सत्येंद्र रंजन |
कभी मीडिया खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बताकर गर्व महसूस करता था। यह बात आज भी कही जाती है, लेकिन तब जबकि सरकार या संसद की तरफ से उसके लिए कुछ कायदे बनाने की मांग या चर्चा शुरू होती है। बाकी समय में मीडिया लोकतंत्र की चिंता भूल जाता है। या फिर वह लोकतंत्र को इस रूप में परिभाषित कर देता है, जिसमें आम या वंचित लोगों की कोई जगह नहीं होती। उसके लिए लोकतंत्र का मतलब सरकार से कॉरपोरेट जगत की स्वतंत्रता है
अभी ये बात बहुत पुरानी नहीं हुई, जब हिंदी (प्रकारांतर में भारतीय भाषा) पत्रकारिता को आम जन की जुबान समझा जाता था, जबकि अंग्रेजी पत्रकारिता अपने अभिजात्य चरित्र के जानी जाती थी। इस धारणा के पीछे स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद के दशकों का इतिहास था, जब भारतीय भाषाओं के अखबारों ने राष्ट्रीय आंदोलन की भावनाओं एवं मूल्यों को व्यक्त किया, जबकि अंग्रेजी पत्रकारिता उन लोगों से संवाद करती रही जिनका देश की आम जनता से सीधा सरोकार नहीं था। चरित्र का यह अंतर 1980 के दशक के परिलक्षित होता है। लेकिन 1990 के दशक में इसमें जो परिवर्तन शुरू हुआ और जो इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में साफ तौर पर नजर आने लगा, उसने हिंदी पत्रकारिता (मैं तमाम भारतीय भाषाओं की बात नहीं कर सकता, क्योंकि उनके बारे में बोलने का मेरे पास कोई आधार नहीं है) की अलग पहचान को धूमिल कर दिया है। आज हिंदी मीडिया अगर अंग्रेजी मीडिया से अलग है तो इसी रूप में वह अधिक स्तरहीन है और उसके जरिए देश-दुनिया के बारे में जानना या समझना अधिक कठिन है।
इस परिवर्तन के कारण ढूंढने हों तो साफ तौर पर 1991 के बाद मीडिया की बदली प्राथमिकताओं में हम इन्हें तलाश सकते हैं। जब मीडिया का मकसद मुनाफा कमाना हो गया तब पर प्रकाशन या चैनल का उद्देश्य क्रय शक्ति वाले वर्गों में अपने ग्राहक या दर्शक बनाना हो गया। आज अंग्रेजी मीडिया हो या हिंदी हिंदी, वे इसी मकसद से संचालित हैं। चूंकि अंग्रेजी का पाठक या दर्शक वर्ग अधिक पढ़ा-लिखा है, उसकी सूचना संबंधी मांग ज्यादा है, इसलिए अंग्रेजी मीडिया में सूचनाओं और समझ की अधिक सामग्री आज उपलब्ध है। उधर हिंदी मीडिया हलका होकर अपना बाजार बढ़ाने की कोशिश में इतना हलका होता गया है कि गंभीर विचार-विमर्श के लिए उसकी प्रासंगिकता या उपयोगिता आज संदिग्ध है। बहरहाल, चूंकि आज पूरा मीडिया एक ही तरह के उद्देश्य से प्रेरित है, इसलिए आज मीडिया को समझने के लिए इसे समग्र रूप से देखना ही उचित होगा। तो सवाल है कि आज के समाचार माध्यम क्या कर रहे हैं? बात खास उदाहरणों पर नजर डालते हुए आगे बढ़ाते हैं।
विचारणीय है कि देश की सरहद पर अगर कोई समस्या खड़ी हो, तो उसका समाधान निकालने का क्या तरीका होना चाहिए? मसलन, अगर पाकिस्तान से लगी नियंत्रण रेखा पर दोनों देशों की सेना के बीच गोलीबारी हो या पाकिस्तानी सेना जानबूझ कर या अनजाने में नियंत्रण रेखा पार करे, तो उस पर पहला जवाब क्या होना चाहिए? या चीन से लगी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर लद्दाख के दौलत बेग गोल्डी जैसी घटना हो, तो भारत सरकार को तुरंत क्या करना चाहिए? या सरबजीत सिंह जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना हो जाए तो पर क्या तात्कालिक प्रतिक्रिया होनी चाहिए? रणनीतिक एवं सामरिक विशेषज्ञों तथा कूटनीतिक दायरे में ये प्रश्न भले गंभीर विचार-विमर्श का विषय हों, लेकिन भारतीय मीडिया- खासकर टीवी चैनलों के मशूहर एंकरों के पास कोई दुविधा नहीं है। उनके पास हर समस्या का सीधा समाधान है- युद्ध। राष्ट्रवाद- बल्कि उग्र राष्ट्रवाद- की उनकी गलाफाड़ प्रतिस्पर्धा ने न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर चर्चा को ऐसे शोर में बदल दिया है, जिसके बीच विवेक या तर्क की बातों की गुंजाइश लगातार खत्म होती जा रही है। नतीजा है कि सरकार (आज वो कांग्रेस नेतृत्व वाली है, कल किसी भी पार्टी की हो सकती है) अगर संयम या समझदारी भरा रास्ता चुने, तो वह नपुसंक नजर आने लगती है। टीवी के एंकर और वहां जुटाए गए कथित विशेषज्ञ इतनी जोर-जोर से चीन या पाकिस्तान की “शैतानियों” की चर्चा करते हैं कि उनके बीच यह कहना भी राष्ट्रद्रोह जैसा लगने लगता है कि दो देशों के बीच युद्ध हमेशा आखिरी विकल्प होता है। चर्चा इतने संकीर्ण दायरे में समेट दी गई है कि दूरदृष्टि भरी बातें और स्थितियों का समग्र आकलन कायरता का पर्याय दिखने लगते हैं।
सवाल यह है कि किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया की आखिर क्या भूमिका होनी चाहिए? क्या उससे यह अपेक्षा उचित नहीं है कि वह पूरी सूचना दे, विवाद से संबंधित सभी पक्षों की राय पेश करे, संदर्भ से जुड़े तमाम पहलुओं को सामने लाए, उस पर अपनी राय भी पेश करे लेकिन अपनी स्वतंत्र राय बनाने के दर्शकों या पाठकों के अवसरों को संकुचित ना करे? इसी तरह माहौल को उतना दूषित या एकतरफा अभियान से उन्माद भरा न बनाया जाए, जिससे सरकार या नीति निर्माताओं के लिए उपलब्ध सभी विकल्पों को आजमाना कठिन हो जाए? हाल के किसी एक मामले को लें, तो यह स्पष्ट होगा कि मीडिया (खासकर इलेक्ट्रॉनिक) ने इन अपेक्षाओं के विपरीत आचरण किया है। यह मुमकिन है कि ऐसे शोर से अधिक टीआरपी या प्रसार संख्या हासिल करना आसान होता हो। लेकिन उससे सूचित एवं शिक्षित करने के कर्त्तव्य से मीडिया नीचे गिरता है। उससे जनता के दीर्घकालिक हितों को चोट पहुंचती है- इसलिए कि किसी भी समय में समाज का हित अंतिम समय तक युद्ध टालने और विवेकपूर्ण फैसले लेने में निहित होता है। फिर सिक्के के दूसरे पहलू से जनता को अंधेरे में रखना और अज्ञानता आधारित विमर्श को फैला देना आखिर किस रूप में देश या जनता के हित में हो सकता है?
पाकिस्तान की जेल में भारतीय कैदी सरबजीत सिंह पर हमला और उसकी मौत के बाद विवेकहीनता और बेतुकेपन के बनाए गए माहौल ने राजनेताओं के लिए अपनी राय रखने के अवसर किस तरह संकुचित कर दिए, यह इसी की मिसाल है कि प्रधानमंत्री ने सबरजीत को भारत का वीर सपूत करार दिया। क्या यह हकीकत नहीं है कि सरबजीत को पाकिस्तान में आतंकवाद के आरोप में मौत की सजा हुई थी? अगर सरबजीत के परिवार का पक्ष भी मान लें कि वह जासूस नहीं था, बल्कि कबड्डी के मैच में जीतने के बाद शराब के नशे में गलती से सीमा पार कर गया, तब भी वह वीर सपूत कैसे हो सकता है? उसकी मौत दुखद थी। लेकिन दुख की घड़ी में विवेक खो देना किसी आधुनिक समाज का लक्षण नहीं हो सकता। बहरहाल, जिस समय ऐसे राजनेताओं का नितांत अभाव हो जो लोकप्रियता- अलोकप्रियता का ख्याल किए बिना अपना नजरिया रखते हुए देश को उचित नेतृत्व दे सकें, उस समय मीडिया का बनाया माहौल क्या गजब ढा सकता है, सरबजीत का मसला उसकी एक उम्दा मिसाल है, लेकिन यह इसका अकेला उदाहरण नहीं है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने नौ साल के शासनकाल में देश की विदेश नीति को सब्र और दूरदृष्टि का परिचय देते हुए तथा राष्ट्र-हित को सर्वोपरि रखते हुए यथासंभव सही दिशा में रखा है। मगर मीडिया के बनाए माहौल का मुकाबला करने में कई बार विफल रहे हैं। जनवरी 2013 में जब नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी सैनिक एक भारतीय फौजी का सिर काटकर ले गए, तब हकीकत यह थी कि गोलीबारी में दोनों तरफ के जवान मारे गए थे। मगर भारत में भारतीय सैनिक की मौत की खबर पर भावनाएं ऐसी भड़काई गईं कि डॉ. सिंह भी सब ‘कुछ सामान्य ढंग से नहीं चल सकता’- वाला बयान देने पर विवश हो गए। उस माहौल की समाज में दूसरी प्रतिक्रियाएं क्या हुईं, उनकी चर्चा यहां अप्रासंगिक है। जो बात यहां महत्त्वपूर्ण है, वो यह कि ऐसे माहौल में विदेश नीति संबंधी या प्रकारांतर में किसी भी मामले में नीति संबंधी ऐसे निर्णय लेना किसी भी सरकार के लिए कठिन हो सकता है, जिसके दूरगामी परिणाम होने वाले हों और जिसमें देश को लेन-देन के आधार पर कोई समझौते करने हों। राजनीति या कूटनीति संबंधी किसी मसले को सफेद-स्याह के सरलीकृत नजरिए ना तो समझा जा सकता है, और ना ही उसे उस रूप में देखने की कोशिश होनी चाहिए। उससे जुड़ी बारीकियों और परतों से अगर मीडिया परदे हटा पाए, तो वह वास्तव में लोकतंत्र की अपेक्षाओं के मुताबिक अपनी भूमिका निभाएगा। लेकिन भारत में गंगा उलटी बह रही है।
इन हालात में यह अस्वाभाविक नहीं है कि अनेक क्षेत्रों से मीडिया के विनियमन की मांग जोर पकड़ती गई है। यहां तक सुप्रीम कोर्ट और कई हाई कोर्टों ने भी इसकी जरूरत बताई है। सुप्रीम कोर्ट ने जब अजमल आमिर कसाब बारे में फैसला दिया, लेकिन उससे भारतीय मीडिया जगत में हलचल मची। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई पर आतंकवादी हमले के दौरान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका पर खास गौर किया। हमले और उस पर सुरक्षा बलों की कार्रवाई के दौरान टीवी न्यूज चैनलों पर “लापरवाह” लाइव कवरेज की न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति सीके प्रसाद की बेंच ने कड़ी आलोचना की। फैसले के उस हिस्से के आखिर में उन्होंने यह टिप्पणी की- ‘शॉट्स और विजुअल सभी आतंकवादियों के खात्मे और सुरक्षा कार्रवाई के खत्म होने के बाद भी दिखाए जा सकते थे। लेकिन उस हाल में टीवी कार्यक्रम वैसा चुभाउ, सनसनीखेज और भयावह प्रभाव पैदा नहीं करते और चैनलों की टीआरपी तेजी से ऊपर नहीं चढ़ती। इसलिए यह अवश्य माना जा सकता है कि टीवी चैनलों ने मुंबई पर आतंकवादी हमले का जैसा लाइव प्रसारण किया, वैसा करके उन्होंने किसी राष्ट्रीय हित या सामाजिक उद्देश्य की सेवा नहीं की। इसके विपरीत वे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालकर अपने व्यापारिक हित में काम कर रहे थे। ऐसी ही चरम स्थितियों में किसी संस्था की साख की परीक्षा होती है। मेनस्ट्रीम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जिस रूप में मुंबई पर आतंकवादी हमले का कवरेज किया, उससे उन्होंने इस तर्क को बहुत हानि पहुंचाई कि मीडिया का विनियमन सिर्फ मीडिया के अंदर से ही होना चाहिए।’
आज आखिर अभिव्यक्ति की आजादी को खतरा किससे है? क्या आज सरकार इस हालत में है कि वह किसी बड़े मीडिया घराने पर नकेल कस सके? हाल के वर्षों के अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कम से कम सीधे ऐसा करना आज किसी सरकार के लिए आसान नहीं है। इसकी एक वजह तो मीडिया और पूंजी की ताकत है, लेकिन उससे भी बड़ी वजह आम नागरिक समाज में स्वतंत्रता एवं जन अधिकारों के प्रति मजबूत हुई चेतना है
दरअसल, मीडिया अपना विनियमन खुद करे या इसके लिए कोई बाहरी व्यवस्था हो, यह पिछले अनेक वर्षों से बहस का मुद्दा है। जब न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष बने, इस बहस में और तेजी आई। जस्टिस काटजू मीडिया के विनियमन के समर्थक हैं। उनके नेतृत्व में प्रेस काउंसिल ने यह प्रस्ताव है रखा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी प्रेस काउंसिल के तहत लाया जाए और इस संस्था का नाम भारतीय मीडिया काउंसिल कर दिया जाए। बहरहाल, जस्टिस काटजू चूंकि खुद कोई कदम उठाने में सक्षम नहीं हैं, इसलिए वे सिर्फ सरकार से मांग कर सकते हैं। अपनी मौजूदा स्थिति में केंद्र सरकार मीडिया से कोई वैर लेने की स्थिति में नहीं है, इसलिए मीडिया के कर्ता-धर्ताओं को उनकी बातों की ज्यादा परवाह नहीं हैं।
इस संदर्भ में यह याद कर लेना भी उचित होगा कि मीडिया की आजादी की सीमाएं क्या हों, इस पर पिछले वर्षोंके दौरान अनेक मंचों पर चर्चा गर्म रही है। कांग्रेस सांसद मीनाक्षी नटराजन ने मीडिया के विनियमन के लिए लोकसभा में एक निजी बिल पेश किया था। उस पर भले संसद में चर्चा नहीं हुई, लेकिन सार्वजनिक मंचों पर उस पर खूब बहस हुई। लेकिन प्रश्न यह है कि मीडिया आखिर अपने विनियमन से डरता क्यों है? जस्टिस काटजू ने यह अंतर स्पष्ट करने की कोशिश की है कि विनियमन का मतलब नियंत्रण नहीं होता है। इसका मतलब सिर्फ यह है कि मीडिया के दायरे, सीमाओं तथा नैतिकता को परिभाषित किया जाए और उसकी निगरानी के लिए एक ऐसी स्वायत्त संस्था बने, जिसमें मीडिया उद्योग के प्रतिनिधियों समेत विभिन्न क्षेत्रों से आए प्रतिष्ठित लोग शामिल रहें। इस संदर्भ में ये सुझाव भी दिए गए हैं कि उस संस्था को चुनाव आयोग या नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की तरह संवैधानिक दर्जा दिया जा सकता है। यह स्पष्ट है कि मीडिया के कर्ता-धर्ताओं को ऐसी कोई व्यवस्था भी मंजूर नहीं है।
बहरहाल, यह ध्यान में रखने की बात है कि मीडिया ने खुद ही अपने को मुनाफे के तर्क से चलने वाले उद्योग में तब्दील कर लिया है। अगर ऐसे तमाम उद्यागों के उत्पादों की गुणवत्ता एवं प्रतिमानों की निगरानी जरूरी मानी जाती है, तो आखिर मीडिया इस तर्क से क्यों बचना चाहता है? खैर, विनियमन से बचे रहने की किसी व्यक्ति, संस्था या क्षेत्र की इच्छा समझी जा सकती है। लेकिन चीजें सिर्फ अपनी हसरत से नहीं चलतीं। न्यायपालिका से लेकर संसद और सिविल सोसायटी तक में जारी चर्चाएं यही जाहिर करती हैं कि विनियमन के मुद्दे पर अब समय मीडिया के साथ नहीं है। लोग तेजी से वही महसूस करने लगे हैं, जो सुप्रीम कोर्ट के माननीय जजों की टिप्पणियों में व्यक्त हुआ है।
इस संदर्भ में यह सवाल गौरतलब है कि आज आखिर अभिव्यक्ति की आजादी को खतरा किससे है? क्या आज सरकार इस हालत में है कि वह किसी बड़े मीडिया घराने पर नकेल कस सके? हाल के वर्षों के अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कम से कम सीधे ऐसा करना आज किसी सरकार के लिए आसान नहीं है। इसकी एक वजह तो मीडिया और पूंजी की ताकत है, लेकिन उससे भी बड़ी वजह आम नागरिक समाज में स्वतंत्रता एवं जन अधिकारों के प्रति मजबूत हुई चेतना है। लेकिन इस चेतना में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए निजी क्षेत्र यानी कॉरपोरेट पूंजी नियंत्रित मीडिया से पैदा हो रहे खतरे के प्रति अभी ज्यादा संवेदनशीलता नहीं बनी है। इसलिए मोटे तौर पर आज भी मीडिया को लगभग उसी भूमिका में देखा जाता है, जब व्यवस्था में सरकार की ताकत सर्वोपरि होती थी। जबकि आज स्थितियां बदल चुकी हैं। आज कॉरपोरेट सेक्टर के साथ-साथ प्राइवेट मीडिया एक नियंत्रमुक्त सत्ता के रूप में उभर चुका है।
ऐसा नहीं है कि मीडिया के इस हाल से मीडिया से जुड़े बड़े नाम अपरिचित हों। बल्कि मीडिया के इस चरित्र को वे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं। दिल्ली में 2011 में एक गोष्ठी में अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक के प्रधान संपादक विनोद मेहता ने एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा- “संपादक आज मार्केटिंग मैनेजरों के अंगूठे के नीचे काम करते हैं, या कम से कम वो दोनों हाथ से हाथ मिलाकर चलते हैं।” उस गोष्ठी का विषय यह था कि आखिर आम आदमी, खासकर ग्रामीण इलाकों के कमजोर तबकों के लोगों की आजीविका से जुड़े मुद्दे मेनस्ट्रीम मीडिया में महत्त्वपूर्ण खबर क्यों नहीं बन पाते? इसी गोष्ठी में भारत में अंग्रेजी के सबसे बड़े अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया के कार्यकारी संपादक अरिंदम सेनगुप्ता ने कहा कि आज पत्रकारिता का पूरा ढांचा शहरी है। निवेशक, विज्ञापनदाता, पत्रकार और ज्यादातर पाठक भी शहरी एवं समृद्ध पृष्ठभूमि से आते हैं। मीडिया आज वह खबर देता है, जिससे पाठकों का सीधा रिश्ता जुड़ पाए।
देश के दो बड़े संपादकों की इन टिप्पणियों का अगर पूरा विश्लेषण किया जाए, तो हम अक्सर जिस सवाल पर खूब माथापच्ची करते हैं- यानी यह कि मीडिया में आम जन को इतनी कम जगह क्यों मिलती है- उसका जवाब बड़ी सहजता से पा सकते हैं। यहां गौर करने की बात यह है कि आज मीडिया आखिर अपने पाठको से “सीधा रिश्ता” कैसे बनाता है? एक उदाहरण लें। अक्सर देश के दूरदराज इलाकों के किसान या मजदूर या दलित-आदिवासी या ऐसे ही अन्य वंचित तबके अपनी मांगों को लेकर दिल्ली आते हैं। उस वक्त मीडिया की मुख्य खबर क्या बनती है? अक्सर हम देखते हैं कि वहां खबर यह नहीं होती कि आखिर वो लोग क्यों दिल्ली आने को मजबूर हुए। बल्कि टीवी चैनलों से लेकर अखबारों तक में खबर यह छायी रहती है कि उनके आने से दिल्लीवासियों को कितनी दिक्कत हुई? कैसे उन लोगों के आने से दिल्ली की ट्रैफिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई, कार में जाते लोगों को कितने घंटों तक कहां इंतजार करना पड़ा और जाते-जाते वो लोग दिल्ली को कितना गंदा कर गए। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि मीडिया इसी को खबरों का पाठकों से “सीधा रिश्ता” जुड़ना मानता है।
असल में आज के मीडिया कंटेंट पर अगर नजर डाली, तो यह देखने के लिए किसी मैग्निफाइंग ग्लास की जरूरत नहीं होगी कि खबरों की प्रस्तुति एवं संपादकीय नीति पर आज शहरी, उच्च वर्गीय या उच्च-मध्य वर्गीय पूर्वाग्रहों का कितना प्रभाव है। पिछले दशकों के दौरान हम मीडिया के स्वभाव में एक खास तरह बदलाव के गवाह रहे हैं। और इस बदलाव का नतीजा यह है कि मीडिया- खबर एवं विचार- दोनों ही रूपों उन लोगों के प्रति ज्यादा से ज्यादा असंवेदनशील होती गई है, जिनके पास वैसी क्रय शक्ति नहीं है, जिसके आधार पर मार्केटिंग मैनेजर महंगे विज्ञापन लाने की नीति बनाते हैं। यह परिवर्तन 1991 में देश के उदारीकरण की आर्थिक नीति अपनाने या कहें नव-उदारवाद के रास्ते पर चलने के बाद ज्यादा तेजी से आगे बढ़ा है। आपको शायद याद हो कि उसी दौर के साथ देश के सबसे बड़े समाचार पत्र समूह टाइम्स ऑफ इंडिया ने खबर के कारोबार की एक नई अवधारणा देश के सामने रखी थी। उस दौर में टाइम्स ऑफ इंडिया ने खुद को औद्योगिक अर्थों में एक उत्पाद घोषित किया था और तब अखबार पर ‘मेड इन इंडिया’ लिखा जाने लगा था। उस दौर से पहले भले व्यवहार में ना हो, लेकिन कम से कम सिद्धांत में समाचार को मनुष्य की चेतना को बढ़ाने और मनुष्य को अपने समाज एवं दुनिया के प्रति जागरूक करने वाली सूचना के रूप में देखा जाता था। लेकिन नई अवधारणा में समाचार एक उपभोक्ता सामग्री बन गया। जाहिर है, ऐसी जिस सामग्री में जितनी सनसनी पैदा करने की क्षमता क्षमता हो, वह जितना स्फुरण पैदा कर सके, उपभोक्ता बाजार में उसका मूल्य उतना बढ़ जाता है। फिर जिस अखबार में ऐसी जितनी खबरें हों, उपभोक्ता बाजार में उसकी उतनी ज्यादा मांग होने की संभावना होगी।
टाइम्स ऑफ इंडिया की प्रकाशक बेनेट कोलमैन एंड कंपनी द्वारा रखी गई इस या ऐसी और भी कई दूसरी अवधारणाओं को लेकर तब समाज में कुछ बेचैनी तो देखी गई, कुछ मीडिया घरानों ने शुरू में उनसे अपने को अलग बताने की कोशिश भी की, लेकिन हकीकत यही है कि धीरे-धीरे मीडिया के ज्यादातर हिस्सों ने उन अवधारणाओं को अपना लिया। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि उन अवधारणाओं के जनक बताए जाने वाले बेनेट कोलमैन एंड कंपनी के मालिक समीर जैन भारतीय मीडिया के निर्विवाद लीडर बन गए। आज यह आम तौर पर स्वीकार किया जाता है कि समीर जैन जो सोचते हैं, उसे धीरे-धीरे भारतीय मीडिया जगत का ज्यादातर हिस्सा अपना लेता है। तो आज चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, हर जगह उसी अवधारणा का वर्चस्व नजर आता है।
इस रास्ते पर चलने का गणित बहुत सरल है। लक्ष्य अधिक से अधिक समृद्ध एवं प्रभु वर्ग के लोगों को अपनी तरफ खींचना है। अगर आप अपने विज्ञापनदाताओं को यह दिखा सकें कि आपके दर्शक या पाठकों के पास ऊंची क्रय शक्ति है, तो आपको बड़े औऱ महंगे विज्ञापन मिलेंगे। आज हर मीडिया घराने में यही लक्ष्य सामने रख कर मीडिया नीति और रणनीति बनाई जाती है। कोशिश समाज के उच्च वर्ग का ध्यान खींचना है। पत्रकारों की ड्यूटी यह है कि वे खबरों एवं विचारों का चयन और प्रस्तुति इस रूप में करें, जो इन वर्गों की रुचियों के मुताबिक हो। पत्रकारों की भूमिका खबरों की ऐसी उपभोक्ता सामग्री तैयार करने की है, जो धनी समूहों को पसंद आए। ऐसा नहीं है कि यह नीति और रणनीति परोक्ष या किसी आवरण में छिपी रहती है और सिर्फ उसके ऑपरेटिव एलिमेंट्स यानी व्यावहारिक पक्ष पत्रकारों को बताए जाते हैं। किसी भी मीडिया घराने में जिस किसी व्यक्ति ने कुछ समय भी उस स्तर पर काम किया है, जहां नीति और रणनीति मायने रखने लगती है, उसे मालूम है कि कैसे आज ये बातें मीडिया घराने के प्रबंधक खुले शब्दों में, बेलाग ढंग से पत्रकारों के सामने रख देते हैं। फिर ये बातें क्रमशः नीचे तक जाती हैं और इस तरह खबरों के कवरेज का एक ऐसा ढांचा तैयार हो जाता है, जिसमें वही खबरें कवर की जा सकती हैं, जिनसे धनी तबकों के बीच उसके ‘प्रोडक्ट’ को ‘बेचा’ जा सके।
इस भ्रम में रहने की जरूरत नहीं है कि मीडिया का मुनाफे के अलावा भी कोई और लक्ष्य है। इस संदर्भ में हम दिल्ली के सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) के निदेशक भास्कर राव की इस टिप्पणी से सहज ही सहमत हो सकते हैं कि अब अखबार और न्यूज चैनल मास मीडिया के बजाय मार्केटिंग मीडिया बन गए हैं। बल्कि अखबारों के दफ्तरों में तो आज यह कथन आम है कि खबर असल में दो विज्ञापनों के बीच की खाली जगह को भरने का माध्यम है
मीडिया में महानगरों की खबरें क्यों छायी रहती हैं, हिंसा एवं अपराध को क्यों अहमियत दी जाती है, या ग्लैमर क्यों एक बड़ी खबर है, अगर आप कवरेज के इस ढांचे से परिचित हों, तो आपको इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए अलग से सिर नहीं खपाना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, टेलीविजन न्यूज की लोकप्रियता मापने की जो कसौटी- टीआरपी यानी टारगेट रेटिंग प्वाइंट- अपनाई जाती है, उसमें एक समय सिर्फ दिल्ली और मुंबई का भार 40 फीसदी से भी ऊपर था। अब इस रेटिंग को चलाने वाली कंपनी टैम ने सैंपल घरों की संख्या बढ़ाई है और छोटे शहरों को भी इसमें शामिल किया है, लेकिन इससे क्रय शक्ति की कसौटी नहीं बदली है। चूंकि शहरों में पैसे वाले लोग रहते हैं, ऐसे पैसेवाले जो उपभोग पर खूब खर्च करते हैं। तो न्यूज चैनलों के लिए यह बेहद अहम हो जाता है कि उन्हें शहरों में देखा जाए। जो क्षेत्रीय चैनल या अखबार हैं, उनमें भी ज्यादातर आज यही मॉडल लेकर चलते हैं। फर्क सिर्फ यह होता है कि उनकी चिंता अपने इलाके के प्रभु वर्ग के बीच पैठ बनाने की होती है।
इस पूरी परिघटना को हम इस रूप में भी समझ सकते हैं कि आज अखबार निकालने या न्यूज चैनल शुरू करने के लिए बड़े निवेश की जरूरत होती है। तो कोई बड़ा निवेशक या निवेशक समूह उसमें भारी निवेश करता है। उस निवेशक के अपने आर्थिक/ राजनीतिक हित होते हैं। इसके अलावा उसका लक्ष्य अधिक से अधिक एवं महंगे विज्ञापन हासिल करना होता है। तो वह अपने समाचार संगठन की नीति अपने हितों एवं विज्ञापन के लक्ष्य के अनुरूप बनाता है। इस नीति को अमली जामा उसके प्रबंधक, संपादक और पत्रकार पहनाते हैं। मीडिया में आज वही बातें आ पाती हैं, जो इस नीति के अनुरूप होता है। बड़े अखबारों के संपादक आज यह बात खुलकर कहते हैं, जैसाकि दिल्ली की गोष्ठी में अरिंदम सेनगुप्ता ने कहा। सेनगुप्ता ने एक और खास बात कही। उन्होंने कहा कि उनका अखबार ग्रामीण या गरीब तबकों की खबर के लिए अपने यहां किसी आरक्षण नीति पर नहीं चल सकता। वह खबर के अपने तय फॉर्मेट के हिसाब से चलता है। उन्होंने कहा था कि जिस रूप में उनका अखबार खबरों का चयन और प्रकाशन करता है, उसको लेकर वे बिल्कुल शर्मिंदा नहीं हैं।
इसलिए आज किसी को इस भ्रम में रहने की जरूरत नहीं है कि मीडिया का मुनाफे के अलावा भी कोई और लक्ष्य है। इस संदर्भ में हम दिल्ली के सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) के निदेशक भास्कर राव की इस टिप्पणी से सहज ही सहमत हो सकते हैं कि अब अखबार और न्यूज चैनल मास मीडिया के बजाय मार्केटिंग मीडिया बन गए हैं। बल्कि अखबारों के दफ्तरों में तो आज यह कथन आम है कि खबर असल में दो विज्ञापनों के बीच की खाली जगह को भरने का माध्यम है। असली मकसद विज्ञपन हैं, जिन्हें खबर के आवरण में लक्ष्य समूहों तक पहुंचाया जाता है। आज जब हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका की चर्चा करते हैं, तो इस संदर्भ एवं पृष्ठभूमि को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। बल्कि इस संदर्भ एवं पृष्ठभूमि से अलग होकर आज मीडिया के बारे में कोई समझ नहीं बनाई जा सकती। 1970 और 80 का वह दौर अब गुजर चुका है, जब खासकर इमरजेंसी के अनुभवों के बाद राजसत्ता यानी सरकार अभिव्यक्ति की आजादी के लिए मुख्य खतरा दिखती थी। लेकिन आज जब नव-उदारवादी माहौल में कॉरपोरेट जगत एक अनियंत्रित सत्ता के रूप में उभर चुका है, तब उससे संचालित औऱ नियंत्रित मीडिया पर सरकार के नियंत्रण की स्थितियां बेहद कमजोर हो चुकी हैं। आज के मेनस्ट्रीम मीडिया और उसके पीछे की पूंजी की ताकत से टकराना सरकारों के लिए लगातार मुश्किल होता जा रहा है। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि अगर अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब आम नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी है, तो इसके संदर्भ में मीडिया भूमिका पर नए सिरे से चर्चा होनी चाहिए।
आज आखिर अभिव्यक्ति की आजादी को खतरा किससे है? क्या आज सरकार इस हालत में है कि वह किसी बड़े मीडिया घराने पर नकेल कस सके? हाल के वर्षों के अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कम से कम सीधे ऐसा करना आज किसी सरकार के लिए आसान नहीं है। इसकी एक वजह तो मीडिया और पूंजी की ताकत है, लेकिन उससे भी बड़ी वजह आम नागरिक समाज में स्वतंत्रता एवं जन अधिकारों के प्रति मजबूत हुई चेतना है। लेकिन इस चेतना में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए निजी क्षेत्र यानी कॉरपोरेट पूंजी नियंत्रित मीडिया से पैदा हो रहे खतरे के प्रति अभी ज्यादा संवेदनशीलता नहीं बनी है। इसलिए मोटे तौर पर आज भी मीडिया को लगभग उसी भूमिका में देखा जाता है, जब व्यवस्था में सरकार की ताकत सर्वोपरि होती थी। जबकि आज स्थितियां बदल चुकी हैं। आज कॉरपोरेट सेक्टर के साथ-साथ प्राइवेट मीडिया एक नियंत्रमुक्त सत्ता के रूप में उभर चुका है।
हमने नवंबर 2008 में मुंबई पर आतंकवादी हमलों के बाद देखा कि सरकार कैसे न्यूज चैनलों से परेशान रही और उन पर किसी किस्म का लगाम लगाने को आतुर दिखी। लेकिन वह असहाय साबित हुई। चूंकि मीडिया की भूमिका से आम जनमत भी खफा था, इसलिए न्यूज चैनलों ने तब अपने लिए खुद कुछ दिशानिर्देश तैयार किए। लेकिन उन पर किसी ने अमल नहीं किया। मगर सरकार फिर भी कुछ नहीं कर सकी। मीडिया अपने ढंग से आज भी चल रहा है। मीडिया घरानों के मालिक और प्रबंधक जो चाहते हैं, उसके मुताबिक प्रकाशन या प्रसारण पर आज कोई रोक नहीं है। मगर वो जो नहीं चाहते, उसका प्रकाशन या प्रसारण आज कहीं मुमकिन नहीं है। मीडिया घरानों का अंदरुनी ढांचा इतना नियंत्रित है कि वहां आज किसी बहस या मतभेद की गुंजाइश नहीं है। पत्रकार या तो वहां तय की गई दिशा पर चल सकते हैं, या फिर वहां से जा सकते हैं। सवाल पूछना या बहस करना किसी मीडिया घराने में खुद को जोखिम में डालना है। ऐसे ‘अनकॉम्फर्टेबल’ पत्रकारों को सीधे हटा दिया जाना और अगर लालकृष्ण आडवाणी के एक कथन को उधार लेकर कहें, तो झुकने के लिए कहने पर रेंगने लगने वाले पत्रकारों को अहम पदों पर बैठाना आज मीडिया में आम रुझान है। इस रुझान का नतीजा यह हुआ है कि असहमति के मुद्दे, विचार, खबरें या परिप्रेक्ष्य मीडिया से गायब होते जा रहे हैं। अधिकांश मीडिया घराने आज एक ही तरह की राजनीति और अर्थनीति को प्रचारित-प्रसारित करने के माध्यम बन गए हैं।
इसलिए आज मीडिया में सबसे सुरक्षित लेखन वह है, जिसमें आप वामपंथी दलों या उनकी नीतियों की बखिया उधेड़ें। लाल झंडे का जितना मजाक उड़ाएं, वाम नेताओं पर जितनी फब्तियां कसें, वह आप कर सकते हैं और उसमें आप पर कोई आंच नहीं आएगी। लेकिन यही आजादी कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी को लेकर नहीं है। मनमोहन सिंह या नरेंद्र मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी या लालकृष्ण आडवाणी आदि के नाम तो आपको आदर के साथ ही लेने होंगे, प्रकाश करात या एबी बर्धन के बारे में आप चाहें तो भले थोड़ी लिबर्टी ले सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि अर्थ एवं राजनीति के दर्शन पर आकर निवेशकों और विज्ञापनदाताओं का कुछ पार्टियों एवं नेताओं से साम्य बन जाता है। इसकी दूसरी वजह यह है कि मीडिया के निवेशकों का सिर्फ मीडिया ही एकमात्र धंधा नहीं है। उनके बीस दूसरे कारोबार और हैं और जो सत्ता में है, वह भले मीडिया के कारोबार में उनकी नकेल ना कस सके, लेकिन दूसरे कारोबार में वह जरूर ऐसा कर सकता है। तलहका कांड के बाद तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने उस पत्रिका के निवेशक को जैसे तबाह कर दिया, उससे बाकी निवेशकों ने सबक जरूर लिया है। तो फिर हम एक गठबंधन देख सकते हैं। यह निवेशकों (यानी पूंजीपतियों), विज्ञापनदाताओं, मुख्यधारा के राजनीतिक दलों और उनके ताकतवर नेताओं का गठजोड़ है। इन सब का और इन सबके हितों का प्रभाव आज मीडिया पर हावी है। या कहें उनके प्रभाव क्षेत्र में रहते हुए आज मीडिया का सारा कारोबार होता है। यह कारोबार इसी ढंग से फल-फूल रहा है। मगर इसमें जो चीज दब गई है, वह है अभिव्यक्ति की आजादी- आम नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी।
अगर आपके विचार एक खांचे से बाहर जाते हैं, अगर आप बुनियादी नीतियों पर सवाल खड़े करते हैं, अगर आप व्यवस्था के विकल्प की बात करते हैं, तो मीडिया में आपके विचारों का आज स्वागत नहीं है। वहां बैठे प्रबंधक (संपादक) अपने स्तर पर सेंसर की एक कैंची लेकर बैठते हैं। अगर किसी अखबार में आपको छपना है या आप चाहते हैं कि कभी आपको किसी न्यूज चैनल पर बैठने का मौका मिले- तो इसकी पहली शर्त है कि आप अपने विचारों को तय खांचे में ढाल लें। उस खांचे के भीतर बोलने और बहस की आजादी आपको जरूर मिलेगी, लेकिन अगर आपकी बात पूंजी के हितों के खिलाफ या उन लोगों के खिलाफ जाने लगी जो निवेशक के हितों को चोट पहुंचा सकते हैं, तो फिर आपके पास वैकल्पिक मीडिया की संभावना पर चर्चा करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचता है। जाहिर है, यह चर्चा आप अपने सहमना कुछ लोगों के साथ करेंगे और एक ऐसे भविष्य की उम्मीद करेंगे, जब सचमुच आपकी बातें छपे या इलेक्ट्रॉनिक रूप में दूसरों तक पहुंच सकेंगी। लेकिन क्या कॉरपोरेट पूंजी से नियंत्रित मीडिया का यह ढांचा स्वाभाविक नहीं है? आखिर आप यह आशा कैसे कर सकते हैं कि कॉरपोरेट जगत अपने संसाधनों से आपको इस व्यवस्था के विकल्प पर चर्चा करने का माध्यम उपलब्ध कराएगा? या वह खुद आपको अपनी दुरभिसंधियों को बेनकाब करने का मौका देगा? आखिर ऐसी दुरभिसंधियां आज कई हैं, जो भ्रष्टाचार और नैतिक अपराध की श्रेणी में आती हैं। पत्रकारों का लॉबिस्ट या दलाल बन जाना या पेड न्यूज जैसी परिघटनाओं को आखिर और क्या कहा जा सकता है। जबकि अब तो इस बात में कोई संदेह नहीं है कि ऐसी परिघटनाएं अब मेनस्ट्रीम मीडिया का हिस्सा हैं। ये मीडिया घराने कैसे आर्थिक अपराधों में संलग्न हैं, इसकी कुछ पोल मीडिया घरानों की आपसी प्रतिस्पर्धा से कभी-कभी खुल जाती है। राडिया टेपों ने इसकी कुछ झलक दी। ज़ी और जिंदल विवाद से एक और उदाहरण सामने आया। एक मशहूर टीवी चैनल घराने ने कैसे एक बड़े बैंक के साथ मिलकर आर्थिक कायदों को ठेंगा दिखाया और उसके मालिकों ने कैसे अपने शेयरधारियों को अंधेरे में रखकर विदेशों में निवेश करवाया और उससे निजी तौर पर पैसे बनाए, इसकी रिपोर्ट एक साप्ताहिक अखबार ने कुछ समय पहले छापी थी। निश्चित रूप से इसे अंग्रेजी के मुहावरे में टिप ऑफ आइसबर्ग ही कहा जा सकता है। यानी ऐसी और भी बहुतेरी घटनाएं होंगी, जिन पर से परदा नहीं हटा है। औऱ फिर अगर नीरा राडिया के फोन बातचीत के टेप सामने नहीं आते, तो कई “रोल मॉडल” पत्रकारों का असली चेहरा क्या सामने आ पाता?
मीडिया एक कारोबार बना रहे, यह शायद बहुत आपत्तिजनक नहीं है। लेकिन हर कारोबार या पेशे के कुछ नैतिक मूल्य (इथिक्स) होते हैं। मीडिया चूंकि सूचना, ज्ञान एवं स्वस्थ मनोरंजन से जुड़ा कारोबार है, इसलिए किसी स्वस्थ समाज में उसकी कुछ अतिरिक्त जिम्मेदारियां भी होती हैं। भारतीय मीडिया आखिर ऐसे नैतिक मूल्यों औऱ जिम्मेदारियों से तो नहीं बच सकता। लेकिन आज वह इन सबकी अवहेलना करता दिखता है, तो यह नागरिक समाज की जिम्मेदारी है कि उसके इस स्वरूप एवं चरित्र को वह बेनकाब करे
यह सब और पेड न्यूज एक ही परिघटना के हिस्से हैं। इसी का हिस्सा प्राइवेट ट्रीटीज का चला चलन है। इस बारे में द हिंदू के प्रधान संपादक एन राम ने एक सेमीनार में कहा था- “पेड न्यूज का इस्तेमाल सिर्फ राजनेताओं को फायदा पहुंचाने के लिए नहीं हो रहा है, इसका इस्तेमाल कुछ कंपनियों द्वारा अपना उत्पाद बेचने में मदद देने के रूप में भी हो रहा है। मीडिया आज इस हद तक भ्रष्ट हो चुका है कि अखबारों को कई कंपनियां अपने शेयर दे रही हैं, ताकि उनके उत्पादों का ये अखबार प्रचार कर सकें।” भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के पूर्व अध्यक्ष एम दामोदरन के पास सुनाने के लिए मीडिया और कॉरपोरेट जगत के बीच ऐसी दुरभिसंधियों की कई कहानियां होती हैं। वो बताते हैं कि कैसे कुछ कंपनियों के शेयरों के भाव उछालने के लिए अखबारों में खबरें प्लांट की गई हैं। यह रुझान कुछ इस हद तक पहुंच गया है कि कुछ समय पहले सेबी को यह आदेश जारी करना पड़ा कि सभी मीडिया हाउस इस बात की घोषणा करें कि उनका किस कंपनी में कितना निवेश है और उनमें किस कंपनी का कितना निवेश है। सेबी ने इसकी जरूरत इसलिए समझी क्योंकि उसने महसूस किया कि मीडिया मैनिपुलेशन से शेयर बाजार को प्रभावित करने की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं।
कभी मीडिया खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बताकर गर्व महसूस करता था। यह बात आज भी कही जाती है, लेकिन तब जबकि सरकार या संसद की तरफ से उसके लिए कुछ कायदे बनाने की मांग या चर्चा शुरू होती है। बाकी समय में मीडिया लोकतंत्र की चिंता भूल जाता है। या फिर वह लोकतंत्र को इस रूप में परिभाषित कर देता है, जिसमें आम या वंचित लोगों की कोई जगह नहीं होती। उसके लिए लोकतंत्र का मतलब सरकार से कॉरपोरेट जगत की स्वतंत्रता है। ठीक उसी तरह जैसे नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियो के लिए स्वतंत्रता और उदारता का मतलब पूंजी को हर तरह के सार्वजनिक नियंत्रण से मुक्त करवाना या रखना होता है।
इसलीए आज सबसे अहम सवाल यह है कि क्या मीडिया का कोई सार्वजनिक उत्तरदायित्व होना चाहिए? या अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ निहित स्वार्थों के हित में उसे बेलगाम चलने दिया जाना चाहिए? यहां यह गौरतलब है, जैसाकि भारतीय प्रेस काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति जीएन राय ने कई बार ध्यान खींचा था कि भारती संविधान के तहत मीडिया की स्वतंत्रता का कोई अलग प्रावधान नहीं है। भारतीय संविधान भारत के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। मीडिया की इसी आजादी का नागरिकों की तरफ से उपयोग करता है। सवाल यह है कि आम नागरिकों के हितों के खिलाफ चलते हुए उसे आखिर नागरिकों की आजादी का इस्तेमाल करने या नागरिकों का प्रवक्ता होने का दावा करने की छूट क्यों दी जानी चाहिए?
इसलिए सार्वजनिक चर्चाओं में आज दो सवाल उठाए जाने की सख्त जरूरत है। पहला यह कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का मीडिया का दावा कितना सही है? अगर हम व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो असल में इस धारणा को चुनौती दिए जाने की जरूरत महसूस होती है। दूसरा सवाल यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब क्या है, क्या यह आजादी समाज में सबको और सबके लिए है, या यह सिर्फ उनके लिए है जिनके पास पूंजी और पैसा है? दरअसल, हर तरह के सार्वजनिक नियंत्रण से आज कतराने की जरूरत नहीं है। संसद और सरकार, या संवैधानिक संस्थाओं के प्रति हिकारत का भाव रखना और पूंजी से प्रत्यक्ष रूप से एवं पूरी तरह नियंत्रित माध्यमों को लोकतंत्र का प्रवक्ता मानना हमारी गलत प्राथमिकताओं की झलक देता है। अगर आज से दो या तीन दशक पहले ऐसी मान्यता की कुछ प्रासंगिकता रही भी होगी, तो कम से कम आज के हालात में तो ऐसा बिल्कुल नहीं है। सच्चाई तो यह है कि आज मीडिया को जवाबदेह बनाने की मुहिम लोकतंत्र के लिए जरूरी हो गया है।
मीडिया एक कारोबार बना रहे, यह शायद बहुत आपत्तिजनक नहीं है। लेकिन हर कारोबार या पेशे के कुछ नैतिक मूल्य (इथिक्स) होते हैं। मीडिया चूंकि सूचना, ज्ञान एवं स्वस्थ मनोरंजन से जुड़ा कारोबार है, इसलिए किसी स्वस्थ समाज में उसकी कुछ अतिरिक्त जिम्मेदारियां भी होती हैं। भारतीय मीडिया आखिर ऐसे नैतिक मूल्यों औऱ जिम्मेदारियों से तो नहीं बच सकता। लेकिन आज वह इन सबकी अवहेलना करता दिखता है, तो यह नागरिक समाज की जिम्मेदारी है कि उसके इस स्वरूप एवं चरित्र को वह बेनकाब करे। इस संदर्भ में संसद या सरकार के हस्तक्षेप से गुरेज करने की उतनी जरूरत नहीं है। आखिर ये दोनों संस्थाएं लोकतंत्र में किसी भी दूसरी संस्था की तुलना में ज्यादा प्रातिनिधिक हैं। वैसे भी भ्रष्ट और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने वाले नेता मीडिया प्रबंधकों से अंतर्सबंध बनाकर अपने हित तो साध ही लेते हैं। ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं है कि मीडिया को जिम्मेदार एवं जवाबदेह बनाने के उपायों पर खुलकर बहस हो औऱ इसे संसदीय संकल्प के तहत लागू किया जाए? अगर उसके साथ ही निगरानी और अवरोध एवं संतुलन के कारगर उपाय भी किए जाएं तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी को संभवतः ज्यादा सुरक्षित बनाया जा सकता है। यहां यह बात हमेशा ध्यान में रखने की है कि अभिव्यक्ति की आजादी का संवैधानिक प्रावधान आम नागरिक के लिए है, सिर्फ पूंजीशाहों के लिए नहीं। लेकिन पूंजीशाहों ने आज उस आजादी का अपहरण कर लिया है और उसे उनके चंगुल मुक्त कराना आज एक बहुत बड़ी चुनौती है।
सत्येंद्र रंजन 28 साल से पत्रकारिता में। भारतीय जन संचार संस्थान से 1987-88 में पत्रकारिता में पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा करने के बाद प्रिंट, टीवी और ऑनलाइन माध्यमों में काम करने का अनुभव। लगातार 22 साल तक विभिन्न मीडिया घरानों में नौकरी। 2009 के बाद से स्वतंत्र पत्रकारिता, मीडिया रिसर्च एवं अनेक संस्थानों में शिक्षण में सक्रिय। फिलहाल नई दिल्ली स्थित जामिया मिल्लिया इस्लामिया में मास कम्युनिकेशन्स रिसर्च सेंटर के मास्टर्स इन डेवलपमेंट कम्युनिकेशन्स कोर्स में शिक्षण कार्य।