स्वतंत्र मिश्र।…
मूल रचनाकार अपनी रौ में लिखता जाता है, उस पर कोई बंदिश नहीं होती। लेकिन अनुवादक को रेलगाड़ी की तरह पटरी पर चलना पड़ता है
‘प्रकाशक प्रति शब्द 10 या 15 पैसे देता है। इसके बाद आप उम्मीद करें कि बढ़िया अनुवाद हो जाए। क्या यह संभव है? ‘विश्व क्लासिकल साहित्य श्रृंखला (राजकमल प्रकाशन) के संपादक सत्यम के ये शब्द उस बीमारी की एक वजह बताते हैं जिसकी जकड़ में हिंदी अनुवाद की दुनिया आजकल है। अनुवाद यानी वह कला जिसकी उंगली पकड़कर एक भाषा की अभिव्यक्तियां दूसरी भाषा के संसार में जाती हैं और अपने पाठकों का दायरा फैलाती हैं। लेकिन इस कला की सेहत आजकल ठीक नहीं। जानकारों के मुताबिक हिंदी में होने वाले अनुवाद का स्तर बहुत खराब है। इसके चलते दूसरी भाषा की अच्छी रचनाओं को हिंदी में पढ़ने का आनंद काफी हद तक जाता रहता है। जैसा कि कवि और पत्रकार पंकज चौधरी कहते हैं, ‘बहुत सारी अंग्रेजी भाषाओं के प्रसिद्ध लेखकों की कृतियों को पढ़ने का मन होता है। लेकिन कई बार अंग्रेजी से अनूदित होकर हिंदी में आई किसी किताब को पढ़कर लगता है कि इससे अच्छा तो मूल किताब ही पढ़ ली जाती।’
अपने काम को लेकर ज्यादातर अनुवादकों के अनुभव अच्छे नहीं होते। कहानीकार और दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर प्रभात रंजन कहते हैं, ‘पेंगुइन जैसा बड़ा प्रकाशक डिमाई आकार के एक पन्ने (औसतन 300-350 शब्द) के लिए 80 रुपये देता है। राजकमल और वाणी प्रकाशन का रेट थोड़ा ठीक है। वे प्रति शब्द 40 पैसे देते हैं।’ पेंगुइन प्रकाशन में हिंदी संपादक की जिम्मेदारी संभाल चुके सत्यानंद निरुपम भी कहते हैं, ‘प्रकाशक प्रति शब्द 22 पैसे मेहनताना देते हैं जबकि गैरसरकारी संगठन (एनजीओ) एक रुपया प्रति शब्द या इससे ज्यादा भी दे देते हैं। जबकि साहित्य की सामग्री का अनुवाद एनजीओ की सामग्री की तुलना में कहीं ज्यादा कठिन होता है।’ पेंगुइन प्रकाशन में हिंदी संपादक रियाज उल हक का कहना है, ‘अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद की दर अब 100-135 रुपये प्रति पृष्ठ कर दी गई है।’ लेकिन कुछ अनुवादकों का मानना है कि यह दर भी बहुत राहत देने वाली नहीं है।
लेकिन अनुवाद की बदहाली का कारण सिर्फ कम मेहनताना नहीं है। विशेषज्ञता की कमी भी इसके लिए जिम्मेदार है। सत्यम कहते हैं, ‘यूरोप में विशेषज्ञ अनुवादकों की लंबी परंपरा रही है। मसलन चेखव का अनुवाद करने वाले उनके साहित्य के शोधार्थी रहे हैं। उन पर लगातार लिखने या उन्हें जानने वालों को ही यह जिम्मा मिलता रहा है। वहां प्रकाशक अनुवादकों को काम सौंपते समय बहुत सतर्क रहते हैं। लेकिन भारत में आपको ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें अनुवादकों को अनुवाद के विषय की कोई जानकारी नहीं होती है। यही वजह है कि स्थिति ‘हंसिया के ब्याह में खुरपी का गीत’ जैसी हो जाती है।’
प्रकाशकों द्वारा अनुवादकों का नाम नहीं दिया जाना भी एक बड़ा कारण है। ‘गीतांजलि के हिंदी अनुवाद’ पुस्तक के लेखक देवेंद्र कुमार देवेश कहते हैं, ‘प्रकाशक अनुवादकों का नाम किताब में शामिल नहीं करना चाहते।’ इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं, ‘दरअसल वे अनुवाद के काम को दोयम दर्जे का मानते हैं। खास तौर पर बांग्ला से हिंदी में अनूदित किताबों में नाम देने की परंपरा रही ही नहीं है। नाम दिए जाने से अनुवादकों की जिम्मेदारी तय होती है और जाहिर- सी बात है कि वे काम को गंभीरता से लेते हैं।’ कमोबेश यही आलम अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद में भी है। एक अनुवादक और लेखक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के काम को चलन में लाने वाला प्रभात प्रकाशन आम तौर पर अपने अनुवादकों का नाम किताब में शामिल नहीं करता।
अनुवादकों की जिम्मेदारी के बारे में अनुवादक विमल मिश्र कहते हैं, ‘मूल रचनाकार अपनी रौ में लिखता जाता है, उस पर कोई बंदिश नहीं होती। लेकिन अनुवादक को रेलगाड़ी की तरह पटरी पर चलना पड़ता है।’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘जैसे इंिजन के ड्राइवर की जिम्मेदारी होती है मुसाफिरों को उनके गंतव्य तक सुरक्षित पहुंचाने की, ठीक वैसी ही जिम्मेदारी अनुवादक की होती है मूल रचना के भाव को अनूदित रचना में समेकित करने की। अनुवादक को जवाब देना पड़ता है – प्रकाशक को, पाठकों को और मूल पुस्तक के रचनाकार को भी।’ हालांकि जब हम मुद्दे के दूसरे पहलू यानी प्रकाशकों को टटोलते हैं तो समस्या की एक और भी वजह सामने आती दिखती है। वाणी प्रकाशन के मालिक अरुण माहेश्वरी कहते हैं, ‘काम और पैसे देने वालों की कोई कमी नहीं है। हमने सआदत हसन मंटो की कहानी उर्दू से हिंदी में करवाई। अनुवादक महोदय ने चवन्नी नामक पात्र को चन्नी कर दिया। इसमें पैसे का मामला कहां है? हम मेहनताना तय करना अनुवादकों पर छोड़ देते हैं। हकीकत तो यह है कि अनुवाद की किताबें हमारे लिए मुनाफा देने वाली नहीं होती हैं। ‘ऐसा पूछने पर कि इसकी वजह क्या है, माहेश्वरी कहते हैं, ‘अनुवाद की किताब तैयार करने में अनुवादक, प्रूफ रीडर और संपादक को अलग-अलग पैसा देना होता है।’ अनुवादकों को मुंहमांगी कीमत देने के नाम पर माहेश्वरी महात्मा गांधी के पौत्र और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी का नाम गिनाते हैं। गांधी ने वाणी प्रकाशन के लिए विक्रम सेठ की किताब ‘ए सुटेबल ब्वॉय’ का अनुवाद किया है।
‘मूल रचनाकार पर कोई बंदिश नहीं होती। लेकिन अनुवादक को रेलगाड़ी की तरह पटरी पर चलना पड़ता है’
लेकिन जानकारों के मुताबिक ऐसे उदाहरण इक्का-दुक्का हैं और ज्यादातर अनुवादक गोपाल कृष्ण गांधी की तरह अपना मेहनताना खुद तय करने जैसी स्थिति में नहीं होते। और रही बात कम मुनाफे की तो अगर ऐसा होता तो इस समय बाजार में अनूदित सामग्री की जो बाढ़ आई हुई है वह नहीं दिखती। इस बाढ़ का बड़ा हिस्सा अंग्रेजी के प्रकाशकों पेंगुइन और हार्पर कॉलिन्स से आता है। सत्यम कहते हैं, ‘ज्यादातर मामलों में अनुवाद मशहूर किताबों का ही होता है। अंग्रेजी के बड़े लेखकों की किताब का हिंदी में अनुवाद कराया जाता है, इसलिए लाइब्रेरी से खरीद बड़े पैमाने पर हो जाती है। इन किताबों के अनुवाद के कई संस्करण प्रकाशित होते हैं और इनसे प्रकाशक लंबे समय तक मुनाफा कमाते हैं।’वैसे वजहों पर भले ही सहमति न हो, लेकिन इस पर सब सहमत हैं कि अनुवाद के स्तर में गिरावट आई है।
अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के मामले में ऐसे भी कई उदाहरण मिल जाते हैं जहां दो शब्दों से लेकर तीन-तीन पैराग्राफ या कई पन्ने छोड़ दिए जाते हैं। अंग्रेजी के कई मुहावरे जिनका हिंदी में अनुवाद हो सकता है और जो पाठकों की दिलचस्पी बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं, उन्हें अनुवादक हिंदी पाठकों के स्तर का हवाला देकर छोड़ देते हैं। इसे समझने के लिए यहां यथार्थवाद के प्रवर्तक और प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक स्तांधाल के सबसे चर्चित उपन्यास ‘सुर्ख और स्याह’ का सहारा लिया जा सकता है। इस उपन्यास में विभिन्न अध्यायों की शुरुआत में कोई पद्यांश या सूक्ति या फिर कथन दिया गया है जिसके साथ किसी विख्यात हस्ती का नाम है। ये उपन्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। मगर हिंदी में पहली बार प्रकाशित अनुवाद से ये नदारद थे।
अनुवाद में लापरवाही का यह सिलसिला अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद तक ही सीमित नहीं है। बांग्ला के कई क्लासिक उपन्यासों के अनूदित संस्करण दशकों से हिंदी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय रहे हैं। लेकिन इनमें भी बड़ी भूलें मौजूद हैं। 20वें पुस्तक मेले में शरतचंद्र और रवींद्रनाथ ठाकुर के उपन्यासों के नए हिंदी अनुवाद का विमोचन किया गया। इन किताबों का नए सिरे से अनुवाद कराने की जरूरत पर राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी का कहना था, ‘ये किताबें अब रॉयल्टी से बाहर हो चुकी हैं। मगर इन किताबों के जो हिंदी संस्करण बाजार में बिक रहे हैं वे आधे-अधूरे हैं। उनके अनुवाद बहुत खराब हैं। पन्ने के पन्ने गायब हैं। बांग्ला में कुछ कहा गया है और हिंदी अनुवाद में कुछ और।’ राजकमल से प्रकाशित ‘पथ का दावा’ के अनुवादक विमल मिश्र किताब की भूमिका में लिखते हैं, ‘शरत बाबू के उपन्यास ‘पथेर दाबी’ का हिंदी अनुवाद ‘पथ का दावा’ होगा न कि ‘पथ के दावेदार’। दरअसल इस उपन्यास के कथानक का मूल आधार ‘पथ का दावा’ नाम की समिति है। हिंदी के ‘दावेदार’ शब्द के लिए बांग्ला में ‘दाबिदार’ शब्द है।’
खराब अनुवाद की एक बड़ी वजह अनुवादकों में नजरिये का अभाव होना भी है। किसी समाज में किसी शब्द का क्या मतलब है, इसे समझे बगैर अनुवाद कर देने से अर्थ का अनर्थ होना तय है। दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए अंग्रेजी में ‘कंपरेटिव लिटरेचर’ के तहत मुंशी प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ाया जा रहा है। गोदान शीर्षक की व्याख्या करते हुए अनुवादक ने इसे ‘अ गिफ्ट ऑफ काऊ’ लिखा है जबकि इसका ठीक अनुवाद ‘ऑफरिंग ऑफ अ काऊ’ होगा। किसी प्रियजन के मरने के बाद ब्राह्मण आत्मा को मुक्त करने के नाम पर यजमान पर दान-दक्षिणा के लिए दबाव बनाता है। इसे यजमान की इच्छा पर नहीं छोड़ता। ‘गोदान’ का पूरा कथानक ही वर्णवादी व्यवस्था की इस कुरीति के खिलाफ है। वरिष्ठ पत्रकार राजेश वर्मा कहते हैं, ‘अनुवाद हमेशा भाव का होता है। शब्द का अनुवाद करने की कोशिश करेंगे तो हमेशा गड़बड़ियां पैदा होंगी।’
एक और अहम बात यह है कि तीन-चार दशक पहले तक कई नामी-गिरामी साहित्यकार व्यापक स्तर पर अनुवाद किया करते थे। उनका काम बाकी लोगों के लिए मिसाल होता था। अशोक माहेश्वरी अनुवादकों की फेहरिस्त सामने रखते हुए मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा और द्रोणवीर कोहली जैसे नामवर साहित्यकारों का भी नाम लेना नहीं भूलते।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों आज नामचीन साहित्यकार अनुवाद की कला से दूर होने लगे हैं। इसके जवाब में अशोक माहेश्वरी कहते हैं, ‘आज साहित्यकारों के लिए अनुवाद रोजी-रोटी का विकल्प नहीं रह गया है। विश्वविद्यालय में पढ़ाने से लेकर फिल्म और टेलीविजन की दुनिया में पटकथा लेखन तक उनके लिए कई दरवाजे खुल गए हैं।’ दरअसल अनुवाद एक भाषा की सामग्री को दूसरी भाषा में बदल देने की कला भर नहीं है। इसके जरिए एक भाषा में कही गई बात, उसमें छिपे या प्रकट भावों को बहुत ही संजीदगी से दूसरी भाषा में अनूदित करना होता है। निरुपम कहते हैं, ‘अनुवाद के जरिए आप एक संस्कृति का भी अनुवाद कर रहे होते हैं। इसे समझे बगैर अच्छा अनुवाद नहीं किया जा सकता। अगर यह काम ठीक से नहीं होगा तो भाषा की समृद्धि का सवाल पीछे छूटेगा ही, साथ ही अनूदित किताबों के बाजार की संभावनाएं भी कमजोर होंगी।’ (साभार: “तहलका” पत्रकारिता विशेषांक)
स्वतंत्र मिश्र अनेक मीडिया संस्थानों में पढ़ाते हैं। वे एक वरिष्ठ और संवेदनशील पत्रकार हैं। लेखों की किताब ‘जल, जंगल और जमीन : उलट, पुलट, पर्यावरण’ प्रकाशित हो चुकी है।