- People Around the World Want Political Change
- Eat Your AI Slop or China Wins
- Countries that lack power find a united voice
- Global press freedom suffers sharpest fall in 50 years
- Many Religious ‘Nones’ Around the World Hold Spiritual Beliefs
- Decline of American Power and the Rise of the East: Geopolitics, Technology, and the Future of World Order
- The Rise and Fall of Globalization
- The Rise of Global South
Author: newswriters
मुकुल व्यास |याकूब मेमन को फांसी दिए जाने के बाद दूसरे दिन कुछ अखबारों के शीर्षक गौर करने लायक थे। टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा, ‘नाइट विदाउट एंड, डेथ एट डॉन’। हिंदू ने शीर्षक दिया, ‘याकूब मेमन हैंग्ड ऑन बर्थडे’। इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक था, ‘एंड दे हैंग्ड याकूब मेमन’ जबकि नवभारत टाइम्स ने कहा, ‘इस रात की सुबह हुई’।स्पष्ट है कि ये शीर्षक गहन विचार मंथन के बाद ही चुने गए होंगे। खबरों पर शीर्षक लगाना आसान नहीं है, खासकर जब कोई मामला पेचीदगियों से भरा हो, विवादास्पद हो या संवेदनशील हो। बड़े अखबार अक्सर अपने शीर्षकों के जरिए…
मुकेश कुमार।…नियमन की वकालत करने का मतलब अकसर ये निकाला जाता है या इसे इस तरह से प्रचारित भी किया गया है मानो ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित-बाधित करने का प्रयास हो। वास्तव में उल्टा है। मीडिया स्वछंदता में धारा 19-1-ए के तहत भारतीय नागरिकों को मिले संवैधानिक अधिकार का तरह-तरह से दुरुपयोग कर रहा है। यही नहीं, इसके साथ जो दायित्व जुड़े हुए हैं, उनकी अवहेलना भी वह किए जा रहा है। उसकी इस प्रवृत्ति ने मीडिया की साख को बेहद कमजोर किया है और जाहिर है कि अभूतपूर्व विस्तार के जरिए शक्ति हासिल करने के बावजूद वह…
प्रियंका कौशल।नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ में हर दूसरे दिन नक्सलियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच मुठभेड़ की खबरें आती रहती हैं। इस खूनी संघर्ष में पत्रकारों की जान पर खतरा बना रहता है. ऐसे में यहां निष्पक्ष पत्रकारिता कर पाना मुश्किलों भरा है।पत्रकार नक्सल प्रभावित इलाकों से न सिर्फ समाचार भेजता है बल्कि कई बार तो उन्हें जवानों के क्षत-विक्षत शवों को भी गंतव्य तक पहुंचाना पड़ता है। 17 अप्रैल 2015 की एक घटना है। दक्षिण बस्तर के पामेड़ पुलिस थाने के तहत आने वाले नक्सल क्षेत्र कंवरगट्टा में पुलिस और नक्सलियों की मुठभेड़ हुई थी। इसमें आंध्र प्रदेश के ग्रे…
डॉ. सुशील उपाध्याय।मौजूदा मीडिया पर जब आप एक सरसरी निगाह डालते हैं तो भौचक्का हुए बिना नहीं रह सकते। हर रोज देखते हैं कि हमारे टीवी चैनल रेडियो की तरह व्यवहार कर रहे हैं, वे बहुत लाउड हैं। जैसे सब कुछ शब्दों के जरिये ही कह देना चाहते हैं। अक्सर ऐसा लगता है कि वे अपने मीडिया-माध्यम को ही बेमतलब बनाने पर तुले हैं। बात यहीं पर खत्म नहीं होती। फिल्म माध्यम टीवी की तरह हो गया है। हमेशा बोलते रहना ही सब कुछ मान लिया गया है। जबकि, जरूरत इस बात की है कि जो मीडिया जिसके लिए बना…
डॉ. महर उद्दीन खां।माली जिस प्रकार गुलदस्ते का आकर्षक बनाने के लिए सुंदर-सुंदर फूलों का चयन करता है उसी प्रकार पत्रकार को भी अपनी खबर के गुलदस्ते को आकर्षक बनाने के लिए सुंदर, संक्षिप्त और सरल शब्दों का चयन करना चाहिए। भारी भरकम शब्दों के प्रयोग से खबर बोझिल हो जाती है और फिर वह गुलदस्ता न रह कर कचरा पेटी बन जाती है। उदाहरण स्वरुप अगर फायर ब्रिगेड या अग्निशमन दल के स्थान पर दमकल लिखा जाए तो ठीक रहेगा। आज अखबारों में कलम से लिखने का चलन समाप्त हो रहा है। अधिकांश पत्रकार कम्प्यूटर पर सीधे लिखते हैं।…
मनोज कुमार।पत्रकारिता में भाषा की शुद्धता पहली शर्त होती है। यह स्मरण रखा जाना चाहिये कि समाचार पत्र समाज के लिये एक नि:शुल्क पाठशाला होती है। समाचार पत्रों के माध्यम से हर उम्र वर्ग के लोग अक्षर ज्ञान प्राप्त करते हैंसंडे स्पेशल शीर्षक देखकर आपके मन में गुदगुदी होना स्वाभाविक है। संडे यानि इतवार और स्पेशल मतलब खास यानि इतवार के दिन कुछ खास और इस खास से सीधा मतलब खाने से होता है लेकिन इन दिनों मीडिया में संडे स्पेशल का चलन शुरू हो गया है। संडे स्पेशल स्टोरी इस तरह प्रस्तुत की जाती है मानो पाठकों को खबर…
अन्नू आनंद।बाजारी ताकतों का पत्रकारिता पर प्रभाव निरंतर बढ़ा है। प्रिंट माध्यम हो या इलेक्ट्रॉनिक अब विषय-वस्तु (कंटेंट) का निर्धारण भी प्रायः मुनाफे को ध्यान में रखकर किया जाता है। कभीसंपादकीय मसलों पर विज्ञापन या मार्केटिंग विभाग का हस्तक्षेप बेहद बड़ी बात मानी जाती थी।प्रबंधन विभाग संपादकीय विषयों पर अगर कभी राय-मशविरा देने की गुस्ताखी भी करते थे तो वहएक चर्चा या विवाद का विषय बन जाता था और यह बात पत्रकारिता की नैतिकता के खिलाफमानी जाती थी।लेकिन यह बातें अब अतीत बन चुकी हैं। अब अखबार या चैनल के पूरे कंटेंट में मार्केटिंग वालोंका दबदबा अधिक दिखाई पड़ता है।…
संजय कुमार।हालांकि, इलैक्टोनिक मीडिया में आम बोलचाल की भाषा को अपनाया जाता है। इसके पीछे तर्क साफ है कि लोगों को तुंरत दिखाया/सुनाया जाता है यहाँ अखबार की तरह आराम से खबर को पढ़ने का मौका नहीं मिलता है। इसलिए रेडियो और टी.वी. की भाषा सहज, सरल और बोलचाल की भाषा को अपनाया जाता है। कई अखबारों ने भी इस प्रारूप को अपनाया है खासकर हिन्दी के पाठकों को ध्यान में रख कर भाषा का प्रयोग होने लगा है।शुरुआती दौर की हिन्दी पत्रकारिता की भाषा साहित्य की भाषा को ओढे हुए थी। ऐसे में हिन्दी पत्रकारिता साहित्य के बहुत करीब…
सुरेश नौटियाल।कई साल पहले, ब्रिटिश उच्चायोग के प्रेस एवं संपर्क विभाग ने नई दिल्ली में “भाषाई पत्रकारिता: वर्तमान स्वरूप और संभावनाएं“ विषय पर गोष्ठी का आयोजन किया था। जनसत्ता के सलाहकार संपादक प्रभाष जोशी ने इस गोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा था कि मैंने अपनी जिंदगी के नौ साल अंग्रेजी पत्रकारिता में व्यर्थ किए, क्योंकि इस देश में जनमत बनाने में अंग्रेजी अखबारों की भूमिका नहीं हो सकती है। इसी आख्यान में आदरणीय प्रभाष जोशी जीने कहा था कि अंग्रेजी इस देश में सोचने-समझने की भाषा तो हो सकती है लेकिन महसूस करने की नहीं। और जिस भाषा के…
अभिषेक श्रीवास्तव।”मेरे ख्याल से हमारे लिए ट्विटर की कामयाबी इसमें है, जब लोग इसके बारे में बात करना बन्द कर दें, जब हम ऐसी परिचर्चाएं करना बन्द करें और लोग इसका इस्तेमाल सिर्फ एक उपयोगितावादी औजार के रूप में करने लगें, जैसे वे बिजली का उपयोग करते हैं। जब वह सिर्फ संचार का एक हिस्सा बनकर रह जाए और खुद पृष्ठभूमि में चला जाए। किसी भी संचार उपकरण की तरह हम इसे भी उसी स्तर पर रखते हैं। यही बात एसएमएस, ईमेल, फोन के साथ भी है। हम वहां पहुंचना चाहते हैं।” -जैक डोर्सी, सह-संस्थापक और कार्यकारी, ट्विटर, फ्यूचर ऑफ…
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