पुण्य प्रसून वाजपेयी |
लोकतन्त्र का चौथा खम्भा अगर बिक रहा है तो उसे खरीद कौन रहा है? और चौथे खम्भे को खरीदे बगैर क्या सत्ता तक नहीं पहुँचा जा सकता है? या फिर सत्ता तक पहुँचने के रास्ते में मीडिया की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण हो चुकी है कि बगैर उसके नेता की विश्वसनीयता बनती ही नहीं और मीडिया अपनी विश्वसनीयता अब खुद को बेच कर खतम कर रहा है
अगर मीडिया भी एक प्रोडक्ट है तो यह भी कैसे सम्भव है कि मीडिया बिना खबरों के बिक सके। जैसे पंखा हवा ना दें, एसी कमरा ठंडा ना करें। गिजर पानी गरम ना करे, और न्यूज चैनल खबर ना दिखाए। जबकि बाजार या मुनाफे की पहली जरूरत ही किसी भी प्रोडक्ट को कहीं ज्यादा बेहतर-और-बेहतर बनाने की होती है। यह सवाल मीडिया की पढ़ाई कर रहे एक छात्र का था और इसके जवाब के लपेटे में कई सम्पादकों ने जिस तरह पतंग उड़ाई उससे एक हकीकत तो साफ तौर पर उभरी कि अगर लोकतन्त्र का पैमाना इस देश में बदला जा रहा है और राजनीतिक अर्थशास्त्र की थ्योरी नये यप में परिभाषित हो रही है तो उसमें सूचना-तन्त्र की भूमिका सबसे बड़ी है और ऐसा मीडिया को पत्रकारिता से इतर सूचना-तन्त्र में तब्दील कर किया जा रहा है। यानी पत्रकारिता की शून्यता इसी मीडिया में सबसे ज्यादा घनी है। और उसे भरेगा कौन? यह सवाल लगातार कुलांचे मार रहा है। असल में मीडिया को लोकतन्त्र के चौथे खम्भे के तौर पर देखने से ही बात शुरू करनी होगी। चौथे खम्भे का मतलब है बाकि तीन खम्भे अपनी-अपनी जगह काम कर रहे हैं। और काम करने से मतलब संविधान के दायरे में काम कर रहे हैं, यानी सामाजिक सरोकार के तहत देश में संसदीय राजनीति की जो भूमिका है, उसे जिया जा रहा है। लोगों को लग रहा है कि उनकी नुमाइन्दगी संसद कर रही है और संसद संविधान के तहत चल रही है। इसके लिए न्यायपालिका अपनी भूमिका में मुस्तैद है। इसी तरह विधायिका भी देश को चलाने और नीतियों को लागू कराने को लेकर कहीं ना कहीं जिम्मेदारी निभा रही है। और निगरानी के तौर पर मीडिया जनता और सरकार के बीच अपनी भूमिका निभा रहा है।
अगर सत्ता अपनी सुविधा के लिए आम आदमी से जुड़े मुद्दों को हाशिये पर ढकेल रही है तो मीडिया हाशिये पर ढकेले जा रहे मुद्दों को केन्द्र में लाकर सत्ता पर दबाव बनाये कि उस तरफ ध्यान देना जरूरी है। नहीं तो जनभावना सत्ता के खिलाफ जा सकती है और संसदीय चुनाव का लोकतन्त्र सत्ता परिवर्तन की दिशा में भी जा सकता है। लेकिन संसदीय चुनावी तन्त्र ही लोकतांत्रिक मूल्यों को समाप्त करने की दिशा में हो और हर खम्भा इसी दिशा को मजबूत करने में लगा हो तो मीडिया की भूमिका निगरानी की कैसे रहेगी? यह एक लकीर कैसे समूचे लोकतांत्रिक पहलुओं पर अंगुली उठाती है, इसे महज खबरें खरीदने या बेचने की स्थितियों से जनाना जा सकता है। सभी ने माना कि 2009 और 2014 के चुनाव में समाचार पत्र और न्यूज चैनलों ने जमकर पैकेज सिस्टम चलाया। यानी चुनाव मैदान में उतरे उम्मीदवारों से धन लेकर खबरों को छापा।
सरकार की नजरों तले, प्रेस काउसिंल और एडिटर्स गिल्ड से लेकर चुनाव आयोग की सहमति के साथ इस बात पर सहमति बनी कि खबरों को धन्धा बनाना सही नहीं है। जाहिर है इसका मतलब साफ है कि यह गैरकानूनी है। लेकिन कानून कभी एकतरफा नहीं होता। जैसे ही किसी मीडिया हाउस का नाम इस बिल पर लिया गया कि यह खबरों को धन्धा बना रहा है तो सवाल यह उठा कि खबरों को खरीदने वाला अपराधी है या नहीं? यानी लोकतन्त्र का चौथा खम्भा अगर बिक रहा है तो उसे खरीद कौन रहा है? और चौथे खम्भे को खरीदे बगैर क्या सत्ता तक नहीं पहुँचा जा सकता है? या फिर सत्ता तक पहुँचने के रास्ते में मीडिया की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण हो चुकी है कि बगैर उसके नेता की विश्वसनीयता बनती ही नहीं और मीडिया अपनी विश्वसनीयता अब खुद को बेच कर खतम कर रहा है जाहिर है यहाँ सवाल कई उठ सकते हैं। लेकिन पहला सवाल है कि अगर चुनाव आयोग के बनाये दायरे को संसदीय चुनाव तन्त्र ही तोड़ रहा है तो उसकी जिम्मेदारी किसकी होगी कहा जा सकता है यह काम चुनाव आयोग का है जिसे संविधान के तहत चुनाव के दौरान समूचे अधिकार मिले हुए हैं।
लेकिन अब सवाल हे कि अगर लोकसभा की कुल 543 में से 445 सीटों के घेरे में आने वाले इलाकों के मीडिया ने नेताओं की खबर छापने के लिए पैकेज डील की, तो जाहिर है किसी भी नेता ने यह पूंजी चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित पूंजी में नहीं दिखायी होगी। तो क्या उन सभी चुने हुए संसद सदस्यों की सदस्यता रद्द नहीं हो जानी चाहिए लेकिन यह काम करेगा कौन चुनाव आयोग के पास अधिकार तो है लेकिन समूची संसदीय राजनीति पर सवालिया निशान लगाने की हैसियत उसकी भी नहीं है और खासकर जब चुनाव आयोग के पद भी राजनीति से प्रभावित होने लगे हों तो सवाल कहीं ज्यादा गहराता है। यहाँ समझना यह भी चाहिए कि संसदीय तन्त्र की जरूरत चुनाव आयोग है। अकेले चुनाव आयोग की महत्ता ना के बराबर है। वहीं सुप्रीम कोर्ट भी संसद के सामने नतमस्तक है क्योंकि देश के लोकतन्त्र की खुशबू यही कहकर महकायी जाती है कि संसद को तो जनता गढ़ती है। और उससे बड़ी संस्था दूसरी कोई कैसे हो सकती है। यानी आखिरी लकीर संसद को ही खींचनी है और संसद के भीतर की लकीर बाहर के लोकतांत्रिक मूल्यों को खत्म करके ही बन रही है, तो फिर पहल कहाँ से हो। जाहिर है यहां मीडिया की निगरानी काम आ सकती है। लेकिन निगरानी का मतलब यहां संसदीय सत्ता से सीधे टकराने का होगा। टकराने से मीडिया को कोई घबराहट नहीं होनी चाहिए क्योंकि मीडिया की मौजूदगी ने आजादी के दौर से लेकर इमरजेंसी और शाईनिंग इंडिया तक के दौर से दो-दो हाथ किए हैं। तो अब क्यों नहीं जाहिर है अब सवाल यह इसलिए गौण होता जा रहा है, क्योंकि लोकतन्त्र का पहला रास्ता ही खुद को बेचने के लिए तैयार खड़ा है। तो फिर यह लडाई कहाँ जाएगी?
जाहिर है मीडिया के भीतर पत्रकारिता की शून्यता के बीच इन सवालों की गूंज कहीं ज्यादा है कि देश का मतलब अब नागरिक नहीं उपभोक्ता होना है। हक का मतलब मनुष्य नहीं है पूंजी के ढेर पर बैठा कोई भी हो सकता है। कह सकते हैं पांच सितारा होटल से लेकर पुलिस थाने तक में किसी आम आदमी से ज्यादा कहीं उस बुलडॉग की चल सकती है जिसके पीछे ताकत हो। और ताकत का मतलब अब पूंजी की सत्ता है। यहां से अब दूसरा सवाल- जब नेता बनने से लेकर सत्ता तक चुनावी तन्त्र का रास्ता पूंजी पर ही टिका है तो फिर आम आदमी या समाज से सरोकार की जरूरत ही क्यों हो? यानी सौ करोड़ लोगों के हक के सवाल या जीने की न्यूनतम जरूरतो से जुड़कर संसदीय सत्ता गांठने की जरूरत क्यों हो?
जब एक तबके के लाभ मात्र से उसके जूठन के जरिये बाकियों की विकास धारा को संसद में ही परिभाषित किया जा सकता हो। यानी संसद के लिए देश का मतलब जब देश के 10 से 20 करोड़ लोगों से ज्यादा का ना हो और बकायदा नीतियों के आसरे इन्हीं बीस करोड़ के लिए रेड कारपेट बिछाकर उसके नीचे दबी घास से बेफिक्र होकर; कारपेट फटने पर कारपेट बदलकर उसी फटी कारपेट के भरोसे देश का पेट और विकास की धारा को घेरे में लाया जा रहा हो तो फिर लोकतन्त्र की नयी परिभाषा क्या होगी? क्योंकि यहां मीडिया भी रेड कारपेट तले दबी घास से ज्यादा कारपेट के फटने और उसे बदलने पर नजर टिकाये हुए है और उसकी निगरानी इसलिए भी घास को नहीं देश पाएगी क्योंकि लोकतन्त्र का पाठ पढ़ाने वाली संसद के चारों तरफ हरी घास नहीं रेड-कारपेट है और जीने की समूची परिभाषा ही रेड-कारपेट के जरिये बुनी जा रही है। यहां से तीसरा सवाल नुमाइंदगी का शुरू होता है। पंचायत से लेकर संसद तक नुमाइंदगी के लोकतांत्रिक तौर तरीके कितने बदल चुके हैं और नुमाइंदगी का मतलब किस तरह सिर्फ खरीद-फरोख्त पर आ टिका है, उसमें लोकतन्त्र के चौथे खम्भे की भूमिका क्या हो सकती है, यह भी समझना जरूरी है। जो जिस क्षेत्र का है उसे वहीं के लोगों की नुमाइंदगी करनी चाहिए। यह कोई ब्रह्म-वाक्य नहीं है। मगर लोकतन्त्र की यही समझ है और इसी आधार पर समूचे लोकतन्त्र का ताना-बाना बुना गया। लेकिन इस लोकतन्त्र को पूंजी ने कैसे, कब, किस तरह हर लिया यह लोकसभा के 75 तो राज्यसभा के 135 सदस्यों के जरिये समझा जा सकता है।
पहले जाति और अब पूंजी के खेल ने लोकतन्त्र को किस तरह निचोड़ा है इसका अन्दाजा असम से राज्यसभा में पहुँचे मनमोहन सिंह के जरिये भी समझा जा सकता है और बीते दिनों कर्नाटक से पहुँचे विजय माल्या या फिर राजस्थान से पहुँचे राम जेठमलानी समेत 11 सांसदों की कुंडली देखकर भी समझा जा सकता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि मनमोहन सिंह के घर का जो पता असम का है, उस घर के पड़ोसी को भी जानकारी नहीं कि उनका पड़ोसी सांसद है और फिलहाल देश का प्रधानमन्त्री। असल में नुमाइंदगी अगर बिकी है तो उसके पीछे लोकतन्त्र की धज्ज्यिाँ उड़ाता एक लंबा दौर भी रहा है जिसमें संविधान की परिभाषा तक बदल दी गयी। और इसे बदलने वाला और कोई नहीं वही सत्ता रही जो खुद संविधान का राग जपकर बनी। गाँव, किसान, आदिवासी, खेती, कश्मीर, मणिपुर, भोपाल गैस कांड, चौरासी के दंगे, 122 करोड़ का टी-3 टर्मिनल बनाम बिना फाटक के 345 रेल लाइन, करोड़पतियों में सवा सौ फीसदी की बढ़ोत्तरी बनाम गरीबों में पैंतीस फीसदी की बढ़ोत्तरी। एक ही संविधान के दायरे में कैसे इतनी परिभाषा एक सरीखी हो सकती है। जहाँ लाखों आदिवासियों के जीने का हक चंद हाथों में बेच दिा जाए और संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में सिर्फ इसकी गूंज ही सुनाई दे और समेटने वाला सब कुछ समेट कर चलता बने। तो फिर मीडिया किसे जगाये?
असल में इस पूरे दौर में हर मुद्दे को लेकर एक सवाल कहीं तेजी से सहमति बनाता हुआ बड़ा हुआ है कि जो सत्ता सोच रही है और जिस पर संवैधानिक संस्थानो की मुहर लगी है अगर उस पर कोई सवाल कोई भी खड़ा करे तो वह लोकतन्त्र के खिलाफ माना जा सकता है। मीडिया तो लोकतन्त्र का पहरूआ है। ऐसे में जिस लोकतन्त्र की बात सत्ता करती है अगर उससे इतर मीडिया कोई भी सवाल खड़ा करती है या फिर सत्ता के निर्णयों पर सवाल खड़ा करती है तो फिर मीडिया खुद को लोकतन्त्र से कैसे जोड़ सकता है। यह संकट लोकतन्त्र के हर खम्भे के सामने है। चूंकि चारों खम्भों की सामूहिकता के बाद ही लोकतन्त्र का नारा लगाया जा सकता है तो इसका एक मतलब साफ है कि किसी को भी इन परिस्थितयों में टिके रहना है तो सत्ता के साथ खड़ा होना होगा। ऐसे में मीडिया इससे इतर अपनी भूमिका कैसे देख समझ सकता है?
यानी लोकतन्त्र की इस परिभाषा में पहले संसदीय राजनीतिक सत्ता पर लोकतन्त्र के बाकी खम्भों को कुछ इस तरह आश्रित बनाया गया कि वह खुद को सत्ता भी माने और बगैर संसदीय सत्ता के ना नुकुर भी ना कर सके। इसलिए पूंजी या कॉरपोरेट सेक्टर की अपनी सत्ता है और अदालत या जांच एजेंसी की अपनी सत्ता। इसी तरह मीडिया की अपनी सत्ता है। और हर सांस्थानिक सत्ता की खासियत यही हे कि बाहर से वह लोकतन्त्र को थामे नजर आ सकता है लेकिन अन्दर से हर संस्था सत्ता-बेबस है। कहा यह भी जा सकता है कि इस दौर में लोकतन्त्र की परिभाषा ठीक वैसे ही बदली जैसे ग्लोबलाइजेशन ऑफ प्रोवर्टी में मिशेल चासडवस्की कहते हैं कि आर्थिक सर्वसत्तावाद गोलियों से नहीं अकालों से हत्या करता है। और यह नीतिगत फैसलों में इस तरह खो जाते हैं कि इन्हें कानूनन अपराधी भी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अपराध की इस परिभाषा में तो इसका उल्लेख तक नहीं है। अगर मीडिया की नजरों से इस हकीकत को समझना है तो न्यूज प्रिंट की कीमत से लेकर न्यूज चैनलों की कनेक्टेविटी के खर्चे और इसे पाने या दिखाने के लिये सत्ता की ठसक से भी समझा जा सकता है। जिस तरह खेती में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ घुसी और खाद से लेकर बीज तक को अपने शिकंजे में कस कर किसानों की खुदकुशी का रेड कारपेट यह कह कर बिछाया कि अब खेती का कल्याण होगा क्योंकि उसे विकसित करने के लिए खुले बाजार की पूंजी पहुँची है।
ठीक इसी तर्ज पर न्यूज प्रिंट पर से सरकारी दबदबा हटाकर हर अखबार छापने वाले के लिए एक ऐसा ढांचा बनाया गया जिसमें अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिए वह बाजार के प्रोडक्ट पर जा टिके। यानी विज्ञापन उसकी न्यूनतम जरूरत बने। और खुद की सत्ता बनाए रखते हुए विज्ञापन के लिए हर सत्ता के सामने उसे नतमस्तक होना पड़े। जिसमें सबसे ज्यादा आश्रय सरकारी हो। यही स्थिति न्यूज चैनलों की है। सफेद पूंजी से कोई चैनल तो निकाला जा सकता है लेकिन वह घर-घर में दिखाई कैसे दे इसके लिए कोई नियम कायदा नहीं है। केबल सिस्टम पर समूचे विज्ञापन की थ्योरी सिमटी हुइ्र है। केबल यानी टीआरपी और टीआरपी यानी कमाई की शुरूआत। लेकिन केबल के जरिये कनेक्टीविटी का मतलब होता क्या है? इसे समझने के लिये फिर उन ब्रांड कम्पनियों से होते हुए भारत के भीतर बनते इंडिया में घुसना पड़ेगा। जहाँ सबसे बेहतर और महंगे या कहें बेस्ट शहर या राज्य का मतलब है मुम्बई, अहमदाबाद, हैदराबाद, बेंगलुरू, दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, अमृतसर, लुधियाना, चंड़ीगढ़। यानी टीआरपी इन्हीं जगहों से आ सकती है तो फिर भारत को कवर करने की जरूरत है क्या?
लेकिन मसला यहीं खत्म नहीं होता। संसदीय सत्ता यहाँ सीधे केबल सिस्टम पर काबिज है। यानी हर राज्य, हर शहर, कहीं भी कोई भी केबल अगर चल रहा है तो उसके पीछे कोई ना कोई राजनेता है। और किसी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को अगर देश भर में केबल के जरिये दिखना हे तो उसका सालाना खर्चा 30 से 40 करोड़ का है। लेकिन यह पूंजी सफेद नहीं काली है। इसे कोई मीडिया वाला कहाँ से लाएगा? यह सवाल किसी नये न्यूज चैनल वाले के सामने खड़ा हो सकता है लेकिन जो पुराने न्यूज चैनल चल रहे हैं उनके पास यह पूंजी किस गणित से आती है और कैसे यही बाजार उन्हें टिकाये रखता है, यह समझना कोई दूर की गोटी नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र का यह समाजवाद चेहरा ही असल सत्ता है।
ऐसे में लोकतन्त्र की धज्जियाँ उड़ाकर उसका समाजवादीकरण ही अगर चारों खम्भे कर लें तो सवाल खड़ा होगा कि इस नये लोकतन्त्र की निगरानी कौन करेगा? मीडिया फिट होता नहीं। आन्दोलन या संघर्ष देशद्रोही करार दिए जा सकते हैं। आम आदमी का आक्रोश गैर-कानूनी ठहराया जा सकता है। तो फिर संसदीय राजनीति का कौन सा तन्त्र है जिसमें लोकतन्त्र के होने की बात कही जाए? असल मुश्किल यही हे कि अलग-अलग खांचों में मीडिया और राजनीति या पूंजी की नयी बनती सत्ता को देखा-परखा जा रहा है। जिसमें बार-बार मीडिया को लेकर सवाल खड़े होते हैं कि वह बिक रही है। खत्म हो रही है। या सरोकार खत्म हो चले हैं। अगर सभी को एकसाथ मिलाकर विश्लेषण होगा तो बात यही सामने आएगी कि खतरे में तो लोकतन्त्र है, और लोकतन्त्र का चौथा खम्भा तो उसी लोकतन्त्र से बन्धा है जिसका अस्तित्व खत्म हो चला है। (साभार: मीडिया का वर्तमान -संपादक अकबर रिज़वी)