श्रीवास्तव।
यह समय संचार क्रान्ति का है। वेब मीडिया का कैनवास निरन्तर बड़ा होता जा रहा है‚ इसके आयाम भी बदले हैं। वेब मीडिया ने पारम्परिक संचार माध्यमों को पीछे छोड़ उस पर अपना अधिकार पूर्णतयः भले ही न जमा लिया हो‚ लेकिन अपनी जमीन भविष्य के लिए पुख्ता जरूर कर ली है।
वेब पत्रकारिता ने आज न्यू मीडिया‚ ऑनलाइन मीडिया‚ साइबर जर्नलिज्म‚ सोशल मीडिया आदि नामों से अधिक पहचान और पकड़ बना ली है। वेब मीडिया द्वारा हम कम्प्यूटर पर बैठकर पूरी दुनिया को जान सकते हैं‚ उससे जुड़ सकते हैं। यहां तक कि हम अपने मोबाइल में मौजूद जीपीएस सिस्टम से यह भी जान सकते हैं कि हमें जहां जाना है‚ उसका रास्ता क्या है। न्यू मीडिया कई माध्यमों से हमारे सामने है‚ जैसे- टेक्स्ट‚ पिक्चर्स‚ आडियो‚ वीडियो आदि। यह सुविधा हमें 24×7 मौजूद है।
अभी वेब मीडिया में एक और शब्द उभरकर सामने आया है‚ ‘विकीलीक्स’। इसने खोजी पत्रकारिता के क्षेत्र में वेब मीडिया का भरपूर उपयोग किया है और अपने कारनामों या खुलासों से पूरी दुनिया में हलचल पैदा कर रखी है। प्रिंट मीडिया में भी खोजी पत्रकारिता काफी मायने रखती है और कोई अच्छी खबर हुई तो लीड बनाया जाता है। यहां यह समझना होगा कि ये सारे परिवर्तन प्रिंट मीडिया से प्रभावित होकर तकनीकि माध्यम से अपने को आगे बढ़ा रहे हैं। यहां भी प्रिंट मीडिया है‚ लेकिन अन्तर सिर्फ और सिर्फ ‘स्क्रीन’ का है। प्रिंट में भी वेब मशीन है‚ न्यू मीडिया में वेब तकनीक के माध्यम से स्क्रीन पर आता है। दावा यह कि विकीलीक्स का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग किया गया और उसकी रिपोर्टों के खुलासे से पूरी दुनिया में हलचल मच गई।
यहां हमारी मंशा वेब के बढ़ते प्रभाव को खारिज करना बिल्कुल नहीं‚ सिर्फ यह बताना भर है कि बहुत सारे स्कैन्डल आदि को प्रिंट मीडिया ने सबसे पहले विश्व के सम्मुख उजागर किया। चूंकि अब वेब मीडिया ने कई माध्यमों से अपना विस्तार कर लिया है‚ इससे इसमें गति आ गई है। भारत में वेब मीडिया को आये लगभग दो दशक हो चुका है‚ लेकिन अगर हम प्रिंट मीडिया की ओर गौर करें‚ तो उसमें भी तकनीकि विस्तार के साथ सार्थक बदलाव आए हैं। अब वे भी अपना स्वरूप बदल रहे हैं। उन्होंने अपने लेआउट से लेकर अपने कंटेन्ट को भी बदला है। सामाजिक सरोकारों से जुड़ने की ओर तेजी से अग्रसर हुए हैं। सूचना के साथ-साथ ग्लैमर भी बढ़ा है। अखबार पढ़ने की आदत हमेशा रही है और रहेगी भी। उसने ‘विजुअल वैल्यू’ को भी तवज्जो दी है। संपादकीय पृष्ठ पर विजुअल नहीं था‚ अब अधिक मात्रा में दिखाई दे रहा है। स्पष्ट है कि मिशन की जगह व्यससायिकता ने ले ली है‚ यानि मिशन उद्योग में तब्दील हो गया है। उद्योग को नकारा नहीं जा सकता‚ लेकिन औद्योगिक वैश्विकता को लेकर तो बात हो ही सकती है। आज इसी वैश्वीकरण ने साहित्य‚ संस्कृति तथा अन्य विधाओं को नकार सा दिया है। हालांकि युवा पीढ़ी के कुछ हिस्से संस्कारवान हो सकते हैं लेकिन भविष्य को देखते हुए उन्हें भी समझौता करना पड़ रहा है। फेसबुक‚ ट्विटर‚ व्हाट्सएप‚ ई-मेल‚ वेबसाइट्स आज की मांग हैं‚ और इनपर लगातार सक्रिय रहना आज की मजबूरी।
अच्छा है वैश्वीकरण के युग में युवा अपने भविष्य के प्रति चिंतित हैं‚ लेकिन भाषा कौन बातएगा‚ कहां से सीखेंगे भाषा? क्या ‘एसएमएस’ की भाषा से वे आगे बढ़ पाएंगे? सीधे-सीधे कहा जाए तो युवा पीढ़ी भाषा और व्याकरण के मामले में कमजोर हुई है‚ क्योंकि मल्टीमीडिया के सारे आविष्कार हमारी भाषा में नहीं हुए हैं। भाषा के नाम पर कोई भी भाषा अपने मूल रूप में नहीं रह गई है। हमने अपनी भाषा खो दी है। कोई दिल्ली की हिन्दी कहता है‚ कोई ‘हिंग्लिश’ कहता है‚ तो कोई यह कहकर चुप कराने की कोशिश करता है कि ‘सब चलता है‚ बोलचाल की भाषा यही है।’ व्याकरण और उसकी तहजीब की बात नहीं करता है।
आज का युवा परिवार के साथ बैठकर खबरिया चैनलों को देखने की बजाय इंटरनेट पर वेब पोर्टल से सूचना या आनलाइन समाचार देखना पसंद करते हैं। समाचार चैनलों पर किसी सूचना या खबर के निकल जाने पर उसके दोबारा आने की संभावना नहीं होती। वहीं वेब पत्रकारिता के आने पर ऐसी कोई समस्या नहीं रह गई है। जब चाहे किसी भी समाचार चैनल की वेबसाइट खोलकर पढ़ा जा सकता है। अब तो समाचार पत्रों ने भी वेबसाइट बना रखी है‚ तो क्या समाचार पत्र अप्रासंगिक हो गए हैं? शायद नहीं‚ इसकी वजह समाचार पत्रों को बार-बार‚ कभी भी पढे़ जा सकने की खूबी है।
हिन्दी भाषा में अपभ्रंश को तो स्वीकार किया गया‚ लेकिन उनके मौलिक शब्दों के इस्तेमाल में चालाकी बरती गई। यह कहा गया‚ जो शब्द लोकप्रिय हो‚ उनके प्रयोग में गुरेज नहीं होना चाहिए। हम भी इससे पूरी तरह सहमत हैं‚ लेकिन जब किसी भाषा में मौलिक शब्द विद्यमान हों‚ तो फिर दूसरी भाषा से उधार लेने की जरूरत क्यों? इसका जवाब हमें ढूंढना होगा‚ पूरे तर्क और व्यावहारिकता के साथ। वन्दना शर्मा के अनुसार – ‘‘भारत में वेब पत्रकारिता के ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत इस बाजार में तीसरी हैसियत वाला बन गया है। आधुनिक तकनीक के जरिये इंटरनेट की पहुंच घर-घर तक हो चुकी है। निःसन्देह युवाओं में इसका प्रभाव सर्वाधिक दिखाई देता है। समाचार चैनलों को देखने की बजाय अब युवा पोर्टल से सूचना या आनलाइन खबर देखना पसन्द करते हैं। उनकी बात से इत्तेफाक किया जा सकता है। लेकिन अनुभव यह बताते हैं कि युवा इंटरनेट का प्रयोग क्यों और कैसे कर रहा है। क्या वह अपनी बुद्धि-विवेक से सार्थक उपयोग कर पा रहा है? इस पर सर्वेक्षण कराने की जरूरत है। मेरा मत यह है कि शायद पचास प्रतिशत से भी कम युवा इसका सार्थक उपयोग कर रहे हैं।
यहां प्रश्न यह भी पैदा होता है कि कितने फीसदी युवाओं के हाथ में इंटरनेटयुक्त मोबाइल है और कितने प्रतिशत युवा समाचारों में रूचि रखते हैं? हां यह सत्य है कि वेब पत्रकारिता में रोजगार के अवसर बढ़ेगे या बढ़ रहे हैं। छाटे-बड़े अधिकांश अखबारों ने अपनी वेबसाइट बना रखी है और पिछले दिनों के छूटे समाचारों को भी विस्तार से पढ़ा जा सकता है। लेकिन फिर वही प्रश्न‚ कितने लोग? प्रतिशत अभी नहीं बताया जा सकता और यह संभव भी नहीं। हम निराशावादी नहीं हैं‚ बल्कि हम आशा का प्रतिशत के बढ़ने की बाट जोह रहे हैं। न्यू मीडिया‚ वेब मीडिया‚ सोशल मीडिया‚ विकीलीक्स‚ मोबाइल‚ मल्टीमीडिया सभी अपनी जगह पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुके हैं और हम निरन्तर दौड़ में आगे बढ़ रहे हैं
न्यू मीडिया की सशक्त मौजूदगी से इनकार नहीं किया जा सकता है। गावों में भी इसने अपनी पकड़ बनानी शुरू कर दी है‚ लेकिन गति धीमी है। साधन खरीदना आसान है‚ लेकिन उसके लिए संसाधनों की कमी अखरती है। यह नया आकाश नए आयाम को तो फैला रहा है‚ लेकिन अन्जाम तक कब पहुंचेगा‚ यह पता नहीं। कुल मिलाकर मीडिया ह्रास की सभी आलोचना कर रहे हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी है लेकिन गौरतलब यह है कि क्या इस ओर काम हो रहा है? हिन्दी के पत्रकार अंग्रेजी के मोह में हिन्दी की उपेक्षा कर रहे हैं। वे अनुवाद से काम चलाकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। हिन्दी के पत्रकार अपने को दोषी भले ही न मानें‚ लेकिन अनदेखी को नकार नहीं सकते। एक मीडिया विशेषज्ञ के अनुसार – ‘‘जब सारी दुनिया अंग्रेजी में चल रही है‚ तो हमें उस रास्ते पर चलने में परहेज क्यों? सही बात है‚ वे बीमार मानसिकता के शिकार हैं‚ और विदेशी इलाज पर टिके हैं। देशी दवाओं से उनका विश्वास उठ चुका है। उठे क्यों नहीं‚ रेस में आगे जो निकलना है। पीछे छूटने का एहसास उन्हें नहीं हो रहा है। लेकिन यह तय है कि आने वाले दिनों में हिन्दी की पकड़ मजबूत होगी। तकनीकी विकास के साथ हिन्दी में वेब पत्रकारिता का भविष्य धूमिल तो कतई दिखाई नहीं देता है।
जहां तक हम न्यू मीडिया की बात करते हैं‚ वह अपने नए स्वरूप में सामने आया है। न्यू मीडिया ने अरब देशों में हुई जनक्रान्ति को एक नई दिशा दी। आरूषि तलवार‚ दामिनी‚ अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के जन आन्दोलनों को व्यापक समर्थन दिलाने में न्यू मीडिया की भूमिका प्रमुख रही है। न्यू मीडिया ने लोगों का समर्थन दिलाने में अच्छी खासी भूमिका निभाई। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि फेसबुक‚ ट्विटर जैसी सोशल साइट्स पर अब लोग राष्ट्रीय‚ अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर जमकर बहस करने लगे हैं। इसके फलस्वरूप जनमानस में जागरूकता पैदा हुई है। ब्लाग व वेबपोर्टल पर लोग खुलकर बेबाक रूप से अपने विचार रख रहे हैं। यू-ट्यूब पर किसी भी मुद्दे से सम्बन्धित वीडियो देखे जा सकते हैं। न्यू मीडिया से राजनीतिक क्षेत्र में भी घबराहट महसूस होने लगी है। गौरतलब है कि गूगल द्वारा जारी की गई ट्रान्सपेरेन्सी रिपोर्ट के अनुसार केन्द्र सरकार की ओर से गूगल को कई बार प्रधानमन्त्री‚ शासन कर रही पार्टी और मुख्यमंत्रियों की आलोचना करने वाली रिपोर्ट्स‚ ब्लाग्स एवं वीडियो हटाने को कहा गया। हालांकि गूगल ने थोड़े बहुत बदलाव के साथ सारी चीजों को ज्यों का त्यों ही रखा।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि न्यू मीडिया ने समाज में अपनी पैठ मजबूत की है। गौरतलब यह है कि युवा पीढ़ी इससे अधिकाधिक रूप से जुड़ी हुई है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भविष्य में न्यू मीडिया अधिक संभावनाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से जुड़ेगी। और चूंकि यह युवाओं का मीडिया है‚ तो इस बात की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं कि सामाजिक सरोकारों से जुड़ी युवा पीढ़ी पत्रकारिता की विधा को भी नवीन आयाम प्रदान करेगी।
प्राध्यापक‚ सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज‚ इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद…