– डॉ वर्तिका नन्दा
तस्वीरें बहुत कुछ कहती हैं। तस्वीरें बिना शब्दों के भी हकीकत बयान करने की ताकत रखती हैं। यही तस्वीरें जब चलने-फिरने लगती हैं और बतियाती हैं तो इनकी ताकत को कुछ और पंख मिल जाते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने के बाद यही हुआ है। पंखों ने खबरों की खिड़कियां खोल दी हैं और हैरान करती फुर्ती के साथ दुनिया को एक नन्हें-से गांव में तब्दील कर दिया है।
इस आधुनिक गांव में दर्शक के लिए बहुत कुछ है। यहां राजनीति, अपराध, फिल्म, खेल, मौसम, मनोरंजन – सब है। ब्रिटेन के एक सांसद ने बरसों पहले कह दिया था कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। मीडिया वॉच डॉग है। मीडिया जनता का प्रतिनिधि है जिसका काम बाकी तीनों स्तंभों पर पहरेदार जैसी पैनी नजर रखना है। जहां चूक हुई, वहां मीडिया को सतर्क होकर सूचना देने, शिक्षित करने और जागृत करने के काम में जुट जाना है। तीनों स्तंभों पर लगातार नजर गढ़ाने के बावजूद मीडिया की जड़ें इनमें से किसी में न हों, इसके लिए चाहिए – अनुशासन और आत्म-नियंत्रण भी। इस नियंत्रण के बीच मीडिया, खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, पूंजी और टीआरपी के दबाव में भी रहा है। इस दबाव में कभी राजनीति हावी होते दिखी, कभी क्रिकेट, कभी रिएलिटी शो लेकिन इनमें सदाबहार रहा-अपराध। अपराध इसलिए कि यह हमेशा बिकता है और समाज के कड़वे सच को उधेड़ कर सामने रखता है। अपराध में वो सब है जो उसे बिकाऊ बना सकता है यानी राजनीति, खेल, खिलाड़ी और यहां तक कि रिएलिटी भी।
इसी वजह से करीब 225 साल पुराने प्रिंट मीडिया और 60 साल से टिके रहने की जद्दोजहद कर रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरों का पैमाना अपराध की बदौलत अक्सर छलकता दिखाई देता है। टेलीविजन के 24 घंटे चलने वाले व्यापार में अपराध खुशी और सुकून देने की एक बड़ी वजह रहा है क्योंकि अपराध की नदी कभी नहीं सूखती। मालिक और पत्रकार दोनों यह मानते हैं कि अपराध की एक बेहद मामूली खबर में भी अगर रोमांच, रहस्य, मस्ती और जिज्ञासा का पुट मिला दिया जाए तो वह चैनल के लिए आशीर्वाद बरसा कर उसकी तिजोरी में जोरदार खनक भर सकती है। लेकिन जनता भी ऐसा ही मानती हो, इसके कोई पुख्ता सुबूत नहीं हैं।
बुद्धू बक्सा कहलाने वाला टीवी अपने जन्म के कुछ ही साल बाद इतनी तेजी से करवटें बदलने लगेगा, इसकी कल्पना आज से कुछ साल पहले शायद किसी ने भी नहीं की होगी लेकिन हुआ यही है और यह बदलाव अपने आप में एक बड़ी खबर भी है। मीडिया क्रांति के इस युग में हत्या, बलात्कार, छेड़-छाड़, हिंसा- सभी में कोई न कोई खबर है। यही खबर 24 घंटे के चैलन की खुराक है। अखबारों के पेज तीन की जान हैं। इसी पर मीडिया का अस्तित्व टिका है। नई सदी के इस नए दौर में यही है- क्राइम रिपोर्टिंग और इसे कवर करने वाला क्राइम रिपोर्टर भी कोई मामूली नहीं है। हमेशा हड़बड़ी में दिखने वाला, हांफता-सा, कुछ खोजता- सा बेचैन प्राणी ही वह अपराध पत्रकार है जो तुरंत बहुत कुछ कर लेना चाहता है। उसके सामने चुनौतियों का समंदर है। यहां चुनौती सिर्फ अपराध को कवर करने की नहीं है। चुनौती यह भी है कि कवरेज की दौड़ में वो अव्वल हो और उसके पास हमेशा ही कुछ अलग सामान मौजूद हो। उसमें खबर को पकड़ कर उसे परोसने की महारत हो और जरूरत पड़ने पर खबर में से एक और खबर को पैदा कर देने की भी।
समय के साथ मीडिया का मूड और उसका बायोडेटा बदलता चला गया है। सूचना क्रांति का यह दौर दर्शक को जितनी हैरानी में डालता है, उतना ही खुद मीडिया में भी लगातार सीखने की ललक और अनिवार्यता को बढ़ाता है। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि इस क्रांति ने देश भर की युवा पीढ़ी में मीडिया से जुड़ने की अदम्य चाहत तो पैदा की है लेकिन इस चाहत को पोषित करने के लिए लिखित सामग्री और बेहद मंझा हुआ प्रशिक्षण लगभग नदारद है। ऐसे में सीमित मीडिया लेखन और भारतीय भाषाओं में मीडिया संबंधी काफी कम काम होने की वजह से मीडिया की जानकारी के स्रोत तलाशने महत्वपूर्ण हो जाते हैं। समाचार मीडिया के फैलाव के साथ अपराध रिपोर्टिंग मीडिया की एक प्रमुख जरुरत के रुप में सामने आई है। इसलिए अपराध से जुड़े समाचारों की मांग के चलते इसके विविध पहलुओं की जानकारी की अनिवार्यता से अब बचा नहीं जा सकता।
24 घंटे के न्यूज चैनलों के आगमन के साथ ही तमाम परिभाषाएं और मायने तेजी से बदल दिए गए हैं। यह साफ है कि अपराध जैसे विषय गहरी दिलचस्पी जगाते हैं और कई बार टीआरपी बढ़ाने का काम भी करते हैं। इसलिए अब अपराध नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अपराध रिपोर्टिंग से न्यूज की बुनियादी समझ को विकसित करने में काफी मदद मिलती है। इससे अनुसंधान, संयम, दिमागी संतुलन और निर्णय क्षमता को मजबूती भी मिलती है। जाहिर है जिंदगी को बेहतर ढंग से समझने में अपराधों के रुझान का अध्ययन मददगार हो सकता है। साथ ही अपराध की दर पूरे देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक सेहत और कानून व्यवस्था का भी सटीक अंदाजा दिलाती है। इसलिए अपराध को समाज का थर्मामीटर माना जा सकता है।
फंतासी और सच के बीच आज का अपराध
टीवी के 24 घंटे के समाचार चैनलों ने अपराध, युद्ध, आतंक, विवाद – इनके भरोसे अपनी दुकानें शुरू की। हिंसा और मौत की तस्वीरें चैनलों के लिए विटामिन साबित हुईं। हादसे और अपराध, चाहे वे इंसान के उपजाए हों( युद्ध, दंगे, हत्याएं), प्राकृतिक हों (बाढ़, भूकंप, तूफान, सुनामी) या दोनों ही वर्गों का मिश्रण हों ( अकाल), चैनलों के लिए उपयोगी सामग्री बने। 24 घंटे के चैनलों की क्षमता का आभास सीएनएन और अफगनिस्तान पर अमरीकी हमले के दौरान अल-जजीरा के काम से हो हो गया था। सीएनएन की वजह से चौबीसों घंटे के समाचार चैनलों की परंपरा का उदघाटन हुआ। कहा यह भी गया कि अल-जजीरा जैसे समाचार चैनलों की कामयाबी की सीधी वजह यह थी कि यह राजनीतिक रूप से दुनिया के सबसे संवेदनशील इलाके से एक संवेदनशील मसले पर खुद को केंद्रित किए हुए थे। युद्ध के मैदान में सीधे लाइव जाने की आदत इसी दौर में पड़ी। इसने यह भी जाहिर कर दिया कि एक्शन में बुनी तस्वीरें, नाटकीयता, युद्ध और तनाव को देखने के लिए दर्शक तैयार भी है और बेकरार भी। यह इंफोटेंमेंट का दौर है और जरूरी नहीं कि दर्शक युद्ध की तस्वीरों से खौफ ही खाता हो। दर्शक युद्ध को अलग-अलग कोणों से समझने की उत्सुकता रखता है और वह भय की अलग-अलग परतों से बाहर आकर खुलेपन में इन्हें विश्लेषित करना चाहता है।
दरअसल जिंदगी के शब्दकोष में अपराध हमेशा मौजूद रहे हैं। पौराणिक गाथाओं में भी अपराध बहुतायत में दिखाई देते हैं। कई बार छोटे अपराधों ने युद्ध की शक्ल भी ले ली। इसी तरह कला, साहित्य, संस्कृति में अपराध तब भी झलकता था जब प्रिंटिंग प्रेस का अविष्कार भी नहीं हुआ था लेकिन समय के साथ-साथ अपराध की अवधारणाएं बदलीं और धीरे-धीरे 19वीं सदी के उत्तरार्ध और 20वीं सदी की शुरूआत से अपराध समाचार मीडिया में एक बीट के रुप में उभर आया। अभी दो दशक पहले तक दुनिया भर में जो महत्व राजनीति और वाणिज्य को मिलता था, वह महत्व अब अपराध को मिलने लगा है। धीरे-धीरे लंदन के टेबलायड समाचार पत्रों ने भी अपराध रिपोर्टिंग की संभावनाओं और उसकी कवरेज पर बाजार से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं को महसूस किया और इसके साथ ही अपराध की कवरेज बढ़ने लगी। अपराध रिपोर्टिंग के विस्तार की पदचाप अब साफ सुनाई देने लगी।
इसकी एक बड़ी वजह था – आतंकवाद। उस समय दुनिया भर में आतंकवाद किसी न किसी रूप में हावी था और बड़ा आतंकवाद अक्सर छोटे अपराध से ही पनपता है, यह भी काफी हद तक स्वीकार्य है। इसलिए अपराधों को आतंकवाद के बौने रुप में देखा-समझा जाने लगा। अपराध और खोजी पत्रकारिता ने जनमानस को सोचने की खुराक भी सौंपी। चाहे अपराध हो या भ्रष्ट आचरण, इन्हें दिखाना विधिसंगत काम है और इसकी सम्मानित परंपरा भी रही है। इस मामले में मिसालें भी कोई कम नहीं। वुडवर्ड और बर्नस्टन के अथक प्रयासों की वजह से ही वॉटरगेट मामले का खुलासा हुआ था जिसकी वजह से अमरीका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को अपना पद तक छोड़ना पड़ा था। जापान के प्रधानमंत्री तनाका को भी पत्रकारों की जागरुकता ही नीचा दिखा सकी। इसी तरह नैना साहनी मामले के बाद सुशील शर्मा का राजनीतिक भविष्य अधर में ही लटक गया। 2009 में आंध्र प्रदेश के राज्यपाल 86 वर्षीय नारायण दत्त तिवारी को तेलुगु चैनल एबीएन आंध्र ज्योति के स्टिंग आपरेशन के बाद अपनी गद्दी को अलविदा कहना पड़ा। चैनल में उन्हें राजभवन में तीन महिलाओं के साथ आपत्तिजनक अवस्था में दिखाया गया था। उत्तर प्रदेश के शहर नोएडा में सामने आए निठारी कांड की गूंज संसद में सुनाई दी और आरूषि की हत्या के उलझे फंदों ऐसी राष्ट्रीय बहस खड़ी कर दी कि मामले की जांच कई परतों में करनी पड़ी। प्रियदर्शिनी मट्टू, जेसिका लाल, नीतिश कटारा जैसे मामलों में जनता ने गहरी दिलचस्पी दिखाई और मीडिया ने भी इस दिलचस्पी में रंग भर कर उन्हें जीवंत बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 2009 में जेसिका लाल हत्याकांड का आरोपी मनु शर्मा जब दो हफ्ते के लिए पैरोल पर बाहर आकर दिल्ली के एक होटल के बार में पाया जाता है तो इसी मीडिया के दबाव में रसूखवालों को मजे से पैरोल मिलने के मुद्दे पर हंगामा खड़ा होता है और मनु को समय से पहले तिहाड़ लौटना पड़ता है। इंडियन एक्सप्रेस ने बरसों पहले कमला की कहानी से यह साबित किया था कि भारत में महिलाओं की खरीद-फरोख्त किस पैमाने पर की जा रही थी। यहां तक कि भोपाल की यूनियन कार्बाइड के विस्फोट की आशंका की भविष्यवाणी भी एक पत्रकार, राजकुमार केसवानी, ने कर दी थी।
मीडिया एकजुट होना भी जानता है। डेनियल पर्ल की हत्या पर देशी-विदेशी मीडिया आपस में गुंथ जाता है। तालिबानी जब एक युवती पर सरेआम कोड़े बरसाते हैं तो मीडिया बेहिचक इन कोड़ों की आवाज को बार-बार सुनाकर जैसे तालिबानियों को ही कोड़े मारने की कोशिश करने लगता है। वह समाज की दीमक को उखाड़ फेंकने के लिए बेसब्र दिखता है। इस तरह की कई मिसालों ने अपराध और खोजबीन के प्रति समाज की सोच को बार-बार बदला। कभी जनता ने इसे सराहा तो कभी नकारा। राजकुमारी डायना की दुर्घटना के समय पपराजी( चर्चित हस्तियों के निजी जीवन की तस्वीर उतारने को आतुर फोटोग्राफर) डायना के फोटो खींचने में ही व्यस्त दिखे और यहां भारत में भी गोधरा की तमाम त्रासदियों के बीच मीडिया के लिए ज्यादा अहम यह था कि पहले तस्वीरें किसे मिलती हैं। दूसरी तरफ संसद पर हमले से लेकर मुंबई हमले तक की घटनाएं एक विस्तृत दायरे में बहुत गंभीरता और दिलचस्पी के साथ देखी गईं। जनता ने इन घटनाओं को सिरे तक जाकर समझने में पूरी रूचि दिखाई और वह पाकिस्तान के साथ रिश्तों की व्याख्या खुद भी करने लगी। अब जनता गूंगी नहीं है। वह सक्रिय भागेदारी करने लगी है, कभी टीवी पर बोल कर, कभी एसएमएस कर तो कभी वेबसाइट पर लिख कर।
90 के दशक में, जबकि अपराध की दर गिर रही थी, तब भी क्राइम रिपोर्टिंग और खोजबीन का शौक बना रहा। हाई-प्रोफाइल अपराधों ने दर्शकों और पाठकों में अपराध की जानकारी और खोजी पत्रकारता के प्रति ललक को बनाए रखा। अमरीका में वॉटर गेट प्रकरण से लेकर भारत में आरूषि कांड तक अनगिनित मामलों ने अपराध और खोजबीन के दायरे में एकाएक समाचार मीडिया और उसके जरिए आम लोगों को भी खींच लिया। लोगों की अपराध कथाओं में दिलचस्पी का ग्राफ ऊपर की तरफ चढ़ने लगा। अपराध कथाओं में वह सब था जो लोगों को खींचता है – जैसे रहस्य, रोमांच, ड्रामा, भावनाएं, संघर्ष, प्रेम, विश्वासघात वगैरह। भारत में सत्तर और अस्सी के दशक में मनोहर कहानियां, सत्यकथा और नूतन कहानियां जैसी अपराध की विस्तृत रिपोर्टों से भरी पत्रिकाओं का सर्कुलेशन धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और दिनमान जैसी गंभीर पत्रिकाओं की तुलना में कई गुना ज्यादा था। इसमें कोई दोराय नहीं है कि अपराध कथाओं पर आधारित पत्रिकाओं की सफलता ने मुख्यधारा के मीडिया को भी खूब प्रभावित किया। उन्होंने एक विशेष किस्म का पाठक वर्ग तैयार किया जो अपराध कथाओं में भरपूर दिलचस्पी लेता था। इनके दबाव में अखबारों में स्थानीय पृष्ठों पर अपराध की खबरों को अनिवार्य माना जाने लगा और धीरे-धीरे उनके लिए भी जगह का विस्तार होने लगा। आपराधिक घटनाओं की रिपोर्टिंग में छानबीन, विश्लेषण और फॉलो-अप पर जोर बढ़ने के साथ-साथ उन्हें आकर्षक बनाने के लिए उन्हें अधिक से अधिक सनसनीखेज बनाने का चलन जोर पकड़ने लगा।
वैसे भी नए माहौल में अपराध और आंतक को हाशिए पर नहीं धकेला जा सकता। अपराध दुनिया के मानचित्र पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका है। 2009 में अमरीका की प्रिंस्टन यूनीवर्सिटी की रिपोर्ट में कहा गया कि आतंकवाद के निशाने पर ज्यादातर विकसित देश हैं। इनमें अमरीका, कनाडा, चीन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, रूस, ब्रिटेन के अलावा भारत जैसे देशों का हवाला दिया गया जो आतंकवाद के निशाने पर रहे हैं।
लेखक परिचय : डॉ वर्तिका नन्दा मीडिया शिक्षण, मी़डिया लेखन और पत्रकारिता के जरिए वे महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के प्रति सामाजिक जागरूकता लाने में लगातार सक्रिय रही हैं।
कार्यक्षेत्र : बलात्कार और प्रिंट मीडिया की रिपोर्टिंग पर पीएचडी की। फिलहाल वे दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्री राम कॉलेज के पत्रकारिता विभाग में अध्यापन करती हैं और इससे पहले जी टीवी, एनडीटीवी, भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली और लोकसभा टीवी से जुड़ी रही हैं। वे लोकसभा टीवी की पहली एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर बनीं और उसकी नींव से निर्माण तक का प्रमुख हिस्सा रहीं।
विशेष : भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने 8 मार्च, 2014 को राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर स्त्री-शक्ति पुरस्कार-2013 प्रदान किया। रानी गायडिनलियू जेलियांग पुरस्कार उन्हें मीडिया और साहित्य के जरिए महिला अपराधों के प्रति जागरूकता लाने के लिए दिया गया है। 1991 से शुरू किए गए यह पुरस्कार हर साल विभिन्न वर्गों में 5 महिलाओं को उनके उत्कृष्ट कामों के लिए दिए जाते हैं।
रानियां सब जानती हैं : वाणी प्रकाशन से 2015 में प्रकाशित यह किताब चर्चा में है। सुनंदा पुष्कर का जाना, एसिड अटैक से पीड़ित युवतियां या बदबूदार गलियों में अपने शरीर की बोली लगातीं, निर्भया या फिर बदायूं जैसे इलाकों में पेड़ पर लटका दी गईं युवतियां इस संग्रह की सांस हैं।
तिनका तिनका तिहाड़ : वर्तिका अपराध पत्रकारिता को लेकर नए प्रयोग करने के लिए पहचानी जाती हैं। इनकी किताब तिनका तिनका तिहाड़ (2013) का राजकमल से हिंदी और अंग्रेजी में प्रकाशन हुआ (विमला मेहरा, महानिदेशक, तिहाड़ जेल के साथ संपादन।
महिला अपराध पर पहला कविता संग्रह : 2012 में थी. हूं ..रहूंगी..का राजकमल से ही प्रकाशन। घरेलू हिंसा पर यह देश का पहला कविता संग्रह रहा। इस किताब ने महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा की तरफ साहित्यिक ढंग से ध्यान दिलाया। इस किताब को 2012 में ही डॉ राधाकृष्णन मेमोरियल नेशनल मीडिया अवार्ड और ऋतुराज परंपरा सम्मान मिला।
अन्य पुस्तकें : 2014 में मीडिया के लेखों के संकलन – खबर यहां भी का प्रकाशन। इससे पहले राजकमल से मरजानी और टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग का प्रकाशन। 2006 में टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता का आईआईएमसी से प्रकाशन। इस किताब को भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान( 2007) दिया गया था।
लघु फिल्म : उन्होंने घरेलू हिंसा पर अपनी एक कविता के आधार पर एक लघु फिल्म बनाई – नानकपुरा कुछ नहीं भूलता। यह फिल्म भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अलावा सीबीएसई के यूट्यूब चैनल का भी एक हिस्सा है। इस फिल्म को 2015 में उत्तर भारत की बतौर सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री लाडली मीडिया अवॉर्ड दिया गया।
सम्मान : इनको मिले प्रमुख सम्मानों में भारत के राष्ट्रपति से स्त्री शक्ति पुरस्कार के सम्मान के अलावा लाडली मीडिया सम्मान, उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री के हाथों 2013 में यूथ आइकॉन अवॉर्ड, 2012 में ऋतुराज परंपरा सम्मान, डॉ राधाकृष्ण मीडिया अवार्ड, 2007 में टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता को भारतेंदु हरिश्चंद्र अवॉर्ड और सुधा पत्रकारिता सम्मान शामिल हैं।