डॉ. सुशील उपाध्याय।
मौजूदा मीडिया पर जब आप एक सरसरी निगाह डालते हैं तो भौचक्का हुए बिना नहीं रह सकते। हर रोज देखते हैं कि हमारे टीवी चैनल रेडियो की तरह व्यवहार कर रहे हैं, वे बहुत लाउड हैं। जैसे सब कुछ शब्दों के जरिये ही कह देना चाहते हैं। अक्सर ऐसा लगता है कि वे अपने मीडिया-माध्यम को ही बेमतलब बनाने पर तुले हैं। बात यहीं पर खत्म नहीं होती। फिल्म माध्यम टीवी की तरह हो गया है। हमेशा बोलते रहना ही सब कुछ मान लिया गया है। जबकि, जरूरत इस बात की है कि जो मीडिया जिसके लिए बना है, वह उसी माध्यम की तरह व्यवहार करे। इस व्यवहार को मनोवैज्ञानिक तौर पर भी देख सकते हैं। आपने अक्सर देखा होगा कि निम्न और निम्न मध्यम वर्ग के लोग चाहे संगीत सुनें या फोन पर बात करें, उनके उपकरणों की आवाज हमेशा ऊंची होती है। असल में वे एक भिन्न और अपरिचित माहौल में वे अपनी उपस्थिति को दर्ज कराना चाहते हैं। यही बात भारतीय मीडिया पर भी लागू होती है!
अब पीछे मुड़कर देखते हैं, खासतौर से वैदिक और पौराणिक युग में श्रुति परंपरा मीडिया के मूल में रही है। इस परंपरा में सुनने पर जोर है न कि बोलने पर है, लेकिन मौजूदा दौर ने इसे उलट दिया है। परिणामतः हमारा मीडिया श्रुति की परंपरा के खिलाफ खड़ा है। थोड़ा सनसनीखेज शब्दों में कहें तो भारतीय पत्रकारिता के सामने फेल होने का खतरा पैदा हो गया है। इस बदलाव के साथ प्रौद्योगिकी के जुड़ाव ने पूरे गठजोड़ को ज्यादा मारक कर दिया है। हम इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि कोई मशीन चाहे वह स्मार्ट फोन, स्मार्ट टीवी ही क्यों न हो, वह संस्कृति का प्रतिस्थानी नहीं हो सकती। क्योंकि मशीन निर्माता कितने भी परिपक्व क्यों न हो, वे किसी व्यक्ति की संस्कृति को नहीं समझ सकते। संभव है कि एक दिन दुनिया में प्रौद्योगिकी इतने आगे निकल जाए कि वह हम सभी के मस्तिष्क को पूरी तरह पढ़ ले, लेकिन मन को पढ़ना संभवतः कभी संभव नहीं हो सकेगा। संस्कृति मन का हिस्सा है, मस्तिष्क का नहीं।
समकालीन पत्रकारिता की चुनौतियां को देखने के लिए हमेशा इतिहास को देखना जरूरी होता है, क्योंकि जिन लोगों ने पत्रकारिता की शुरूआत की, उन्होंने इस प्रोफेशन की ढीले-ढाले ढंग से आरंभ किया। जेम्स आगस्टस हिकी से लेकर युगल किशोर शुक्ल तक का यही हाल है। इसीलिए आज को समझने के लिए इस बात को जानना जरूरी है कि ये लोग किस प्रकार अपने काम को कर रहे थे, क्या उनका काम नैतिक-मूल्यों के अनुरूप था ? क्या वे इस प्रोफेशन को ठीक प्रकार समझने की स्थिति में पहुंच गए थे ? क्या उन्हें सच में पता था कि वे इतिहास बना रहे हैं ? भारतीय पत्रकारिता के पितामहों के बारे में जो दस्तावेज मिलते हैं, वे किसी दूसरी ही कहानी की तरफ इशारा करते हैं। मसलन, हिकी अपनी मुसीबतों के लिए वाॅरेन हेस्टिंग्स और दूसरे अंग्रेजों से बदला चुका रहा था! आखिर, वे कौन-से आधार हैं जिनके बल पर सीधे तौर पर ये कहा जा सके कि पंडित युगल किशोर शुक्ल नवजागरण की जमीन तैयार कर रहे थे।
भारतीय पत्रकारिता की समस्याएं और चुनौतियां नई नहीं हैं, ये पहले दिन से ही मौजूद हैं और वक्त के साथ ये जटिल बन गईं। अक्सर एक बड़े सवाल से हम रूबरू होते हैं कि जिस प्रकार अमेरिकन पत्रकारिता या ब्रिटिश पत्रकारिता क्रमशः अमेरिकन या ब्रिटिश है, क्या इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि भारतीय पत्रकारिता भारतीय है और भारतीय अखबार भारतीय हैं, ये एक सांस्कृतिक सवाल है। यदि, भारत के संदर्भ में इस सवाल को किसी दूसरे देश का व्यक्ति समझना चाहे तो यह संभव ही नहीं होगा। क्योंकि हमारा कोई स्वरूप और विशिष्टताएं अभी तक स्थिर ही नहीं हो सका है।
भारत में पत्रकारिता एक वर्ग-आधारित पत्रकारिता है। ये एक खास वर्ग के हितों पर केंद्रित है, यह अलग बात है कि मीडिया समूह सभी वर्गाें के हितों की बात करते हैं। पर, सच्चाई इस दावे के उलट है। खासतौर से दलितों और मुसलिमों के मुद्दों को देखिए कि वे किस प्रकार प्रस्तुत किए जाते हैं। इसी से समझा जा सकता है कि मीडिया वर्ग-विशेष का प्रतिनिधित्व कर रहा है। किन खबरों के बारे में मीडिया खामोश है, आज के हालात में ये जानना ज्यादा जरूरी है। जो खबरें सामने आ रही हैं, उनकी तुलना में जो सामने नहीं आ रही हैं वे और भी ज्यादा जरूरी हैं। भारत में अखबारों के प्रकाशन के लिए की होड़ मची है। अखबार-पत्रिकाएं मिलाकर एक लाख तक पहुंच गए हैं। ये सब खबरें छापने के लिए नहीं, वरन खबरों को रोकने के लिए हैं। कोई बताए कि भारत में खबरों के मुद्दों को लेकर कोई अखबार बंद हुआ हो। यह सोचकर ही डर लगता है कि हमारे पत्रकार यदि सिस्टम के दोस्त बन जाएं, आॅफिसर उन्हें बताने-समझाने लगें तो वे किसकी मदद करेंगे। अपवाद छोड़ दें तो मौजूदा हालात में ज्यादातर जर्नलिस्ट सिस्टम के रिपोर्टर बन गए हैं। वे टूल हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
प्रिंट पत्रकारिता में पहले दिन से आस्था-विश्वासों और आर्थिक-हितों का टकराव था। इसी टकराव के साथ वह आगे बढ़ी है। आज हमारे फ्रंट पेज सनसनी से क्यों भरे हैं क्योंकि हिकी ने यही रास्ता दिखाया। हितों को कैसे बचाना है, राडिया टेप प्रकरण को देख लीजिए। इस मामले को आउटलुक में विनोद मेहता ने उठाया, वो भी कई महीनों बाद। इस प्रकरण में द हिंदू अखबार तक चुप था। इस मामले को उठाने पर बहुत-सी तस्वीरों का टूटना तय था, इसलिए खामोशी तारी रही। जागरूक लोग कभी-कभीर इस बात को उठाते रहते हैं कि आपातकाल से संबंधित शाह कमीशन की रिपोर्ट गायब है, यह मामला किसी मीडिया घराने की प्राथमिकता में क्यों नहीं है ? हम जैसे लोगों को याद नहीं है, आपको याद हो तो बताइएगा कि शाह कमीशन रिपोर्ट की गुमशुदगी को किस अखबार ने उठाया।
बड़ा सवाल ये भी है कि क्या हम सतत-आपातकाल में जी रहे हैं ? पार्लियामेंट, डेमोक्रेसी बाहरी तौर पर काम करती दिख रही है, लेकिन चैथा-स्तंभ कहां हैं ? उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं ? क्या हमारा मीडिया सच में चैथे स्तंभ के तौर पर काम करने में सक्षम है या फिर ये केवल चैथे स्तंभ का आवरण ओढ़े हुए है ? मीडिया एक ऐसे भंवर में दिखता है कि उसके बारे में आसानी से कोई सकारात्मक राय बना पाना बेहद मुश्किल है। ये केवल आज की बात नहीं, समाजवाद के दौर में भी भ्रम फैला हुआ था और आज नव-उदारवादी दौर में भी यही हाल है। हम पूंजीवाद भी नहीं हो सके, क्योंकि मूल चरित्र मे सामंतवाद है। इसलिए मीडिया घरानों में नई पीढ़ी को सामंतों की तरह सत्ता सौंपी जा रही है। भारत में मीडिया के भीतर 20-25 साल में बहुत कुछ बदल गया। लेकिन, ये सारे बदलाव उसी बिंदू पर खड़े हैं जहां से हिकी ने शुरू किया था। जब इस सारे दर्शन को प्रौद्योगिकी अपने कब्जे में ले लेगी तो चीजें और भी खतरनाक हो जाएंगी।
मिशन और प्रोफेशन के द्वंद्व से आज भी हम बाहर नहीं आ सके हैं। इस द्वंद्व में सब कुछ इतना गुड़-गोबर हुआ कि न्यूज, व्यूज, एडवर्टाइजमेंट के प्राथमिकता क्रम को अखबार के भीतर इस प्रकार बदल दिया गया कि वह अब एडवर्टाइजमेंट, पेड व्यूज, पेड न्यूज के क्रम में बदल गया। और चिंता की बात यह कि इस बदलाव का हमें ठीक से अंदाज भी तब हुआ जब इसके परिणाम सामने आने लगे। अब हम परिणामों पर चिल्ला रहे हैं और नैतिकता की दुहाई दे रहे हैं।
ये हमारे अतीत का परिणाम है कि मौजूदा सरकार अब खबरों की सीमा-रेखा तय करने का संकेत दे रहे है। सूचना प्रसारण मंत्री इसे खुले तौर कह भी रहे हैं। मीडिया इसे खामोशी से सुन रहा है क्योंकि उसके हित बेहद संश्लिष्ट हैं। कोई संगठित आवाज शायद ही उठे। संभवतः इसीलिए हम एक बार 1976-77 की तरफ बढ़ रहे हैं। कम से कम मीडिया के मामले में हम उसी मुहाने पर खड़े हैं। लेकिन, ये हमें अवसर भी देगा, ठीक उसी तरह जैसे कि आपातकाल के दौरान मीडिया को जागने का मौका मिला। यह अलग बात है कि मीडिया इस अवसर को किस प्रकार उपयोग करता है।
हमारी पत्रकारिता का ऐसा हाल क्यों है ? क्योंकि हम सवाल नहीं पूछते, सवाल पूछना अच्छा नहीं माना जाता। हमारी प्रेस के सवाल देखिए। वे सुझाव, सलाह और चापलूसी होते हैं। हम उपदेश चाहते हैं, नोट्स चाहते हैं, डिक्टेशन से ही काम चल जाता है। हमारी खामोशी हमारे कैरेक्टर को बताने के लिए काफी है। जब मीडिया और पत्रकार सवाल खड़े नहीं करेंगे तो सब खत्म होने की ओर बढ़ेगा ही। पिछले कुछ दशकों में इंडियन एक्सप्रेस और द हिंदू के योगदान को एक हद तक जरूर याद रखा जा सकता है, लेकिन गिने-चुने नामों के आधार पर पत्रकारिता के अतीत की रेखाएं स्पष्ट नहीं होती और इन रेखाओं में उलझाव के कारण वर्ततान तथा भविष्य के लिए कोई अच्छी संभावनाएं नहीं बनती।
वैसे, वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब लोग अखबारों को कोर्ट में ले जाएंगे क्योंकि वे उपभोक्ता हैं और उन्हें अखबार का मूल्य चुकाने के बदले खबरें चाहिएं, पेड न्यूज नहीं। जब हम कोल्ड ड्रिंक में मक्खी होने पर कंपनी के खिलाफ कोर्ट जाते हैं और झोलाछाप डाॅक्टरों द्वारा किए गए गलत इलाज के खिलाफ कोर्ट जाते हैं तो फिर अनपढ़ पत्रकारों और जेब भर रहे मालिकों के खिलाफ क्यों नहीं जाएंगे ? जब पत्रकारों के लिए न्यूनतम वेतनमान के समर्थक हैं तो उनकी न्यूनतम योग्यता भी होनी चाहिए। योग्यता होगी तो मीडिया को कम से कम इंडस्ट्री की तरह तो व्यवहार कर सकेगा।
Dr.Sushil Upadhyay is Senior Assistant Professor & In-Charge Dept. of Linguistics & Translation Studies, Dept. of Journalism & Mass communication, Uttarakhand Sanskrit University, Haridwar (Uttarakhand)