हर्ष रंजन,
प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष, पत्रकारिता और जनसंचार,
शारदा विश्वविद्यालय, ग्रोटर नोएडा,
टीवी न्यूज़ चैनलों की बढ़ती संख्या और लोकप्रियता ने, इसे आज के दौर का एक प्रमुख कैरियर विकल्प बना दिया है। हजा़रो की तादाद में युवा इस पेशे की ओर खिंचे चले आ रहे हैं। मन में, बस एक ही ख्वाब लिये, कि कैसे माईक पकड़कर वो भी टीवी स्क्रीन पर कुछ बोलते नज़र आयें। एक आम छात्र या युवा के मन में टीवी न्यूज़ से जुड़ने की कल्पना बस यहीं से शुरू होती है और शायद यहीं खत्म हो जाती है। टीवी न्यूज़ के पीछे की असली दुनिया क्या है, इस बात से लोगों का तब तक सामना नहीं होता जब तक वो इससे जुड़ नहीं जाते। कई बार तो ऐसे मौके भी आये हैं जब हकीकत का सामना होने के बाद कुछ हफ्तों या महीनों में ही लोगों का जोश ठंडा पड़ गया और उन्होंने पत्रकारिता को ही अलविदा कह दिया। एक रिपोर्टर बनने का सच क्या होता है, और क्या है टीवी न्यूज़ की व्यावहारिक दुनिया, इससे रूबरू करने का ये प्रयास मात्र है।
मोटे तौर पर टीवी न्यूज़ चैनल के एडिटोरियल कामकाज़ को दो हिस्सों में बांट सकते हैं। इनपुट और आउटपुट। इनपुट, मतलब जो कुछ भी ( सूचना, विजुअल्स, फोटो, आवाज़, खबर इत्यादि) बाहर से आता हो। आउटपुट, मतलब जो कुछ भी आप टीवी स्क्रीन पर देखते हैं।
इनपुट
रिपोर्टर टीवी न्यूज़ की रीढ़ की हड्डी होते हैं। एक बड़े और नैशनल न्यूज़ चैनल के रिपोर्टर्स पूरे देश और दुनिया के सभी प्रमुख शहरों में फैले होते हैं। इनका एक बड़ा जाल होता है जो खबरें लाता है। न्यूज़ इनपुट का 80 फीसदी हिस्सा रिपोर्टर्स द्वारा ही लाया जाता है। टीवी न्यूज़ चैनल्स इसके अलावा, एजेंसियों की भी सेवाएं लेते हैं। एजेंसियो का काम भी खबरें मुहैया करना होता है। फर्क सिर्फ इतना होता है कि रिपोर्टर सिर्फ अपने चैनल को ही खबर दे सकते हैं जबकि एजेंसियां एक साथ कई चैनल्स को खबरें देती हैं। एपी टीवी, रायटर्स टीवी और एएनआई टीवी कुछ प्रमुख न्यूज़ एजेंसियां हैं। इसके अलावा ग्राफिक्स संभाग भी इनपुट का हिस्सा होता है, क्योंकि विजुअल्स नहीं रहने की स्थिति में वो एनिमेशन के ज़रिये दृश्य को समझाने और बताने की कोशिश करता है। कई जगहों पर ग्राफिक्स को आउटपुट का हिस्सा माना जाता है, लेकिन हम यहां इस तर्क-वितर्क में नहीं पड़ेंगे। इसकी कुछ चर्चा आगे की गई है।
आजकल एक आम आदमी भी किसी चैनल की इनपुट टीम का हिस्सा हो सकता है। इस नई व्यवस्था को सिटीज़न रिपोर्टिंग कहते हैं। यानि चलते-फिरते रास्ते में अगर आपको कोई ख़बर मिल जाय तो उसे फटाफट अपने मोबाईल के कैमरे में कैद कर लें और किसी टीवी चैनल को भेज दें। जितने अच्छे और रोमांचक विजुअल होंगे उसके बदले आपको उतने ही अच्छे दाम और नाम दोनो मिलेंगे।
(आजकल सिटिज़न रिपोर्टिंग के हज़ारों उदाहरण मिलते हैं। जैसे, आपको याद होगा कि मुंबई के जुहू इलाके में एक चाटवाला गोलगप्पे के पानी में पेशाब मिलाकर बेचता था। पड़ोस की एक लड़की रोज़ उसकी हरकतों को अपने छत से देखती थी। एक दिन उस लड़की ने अपने कैमरे से उसके बेहतरीन विज़ुअल्स बनाये और आजतक न्यूज़ चैनल को दे दिया। फिर क्या था, इधर चैनल पर खबर चली और उधर लोगों ने गोलगप्पे वाले की अच्छी खबर ली। वो लड़की भी चैनल पर छाई रही। रिपोर्टर तो वह बन ही चुकी थी।
एक दूसरा उदाहरण- मध्य प्रदेश में इंदौर के नज़दीक पातालपानी पिकनिक स्पॉट पर अचानक आये पानी के तेज़ बहाव में फंस कर कुछ लोग मर जाते हैं। इस घटना को वहां मौजूद दूसरे लोगों ने अपने कैमरों में कैद कर लिया। ये दर्दनाक दृश्य भी चैनलों पर खूब चले।)
एसांइनमेंट डेस्क
खबरें और सूचनाएं लाने का काम मुख्य रूप से इन्हीं तंत्रों द्वारा किया जाता है। लेकिन ये तंत्र इतना विशाल है और सूचनाएं अनगिनत, कि क्या लेना है, कब लेना है, कैसे लेना है और कितना लेना है अथवा बिल्कुल नहीं लेना है- ये सारे सवाल हर ख़बर के साथ जुड़े रहते हैं। यहीं ज़रूरत पड़ती है समाचार प्रबंधन की। ठीक उसी तरह से जैसे सड़कों पर ट्रैफिक पुलिस की ज़रूरत रहती है।
वैसे तो समाचार प्रबंधन की ज़रूरत हर स्तर पर होती है, लेकिन मूल रूप से इसका ज़िम्मा जहां रहता है उस विभाग को एसांइनमेंट डेस्क कहते हैं। जैसा नाम से ही स्पष्ट है कि वो डेस्क जो दूसरों को काम एसाईन करे यानि काम कि ज़िम्मेदारी सौंपे। अब समझते हैं कि एसाईनमेंट डेस्क काम कैसे करता है। मेरे हिसाब से इसे थ्योरी में समझने की बजाय वहां की कार्यप्रणाली पर कमेंटरी का माध्यम बेहतर होगा।
डे-प्लॉन
किसी भी न्यूज़ चैनल के आज के दिन की शुरुआत, एक दिन पहले यानि बीते कल से होती है। इसे समझने के पहले खबरों का वर्गीकरण कर लें। मोटे तौर पर खबरें दो तरह की होती हैं। एक- प्लैन्ड न्यूज़ और दूसरा अनप्लैन्ड न्यूज़। प्लैन्ड, मतलब वो खबरें या घटनाएं जो आप जानते हैं कि होगीं। जैसे- कैबिनेट की बैठक, संसद की कार्यवाही, कोर्ट की सुनवाई, चुनाव, रैली, नेताओं के भाषण, किसी विदेशी राजनेता का आगमन, उद्घाटन समारोह इत्यादि। अनप्लैन्ड न्यूज़, मतलब वो खबरें जिनके बारे में आप पहले से नहीं जानते। मसलन- दुर्घटनाएं, शेयर बाज़ारों की असामान्य उठापटक, चोरी, डाका, लूट, रेप, घोटालों का पर्दाफाश इत्यादि। खबरों का ज़्यादातर हिस्सा प्लैन्ड श्रेणी से ही आता है। इसीलिये इन पर काम एक दिन पहले ही शुरू हो जाता है। आज का काम करते हुए ही रिपोर्टर्स ये सोचते और तय करते रहते हैं कि उन्हें कल क्या करना है। फिर शाम चार –पांच बजे तक उसकी सूचना एसाईनमेंट डेस्क को दे देते हैं। अब एक चैनल में अगर सौ रिपोर्टर्स हैं तो शाम तक एसाईनमेंट डेस्क के पास कल कवर की जाने वाली करीब सौ खबरों की सूची तो तैयार हो ही जाती है। इस सूची में तीन चीज़ें मुख्य रूप से शामिल होती हैं। पहली-खबर की संक्षेप में जानकारी, दूसरी-उसकी शूट लोकेशन और तीसरी-रिपोर्टर के ऑफिस से जाने और वापस आने का समय। इस सूची को डे-प्लॉन कहते हैं। डे-प्लॉन की एक सैंपल कॉपी कुछ इस तरह की होगी।
रिपोर्टर खबर लोकेशन टाईम
- सुरेश बीजेपी रैली जंतर-मंतर(दिल्ली) 11AM
- महेश मोदी प्रेस कांफ्रेंस विज्ञान भवन 3PM
दरअसल यही डे-प्लॉन चैनल का न्यूक्लियस होता है। शाम के छह सात बजे के वक्त इस प्लॉन पर एसाइनमेंट डेस्क प्रमुख की देखरेख में मीटिंग शुरू होती है। फुर एक-एक खबरों पर चर्चा होती है, उसकी इस दिन और समय के हिसाब से उपयोगिता और अहमियत देखी जाती है और फिर तय किया जाता है कि इसे कवर करना है या नहीं। इस बैठक में रिपोर्टर्स के अलावा चैनल के दूसरे सीनियर लोग भी मौजूद होते हैं। कुछ खबरें रिजेक्ट कर दी जाती हैं यानि चैनलों की भाषा में गिरा दी जाती हैं। जो खबरें बच जाती हैं यानि ओके कैटोगरी में रहती हैं उनको लेकर एसांईनमेंट डेस्क एक नया यानि फ्रेश डे-प्लॉन तैयार करता है और सभी संबद्ध लोगों और विभागों को ई-मेल के ज़रिये भेज देता है। चैनलों की कार्यप्रणाली में तकनीक का भारी योगदान है। इधर एसाइनमेंट डेस्क ने डे-प्लॉन भेजा और दूसरे ही पल वो सभी लोगों को मिल गया। इस डे-प्लॉन से जो लोग संबद्ध होते हैं उनमें सारे रिपोर्टर्स, कैमरा डिपार्टमेंट, को-ऑर्डिनेशन विभाग, आउटपुट और अन्य सीनीयर लोग प्रमुख हैं।
कैमरा विभाग
कैमरा विभाग का काम हर रिपोर्टर को कैमरामैन के साथ एक कैमरा यूनिट मुहैया कराने का होता है। कैमरा विभाग में भी सभी कैमरामैन न्यूज़ से जुड़े यानि एक तरह से पत्रकार ही होते हैं। कैमरा प्रमुख डे-प्लॉन को पढ़कर अलग-अलग तरह की खबरों के लिये उनकी ज़रूरत के मुताबिक कैमरापर्सन की ड्यूटी लगाता है। फिर रिपोर्टर अपने कैमरामैन के साथ कवर की जाने वाली स्टोरी पर चर्चा करता है, ताकि शूटिंग के वक्त सामंजस्य बना रहे।
को-ऑर्डिनेशन विभाग
को-ऑर्डिनेशन विभाग का काम रिपोर्टर और कैमरा यूनिट को वाहन उपलब्ध कराने का होता है। जैसा कि उपर दिये गये डे-प्लान से यह स्पष्ट है कि पूरे दिन के दौरान एक न्यूज़ चैनल में दर्जनों शूट होते हैं। ऐसे में सभी को समय पर स्टोरी और शूट की आवश्यकतानुसार वाहन उपलब्ध कराना भी एक बड़ी चुनौती होती है। साथ ही कई बार रिपोर्टर को अपनी स्टोरी के लिये शहर से बाहर भी जाना पड़ता है। कई बार तो रिपोर्टर हफ्तों और महीनों के लिये भी शहर से बाहर रहते हैं। ऐसे में उनके ठहरने के लिये होटल, आने जाने के लिये रेल या हवाई टिकट, अगर विदेश यात्रा है तो पासपोर्ट और वीसा का प्रबंध कराना इत्यादि काम का ज़िम्मा भी को-आर्डिनेशन विभाग के पास ही होता है।
कई बार ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि एक नियत समय पर ही एक से ज़्यादा यानि चार-पांच शूट लगी रहती है और कैमरा उपलब्ध होता है कम। ऐसे में को-आर्डिनेशन विभाग एसांईनमेंट से सलाह लेकर रिपोर्टरों की प्रथमिकताएं तय करता है। यह विभाग साल के 365 दिन, चौबीसों घंटे काम करता है। रात के समय अगर किसी रिपोर्टर को कहीं शहर से बाहर जाना पड़े तो यह विभाग उसके लिये पैसों का भी प्रबंध करता है।
इस विभाग के पास एक और अहम काम होता है-और वो है स्टॉफ के सदस्यों को पिकअप और ड्रॉप सुविधा देना। आम तौर पर किसी भी नयूज़ चैनल में रात और सुबह की शिफ्ट करने वाले लोगों के लिये पिक और ड्रॉप की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है।
फीडरूम और सैटरूम
दस-पन्द्रह साल पहले की बात करें तो हर रिपोर्टर अपना शूट खत्म करने के बाद टेप लेकर ऑफिस की तरफ भागता था ताकि उसकी खबर जल्द से जल्द दिखाई जा सके। अगर स्टोरी दूसरे शहर में शूट की गई हो तो रिपोर्टर टेप को हवाई बुकिंग से या किसी फास्ट कोरियर सर्विस से भेजता था। मगर बदलती तकनीक ने टीवी न्यूज़ की सारी दुनिया बदल दी और अब शूट किये गये विज़ुअल को टीवी सेंटर तक पहुंचाने का काम मिनटो और सेकेंडो में हो जाता है।
टीवी सेंटर पर विजुअल भेजे जाने की प्रक्रिया को टीवी की भाषा में फीड भेजना कहते हैं। यह काम अब ओबी वैन(इसका विस्तृत ज़िक्र नीचे है), समर्पित 2 एम बी लाईन, रिलायंस के नेटवर्क या घर बैठे अपने कंप्यूटर द्वारा ब्राडबैंड के ज़रिये बहुत ही आसानी से किया जाता है। आपने अपना फीड चलाया यानि अपलोड किया और टीवी सेंटर ने अपनी मशीनों के ज़रिये उसे डाउनलोड किया।
जैसे किसी बंदरगाह पर एक बार में सीमित संख्या में ही आठ-दस जहाज़ आ सकते हैं, वैसे ही टीवी सेंटर पर एक बार में सीमित संख्या में ही चार से लेकर आठ, नौ फीड ही आ सकते हैं। जिस चैनल ने फीड लेने के लिये जितनी मशीने लगाईं हैं, उतने ही फीड एक बार में आ सकते हैं। फीड लेने वाली इन मशीनो को पोर्ट कहते हैं। फीड लेने की मशीने जिस जगह लगी होती हैं उस कमरे को फीडरूम कहते हैं.
सैटरूम यानि सैटेलाईट रूम। इस कमरे में वो तमाम मशीनें लगी रहती हैं जो ओबी वैन से आ रहे इनपुट को दिखाती हैं। समझने वाली भाषा में कहें तो यहां से लाईव दृश्यों का प्रबंधन किया जाता है।
ओबी वैन
ओ बी यानि आउटडोर ब्रॉडकॉस्ट। जिस वैन या गाड़ी में ओबी की मशीने रखी जाती हैं उसे ओबी वैन कहते हैं। ओबी वैन के ज़रिये किसी भी जगह से वहां की चीज़ों का लाईव प्रसारण कर सकते हैं। ओबी वैन की छत पर एक बड़ा सा डिश एंटिना लगा रहता है, जिसके ज़रिये सैटेलाईट से जुड़ा जाता है और फिर विज़ुअल्स को सैटरूम में डाउनलोड करते हैं। आजकल राह चलते आपको बहुत से ओबी वैन मिल जायेंगे। पहले ओबी वैन बड़े होते थे, लेकिन अब छोटी गाड़ियों में भी इन्हें लगा दिया जाता है। इससे मूवमेंट में आसानी होती है।
इंजेस्टिंग
ज़माना कंप्यूटर्स का है। टीवी चैनल्स का प्रसारण भी पूरी तरह कंप्यूटर्स और इसमें इस्तेमाल हो रहे सॉफ्टवेयर पर ही निर्भर है। जितने सारे विजुअल्स आते हैं, सबसे पहले उन्हें कंप्यूटर के मेन सर्वर में डाला जाता है। इसके बाद ही एडिटिंग सहित आगे की प्रक्रिया शुरू की जाती है। आम तौर पर विज़ुअल्स टेप पर शूट किये जाते हैं। पहले एडिटिंग टेप पर ही होती थी। इसे लिनियर एडिटिंग कहते हैं। अब एडिटिंग कंप्यूटर पर की जाती है, इसे नॉन-लिनियर एडिटिंग कहते हैं। कंप्यूटर पर एडिटिंग करने के लिये ज़रूरी है कि विज़ुअल्स उसके सर्वर में हों। यही वजह है कि इस्तेमाल किये जाने वाले विज़ुअल्स को शूट टेप में से कंप्यूटर सर्वर में डाला जाता है। विज़ुअल्स को कंप्यूटर सर्वर में डालने की इस प्रकिया को ही इंजेस्टिंग कहते हैं। आजकल के कैमरों में टेप के साथ-साथ हार्ड डिस्क या फिर चिप पर शूटिंग रिकार्ड करने की भी सुविधा होती है। बहरहाल, शूट चाहे जिस किसी माध्यम पर किया जाय, उसे कंप्यूटर सर्वर में डालना ही होगा। यानि शूटिंग के बाद विजुअल्स को इंजेस्ट करना ही अगला कदम है।
थोड़ी चर्चा करते हैं- लीनियर और नॉन-लिनियर की। इसे ऐसे समझें- आपके घर में जो म्यूज़िक सिस्टम है, उसमें लगने वाला कैसेट लीनियर होता है। लिनियर इसलिये क्योंकि उसमें एक गाने से दूसरे गाने पर जाने के लिये बीच के हर गाने से गुज़रना होता है। चाहे प्ले मोड से जायं या फिर फारवर्ड मोड से, लेकिन गुज़रना हर गाने से होगा। इसी म्यूज़िक सिस्टम में लगने वाला सीडी नॉन-लिनियर होता है। इसमें किसी भी एक गाने से दूसरे पर सीधे जा सकता हैं, बीच के गानो से गुज़रने की आवश्यकता नहीं होती।
लाईव चैट और फोनो
आजकल के टीवी चैनलों की ये अनिवार्यता बन गई है। कोई भी खबर जैसे ही ब्रेक हो, उस पर उसी वक्त रिपोर्टर का फोनो किया जाता है। वजह ये है कि कि कोई भी चैनल अपने दर्शकों को खबरों से देर तक जुदा नहीं रखना चाहते। विजुअल्स तो बाद में ही आते हैं, लेकिन एंकर खबर पढ़ कर और उसके बारे में विस्तार से अपने रिपोर्टर से फोन पर बात कर दर्शकों को रूबरू करा देते हैं।
जब रिपोर्टर स्पॉट से ही कैमरे के सामने खड़े हो कर एंकर से बात करे और खबरों का खुलासा करे तो इसे लाईव चैट कहते हैं। लाईव चैट में एंकर और रिपोर्टर के बीच खबर के बारे में संबाद (सवाल –जवाब) होता है।
आर्काईव और टेप लाईब्रेरी
आर्काईव और टेप लाईब्रेरी किसी भी टीवी न्यूज़ चैनल की जान होती हैं। सभी तरह के प्रमुख विजुअल्स को संभाल कर रखने का ज़िम्मा आर्काईव विभाग का ही होता है। चैनल को जब भी ज़रूरत होती है वो पुराने विजुअल्स के लिये इसी विभाग से संपर्क करता है। चैनल की भाषा में पुराने विजुअल्स को फाईल फुटेज कहते हैं। आर्काईव विभाग फाईल फुटेज को इतने व्यवस्थित तरीके से रखता है कि ज़रूरत पड़ने पर उसे कुछ मिनटों में ही निकाला जा सके। पहले फाईल फुटेज को टेप पर रखते थे, लेकिन अब इन्हें कंप्यूटर सर्वर में डाल कर रखते हैं। इन्हें ढूंढने के लिये कई तरह के सर्च सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है। फाईल फुटेज को नाम से, घटना से, स्थान से, समय से ढूंढते हैं।
फारवर्ड प्लैनिंग और रिसर्च
यह विभाग किसी भी न्यूज़ चैनल का बेहद ही प्रमुख हिस्सा होता है। खबरों की दुनिया में बैकग्राउंड यानि पिछली जानकारी का उतना ही महत्व होता है जितना तत्काल हुई घटना का। कई बार तो पिछली जानकारी का महत्व तत्काल की जानकारी से भी ज़्यादा होता है। आज होने वाली तकरीबन हर घटना का कोई न कोई इतिहास तो होता ही है। अगर ये इतिहास आपको बताया न जाय तो वर्तमान की घटना में आपकी उतनी दिलचस्पी शायद न हो। उदाहरण के लिये अगर बीजेपी हाई कमान ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री येडियुरप्पा को हटने का फैसला किया तो ये भी बताना होगा कि उन्हें किस वजह से हटाया जा रहा है। फिर ये भी बताना पड़ेगा कि उस खास वजह के पीछे क्या कारण थे अथवा क्या राज़ छुपा हुआ है।
रिसर्च विभाग का काम पीछे की जानकारी को व्यवस्थित तरीके से इक्कठा कर उसे संपादकीय विभाग को देना है। फिर संपादकीय विभाग ज़रूरत के हिसाब से इन जानकारियों का उपयोग करता है।
फारवर्ड प्लैंनिंग मतलब आगे होने वाली घटनाओं का कैलेंडर बताना। यह विभाग तयशुदा कार्यक्रमों की सूची बना कर उन्हें एसाईंमेंट के सुपुर्द करता है। फिर मीटिंग में इन सब पर चर्चा की जाती है।
आउटपुट
इनपुट से मिली सारी खबरों और सूचनाओं का इस्तेमाल आउटपुट अलग-अलग तरीके से करता हैं। मसलन किसी सूचना को पैकेज के रूप में चलाया जाता है, जिसमें वॉयस ओवर, ग्राफिक्स, म्यूज़िक इत्यादि होते हैं। फिर उसी खबर को ड्राई फार्मेट में सिर्फ एंकर से पढ़वा कर भी दिया जा सकता है। कई बार खबरों को लिख कर सिर्फ पट्टी यानी बैंड पर ही चला दिया जाता है।
संक्षेप में कहें तो टीवी स्क्रीन पर आप जो कुछ भी देखते हैं वो उस चैनल का आउटपुट है।