मनोज कुमार।
साल 1826, माह मई की 30 तारीख को ‘उदंत मार्तंड’ समाचार पत्र के प्रकाशन के साथ हिन्दी पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ था। पराधीन भारत को स्वराज्य दिलाने की गुरुत्तर जवाबदारी तब पत्रकारिता के कांधे पर थी। कहना न होगा कि हिन्दी पत्रकारिता ने न केवल अपनी जवाबदारी पूरी निष्ठा के साथ पूर्ण किया, अपितु भविष्य की हिन्दी पत्रकारिता के लिये एक नयी दुनिया रचने का कार्य किया। स्वाधीन भारत में लोकतंत्र की गरिमा को बनाये रखने तथा सर्तक करने की जवाबदारी हिन्दी पत्रकारिता के कांधे पर थी।
1947 के बाद से हिन्दी पत्रकारिता ने अपनी इस जवाबदारी को निभाने का भरसक यत्न किया किन्तु समय गुजरने के साथ साथ पत्रकारिता पहले मिशन से प्रोफेशन हो गई और बाद के समय में पत्रकारिता ने मीडिया का रूप ले लिया। इस बदलाव के दौर में हिन्दी पत्रकारिता की भाषा गुम हो गई और पत्रकारिता की टेक्नालॉजी के स्थान पर टेक्नालॉजी की पत्रकारिता की जाने लगी। अर्थात पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों और मूल्यों को तज कर हम तकनीकी पत्रकारिता के दौर में पहुंच गये हैं। तकनीकी पत्रकारिता ने ही पत्रकारिता को मीडिया के स्वरूप में परिवर्तित कर दिया है और यही कारण है कि पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर बार बार सवाल उठाये जाते हैं।
करीब करीब ढाई सौ साल पहले और 1947 के दौर की पत्रकारिता का इतिहास हिन्दी पत्रकारिता के लिये स्वर्णकाल था। इस कालखंड की पत्रकारिता का एकमात्र मिशन अंग्रेजों से भारत को मुक्त कराना था और अपने प्रकाशनों के माध्यम से वे जनमत निर्माण का कार्य कर रहे थे। 1947 की स्वतंत्रता के बाद स्वाधीन भारत में पत्रकारिता ने एक नई करवट ली। पत्रकारिता, खासतौर पर हिन्दी पत्रकारिता के समक्ष एक नये भारत की रचना की जवाबदारी थी। तब पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाना कोई संवैधानिक विषय नहीं है बल्कि उसकी जवाबदारी के चलते माना गया कि पत्रकारिता का लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। देश के समग्र विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं का श्रीगणेश किया गया। इन योजनाओं के क्रियान्वयन पत्रकारिता ने पैनी नजर रखी और परिणामस्वरूप अनेक स्तर पर अनियमितताओं पर नियंत्रण पाया जा सका।
साल 1947 के बाद से 1975 के पहले तक पत्रकारिता अपने स्वर्णकाल को खोकर रजतकाल में पहुंच चुका था। पत्रकारिता में गिरावट तो दिखने लगी थी लेकिन वह केवल छाया भर थी। साल 1975 में आपातकाल के समय से पत्रकारिता का वैभव गुम होता दिखा। हालांकि पत्रकारिता का वैभव गुमनाम नहीं हुआ था बल्कि अधिसंख्य पत्र मालिकों ने सरकार के समक्ष घुटने टेक दिये थे। पत्र मालिकों के गिरवी हो जाने से पत्र में काम करने वाले पत्रकारों की स्वतंत्रता पर भी नियंत्रण स्वाभाविक था। हालांकि हिन्दी पत्रकारिता इस बात के लिये गौरव का अनुभव कर सकती है कि इस बुरे समय में भी कुछ अखबारों ने अपने तेवर को बनाये रखा। यह भी सच है कि थोड़े ही सही, किन्तु इन अखबारों के तेवर से सरकार भीतर से भयभीत थी। दरअसल, यह पत्रकारिता के लिये संक्रमण काल था। एक तरफ बड़ी संख्या में पत्र मालिक सरकार के जीहुजूरी में लग गये थे तो कुछ अखबार विरोध में खड़े थे।
आपातकाल की समाप्ति के बाद भारत में पत्रकारिता का तेवर और तस्वीर एकदम से बदलने लगी। समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशनों की संख्या में निरंतर वृद्धि होने लगी। पत्रकारिता में गुणवत्ता का लोप होने लगा और संख्या बल बढ़ जाने से आहिस्ता आहिस्ता पत्रकारिता मिशन के स्थान पर प्रोफेशन बन गयी। पत्रकार प्रोफेशनल होने लगे और प्रकाशक उद्योगपति। अखबारों का सामाजिक सरोकार नेपथ्य में चला गया और अखबार एक उत्पाद बन कर रह गया। यह वही समय है जब ‘पीत पत्रकारिता’ अपने शबाब पर थी। किसी को महिमामंडित करना अथवा किसी की मानहानि करना, इस नये उद्योग को सुहाने लगा था। बदले में उसे मनमाफिक लाभ भी मिलता था। पत्रकार अब प्रोफेशनल हो चले थे, सो लेखनी की वह धार भी कम होती महसूस हो रही थी।
पत्रकारिता उनके लिये नौकरी से ज्यादा कुछ नहीं था। सम्पादक नाम की संस्था को विलोपित किये जाने की साजिश भी इसी कालखंड में हुई थी। हिन्दी पत्रकारिता में न सम्पादक की कुर्सी बची और न पत्रकार। ऐसे दौर में ‘जनसत्ता’ का प्रकाशन एक शुभ संकेत था। मालवा की भूमि से आये पत्रकार प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ का सम्पादकीय दायित्व सम्भाला और हिन्दी पत्रकारिता को एक नये उजास से भर दिया। गुमनाम सम्पादक संस्था को प्रभाषजी ने एक नयी पहचान दी और साथ में पत्रकारों को खबर ठोंकने की पूरी स्वाधीनता।
‘जनसत्ता’ वर्तमान में भी अपने तेवर के साथ पाठकों के बीच उपस्थित है किन्तु शताब्दि परिवर्तन के साथ साथ हिन्दी पत्रकारिता का समूचा चरित्र परिवर्तित हो गया। पत्रकारिता का स्वरूप मीडिया में बदल चुका है तो पत्रकारिता की टेक्नालॉजी के स्थान पर टेक्नालॉजी की पत्रकारिता ने स्थान बनाया। पत्रकारिता तकनीकी रूप से समृद्ध हो गई किन्तु सामाजिक सरोकार पीछे छूट गये। कॉर्पोरेट कल्चर की इस पत्रकारिता में साहब के कुत्ते पहले पन्ने की खबर बनने लगे और रामदीन अपनी गरीबी में ही मर गया। इस दौर में एक नयी परिभाषा गढ़ी गई- जो दिखता है, वह बिकता है।
पत्रकारिता कभी बिकाऊ थी नहीं, सो उसने रास्ता बदल लिया और मीडिया ने इस रिक्त स्थान पर कब्जा पा लिया। वह दिखने और बिकने की पत्रकारिता कर रहा है। तकनीकी रूप से सक्षम हो जाने के बाद तथ्यों की पड़ताल करने का वक्त नहीं है और समझ भी। ‘कट एंड पेस्ट’ की इस पत्रकारिता ने समूचे पत्रकारिता की परिभाषा बदल दी है। ढाई सौ साल की पत्रकारिता शनै:शनै: किस तरह रसातल में जा रही है, इसका उदाहरण है पेडन्यृज। कल जिसे हम पीत पत्रकारिता कहते थे, आज वह पेडन्यूज की श्रेणी में गिना जाने लगा है। बीते एक दशक में पेडन्यूज का मामला बेहद गर्माया हुआ है। कुछ मामले सामने भी आये हैं किन्तु किसी एक अखबार, पत्रिका या पत्रकार को सजा मिली हो, ऐसी खबर सुनने में मुझसे चूक हो गई है। हालांकि दो-एक राज्य में पेडन्यूज के आरोप में राजनेताओं पर कड़ी कार्यवाही की गई है।
तकनीकी पत्रकारिता के इस वृहद स्वरूप के लिये बहुत हद तक मीडिया शिक्षा जवाबदार है। देश में पिछले बीस वर्षों में अनेक विश्वविद्यालय आरंभ हो गये हैं जहां मीडिया शिक्षा दी जाती है, पत्रकारिता नहीं। इन विश्वद्यिालयों से शिक्षा प्राप्त करने वाले युवा पत्रकारों की मंजिल अखबार के पन्ने नहीं होते हैं बल्कि टेलीविजन चैनल होते हैं। जिस चमक-धमक के फेर में वे टेलीविजन की नौकरी करने जाते हैं और जब सच का सामना होता है तो विश्वविद्यालय में पढ़े और पढ़ाये गये सारे अध्याय बेमानी लगते हैं।
पत्रकारिता की जमीन कभी रेशम बिछी कालीन वाला रास्ता नहीं हो सकता है किन्तु मीडिया का रास्ता ही रेशमी कालीन से आरंभ होता है। इस रेशमी कालीन पर चलने के लिये अनेक किसम के उपाय करने होते हैं जिसे आप साम-दाम और दंड-भेद कह सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इन विश्वविद्यालयों से निकले सभी विद्यार्थी नाकाम होते हैं। बहुत सारे ऐसे विद्यार्थी हैं जो रेशमी कालीन पर चलने लिये जो कुछ करना होता है, करते हैं और कामयाबी के शीर्ष पर बैठते हैं।
थोड़ा तहकीकात करने की जरूरत होगी कि अल्पवय में ही वे करोड़ों के स्वामी बन गये हैं। इस तरह का निर्लज्ज व्यवहार वाला पत्रकार कैसे हो सकता है? शायद यही कारण है कि इन एक नया शब्द इनके लिये गढ़ा गया है- ‘मीडिया कर्मी’। एक कर्मचारी से आप क्या उम्मीद करते हैं? उसका पूरा समय तो इसी गुणा-भाग में निकल जाता है कि वह अपना हित कैसे साधे? कैसे कामयाबी के शिखर तक पहुंचे? ऐसे में वह किसी रामदीन की पीड़ा को समझने की मुसीबत क्यों ले? वह उन खबरों को तव्वजो दे जो उसके संस्थान को अधिकाधिक लाभ दिला सके। मेरे पैंतीस वर्षों के पत्रकारिता जीवन में कभी मैंने ‘पत्रकार कर्मी’ शब्द नहीं सुना क्योंकि एक पत्रकार कभी कर्मचारी हो नहीं सकता। वह तो हमेशा से सामाजिक सरोकार, जनसरोकार से जुड़ा हुआ है। उसके लिये उसका निजी हित कुछ भी नहीं है। एक पत्रकार के लिये उसकी अपनी पीड़ा से किसी रामदीन की पीड़ा ज्यादा अहमियत वाली होती है। एक पत्रकार, किसान की तरह होता है। वह आरंभ से अंत तक कलम घिसते हुये मर जाता है। वह मालिक नहीं बन पाता है जो मालिक बन जाता है, वह पत्रकार नहीं होता है, इस बात पर कोई संशय नहीं होना चाहिये।
इन दिनों इस बात को लेकर विलाप किया जा रहा है कि खबरों का कोई प्रभाव नहीं होता है। यह सच है कि खबरों का प्रभाव नहीं होता है और हो भी कैसे? जब आप खबर नहीं, सूचना दे रहे हैं। खबरों का अर्थ होता है किसी सूचना के तथ्यों तथा आंकड़ों का गहन परीक्षण एवं उसका विशेषण। आधी-अधूरी सूचना और पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर खबरों के प्रकाशन को समाज क्यों गंभीरता से ले? ‘स्टिंग ऑपरेशन’ के नाम पर जो गंदगी की जा रही है, उसे भारतीय समाज सहन नहीं कर पाता है। खोजी पत्रकारिता के नाम पर किसी को व्यक्तिगत रूप से लांछित करना पत्रकारिता की मर्यादा के खिलाफ है। खोजी पत्रकारिता ही करनी है तो पत्रकार अरूण शौरी की बोफोर्स रिपोर्ट को नजीर क्यों नहीं माना जाता?
पत्रकार गिरिजाशंकर द्वारा कैदी को दिये जाने वाली फांसी का आंखों देखा हाल कवर करने का विषय नयी पीढ़ी के लिये खोजी पत्रकारिता का विषय क्यों नहीं होता है? ‘ऑपरेशन चक्रव्यूह’ के तहत सांसदों का स्टिंग ऑपरेशन किया गया था। कुछ की सांसदी भी गयी थी। इस ऑपरेशन से कुछ सांसदों के स्टिंग कर उन्हें कटघरे में खड़ा किया गया, यह अनुचित नहीं है किन्तु क्या शेष सांसद एकदम पाक-साफ थे? सवाल के जवाब की प्रतीक्षा में खड़ा हूं। यह पत्रकारिता की मर्यादा के प्रतिकूल है कि हम कुछ लोगों पर तो अंगुलियां उठायें और शेष को अनदेखा कर दें। सभी को कटघरे में खड़ा करने का साहस जब आयेगा तब पत्रकारिता दुबारा अपना वैभव प्राप्त कर सकेगी।
(लेखक भोपाल से प्रकाशित मासिक शोध पत्रिका “समागम” के संपादक है)