इरा झा।
उग्रवाद प्रभावित इलाकों में रिपोर्टिंग के लिए संयम, कल्पनाशीलता, धैर्य, जी-तोड़ मेहनत और अटूट लगन की आवश्यकता होती है। इनमें सामान्य खबरों की तरह कुछ भी और कभी भी नहीं लिखा जा सकता। यह काम बेहद जोखिम भरा है, लिहाजा इस वास्ते सावधानी और तथ्यों तथा स्रोतों की लगभग मुकम्मिल पुष्टि जरूरी है। ऐसी खबरें पढ़ते हुए लोग संवाददाता की पीछे की मेहनत का अंदाजा नहीं लगा सकते।
आम हिंसा की रिपोर्टिंग के लिए तो न्यूज एजेंसी, पुलिस और स्थानीय लोग हैं। उग्रवादी या विद्रोही संगठन से संबंधी रिपोर्टिंग में खास सावधानियां आवश्यक हैं। अपने नेता से मुलाकात का समय विद्रोही संगठन आपको परख कर ही देता है। आपकी पूरी तफ्तीश करके भरोसा होने पर कि आपकी अपने पेशे में साख है मुलाकात करा दी जाती है। मिसाल के तौर पर मैं भी देश के सबसे बडे आदिवासी अंचल में अपनी समानांतर सत्ता चला रहे संगठन के नेताओं के इंटरवयू का जोखिम उठा चुकी हूं।
साल 2003 की बात है। छत्तीसगढ़ विधानसभा का अलग राज्य बनने के बाद पहले चुनाव का प्रचार जोरों पर था। मैं वहां हिंदुस्तान अखबार की ब्यूरो चीफ थी इस नाते मेरा नैतिक दायित्व था कि मैं राजनीति के इस अछूते पहलू की भी पड़ताल करूं। उनकी राय जानूं। मेरी तत्कालीन संपादक तब इसके पक्ष में नहीं थीं। पर मैंने अपने स्तर पर प्रयास जारी रखे और करीब डेढ़ महीने की मेहनत के बाद मुलाकात का संदेश मिला। सूत्रों ने बताया कि मेरे बारे में पूरी पड़ताल और संतुष्टि के बाद उनकी शीर्ष आंतरिक संस्था ने मिलने की हरी झंडी दी। उसके बाद भी मुझे महिला होने के बावजूद घने जंगल में मीलों पैदल चल कर ही उस विद्रोही संगठन के नेता से मिलने का अवसर मिल पाया।
हिंदुस्तान में सिलसिलेवार ये खबरें छपीं। लोगों ने उनकी विश्वसनीयता के लिए सराहना भी की। वहां निर्मल मन से और फकत पेशागत वजहों से ही पहुंचा जा सकता है। ऐसे संगठनों का बाकायदे थिंक टैंक होता है और वह ऐसे-ऐसे सवाल करता है जिनके जवाब उन्हें संतुष्ट करने वाले हों। ये अमूमन हर भाषा के साहित्य से लेकर पत्रकारिता तक के जानकार होते हैं। इसलिए उनसे, आपके सवाल भी सारगर्भित होने चाहिए। उनके आंदोलन, उनकी विचारधारा, उनके मकसद और समकालीन एवं ऐतिहासिक प्रमुख शख्सियतों के प्रति उनके विचारों की जानकारी होने पर आप उनसे कायदे के सवाल कर पाएंगे ताकि पाठकों, श्रोताओं अथवा दर्शकों को उनका सही एवं पूरा दृष्टिकोण पता लग सके।
किसी संगठन से बात हो जाने पर भी आपको खुफिया एजेंसियों के मानदंडों पर खरा उतरना पड़ता है। मैं जिस वक्त उस असाइनमेंट पे गई उस वक्त वह संगठन प्रतिबंधित नहीं था। उसके बावजूद खुफिया एजेंसियों की नजर मेंरी हर जुंबिश पर थी। ऐसी रिपोर्टिंग के वास्ते पूरी फिजिकल फिटनेस जरूरी है। आपको न जाने कितने मील चलना पडे, नदी-नाले पार करने पड़ें, ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर भारी फिसलन के बीच पैर जमाने पड़ें। मुझे गले-गले पानी में नदी पार करके, धान के खेतों की मेड़। और इमली, आंवले, सागौन, साल, हरड़, बहेड और महुआ के जंगलों की संकरी पंगडंडियों पर करीब चालीस किलोमीटर पैदल चलना पड़ा था। इन मुलाकातों के रास्ते मेजबान ही तय करते हैं और वो हर बार अलग होते हैं।
इसमें सावधानी बहुत जरूरी है। संगठन के नेताओं को नाराज न करें। हर बात बारीकी से समझें और उसे पूरी लिखें। न ज्यादा न कम। भारतीय सेना की तरह ही उग्रवादी संगठनों की जगह और नाम, तस्वीरों वगैरह के लिए खास आग्रह का कड़ाई से पालन करें। ऐसे इलाकों के बांशिंदों से संवाद जरूरी है। मैंने जहां रिपोर्टिंग की, वहां उस आंदोलन को बड़ा जनसमर्थन था। मैंने सभी पक्षों से बात की। पुलिस और प्रशासन से भी। उस संगठन में महिलाओं और बच्चों की भी शिरकत थी। बड़ा अनोखा मंजर था एक तरफ उनकी जीवनचर्या तो दूसरी तरफ उनके नेतृत्व से राजनीति पर बातें। वहीं मुझे जानकारी मिली कि संगठन महिलाओं की शिक्षा, मातृसत्ता और सामाजिक सरोकारों पर भी काम कर रहा है।
चलते-चलते चंद नुस्खे-
- इलाके में स्रोत तलाशें।
- भौगोलिक स्थिति का जायजा लें।
- आम जनता से संपर्क।
- सरकार और खुफिया संगठनों की गतिविधियों पर नजर।
- राजनीतिक विचारधारा से परहेज।
- दुरूह इलाकों के लिए शारीरिक तैयारी।
- संगठन के वैचारिक प्रभाव से निरपेक्षता।
- प्रशासन से बचाव के लिए चाक-चौबंद रहें।
उग्रवाद की रिपोटिंग की राह में बड़े धोखे हैं। उसके प्रति सावधान रहें। किसी के मकसद के लिए अपनी कलम अथवा संपर्कों का इस्तेमाल न होने दें, न उग्रवादी संगठन के लिए और न ही सरकार के लिए।
साभार: प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के प्रकाशन ” The Scribes World सच पत्रकारिता का”. लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के सदस्य हैं।