शिवप्रसाद जोशी।
शीत युद्ध में वर्चस्व और विचार की लड़ाई सबसे ऊपर थी। 1990 के दशक से संसाधनों पर कब्ज़े की लड़ाई का दौर शुरू होता है। जब दशक की शुरुआत में अमेरिका ने इराक़ पर हमला बोल दिया। रासायनिक हथियारों को नष्ट करने की आड़ में हुए इस हमले में देश और उसकी संस्कृति को ही तबाह कर दिया गया। 1990 के दशक में सोवियत संघ पूरी तरह टूटफूट गया था और अमेरिकी रेटरिक और विदेशी नीति का अधिकांश काउंटर प्वायंट गायब हो गया था: शीत युद्ध उन्माद, कम्यूनिज़्म को लेकर अमेरिकी चिंताएं और एटमी तबाही का डर आदि विदेशी निवेश ने एजेंडे में सबसे ऊपर जगह हासिल कर ली थी। बाज़ार उन्मुख नीतियां बनाई जा रही थीं और सोवियत संघ से जुड़े पुराने देश यूरोपीय संघ में आ रहे थे एक मीडिया सिस्टम इस तरह विकसित हो रहा था जो मुक्त प्रेस की वकालत कर रहा था।
आर्थिक रूप से संपन्न और सामरिक लिहाज़ से शक्तिशाली पश्चिमी देशों- यहां अमेरिका उनमें सर्वोपरि है- से समाचार और सूचना का प्रवाह सदियों से जारी है। अपनी सामग्री और मूल्य में जाहिर है यह एकतरफ़ा ही कहा जाता है क्योंकि यह एक ही जगह से निर्मित होकर अपने ही विचार से लैस और अपने ही बाज़ार सिद्धांतों-राजनैतिक सामरिक नीतियों की पैरवी करता हुआ उन देशों को जाता है जिन्हें विकासशील या ग़रीब देश कहा जाता है लेकिन जहां अधिसंख्यक आबादी है जो उस प्रवाह की एक बहुत विराट उपभोक्ता बिरादरी है। हॉलीवुड की फ़िल्में हों या पत्रिकाओं के गट्ठर के गट्ठर, कई क़िस्म के वीडियो, टेलीविज़न कार्यक्रम, समाचार आदि सबसे ज़्यादा वहीं उनका उत्पादन होता है जहां आर्थिकी मज़बूत है और टेक्नोलॉजी उच्चकोटि की है।
सूचना प्रवाह में असंतुलन की शुरुआत यहीं से होती है। अब यह मामला महज़ सूचना प्रवाह असंतुलन और एजेंडा सेट करने का नहीं है, इससे एक बहुत बड़ी खाई भी बनती चली गई है, दो दुनियाएं सामने आ गई हैं, जिन्हें हम हैव एंड हैव नॉट्स (संपन्न और विपन्न) के रूप में जानते हैं या चिंहित करते हैं। यानी एक ओर हैं साधन संपन्न देश और दूसरी ओर हैं साधनहीन या साधनों से विपन्न देश।
इस बारे में किए गए तमाम अंतरराष्ट्रीय अध्ययन बताते हैं कि अमीर और ग़रीब देशों के बीच खाई चौड़ी होती जा रही है। यही नहीं विकासशील देशों में भी अमीर और ग़रीब तबकों की आय में भी एक बहुत बड़ा अंतर है- बल्कि गरीबों की संख्या बढ़ती जा रही है और जितना ग़रीब बढ़ रहे हैं अमीर तबके की आय में उतना ही इज़ाफ़ा हो रहा है। और यह दास्तान विकासशील देशों की नहीं है, आय का यह असंतुलन अमेरिका जैसे देश में भी दिखता है जहां अर्थव्यवस्था की वृद्धि आबादी के 40 फ़ीसदी लोगों पर टिकी है, जिनके पास देश की आय का 68 फ़ीसदी हिस्सा है। जबकि 60 फ़ीसदी आबादी बदहाली में रहती है। (शिलर 1996-संदर्भ इंटरनेशनल कम्यूनिकेशन एंड ग्लोब्लाइज़ेशन- अली मोहम्मदी, सेज पब्लिकेशन- 1997, 1999, 2005)
स्पष्ट है कि विकसित देशों ख़ासकर अमेरिका की बड़ी मनोरंजन और मीडिया कंपनियां या दूसरे बड़े उद्योग का एकमात्र लक्ष्य राजस्व और मुनाफ़ा है। सूचना और प्रौद्योगिकी के तमाम छोटे से छोटे और बड़े से बड़े उपकरण, हार्डवेयर और सॉफ़्टवेयर, पॉकेट आकार के वीडियो कैमरे, वीडियो कैसेट रिकॉर्डर, लैपटॉप सैटेलाइट सिग्नल रिसीवर और ट्रांसमीटर, फ़ाइबर ऑपटिक्स, माइक्रोवेव रिले और लैपटॉप कम्प्यूटर, फ़ैक्स मशीनें, मोबाइल टेलीफ़ोन और इंटरनेट ने मनुष्य कल्पना के पार जाकर अंतरराष्ट्रीय संचार का विस्तार किया है। रेडियो और टीवी में आए दिन हो रहे बदलाव, प्रस्तुतीकरण में अत्याधुनिक बदलाव, प्रसारण की व्यापकता, कवरेज के नाना विषय जिसमें राजनीति, सेमिनार से लेकर फ़ैशन शो, विश्व सुंदरी प्रतियोगिताएं, ओलंपिक खेल, बैठकें, फ़ुटबॉल और क्रिकेट के लीग मैचों से लेकर विश्व कप तक, टेनिस और अपने यहां आईपीएल सनसनी तक लोगों की ज़िंदगियों में वृहद और विभिन्न सूचनाओं का ऐसा जखीरा भरता जा रहा है जो एक पल के लिए खाली होता जाता है और अगले ही पल फिर से भर जाता है।
सूचना और मनोरंजन प्रस्तुति के इस उफनते सागर में, एक ओर वे संस्थान, कंपनियां और निवेशक हैं जिनके लिए मुनाफ़ा ही मुनाफ़ा है तो दूसरी ओर उपभोक्ता हैं जो एक लिहाज़ से इस “सूचना सूनामी” की चपेट में आ गया है। अंतरराष्ट्रीय संचार के इस वैश्विक विकास को भूमंडलीकरण की उस अवधारणा के तहत समझा जा सकता है जो सत्ता और संचार के संबंधों की समकालीनता, सामाजिक संबंधों और तनावों के पुनर्गठन और बड़े बहुराष्ट्रीय निगमों के संचालन, सांस्कृतिक कमोडिटी, मनोरंजनों और सूचना तकनीकी के नव-कारोबारियों का एक दर्शन सरीखा बन गया है।
इस सबके बावजूद अंतरराष्ट्रीय संचार का परिदृश्य अधर में है। आर्थिक नियतिवाद और मुक्त बाज़ार की मान्यताएं, वैश्विक विलयों और विदेशी बाज़ार के निर्माण और वर्चस्व की होड़ में लगी हैं और सत्ता और बहस का फ़ोकस राजनीति और राजनय की मेनस्ट्रीट से निकलकर वॉलस्ट्रीट में चला गया है। यहां तक कि स्टॉक मार्केट भी ट्रांसनेशनल इकाइयां बन गए हैं। अमेरिकी कंपनियां, हॉलीवुड की फ़िल्में, संगीत या माइक्रोसॉफ़्ट, किसी भी बड़ी कंपनी का आप नाम लीजिए और आप पाएंगें कि उनके मुनाफ़े का 50 फ़ीसदी से भी ज़्यादा हिस्सा विदेशों से आ रहा है। यानी अमेरिका के बाहर से आ रहा है। दुनिया के सबसे बड़े टीवी चैनल एमटीवी की कुल ऑडियंस का 80 फ़ीसदी ग़ैर अमेरिकी है और ये आकार बढ़ता ही जा रहा है।
मुनाफ़े और वर्चस्व की इस होड़ में इधर विडंबना के रूप में देखें या दिलचस्पी के अंदाज़ में कुछ सामरिक बहसें भी जुड़ गई हैं और हैरानी है कि आखिर आर्थिक नियतिवाद के दौर में उन मसलों को कैसे जगह मिल पा रही है। हमारा इशारा आतंकवाद से है। एक ओर अंतरराष्ट्रीय संचार में अभूतपूर्व तब्दीलियों, विकास और बदलावों का दौर जारी है दूसरी ओर आतंकवाद जैसे मसलों पर अमेरिका जैसे देश गठरी जैसे बने हुए हैं। या ऐसा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। लड़ाई कई मोर्चों पर जारी है। बाज़ार पर क़ब्ज़े की लड़ाई, और धर्म के वर्चस्व की लड़ाई, एक काल्पनिक ख़तरे का उभार और फिर उसका वास्तविक दमन करने की ख़ुराफ़ाती हिंसक कार्रवाइयां। इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान के अलावा अफ़्रीका के कई मुल्क इसकी मिसाल हैं।
उपग्रह संचार आज के दौर में भूमंडलीकृत बाज़ार का एक प्रमुख औजार बन गया है। वह उसकी संचालन शक्तियों में एक है। और भूमंडलीकरण के सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक है- सूचना का मुक्त प्रवाह। अगर अमेरिकी टीवी चैनलों या दूसरे सांस्कृतिक उद्योगों को देखें तो वे मुक्त प्रवाह के पैरोकार बेशक हैं लेकिन ये मुक्त प्रवाह अमेरिकी नज़रिए और मूल्य सैद्धांतिकी का है। इस मुक्त प्रवाह में विश्व की बहुत बड़ी आबादी तक पहुंचने का लक्ष्य है, उन तक अपने विचार को प्रसारित या संप्रेषित करना, उनकी अपनी वैचारिकियों या उनके अपने स्थानीय सांस्कृतिक पर्यावरण में एक कथित जागरूकता भरना। इस हलचल के ज़रिए भूमंडलीकरण भूगोलों को सिकोड़ता है और कुछ इस तरह की दुनिया निर्मित करने की कोशिश करता है जिसे ग्लोबल गांव कहा जा सके। लेकिन ये गांव इस लिहाज़ से गांव नहीं कि वहां कोई ग्रामीण भावना या एक मिलनसार सामाजिक संरचना बनी होती है- वह बाजार प्रभाव और उसके विस्तार की वजह से गांव कहा जाता है जहां सबकुछ एक जगह उपलब्ध है। भोजन से लेकर सूचना तक।
मैकब्राइड कमीशन की रिपोर्ट के लिहाज़ से देखें तो दुनिया में एक तार्किक, मानवीय और निष्पक्ष और स्वतंत्र और संतुलित सूचना प्रवाह बनाने की विकासशील देशों की लड़ाई या संयुक्त राष्ट्र के यूनेस्को की कोशिशें भूमंडलीकृत विश्व में या तो भुलाई जा चुकी हैं या वह लड़ाई ही रद्द कर दी गई है। कुछ ऐसा हुआ है कि 1970 के दशक के कई विकासशील और गुटनिरपेक्ष देश अब अपनी छवि और सत्ता राजनीति के ढांचे में ऐसे नहीं रह गए हैं कि वे दुनिया के मंच पर अपनी आवाज़ें उसी बुलंदी से उठा सकें। अब वे भूमंडलीकृत विश्व ग्राम के नुमाईंदे हो गए हैं उस गांव के वासी जिसका प्रधान ज़ाहिर है अमेरिका है या वे बहुराष्ट्रीय निगम और वित्त संस्थान हैं जिनके मुख्यालय अमेरिका में हैं।
मुनाफ़े और वर्चस्व की इस कल्पनातीत लड़ाई में जहां राष्ट्र राज्य की सामरिक टकराहटों के समांतर बहुराष्ट्रीय निगमों और कंपनियों का अपना दिनबदिन बढ़ता साम्राज्य है ऐसे में यह आशंका भी है कि हो न हो देश जैसी भौगोलिक इकाइयां और सत्ता व्यवस्थाएं सिकुड़ती जाएं, वे अर्थहीन और शक्तिहीन होती जाएं और उनका स्थान ये विशाल निगम ले लें, अपने ही ढंग से दुनिया की राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति को संचालित करते हुए। इसे ही हर्बर्ट शिलर ने कॉर्पोरेट पूंजीवाद कहा है। आगे बढ़कर हम आने वाले दिनों में घोषित रूप से कॉर्पोरेट राजनीति को सत्ता राजनीति के ज्ञात परिचित गलियारों में अपने-अपने कैंप सजाए देख सकते हैं। उन्हें अप्रत्यक्ष रहने की ज़रूरत नहीं होगी। पार्श्व से सत्ता के मंच संचालन की ज़रूरत नहीं रहेगी। इटली में हम इसकी एक रंगत देख चुके हैं। जहां बहुत बड़े दौलतमंद कॉर्पोरेट स्वामी सिल्वियो बर्लूस्कोनी देश की सत्ता के शीर्ष में रह चुके हैं।
योनेजी मासूदा इंफ़ॉर्मेशन सोसायटी- सूचना समाज की अवधारणा पेश कर चुके हैं। डैनियल बैल ने इस अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए पोस्ट-इंडस्ट्रियल सोसायटी- उत्तर औद्योगिक समाज का ख़ाका खींचा है। विलियम मार्टिन इसे ब्रॉडबैंड सोसायटी कह रहे हैं, उधर विंसेंट मॉस्को ने पे-पर सोसायटी( प्रति व्यक्ति भुगतान समाज) की अवधारणा दी है। मैनुअल कासल नेटवर्क सोसायटी- नेटवर्क समाज की अवधारणा रखी है। जिसे वो मोबाइल नेटवर्क सोसायटी भी कह चुके हैं। उनका ज़ोर सूचना और संचार तकनीकी पर है कि उसकी वजह से नेटवर्कों का एक सामाजिक ढांचा खड़ा हो गया है और जो माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स और डिजिटल कम्प्यूटर नेटवर्कों से संचालित होता है। भूमंडलीय संरचना में जुड़ाव, संबंध और अंतर्संबंध और अंतःक्रिया की प्रक्रिया के इन संचार परिदृश्यों (लैंडस्केप) या सूचना लैंडस्केप को अप्पादुरई (1990) ने पांच परिदृश्यों में बांटा है- इथनोस्केप, टेक्नोस्केप, इंफ़ोस्केप, फ़ाइनेंसस्केप और मीडियास्केप। अप्पादुरई के मुताबिक ये पांचों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और कई बार ओवरलैप भी करते हैं। (आनाबेले स्रेबेरनी, द ग्लोबल एंड द लोकल इन इंटरनेशनल कम्यूनिकेश्नस, पृ 524
शिलर ने जिस कॉर्पोरेट पूंजीवाद की बात की है उसी के साथ संबंद्ध है उपभोक्ता पूंजीवाद जिसका अकेला मंत्र है- उपभोग। ज़्यादा से ज़्यादा उपभोग की ओर समाज को खींचना। फ्रांक वेबस्टर ने शिलर की मान्यताओं के एक अध्ययन में डलास स्मिथ का ज़िक्र किया है। जिन्होंने कई साल पहले एक शब्दावली पेश की थी- “ऑडियंस कमोडिटी।” यानी दर्शक-श्रोता उत्पाद। यहां आशय ये है कि टीवी एक तरह से अपने दर्शकों यानी ऑडियंस को विज्ञापन कंपनियों के सामने पेश कर देता है। कितने लोग कितनी संख्या में कोई कार्यक्रम देख रहे हैं ये संख्या विज्ञापन दाता कंपनियों को भेजी जाती है। आज स्मिथ की इस शब्दावली को हम सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के माहौल में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता देख रहे हैं।
शिव प्रसाद जोशी का ब्रॉडकास्ट जर्नलिज्म में लम्बा अनुभव है। वे बीबीसी, जर्मनी के रेडियो डॉयचे वैल्ली में काम कर चुके हैं। ज़ी टीवी में भी उन्होंने काफी समय काम किया। इसके आलावा कई अन्य टीवी चैनलों से भी जुड़े रहे हैं। इस वक़्त वे रिसर्च स्कॉलर हैं।