महेंद्र नारायण सिंह यादव
सामान्य तौर पर अनुवाद को पत्रकारिता से अलग, और साहित्य की एक विशिष्ट विधा माना जाता है,
जो कि काफी हद तक सही भी है। हालाँकि हिंदी पत्रकारिता में अनुवाद कार्य एक आवश्यक अंग के रूप
में शामिल हो चुका है और ऐसे में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाई पत्रकारों के लिए अनुवाद कार्य में
निपुणता काफी हद तक आवश्यक हो चुकी है। भारतीय भाषाई पत्रकारों के लिए अनुवाद कार्य में दक्षता
एक विशिष्ट योग्यता तो हर हाल में है ही।
अनुवाद कार्य के लिए यह तो सामान्य तौर पर यह माना ही जाता है कि स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा,
दोनों में अनुवादक का पूरा अधिकार होना ही चाहिए। यह अनुवाद के विद्यार्थियों को सबसे पहले बताई
जाने वाली बात है, लेकिन व्यावहारिक रूप से मेरा अनुभव रहा है कि दोनों भाषाओं में बराबर अधिकार
की बात उतनी आवश्यक भी नहीं है और प्राय: अनुवाद के क्षेत्र में उतरने के इच्छुक लोगों को कुछ डराने
का काम भी करती है। मैं यह तो मानता हूँ कि दोनों भाषाओं पर जितना ज्यादा अधिकार होगा, अनुवाद
कार्य उतना ही अच्छा होगा, लेकिन मेरा यह भी मानना है कि लक्ष्य भाषा पर अधिकतर अनुवादकों का
अधिक अधिकार रहता ही है और स्रोत भाषा पर उसकी तुलना में कुछ कम, फिर भी तमाम अनुवादकों
के कार्य में गुणवत्ता की कोई कमी नहीं पाई जाती। बहुधा यह भी होता है कि स्रोत भाषा बोलने में
अनुवादक कुछ कमज़ोरी महसूस करते हैं, जबकि उसमें लिखने में उन्हें अधिक दिक्कत नहीं होती। उधर,
लक्ष्य भाषा में उनके लिखने और बोलने की समान क्षमता होती है, जिसका एक कारण लक्ष्य भाषा का
अधिकतर मातृ भाषा होना भी हो सकता है।
पहला सवाल यही उठता है कि अनुवाद की आवश्यकता क्यों पड़ती है। हमारे देश में अनेक भाषाएं बोली
जाती हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो सैकड़ों भाषाएँ बोली जाती हैं। सबके लिए सारी भाषाएं जानना
न तो संभव है और न ही व्यावहारिक, लेकिन हर भाषा में कुछ न कुछ ऐसी सामग्री प्रकाशित होती
रहती है, जो बाकी भाषा-भाषियों के लिए भी उपयोगी होती है। अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में और भारत में
मुख्य संपर्क तथा अकादमिक भाषा के रूप में अंग्रेजी का दर्जा निर्विवाद है। अधिकतर स्तरीय लेखन और
शोध अंग्रेजी में ही होता है या ऐसा माना जाता है। हालाँकि आज भी देश में अंग्रेजी जानने वालों की
संख्या बहुत कम ही है। कामचलाऊ अंग्रेजी से यह संभव नहीं है कि अंग्रेजी में लिखे सब कुछ का लाभ
उठाया जा सके। ऐसे में अंग्रेजी के लिखे को हिंदी में और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराकर ही
जन-जन तक पहुँचाया जा सकता है।
किसी पत्रकार के लिए अनुवाद कार्य अन्य साहित्यिक या तकनीकी अनुवाद के समान भारी या कठिन भी
नहीं होता। स्वाभाविक तौर पर यह समझा जा सकता है कि पत्रकारों को खबरों से संबंधित सामग्री ही
अनुवाद करने की आवश्यकता पड़ती है। यह कहा जा सकता है कि अधिकतर मामलों में उन्हें विषय
(अनुवाद की शब्दावली में डोमेन) की समस्या शायद ही कभी पड़ती हो। जिन समाचार सामग्रियों का
अनुवाद उन्हें करना पड़ता है, उसकी विषय-वस्तु ही नहीं, पृष्ठभूमि की भी अक्सर उन्हें जानकारी होती
ही है या पत्रकारिता का अनुभव बढ़ने के साथ ही वह जानकारी उनकी बढ़ती जाती है। ऐसे में अनुवाद
कर रहे पत्रकारों को उस सामग्री को अपनी भाषा में इस तरह से प्रस्तुत करना ही पर्याप्त होता है कि वो
पाठक, श्रोता या दर्शक को मूल भाषा जैसी ही सहज और स्वाभाविक लगे।
अनुवादक अगर पत्रकार है तो स्वाभाविक रूप से उसके पत्रकारिता कौशल पर भी विश्वास किया ही जाता
है। ऐसे में उसे अनुवाद करते समय कुछ अधिक स्वतंत्रता भी मिल जाती है और उस पर इतना भरोसा
किया जाता है कि वो किसी तथ्य को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत नहीं करेगा। अगर वह ऐसा करता भी है तो
यह उसके पत्रकारिता धर्म के विपरीत ही जाएगा।
भाषा में शब्द चयन ही सबसे महत्वपूर्ण होता है। अनुवाद में भी भाषा पर निपुणता दिखाने का जान-
बूझकर प्रयास नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि आजकल तो इसी बात की माँग बढ़ गई है कि भाषा
अधिक से अधिक सरल और सहज हो। जनसंचार माध्यमों में तो शिकायत यही रहती है कि उनमें बोलने
वाली भाषा भी आमतौर पर लिखने वाली भाषा ही रह जाती है। टीवी या रेडियो पर भाषा तो लक्ष्य
जनता तक उच्चरित रूप से पहुँच रही होती है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि वह भाषा आमतौर पर
लिखित रूप में ही होती है। ऐसे में स्क्रिप्ट, समाचार सामग्री आदि लिखने वाला अपने अंदर के लेखक
को वक्ता के रूप में मान ही नहीं पाता और भाषा में कठिन शब्द रह ही जाते हैं, जबकि थोड़े से प्रयास
से उन शब्दों को बहुत आसान शब्दों में बदला जा सकता है। जब मौलिक लेखन में यह समस्या निरंतर
बनी हुई है, तब सहज ही समझा जा सकता है कि अनुवाद कार्य में तो यह होगी ही। इस समस्या को
अनुवादक कितनी जल्दी और कितनी अच्छी तरह से दूर करता है, यही उसका कौशल है।
अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद में अक्सर सहज वाक्य प्रवाह की कमी देखने को मिलती है, तो उसका बड़ा
कारण यह है कि अंग्रेजी में वाक्य कुछ लंबे होते हैं, जबकि हिंदी में उतने लंबे वाक्यों का चलन नहीं है।
इस कारण से अनुवादक को अंग्रेजी वाक्य समझने में कुछ कठिनाई तो हो सकती है, लेकिन उसके पास
उस वाक्य को छोटे-छोटे वाक्यों में तोड़ने की विशेष सुविधा भी है। यही कारण है कि यह कठिनाई
आमतौर पर अब केवल सिद्धांत रूप में ही मानी जाती है और व्यवहार में अनुवादक को अधिक दिक्कत
नहीं होती। अनुवाद कार्य का अभ्यास बढ़ने के साथ-साथ तो यह समस्या और भी कम होती जाती है।
भाषाई प्रवाह सहज बनाए रखने के लिए सबसे ज्यादा ध्यान में रखने वाली बात यह है कि अंग्रेजी में
संयुक्त या मिश्र वाक्यों के पहले हिस्से को हिंदी में बाद में लिखना उचित हो सकता है। अंग्रेजी संयुक्त
या मिश्र के पहले हिस्से को बाद में और दूसरे हिस्से को पहले रखकर देखेंगे तो जो अनूदित वाक्य बहुत
उलझा सा लग रहा था, वह आपको बहुत सरल और एकदम स्पष्ट लगने लगेगा। हू-ब-हू अनुवाद करने
की धुन में और आत्मविश्वास की कमी के कारण नए अनुवादक संयुक्त या मिश्र वाक्यों में इस तरह का
फेरबदल करने पर ध्यान नहीं देते या हिचकते हैं। जब कभी अनूदित कॉपी देखकर कोई यह शिकायत
करे कि यह तो बिलकुल साफ अनुवाद की हुई कॉपी लग रही है, मौलिक तो लग ही नहीं रही, तब
अधिकतर मामलों में इसी तरह की चूक दोषी होती है।
व्यावसायिक और बाजार की बाध्यताओं के कारण हिंदी पत्रकारों को अक्सर कम वेतन या पारश्रमिक
मिलने की भी शिकायत होती है। कैरियर के शुरुआत में तो अक्सर ही यह दिक्कत होती है। ऐसे में हिंदी
पत्रकारों के लिए अनुवाद कार्य अतिरिक्त आमदनी और पहचान बनाने का भी बहुत अच्छा जरिया हो
सकता है। साहित्यिक अनुवाद में रोजगार के अवसर बहुत ज्यादा हैं। पारश्रमिक मिला-जुला रहता है
लेकिन काम पर्याप्त रहता है। खास बात यह भी है कि इसमें पूर्वानुभव होना काम शुरू करने के लिए
ज़रूरी नहीं होता। अक्सर प्रकाशक सैंपल टेस्ट लेता ही है और अगर आपका काम संतोषजनक है तो
बहुत संभव है आपको वह काम देने लगे। एक बार काम शुरू हो जाए तो उसे नियमित रूप से किया जा
सकता है। स्वतंत्र अनुवाद का कार्य बहुत सारे पत्रकार करते हैं। इसके कुछ पेशेवर लाभ भी होते हैं। अगर
किसी पत्रकार की एक-दो अनूदित किताबें भी प्रकाशित हो गईं तो उसका अपने मित्रों और कार्यालयों में
सम्मान बढ़ जाता है और उसे कुछ विशिष्टता हासिल हो जाती है। अगर किसी पत्रकार ने मौलिक लेखन
से कोई किताब छपवाई है तो उसका जो सम्मान बढ़ता है, कुछ कुछ उसी तरह की प्रतिष्ठा अनुवादक
को भी हासिल होने लगती है।
साहित्यिक अनुवाद में कई बार अंग्रेजी में लिखी कविताएँ भी मिलती हैं। ये कविताएँ स्वतंत्र रूप से या
गद्य के बीच में अंश के रूप में हो सकती हैं। अगर आपके अनुभव और दक्षता है तो इन कविताओं का
पद्यानुवाद ही करें और सीधे-सीधे गद्यानुवाद करके टालने का प्रयास न करें। अगर आपने पद्यानुवाद
कर दिया तो प्रकाशक आपके कौशल का लोहा मान लेगा। लेखक भी आपके प्रयास को सराहेगा, जो कि
आपके भविष्य के अवसर बहुत बढ़ा देगा।
अनुवाद का एक और क्षेत्र तकनीकी अनुवाद का है। तकनीकी अनुवाद से तात्पर्य वेबसाइट के अनुवाद,
किसी उत्पाद के साथ दी जाने वाली विवरणिका या मैनुअल के अनुवाद से है। इस तरह का कार्य
सामान्य तौर पर तो अनुवाद एजेंसियों के जरिए मिलता है। हाँ, ये अनुवाद एजेंसियाँ भारत की ही नहीं
विदेशी भी हो सकती हैं। स्वाभाविक है कि इस तरह का अनुवाद मात्रा में कम होता है लेकिन उसका
पारश्रमिक साहित्यिक अनुवाद से काफी ज्यादा होता है। अगर आप साहित्यिक या पत्रकारीय अनुवाद
करते रहते हैं तो तकनीकी अनुवाद में आपसे बेहतर कोई हो ही नहीं सकता। ध्यान सिर्फ यह रखना होता
है कि इसमें शब्द सीमा ही नहीं बल्कि स्थान या स्पेस का भी ध्यान रखना पड़ता है। तकरीबन जितनी
जगह में अंग्रेजी की जानकारी दी गई हो, उतनी ही जगह में हिंदी और अन्य भाषाओं की जानकारी को
समाहित करना होता है। इसमें पारिभाषिक शब्दावली का भी ध्यान रखना होता है। अक्सर वाक्यों की
संख्या और वाक्य का आकार भी उतना ही रखना पड़ता है। साहित्यिक अनुवाद की तरह इसमें अनुवादक
किसी भी व्यवसाय की तरह अनुवाद के कार्य में भी समय सीमा का ध्यान रखना ज़रूरी होता ही है।
पत्रकारिता के कार्य के रूप में जो अनुवाद कार्य करना पड़े, उसे तो मीडिया की आम रफ्तार से करना ही
होता है, लेकिन जो साहित्यिक या तकनीकी अनुवाद कार्य होता है, उसे भी निर्धारित समय सीमा में
निपटाना ही आपकी विश्वसनीयता बढ़ा सकता है। अगर समय पर या समय से पहले अनुवाद कार्य नहीं
निपटा पाए तो भविष्य में काम मिलने की उम्मीद छोड़ दीजिए। बेहतर हो, आप अनुवाद कार्य की समय
सीमा वही स्वीकारें जिसमें आप आसानी से काम निपटा सकें, बल्कि कुछ मार्जिन भी रखकर चलें तो
वैसे किसी पत्रकार के लिए पुस्तक लेखन और प्रकाशन बहुत ही सम्मान की बात मानी जाती है और
अधिकतर पत्रकारों का ये सपना भी होता है। अधिकतर पत्रकारों का तो यह सपना ही रह जाता है और
कुछ इसे साकार भी कर डालते हैं। अधिकतर पत्रकार इसलिए पुस्तक नहीं लिख पाते क्योंकि उनकी
पुस्तक छापने के लिए कोई तैयार नहीं होता। इसमें अनुवाद कार्य की महती भूमिका हो जाती है। किसी
प्रतिष्ठित प्रकाशक के पास अनुवादक के रूप में काफी काम कर लेने के बाद आप सचमुच अपनी दक्षता
के किसी विषय पर पुस्तक लिखने की स्थिति में आ जाते हैं। प्रकाशक आपकी दक्षता की सराहना भी
करता होता है, ऐसे में उसे अपनी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए मनाना आसान हो जाता है।