हर्षदेव।
समाचार लेखन के लिए पत्रकारों को जो पांच आधारभूत तत्व बताए जाते हैं, उनमें सबसे पहला घटनास्थल से संबंधित है। घटनास्थल को इतनी प्रमुखता देने का कारण समाचार के प्रति पाठक या दर्शक का उससे निकट संबंध दर्शाना है। समाचार का संबंध जितना ही समीपी होता है, पाठक या दर्शक के लिए उसका महत्व उतना ही बढ़ जाता है। यदि न्यू यॉर्क या लंदन में रह रहे भारतीय प्रवासी को वहां के अखबार में अटलांटिक महासागर में चक्रवात की खबर मिलती है और उसी पृष्ठ पर उसे भारत में आंध्र प्रदेश तथा ओडिशा में भीषण तूफान की खबर दिखाई देती है, तो जाहिर है कि पहले वह भारत से संबंधित समाचार को पढ़ेगा और उसके प्रभाव को पूरी अहमियत के साथ महसूस करेगा। यहां तक कि यदि उन क्षेत्रों में उसके मित्र अथवा संबंधी रहते होंगे, तो वह उनकी कुशल-क्षेम जानने का प्रयास भी करेगा।
भूगोल की भूमिका किसी घटना से संबंधित समाचार के प्रभाव तक ही सीमित नहीं है, समाचार की रचना में भी भूगोल अहम किरदार निभाता है। समाचार क्या है? इसके उत्तर में कह सकते हैं कि वह मानवीय गतिविधियों और विश्व में घटने वाली प्राकृतिक घटनाओं का प्रतिबिंबीकरण है। जहां भी उपर्युक्त घटनाएं या गतिविधियां होने की जानकारी मिलेगी, संवाददाता सीधे वहीं का रुख करेगा। खेल संवाददाताओं के संदर्भ में हम पूरी तरह इस सत्यता को परिघटित होता हुआ देख सकते हैं। कोई भी संवाददाता रेडियो या टेलीविजन सुन-देखकर कभी भी मैच की खबर नहीं लिखता। वह स्वयं मैदान पर जाता है, खेल और खिलाड़ियों को देखता है और अपने समाचार में उस आंखों देखे वर्णन को लिखता है। इसी प्रकार, राजनीतिक संवाददाताओं को स्वयं संसद अथवा सम्मेलनों में उपस्थित होकर समाचारों का संकलन करना होता है।
जनसंचार माध्यमों के समकालीन विश्लेषक प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित समाचारों के संकलन की उपर्युक्त व्याख्या को बेहद सपाट और सरलीकृत बता सकते हैं। उनके दृष्टिकोण के अनुसार, किसी समाचार का संघटन कई प्रक्रियाओं का सम्मिलित परिणाम होता है, इनमें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त वक्तव्य, संवाददाता की अपनी परख, सामाजिक और नैतिक दृष्टि से उसके प्रति दृष्टिकोण, पेशेगत कुशलता, व्यावसायिक आवश्यकता और समाचार की प्रस्तुति का उद्देश्य शामिल है। पत्रकार, विशेष रूप से अन्वेषी पत्रकार, काफी पहले से ही यह महसूस करते रहे हैं कि समाचार लेखन घटनाओं के सपाट वर्णन से कहीं बढ़कर है और तथ्य तथा सही संदर्भों को जानने के लिए घटनाक्रम की गहराई में जाने की आवश्यकता होती है। इस दृष्टिकोण के मतानुसार, समाचार किसी लौह अयस्क की तरह है, जिसे खोजने, खदान से निकालने और फिर संश्लेषित करने की आवश्यकता होती है। इस दृष्टिकोण के मतावलंबी पत्रकार गर्वीले स्वर में स्वयं को ‘खोजी संवाददाता’ कहना पसंद करते हैं, जो सूचना-समाचार नामक रत्न को ढूंढ़ निकालता है। इस प्रकार का संवाददाता जीवनभर यायावर बना रहता है और तथ्यान्वेषण में संलग्न रहता है।
समाचार संकलन की यह शैली, जिसमें संवाददाता से समाचार स्रोत तक पहुंचने और वहां विभिन्न व्यक्तियों से विस्तृत बातचीत करके तथ्य जुटाने की अपेक्षा की जाती है, पत्रकार को एक विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करती है। इससे पत्रकार की शख्सियत को अतिरिक्त महत्व मिल जाता है। इसके लिए जरूरी है कि संवाददाता सरकारी और महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों में अधिकारियों तथा कामकाजी कर्मचारियों के साथ अच्छे तालमेल के संबंध स्थापित करे। ऐसे संवाददाता के लिए अन्य वांछित तत्वों में जिज्ञासा, आलोचनात्मक दृष्टि और साधनों की प्रचुरता शामिल है।
एक संवाददाता के लिए भौतिक वास्तविकता यह भी है कि एक समय पर वह एक ही स्थान पर समाचार संकलित कर सकता है। इसी के दृष्टिगत उसके लिए कार्यक्षेत्र (ठमंज) निर्धारण की आवश्यकता हुई। निर्धारित कार्यक्षेत्र में काम करने के अभ्यास से पत्रकार समाचार संकलन की कला में निपुण होता है और साथ ही उसे समाचार व्यवसाय की परंपरा तथा संस्कृति का ज्ञान भी होता चलता है। नवोदित संवाददाता पुलिस थाने, अदालत, नगर निगम, सरकारी अस्पताल और अन्य ऐसे ही सार्वजनिक स्थलों पर हर दिन जाकर अपने लिए समाचार स्रोतों को विकसित करता है, खबर को जानने-समझने की कुशलता हासिल करता है और अपनी लेखन कला को भी मांजता चलता है। स्पष्टतः भूगोल का यही महत्व भी है।
समाचार प्रतिष्ठानों में पत्रकारों की वरिष्ठता और प्रतिष्ठा को स्थापित करने में भूगोल सदैव अहम भूमिका निभाता है। टेलीग्राफ प्रणाली के उपयोग में आने के बाद दूरदराज स्थानों-राजधानियों, महानगरों, व्यावसायिक केन्द्रों पर सभी प्रमुख समाचार-पत्रों और एजेंसियों ने अपने कार्यालय बनाए और वहां संवाददाता नियुक्त किए। जिन पत्रकारों का कार्य मुख्यालय तक सीमित रहा, उनके लिए भी घटनास्थल पहुंचकर समाचार जुटाना निर्धारित दायित्व में ही शामिल रहा। जिन समाचार प्रतिष्ठानों के प्रबंधन ने अपने खर्च सीमित रखने के लिए संवाददाताओं की यात्राओं पर अंकुश रखा, उन्होंने भी समाचार संकलन के लिए टेलीफोन और फैक्स जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराना आवश्यक समझा। पत्रकारों का यह दावा निर्विवाद रूप से सही है कि घटनास्थल पर जाकर समाचार संकलन का महत्व सर्वोपरि है। अनेकानेक समाचार-कथाएं इस प्रकार की होती हैं, जिनका तथ्यपरक वर्णन और विवेचन संवाददाता तभी सही ढंग से कर सकता है, जब वह घटना का प्रत्यक्षदर्शी बने और स्वयं उसे महसूस करके, उससे जुड़कर खबर को लिखे। यद्यपि इस प्रक्रिया में भी एक विशेष दोष है और वह यह कि ऐसे संवाददाता खबर का दर्पण या आईना बनकर रह जाते हैं, वे उसका विश्लेषण नहीं कर पाते। अब इंटरनेट युग में बढ़ते आर्थिक दबावों ने पत्रकारिता को अनिवार्य रूप से तथ्यपरक या वस्तुनिष्ठ बना दिया है।
भूगोल नामक तत्व ने समाचार की परंपरागत परिभाषा को अन्य कई प्रकार से भी प्रभावित किया। सरकारी एजेंसियों और राजनीति से संबंधित समाचार हमेशा पाठक के लिए अहम होते हैं, क्योंकि वे उसके दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं। इन समाचारों के संकलन के लिए संवाददाता को निरंतर सरकारी प्रतिष्ठानों के संपर्क में रहना होता है। पुलिस थाने या निगम कार्यालय इसके उदाहरण हैं, जहां घटनाएं निरंतर दर्ज या घटित होती रहती हैं। पत्रकारिता के नए संदर्भों ने दर्शाया कि इस वैचारिक मान्यता में कुछ महत्वपूर्ण दोष हैं। सबसे बड़ा दोष यह है कि स्थानीय समाचारों की तलाश को अधिक प्रमुखता देने के कारण बहुत-सी आम खबरें संवाददाता की नजर से ओझल रह जाती हैं। निश्चित रूप से ये समाचार जनजीवन से सीधा संबंध रखते हैं। उदाहरण के लिए, 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध और 1980 के दशक के पूर्वार्द्ध में जब ऊर्जा संबंधी आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ, तो उसके समाचार बहुत ही महत्वहीन और अधूरे ढंग से पेश किए गए।
इसका कारण उस समय के संवाददाताओं में इस विषय के प्रति जानकारी, रुचि और उसके आर्थिक प्रभावों की अज्ञानता थी। बाद में जब इस संकट ने राजनीतिक आकार ग्रहण कर लिया, तब जाकर इन समाचारों को मुखपृष्ठ पर स्थान मिलना आरंभ हुआ। यहां आकर समाचार संकलन की वह परंपरागत परिभाषा पिछड़ी हुई और एक हद तक अनुपयोगी मानी गई। वस्तुतः यह द्वंद्वात्मक स्थिति है, क्योंकि समाचारों और भूगोल के पारस्परिक संबंधों को कभी भी नकारा नहीं जा सकता, न आज और न भविष्य में। समाचारों की दृष्टि से सरकारी सूचनाओं व जानकारियों का जनता तक पहुंचाना उसकी आवश्यकता भी है और अधिकार भी। सरकारी निर्णय हर नागरिक के जीवन को प्रभावित करते हैं। निगरानी के अभाव में नौकरशाही निकम्मी और भ्रष्ट हो जाती है। अधिकारी अनसुनी करने लगते हैं। संवाददाता पत्रावलियों का अवलोकन करके, अधिकारियों से मिलकर और कर्मचारियों से जानकारियां जुटाकर ही समाचार के रूप में जनोपयोगी तथ्य जनता के समक्ष प्रस्तुत कर सकते हैं।
इंटरनेट इस परिदृश्य को काफी-कुछ बदल चुका है और यह प्रक्रिया अभी जारी है। नेट ने ‘आभासी भूगोल’ की रचना कर दी है, जिसने ‘स्थान’ के परंपरागत अर्थ को नई परिभाषा दे दी है और घटनास्थल पर जाकर समाचार संकलन का महत्व बहुत सीमित कर दिया है। अब सरकारी पत्रावलियों का ज्यादातर विवरण नेट पर उपलब्ध है। इस सामग्री को जुटाने के लिए घटनास्थल की ‘यात्रा’ निरर्थक हो चुकी है। कहीं भी बैठकर सरकारी निर्णयों का विवरण जुटाया जा सकता है। यहां तक कि कुछ संवाददाताओं के विशेष कार्यक्षेत्र को अपवादस्वरूप छोड़ दें, तो अब राजधानी में समाचार संकलन का भी कोई अतिरिक्त महत्व नहीं रह गया है। घर पर कम्प्यूटर है और इंटरनेट की सुविधा है, तो क्लिक करने के साथ ही वांछित जानकारी उपलब्ध है। ‘घटनास्थल का भूगोल’ नेट में समाहित हो चुका है।
यदि दुराग्रहवश कोई संवाददाता सूचना-सामग्री के लिए स्वयं स्रोत तक जाने का उद्यम करता भी है, तो उसका एक नुकसान यह है कि अपने कार्यालय में उसे जो अन्य स्रोत और संसाधन उपलब्ध हैं, उनसे वह वंचित रह जाता है। समय और घटनास्थल पर उपस्थित रहने की परंपरागत परिभाषा के विपरीत आज कोई भी पत्रकार इंटरनेट पर एकसाथ कितने ही स्थानों के आंकड़े बेहद तेज रफ्तार के साथ जुटा सकता है, जबकि संबंधित कार्यालय में पहुंचकर उसे एकांगी और सीमित जानकारियों से ही संतोष करना पड़ेगा। इससे उसका समय और ऊर्जा दोनों नष्ट होंगी। इंटरनेट की सूचना-क्रान्ति ने पत्रकार के लिए समूचे संसार की सूचनाओं को कम्प्यूटर के परदे पर प्रस्तुत कर दिया है।
ऑनलाइन न्यूज ने किसी विशेष समाचार-कथा के अनुसंधान के लिए भी संवाददाताओं के यात्रा विकल्पों को बहुत ही सीमित कर दिया है। ई-मेल ऐसा नया स्रोत है, जिसकी सहायता से पत्रकार अपने क्षेत्रीय कार्यालयों तथा अन्य स्रोतों से आवश्यक जानकारियां हासिल कर सकता है, उस विषय के ऐसे विशेषज्ञों से भी विभिन्न सूचनाएं प्राप्त कर सकता है, जो देश से बाहर रहते हैं। इसी प्रकार किसी सूचना या समाचार की पृष्ठभूमि जानने के लिए संवाददाता को भारी-भरकम पत्रावलियों में सिर खपाने की जरूरत नहीं रह गई है। विश्व के तमाम बड़े और समृद्ध पुस्तकालय भी आज इंटरनेट से जुड़े हुए हैं। दिन या रात में कभी भी पुस्तकालयाध्यक्ष से संपर्क स्थापित करके वहां के अभिलेखागार से वांछित जानकारियां जुटाई जा सकती हैं।
परंपरागत और इंटरनेट युग की पत्रकारिता में एक बड़ा अंतर यह है कि पहले संवाददाता को अपने स्रोत के रूप में संबंधित या क्षेत्रीय व्यक्तियों पर निर्भर करना पड़ता था। संवाददाता कई बार परस्पर विरोधी पक्षों से बात करके मान लेता था कि समाचार संकलन का कार्य पूरा हो गया है। अब इंटरनेट पर अधिकाधिक सूचनाएं उपलब्ध हैं, तो कोई भी पत्रकार किसी भी प्रकार का तथ्य प्राप्त करने के लिए आंकड़े, सांख्यिकीय विवरण तथा अन्य दस्तावेज एक क्लिक से हासिल कर सकता है। किसी भी समाचार की बुनावट के लिए यही मूलभूत सामग्री होती है।
संवाददाता को इंटरनेट का एक अतिरिक्त लाभ और है। उसे अब आधी-अधूरी जानकारियों, अधूरी स्मृतियों, दोषपूर्ण दृष्टिकोण और स्वार्थवश भ्रमित करने वाले मानव स्रोतों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं रह गई है। आज संवाददाता स्वयं अनुसंधान और विश्लेषण करके तथा उससे निष्कर्ष निकालकर अधिक विश्वसनीय व तथ्यपरक समाचार तैयार करने में सक्षम हो चुका है। एक समाचार के लिए तथ्य जुटाने, उसे विकसित करने और स्रोत पर अनावश्यक निर्भर न होने की क्षमता उसने प्राप्त कर ली है। हम इस तरह भी कह सकते हैं कि पत्रकार आज पहले की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी, आधुनिक, सूक्ष्मदर्शी और सबल औजारों से सन्नद्ध है। उसके समाचारों में गणित और विश्लेषण ज्यादा प्रभावी हो गया है। वह आंकड़ों का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत कर सकता है, जो उसके समाचार को गहराई तथा अर्थवत्ता प्रदान करते हैं। वह अपनी सूचनाओं का नए तरीके से वर्गीकरण कर सकता है, उन्हें आवश्यकतानुसार नई पहचान दे सकता है और उनके आधार पर नए निष्कर्ष निकाल सकता है।
सही है कि सूचना-संचार के लिए आज का दौर संक्रमण का है। एक ओर, जहां अभी पत्रकारिता परंपरागत औजारों और तौर-तरीकों को छोड़कर विश्लेषणात्मक लेखन-शैली के नए कौशल की ओर बढ़ रही है, वहीं अभी यह भी नहीं कहा जा सकता कि संवाददाताओं ने पूर्व प्रचलित परिपाटी से मुक्ति पा ली है। आज भी समाचार कक्ष में समाचारों के चयन और उनकी कार्यसूची का फैसला लेते समय उन्हीं बिंदुओं पर जोर दिया जाता है, जो स्थानीयता, मानवीय संबंधों और दैनंदिन घटनाओं से ताल्लुक रखते हैं। इसके बावजूद पत्रकारिता की कार्य-संस्कृति में परिवर्तन और उसके प्रभावों का एक स्पष्ट परिणाम हम उन अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के रूप में देख सकते हैं, जो हाल के वर्षों में उन्हीं समाचार-कथाओं को प्राप्त हुए, जिनकी रचना इंटरनेट जैसे स्रोतों के आधार पर की गई। वस्तुतः निरंतर चलते रहने वाले सर्वेक्षणों से यह तथ्य बार-बार प्रमाणित हो रहा है कि युवा पाठक समाचार की नई रचना-शैली की ओर अधिक आकृष्ट है। उसे हर दिन के घटनाक्रम के साथ-साथ सूचनारंजन प्रधान समाचार अधिक भाते हैं। इन समाचारों में भी स्थानीयता का पुट आवश्यकीय तत्व के रूप में विद्यमान रहना चाहिए।
कनाडा में हाल के एक सर्वेक्षण के अनुसार, सामयिक समाचारों के लिए वहां के 80 प्रतिशत नागरिक सायंकालीन टेलीविजन समाचार बुलेटिनों को देखना पसंद करते हैं। इस सर्वेक्षण के अन्य निष्कर्षों के अनुसार, कनाडा की 76 प्रतिशत आबादी अब भी दैनिक समाचार-पत्र पढ़ती है, जबकि केवल 26 प्रतिशत लोग साप्ताहिक समाचार-पत्रिकाएं और 20 प्रतिशत लोग इंटरनेट का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार के निष्कर्ष अमेरिका में भी सामने आए। 1980 के दशक तक जहां समाचार-पत्र अमेरिकियों का सबसे विश्वसनीय और लोकप्रिय माध्यम था, वहीं 1990 के दशक के बाद से उसमें निरंतर गिरावट दर्ज हो रही है।
21वीं शताब्दी के आरंभ से केवल दो वर्ष पूर्व 69 प्रतिशत अमेरिकियों का कहना था कि टेलीविजन समाचार बुलेटिन उनका मुख्य स्रोत है, जबकि 53 प्रतिशत अमेरिकी यू ट्यूब व अन्य माध्यमों तथा केवल 23 प्रतिशत समाचार-पत्रों को ही अपना मुख्य माध्यम मानते थे। पाठकों और दर्शकों की रुचि में इस परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारण पत्रकारों, संवाददाताओं, समीक्षकों तथा समाचार प्रस्तोताओं के प्रति घटती विश्वसनीयता रही है। इसकी वजह से आम जनता में समूचे जनसंचार माध्यमों के प्रति नकारात्मकता की एक नई धारणा ने स्थान बना लिया है। विश्वसनीयता का यह संकट नया है और इसके तीन प्रमुख कारक माने जा सकते हैं। पहला, तकनीकी अभिनवीकरण (Technological Innovation), दूसरा, सामाजिक संबंधों में परिवर्तन और तीसरा, समकालीन राजनीतिक सूचना संचार-व्यवस्था के प्रति पत्रकारीय दृष्टिकोण में बदलाव। हाल के वर्षों में तमाम गैरतानाशाही और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं में जनसंचार को आकर्षित और प्रभावित करने के लिए राजनीतिक दल ऐसे प्रपंच और हथकंडे अपनाने लगे हैं, जिनके प्रति स्वयं संचार माध्यमों की संदिग्धता बनी रहती है। समाचारकर्मियों के लिए यह निर्णय कठिन हो जाता है कि उनकी घोषणाओं, कार्यक्रमों और उद्देश्यों को समाचार का रूप दिया जाए या नहीं, क्योंकि आम नागरिकों के लिए उनसे इतर बहुत सारे मुद्दे ऐसे होते हैं, जो समाज के लिए कहीं अधिक उपयोगी और हितकर हैं।
जनसंचार के संबंध में हुए सभी अध्ययन इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि संचार माध्यमों का मानव समुदाय पर सीधा और उल्लेखनीय प्रभाव होता है, किन्तु इस प्रभाव का स्वरूप और दायरा कितना है, इस पर अभी तक कोई सहमति नहीं बन सकी है। इसके बावजूद पत्रकारिता का दायित्व है कि निहित स्वार्थों के लिए राजनीतिक दलों को जनसंचार की शक्तियों का उपयोग करके जनता को भरमाने के प्रयासों में सफल न होने दिया जाए।
हर्षदेव नवभारत टाइम्स के समाचार संपादक रहे चुके हैं. यह सामग्री लेखक की प्रकाशनाधीन पुस्तक ‘ऑनलाइन पत्रकारिता’ के एक अध्याय से ली गई है।
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