आलोक मेहता
अखबार में वैचारिक स्वतंत्रता और विविधता के लिए राजेंद्र माथुर ने अपनी सम्पादकीय टीम में कट्टर हिंदुत्ववादी, समाजवादी, कांग्रेसी,कम्युनिस्ट विचारों वाले सहायक सम्पादक रखे। प्रमुख सम्पादकीय स्वयं माथुर साहब ही लिखते अथवा उनके विचार और निर्णय पर आधारित होता। लेकिन सम्पादकीय पृष्ठ पर सहयोगी अथवा भिन्न राय रखने वाले लेखकों, पत्रकारों को प्रोत्साहित किया जाता। लखनऊ, जयपुर, पटना, मुंबई के सम्पादकों को भी लिखने की पूरी छूट देते रहे। समाचारों में तथ्य और प्रमाणों पर देश के राष्ट्रपति प्रधान मंत्री से भी जुडी खबरें सारे खतरे मोल लेकर छपने देते थे। इतना साहस मैंने अपने पचास वर्ष की पत्रकारिता में किसी संपादक का नहीं देखा
आधुनिक हिंदी पत्रकारिता के दौर पर कुछ भी लिखने के लिए अपने अनुभवों को ही आधार बनाना जरूरी है। सैद्धांतिक बातें तो बहुत लिखी-पढ़ी जाती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संक्रांति काल में बदलाव वाले वरिष्ठ हिंदी संपादक अज्ञेय, मनोहर श्याम जोशी और राजेंद्र माथुर का अंग्रेजी भाषा पर इतना अधिकार था कि वे अंग्रेजी प्रकाशनों में रह कर भी सर्वोच्च पद या अधिक आर्थिक लाभ पा सकते थे।
अज्ञेयजी और मनोहर श्याम जोशी ने अंग्रेजी के पत्र-पत्रिका का संपादन भी किया। माथुर साहब ने समय-समय पर अंग्रेजी अखबारों में लेखन अवश्य किया। दिल्ली आने से पहले भी माथुर साहब के लेख ‘टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में छपे थे। उन्हें भारत सरकार ने दूसरे प्रेस आयोग का सदस्य भी बनाया था। आपातकाल से पहले अज्ञेय जी ने ‘एक्सप्रेस समूह‘ से एक अंग्रेजी साप्ताहिक का संपादन किया था। जोशी जी को साप्ताहिक ‘हिंदुस्तान‘ में रहते हुए देश के पहले अंग्रेजी टैबलॉयड निकालने का दायित्व भी मिला। बाद में उसे वीकली किया गया और उनके हटने के बाद वो बंद हो गया।
दैनिक पत्रकारिता में माथुर साहब का नेतृत्व आने के बाद देश के अन्य प्रकाशन संस्थानों ने हिंदी अखबारों को थोड़ा बदलना प्रारंभ किया। वैसे खुद राजेन्द्र माथुर ने पत्रकारिता का पूर्णकालिक काम 1970 में शुरू किया। इससे पहले वह इंदौर के एक कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। साथ में ‘नई दुनिया‘ के लिए बहुत कम उम्र से एक स्तम्भ लिखते थे, कई बार सम्पादकीय भी लिखते थे। लेकिन जब ‘नई दुनिया‘ का एक तरह से विस्तार होना शुरू हुआ तो राजेंद्र माथुर जी को कहा गया कि आप पूरी तरह से अखबार में आ जाएं। उन्होंने प्रधान संपादक राहुल बारपुतेजी के साथ काम किया और फिर वे स्वयं प्रधान संपादक हो गए। वे करीब 27 वर्ष तक ‘नई दुनिया‘ से जुड़े रहे रहे।
उस समय पडोसी राज्यों में ‘आज’ बनारस और लखनऊ से ‘स्वतंत्र भारत’ निकलता था। राजस्थान में ‘राजस्थान पत्रिका‘ था। बिहार में ‘आर्यावर्त‘ और ‘प्रदीप’ प्रमुख थे। राजधानी दिल्ली में दैनिक ‘हिंदुस्तान‘ और ‘नवभारत टाइम्स‘ बड़े संस्थानों के बड़े अखबार थे। उस दृष्टि से उनमें भी पारंपरिक पत्रकारिता का प्रभाव था। राजनीति के साथ संस्कृति और परम्पराओं को अधिक महत्व दिया जाता था। यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता आंदोलन, कांग्रेस, समाजवादी, वामपंथी विचारों के साथ साहित्यिक पुट अधिक रहा। हिंदी के संपादक को साहित्यकार अधिक समझा जाता था।
माथुर जी ने ‘नवभारत टाइम्स‘ में विभिन्न वैचारिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को, अच्छे पत्रकारों-साहित्यकारों को अपनी टीम में जोड़ा। यह उनकी उदारता थी कि जब टाइम्स संस्थान अपने पुराने हिंदी सम्पादकों के लिए संकट पैदा कर रहा था, तब उन्होंने रघुवीर सहाय, कन्हैयालाल नंदन जैसे वरिष्ठ सम्पादकों को ‘नवभारत टाइम्स‘ में सहायक संपादक और फीचर संपादक रखने के लिए स्वीकृति दी
राजेंद्र माथुर इंदौर में रहते हुए भी देश दुनिया की खबरों, घटनाओं, पुस्तकों पर नजर रखते हुए आधुनिक दृष्टि से अपनी अनोखी भाषा शैली में लिखते थे। उनके लेखन में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति, आर्थिक स्थितियां, समाज, दर्शन, विज्ञान जैसे सभी विषयों का गहराई से विश्लेषण होता था। इसे संयोग अथवा सौभाग्य कहूंगा कि 1970 में उनके अखबार में पूर्णकालिक होने के बाद अंशकालिक संवाददाताओं की कार्यशाला में मेरी रिपोर्ट को सबसे अच्छा माना गया और कुछ सप्ताह बाद बुलाकर इंदौर के सम्पादकीय विभाग में काम करने की नियुक्ति हो गई। मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। लेकिन डेढ़ वर्ष बाद दिल्ली में हिंदुस्तान समाचार में संवाददाता का अवसर मिलने पर मैं दिल्ली आ गया। फिर भी माथुर साहब और नई दुनिया से मेरा संपर्क सम्बन्ध भी बना रहा।
समाचार एजेंसी के बाद मुझे पहले साप्ताहिक हिंदुस्तान में मनोहर श्याम जोशी के साथ काम करने का अवसर मिला और 1979 से जून 1982 तक जर्मन रेडियो में हिंदी संपादक के रूप में काम करने का अनुभव हुआ। जर्मनी से वापस आने के बाद राजेन्द्र माथुर जी से मिलने मैं इंदौर गया। इसके पहले उनसे टाइम्स संस्थान में बातचीत शुरू हो चुकी थी कि वे ‘नवभारत टाइम्स‘ में आएं। मैंने भी उनसे आग्रह किया कि वे अब इंदौर से बाहर निकलें। कारण इंदौर में रहकर जितना किया जा सकता था, वे कर चुके थे। उन्होंने यह भी प्रस्ताव दिया था कि इंदौर में आलोक मेहता मेरे विकल्प हो सकते हैं। लेकिन मैंने स्पष्ट कर दिया था कि न मैं अभी इंदौर जाना चाहता हूं और न ही संपादक बनना चाहता हूं। मेरी भी ‘टाइम्स समूह‘ में आने की बात चल रही थी। उन्होंने कहा कि तब आप पहले काम शुरू कर दो और जल्द ही मैं भी आ जाऊंगा। इस तरह पहले मैंने ‘दिनमान‘ में राजनीतिक संवाददाता के रूप में काम किया और अक्टूबर में माथुर साहब के बाद ‘नवभारत टाइम्स‘ के लिए भी लिखता रहा। इसके कोई एक साल बाद मैंने औपचारिक रूप से ‘नवभारत टाइम्स‘ जॉइन किया।
माथुर जी ने नियुक्ति के कुछ हफ्ते बाद ही कहा था कि अभी अखबार जिस तरह से छपते हैं, हमें लगता है कि प्रबंधन को ये मशीनें समुद्र में डाल देनी चाहिए। मतलब यह कि उसे कैसे आधुनिक बनाया जाए। श्रेष्ठ समाचार सम्पादकीय सामग्री के साथ अखबार अच्छा छापा हुआ हो यह उनका लक्ष्य था। दूसरा उनका मानना था कि मैं ‘नवभारत टाइम्स‘ का संपादक तो बन गया लेकिन केवल दिल्ली या मुंबई से छपने वाले अखबार को राष्ट्रीय कैसे माना जा सकता है। तब मुंबई का संस्करण उज्जैन या इंदौर पहुंचता था वह भी दो दिन बाद, तीन दिन बाद। दिल्ली का अखबार पडोसी राज्यों-शहरों में एक-दो दिन में मिलता था। उनका कहना था कि राष्ट्रीय अखबार कैसे हुआ? राष्ट्रीय संस्करण तो तभी होगा, जब देश के हर राज्य में उसका संस्करण हो। यह एक तरह से संकल्प उन्होंने आने के बाद 82-83 में लिया। उसके बाद प्रबंधन भी इस बात को धीरे-धीरे समझने लगा कि विस्तार किया जाए। सो पहले लखनऊ, जयपुर, पटना संस्करण, जयपुर संस्करण माथुर साहब ने शुरू करवाए।
इस विस्तार से सैकड़ों पत्रकार तैयार हुए। इसलिए मैं इस काल को आधुनिक पत्रकारिता का स्वर्णिम काल कहता हूं। स्वर्णकाल इसलिए कि राजेन्द्र माथुर ने पत्रकारिता को वह दिशा दी कि हिंदी के सम्पादक भी अंग्रेजी सम्पादक के समकक्ष हैं। दिल्ली आने से पहले हीं उन्हें भारत सरकार ने दूसरे प्रेस आयोग का सदस्य मनोनीत किया था। बाद में नवभारत में रहते हुए उन्होंने एडिटर्स गिल्ड में महासचिव के रूप में सम्पादकों की स्वतंत्रता, आदर्शों, नैतिक मूल्यों और आचार संहिता के लिए सक्रिय भूमिका निभाई। इसी कारण बी.जी वर्गीज, अजित भट्टाचार्जी, कुलदीप नायर, मामन मैथ्यू जैसे वरिष्ठ सम्पादकों ने उन्हें हमेशा सम्मान दिया ।
माथुर जी ने ‘नवभारत टाइम्स‘ में विभिन्न वैचारिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को, अच्छे पत्रकारों-साहित्यकारों को अपनी टीम में जोड़ा। यह उनकी उदारता थी कि जब टाइम्स संस्थान अपने पुराने हिंदी सम्पादकों के लिए संकट पैदा कर रहा था, तब उन्होंने रघुवीर सहाय, कन्हैयालाल नंदन जैसे वरिष्ठ सम्पादकों को ‘नवभारत टाइम्स‘ में सहायक संपादक और फीचर संपादक रखने के लिए स्वीकृति दी। सहायजी तो अधिक समय इस पदावनति को स्वीकार कर नहीं रह सके, लेकिन नंदनजी एक डेढ़ वर्ष तक रविवारीय निकालते रहे और बाद में सन्डे मेल के प्रधान संपादक बनकर चले गए। फिर भी माथुर साहब के साथ उनके सम्बन्ध अच्छे ही रहे।
माथुरजी ने तो मुंबई संस्करण में संपादक का पद खाली होने पर मुझसे ही मनोहर श्याम जोशीजी को प्रस्ताव भिजवाया। फिर मेरे साथ उनसे भेंट भी की। तब जोशीजी ‘हम लोग‘,‘बुनियाद‘ जैसे टीवी कार्यक्रम और फ़िल्म में भी लिख रहे थे। लेकिन वह मुंबई जाकर अखबार के लिए वहीं जाकर रहने के लिए तैयार नहीं हुए। वह दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहकर लिखना-पढ़ना चाहते थे। तब उन्होंने नवभारत टाइम्स के लिए ‘मेरा भारत महान‘ शीर्षक से स्तम्भ अवश्य लिखा।
इसी तरह देश के सबसे नामी व्यंग्यकार शरद जोशी ने ‘प्रतिदिन’ शीर्षक से रोजाना स्तम्भ लिखा। करीब चार सौ शब्दों का यह व्यंग्य अंतिम पृष्ठ पर छपता था, लेकिन इतना लोकप्रिय था कि कई पाठक अखबार आने पर पहले पन्ने के बजाय अंतिम पृष्ठ पर उनका स्तम्भ पढ़ते थे। शरद जोशी इंदौर से ही माथुर साहब के घनिष्ठ मित्र भी थे और नौकरी उन्हें रास नहीं आती थी। इसलिए मुंबई में रहते हुए लिखने-पढ़ने का काम करते रहे। यह मित्रता इतनी गहरी थी कि माथुर साहब के आकस्मिक निधन के कुछ महीनों बाद ही शरद जोशीजी दुनिया से अलविदा कहकर उनका साथ देने चले गए ।
अखबार में वैचारिक स्वतंत्रता और विविधता के लिए माथुर साहब ने अपनी सम्पादकीय टीम में कट्टर हिंदुत्ववादी, समाजवादी, कांग्रेसी,कम्युनिस्ट विचारों वाले सहायक सम्पादक रखे। प्रमुख सम्पादकीय स्वयं माथुर साहब ही लिखते अथवा उनके विचार और निर्णय पर आधारित होता। लेकिन सम्पादकीय पृष्ठ पर सहयोगी अथवा भिन्न राय रखने वाले लेखकों, पत्रकारों को प्रोत्साहित किया जाता। लखनऊ, जयपुर, पटना, मुंबई के सम्पादकों को भी लिखने की पूरी छूट देते रहे। समाचारों में तथ्य और प्रमाणों पर देश के राष्ट्रपति प्रधान मंत्री से भी जुडी खबरें सारे खतरे मोल लेकर छपने देते थे। इतना साहस मैंने अपने पचास वर्ष की पत्रकारिता में किसी संपादक का नहीं देखा। ऐसा तो नहीं था कि बाहरी या आंतरिक दबाव नहीं आते थे, लेकिन वह तो जैसे शांत भाव से जहर का भी घूंट पीकर समाज और राष्ट्र को अमृत देने की कोशिश करते रहे।
शायद अपना आक्रोश बाहर व्यक्त न करने के कारण बहुत कम आयु (करीब 56) में हृदय गति रुकने से उनका असमय निधन हो गया। उनके जाने से धीरे-धीरे अखबार की दशा-दिशा बदलने लगी, कुछ ही वर्षों में जयपुर, लखनऊ, पटना संस्करण भी बंद हो गए । देश के हर क्षेत्र से संस्करण निकालकर हिंदी का वास्तविक राष्ट्रीय अखबार निकालने का सपना अब तक पूरा नहीं हो सका। हां, उनके द्वारा चुने गए अधिकांश पत्रकार आज देश के हर प्रमुख अखबार में संपादक अथवा अन्य पदों पर काम करते हुए उन्हीं आदर्शों मूल्यों को निभाने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन सूर्य के बिना चांद और सितारों की रोशनी की सीमाएं रहेंगी। स्वर्ण युग सपने की तरह ही यादगार बना रहेगा।
साभार: समाचार4मीडिया
Further reading:
https://economictimes.indiatimes.com/remembering-rajendra-mathur/articleshow/6268793.cms
https://www.dalailama.com/news/2017/rajendra-mathur-memorial-lecture