क़मर वहीद नक़वी |
‘आज तक’ का नाम कैसे पड़ा ‘आज तक?’ बड़ी दिलचस्प कहानी है. बात मई 1995 की है. उन दिनों मैं ‘नवभारत टाइम्स,’ जयपुर का उप-स्थानीय सम्पादक था. पदनाम ज़रूर उप-स्थानीय सम्पादक था, लेकिन 1993 के आख़िर से मैं सम्पादक के तौर पर ही अख़बार का काम देख रहा था. एक दिन एस. पी. सिंह का फ़ोन आया. उन्होंने बताया कि इंडिया टुडे ग्रुप को डीडी मेट्रो चैनल पर 20 मिनट की हिन्दी बुलेटिन करनी है. बुलेटिन की भाषा को लेकर वे लोग काफ़ी चिन्तित हैं. क्या आप यह ज़िम्मा ले पायेंगे. मेरे हाँ कहने पर बोले कि तुरन्त दिल्ली आइए और अरुण पुरी से मिल लीजिए. दिल्ली आने पर सबसे पहले शेखर गुप्ता से मिलवाया गया.
उन्होंने अंगरेज़ी की इंडिया टुडे निकाली और एक सादा काग़ज निकाला और कहा कि पहले इसमें से यह दो पैरे हिन्दी में लिख कर दिखाइए. ख़ैर मेरी हिन्दी उनको पसन्द आ गयी. तब अरुण पुरी से भेंट हुई. घंटे भर तक ख़ूब घुमा-फिरा कर, ठोक-बजा कर उन्होंने इंटरव्यू लिया और फिर आख़िर में बोले कि आप बहुत सीनियर हैं, टीवी में पहली बार काम करेंगे, अगर आपको यहाँ का काम पसन्द न आया तो प्राब्लम हो जायेगी, इसलिए आप छुट्टी लेकर पन्द्रह दिन काम करके देख लीजिए, पसन्द आये तो वहाँ से इस्तीफ़ा देकर ज्वाइन कर लीजिएगा.
कहने का मतलब यह कि वह चाह रहे थे कि कुछ दिन मेरा काम देख लें, फिर हाँ करें वरना बन्दा अगर काम का न निकला तो बोझ बन जायेगा. मैंने कहा कि आप चिन्ता न करें, मेरा काम आपको पसन्द नहीं आयेगा, तो मैं ख़ुद ही नौकरी छोड़ दूँगा, मुझे मालूम है कि मुझे कोई न कोई अच्छी नौकरी मिल ही जायेगी. बड़ी जद्दोजहद हुई इस पर, आख़िर वह इस पर माने कि मैं कम से कम दो दिन दिल्ली में रह कर टीवी वाले काम का माहौल समझ लूँ, अगर बात जमे तो जयपुर जा कर इस्तीफ़ा दे दूँ.
तो इस तरह दो दिन का दिल्ली प्रवास हुआ. यहाँ दफ़्तर में अजय चौधरी, अलका सक्सेना समेत कई लोग थे, जिनको मैं जानता था. कोई परेशानी नहीं हुई. जिस दिन दिल्ली से वापसी थी, उस दिन स्टूडियो देखा. तब पुराने ज़माने में सीधे-सादे स्टूडियो बना करते थे. देखा, बैकग्राउंड की दीवार पर बड़ा-बड़ा लिखा हुआ था, ‘आज.’ मैंने पूछा कि क्या बुलेटिन का नाम ‘आज’ होगा, जवाब मिला हाँ.
मैंने पूछा कि किसी ने आप लोगों को बताया नहीं कि ‘आज’ उत्तर प्रदेश का एक बहुत बड़ा और काफ़ी पुराना अख़बार है, उन्हें अगर यह नाम इस्तेमाल करने पर आपत्ति हो गयी तो? समस्या गम्भीर थी. सेट बन चुका था. सेट में भी कोई भारी फेरबदल की गुंजाइश नहीं थी. और अरुण पुरी चाहते थे कि नाम में ‘आज’ शब्द हो, क्योंकि ‘इंडिया टुडे’ के नाम से वह उसे जोड़ कर रखना चाहते थे. किसी ने सुझाव दिया कि इस ‘आज’ के आगे-पीछे कुछ जोड़ दिया जाये तो बात बन सकती है. तब एक सुझाव आया कि इसका नाम ‘आजकल’ रख देते हैं.
मैंने कहा यह तो पश्चिम बंगाल से निकलनेवाले एक अख़बार का नाम है. और इसी नाम से भारत सरकार का प्रकाशन विभाग भी कई वर्षों से एक पत्रिका छापता है. तो यह नाम भी छोड़ दिया गया. फिर कई और नामों के साथ दो नाम और सुझाये गये, ‘आज दिनांक’ और ‘आज ही.’ दोनों ही नाम मुझे तो कुछ जँच नहीं रहे थे.
शायद और लोगों को भी बहुत पसन्द नहीं आये. कहा गया कि कुछ और नाम सुझाये जायें. बहरहाल, उसी शाम मुझे जयपुर लौटना था और वहाँ अपना इस्तीफ़ा सौंपना था. दिल्ली के बीकानेर हाउस से बस पकड़ी और वापस चल दिया. रास्ते में मन में कई तरह के ख़याल आ रहे थे, कुछ झुँझलाहट भी हो रही थी कि कोई बढ़िया नाम क्यों नहीं सूझ रहा है?
आज तक तो ऐसा नहीं हुआ कि इतने ज़रा-से काम के लिए इतनी माथापच्ची करनी पड़े! आँये….क्या….आज तक….अचानक दिमाग़ की बत्ती जली, आज तक, आज तक! हाँ, यह नाम तो ठीक लगता है….’आज तक.’ हर दिन हम कहेंगे कि हम आज तक की ख़बरें ले कर आये हैं.
फिर कई तरह से उलट-पुलट कर जाँचा-परखा. मुझे लगा कि नाम तो बढ़िया है. इसके आगे कुछ भी जोड़ दो, खेल आज तक, बिज़नेस आज तक वग़ैरह-वग़ैरह! कुछ ऐसा ही नाम मैंने 1986 में ढूँढा था, ‘चौथी दुनिया’ अख़बार का. उसमें भी ‘दुनिया’ के पहले कुछ जोड़ कर हर पेज के अलग नाम रखे थे, जैसे देश-दुनिया, उद्यमी दुनिया, खिलाड़ी दुनिया, जगमग दुनिया, चुनमुन दुनिया वग़ैरह-वग़ैरह. ‘आज तक’ नाम भी मुझे कुछ ऐसा ही लगा और मुझे लगा कि जैसा नाम ढूँढ रहे थे, वह मिल गया है!
उन दिनों न ईमेल का ज़माना था, न मोबाइल का. इसलिए जयपुर पहुँच कर अगले दिन क़रीब 12 बजे मैं एक पीसीओ पर पहुँचा और अरुण पुरी को फ़ैक्स कर दिया कि मेरे ख़याल से ‘आज तक’ नाम रखना ठीक होगा. और आख़िर यह नाम रख लिया गया.
क़मर वहीद नक़वी: स्वतंत्र स्तम्भकार. पेशे के तौर पर 35 साल से पत्रकारिता में. आठ साल तक (2004-12) टीवी टुडे नेटवर्क के चार चैनलों आज तक, हेडलाइन्स टुडे, तेज़ और दिल्ली आज तक के न्यूज़ डायरेक्टर. 1980 से 1995 तक प्रिंट पत्रकारिता में रहे और इस बीच नवभारत टाइम्स, रविवार, चौथी दुनिया में वरिष्ठ पदों पर काम किया. कुछ नया गढ़ो, जो पहले से आसान भी हो और अच्छा भी हो— क़मर वहीद नक़वी का कुल एक लाइन का ‘फंडा’ यही है! ‘आज तक’ और ‘चौथी दुनिया’—एक टीवी में और दूसरा प्रिंट में— ‘आज तक’ की झन्नाटेदार भाषा और अक्खड़ तेवरों वाले ‘चौथी दुनिया’ में लेआउट के बोल्ड प्रयोग — दोनों जगह क़मर वहीद नक़वी की यही धुन्नक दिखी कि बस कुछ नया करना है, पहले से अच्छा और आसान. 1995 में डीडी मेट्रो पर शुरू हुए 20 मिनट के न्यूज़ बुलेटिन को ‘आज तक’ नाम तो नक़वी ने दिया ही, उसे ज़िन्दा भाषा भी दी, जिसने ख़बरों को यकायक सहज बना दिया, उन्हें समझना आसान बना दिया और ‘अपनी भाषा’ में आ रही ख़बरों से दर्शकों का ऐसा अपनापा जोड़ा कि तब से लेकर अब तक देश में हिन्दी न्यूज़ चैनलों की भाषा कमोबेश उसी ढर्रे पर चल रही है! नक़वी ने अपने दो कार्यकाल में ‘आज तक’ के साथ साढ़े तेरह साल से कुछ ज़्यादा का वक़्त बिताया. इसमें दस साल से ज़्यादा समय तक वह ‘आज तक’ के सम्पादक रहे. पहली बार, अगस्त 1998 से अक्तूबर 2000 तक, जब वह ‘आज तक’ के ‘एक्ज़िक्यूटिव प्रोड्यूसर’ और ‘चीफ़ एक्ज़िक्यूटिव प्रोड्यूसर’ रहे. उस समय ‘आज तक’ दूरदर्शन के प्लेटफ़ार्म पर ही था और नक़वी के कार्यकाल में ही दूरदर्शन पर ‘सुबह आज तक’, ‘साप्ताहिक आज तक’, ‘गाँव आज तक’ और ‘दिल्ली आज तक’ जैसे कार्यक्रमों की शुरुआत हुई. ‘आज तक’ के साथ अपना दूसरा कार्यकाल नक़वी ने फ़रवरी 2004 में ‘न्यूज़ डायरेक्टर’ के तौर पर शुरु किया और मई 2012 तक इस पद पर रहे. इस दूसरे कार्यकाल में उन्होंने ‘हेडलाइन्स टुडे’ की ज़िम्मेदारी भी सम्भाली और दो नये चैनल ‘तेज़’ और ‘दिल्ली आज तक’ भी शुरू किये. ‘टीवी टुडे मीडिया इंस्टीट्यूट’ भी शुरू किया, जिसके ज़रिये देश के दूरदराज़ के हिस्सों से भी युवा पत्रकारों को टीवी टुडे में प्रवेश का मौक़ा मिला. अक्तूबर 2013 में वह इंडिया टीवी के एडिटोरियल डायरेक्टर बने, लेकिन वहाँ कुछ ही समय तक रहे. फ़िलहाल कुछ और ‘नये’ आइडिया को उलट-पुलट कर देख रहे हैं कि कुछ मामला जमता है या नहीं. तब तक उनकी ‘राग देश’ वेबसाइट तो चल ही रही है! (यह टिप्पणी इसी वेबसाइट से साभार है)