सुभाष धूलिया |
अपने रोजमर्रा के जीवन की एक नितांत सामान्य स्थिति की कल्पना कीजिए। दो लोग आसपास रहते हैं और लगभग रोज मिलते हैं। कभी बाजार में, कभी राह चलते और कभी एक-दूसरे के घर पर। उनकी भेंट के पहले कुछ मिनट की बातचीत पर ध्यान दीजिए। हर दिन उनका पहला सवाल क्या होता है? ‘क्या हालचाल है?’ या ‘कैसे हैं?’ या फिर ‘क्या समाचार है?’ रोजमर्रा के इन सहज प्रश्नों में ऊपरी तौर पर कोई विशेष बात नहीं दिखाई देती। इन प्रश्नों को ध्यान से सुनिए और सोचिए। इसमें आपको एक इच्छा दिखाई देगी। नया और ताजा समाचार जानने की। पिछले कुछ घंटे का हाल जानने की। या बीती रात की खबरें। कल से आज के बीच या कुछ घंटों के अंतराल में आए बदलाव की जानकारी। यानी हम अपने मित्रों, रिश्तेदारों और सहकर्मियों से हमेशा उनकी कुशलक्षेम या उनके आसपास की घटनाओं के बारे में जानना चाहते हैं।
कहने की जरूरत नहीं है कि अपने आसपास की चीजों, घटनाओं और लोगों के बारे में ताजा जानकारी रखना मनुष्य का सहज स्वभाव है। उसमें जिज्ञासा का भाव बहुत प्रबल होता है। यही जिज्ञासा समाचार और व्यापक अर्थ में पत्रकारिता का मूल तत्व है। जिज्ञासा नहीं रहेगी तो समाचार की भी जरूरत नहीं रहेगी। पत्रकारिता का विकास इसी सहज जिज्ञासा को शांत करने के प्रयास के रूप में हुआ। वह आज भी इसी मूल सिद्धांत के आधार पर काम करती है।
पत्रकारिता क्या है?
असल में, ये सूचनाएं अगला कदम तय करने में हमारी सहायता करती हैं। इसी तरह हम अपने पास-पडोस, शहर, राज्य और देश दुनिया के बारे में जानना चाहते हैं। ये सूचनाएं हमारे दैनिक जीवन के साथ-साथ पूरे समाज को प्रभावित करती हैं। यही कारण है कि आधुनिक समाज में सूचना और संचार माध्यमों का महत्व बहुत बढ़ गया है। आज देश-दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उसकी अधिकांश जानकारियां हमें समाचार माध्यमों से मिलती हैं। सच तो यह है कि हमारे प्रत्यक्ष अनुभव से बाहर की दुनिया के बारे में हमे अधिकांश जानकारियां समाचार माध्यमों द्वारा दिए जाने वाले समाचारों से ही मिलती है।
हम हर दिन समाचारपत्र पढ़ते हैं या टेलीविजन और रेडियो पर समाचार सुनते हैं या फिर इंटरनेट पर समाचार देखते और पढ़ते हैं। इन विभिन्न समाचार माध्यमों के जरिये दुनियाभर के समाचार हमारे घरों में पहुंचते हैं। समाचार संगठनों में काम करनेवाले पत्रकार देश-दुनिया में घटनेवाली घटनाओं को समाचार के रूप में परिवर्तित करके हम तक पहुंचाते हैं। इसके लिए वे रोज सूचनाओं का संकलन करते हैं और उन्हें समाचार के प्रारूप में ढालकर प्रस्तुत करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को ही पत्रकारिता कहते हैं।
बॉक्स- हर प्रेरक और उत्तेजित कर देने वाली सूचना समाचार है। समय पर दी जाने वाली हर सूचना समाचार का रूप अख्तियार कर लेती है। किसी घटना की रिपोर्ट ही समाचार है। समाचार जल्दी में लिखा गया आने वाले कल का इतिहास है।
समाचार क्या है?
लेकिन क्या हर घटना, समाचार है? क्या वह हर बात समाचार है जिसके बारे में हमें पहले जानकारी नहीं थी? क्या एक-दूसरे का आपसी हालचाल और खोजखबर लेना भी समाचार है? क्या वह सब समाचार है जिसके बारे लोग जानना चाहते हैं या जिसके बारे में लोगों को जानना चाहिए? या फिर समाचार वह है जिसे एक पत्रकार समाचार मानता है? या समाचार वह है जिसे समाचार माध्यमों के मालिक और संचालक समाचार मानते हैं? निश्चय ही, मित्रों, रिश्तेदारों और सहकर्मियो से आपसी कुशल क्षेम और हालचाल का आदान-प्रदान उस अर्थ में समाचार नहीं है कि उन्हें समाचार माध्यमों में जगह मिले।
यहां हमारा आशय उस तरह के समाचार से है जो समाचार माध्यमों के जरिये हजारों-लाखों लोगों तक पहुंचाया जाता है। ऐसे समाचार अपने समय के विचार, घटना और समस्याओं के बारे में लिखे जाते हैं। ये समाचार ऐसी सम सामयिक घटनाओं, समस्याओं और विचारों पर आधारित होते हैं जिन्हें जानने की अधिक से अधिक लोगों में दिलचस्पी होती है और जिनका अधिक से अधिक लोगों पर प्रभाव पड़ता है।
पत्रकार ही किसी भी समाचार के चयन, आकार और उसकी प्रस्तुति का निर्धारण करते हैं। एक समाचारपत्र में एक समाचार मुख्य समाचार (लीड स्टोरी) हो सकता है और किसी अन्य समाचारपत्र में वही समाचार भीतर के पृष्ठोंï पर कहीं एक कॉलम का समाचार हो सकता है। एक टेलीविजन चैनल के लिए अमिताभ बच्चन के जन्मदिन का समाचार पहला मुख्य समाचार हो सकता है तो संभव है कि कोई अन्य चैनल इराक में युद्ध को या आर्थिक विकास को लेकर दिए गए प्रधानमंत्री के बयान को अपनी मुख्य खबर बनाए।
दरअसल, समाचार के उपभोक्ता यानी पाठक, दर्शक और श्रोता अपने मूल्यों, रुचियों और दृष्टिïकोणों में बहुत विविधताएं और भिन्नताएं लिए होते हैं। इन्हीें के अनुरूप उनकी प्राथमिकताएं भी निर्धारित होती हैं। परंपरागत पत्रकारिता के मानदंडों के अनुसार समाचार मीडिया को लोगों की सूचनाओं की जरूरत और चाहत के बीच संतुलन कायम करना पड़ता है। कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जिनके बारे में हमें जानकारी होना आवश्यक है और कुछ घटनाएं ऐसी भी होती हैं जिनके बारे में पढक़र या सुनकर या देखकर हमें मज़ा आता है। इन दिनों समाचार मीडिया में मज़ेदार और मनोरंजक समाचारों को प्राथमिकता देने का रुझान प्रबल हुआ है।
समाचार के तत्त्व
लोग आमतौर पर अनेक काम मिलजुल कर करते हैं। सुख-दु:ख की घड़ी में वे साथ होते हैं। मेलों और उत्सवों में वे साथ होते हैं। दुर्घटनाओं और विपदाओं के समय वे साथ होते हैं। इन सबको हम घटनाओं की श्रेणी में रख सकते हैं। फिर लोगों को अनेक छोटी-बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। गांव, कस्बे या शहर में बिजली-पानी के न होने से लेकर बेरोजगारी और आर्थिक मंदी जैसी समस्याओं से उन्हें जूझना होता है। इसी तरह लोग अपने समय की घटनाओं, रुझानों और प्रक्रियाओं पर सोचते हैं। उन पर विचार करते हैं और इन सब को लेकर कुछ करते हैं या कर सकते हैं। इस तरह की विचार मंथन की प्रक्रिया के केंद्र में इनके कारणों, प्रभाव और परिणामों का संदर्भ भी रहता है। विचार, घटनाएं और समस्याओं से ही समाचार का आधार तैयार होता है। किसी भी घटना, विचार और समस्या से जब काफी लोगों का सरोकार हो तो यह कह सकते हैं कि यह समाचार बनने के योग्य है।
किसी घटना, विचार और समस्या के समाचार बनने की संभावना तब बढ़ जाती है, जब उनमें निम्रलिखित में से कुछ या सभी तत्व शामिल हों:
– तथ्यात्मकता
– नवीनता
– जनरुचि
– सामयिकता
– निकटता
– प्रभाव
– पाठक वर्ग
– नीतिगत ढांचा
– अनोखापन
– उपयोगी जानकारियां
तथ्यात्मकता
समाचार बनने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण पहलू इसकी तथ्यात्मकता है। समाचार किसी की कल्पना की उड़ान नहीं है। समाचार एक वास्तविक घटना है और एक पत्रकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि वह ऐसे तथ्यों का चयन कैसे करे, जिससे वह घटना उसी रूप में पाठक के सामने पेश की जा सके जिस तरह वह घटी। इस तरह के तथ्यों यानि वे तथ्य जो इस घटना के समूचे यथार्थ का प्रतिनिधित्च करते हैं, का चयन करने के लिए एक खास तरह का बौद्धिक कौशल चाहिए। इस तरह का बौद्धिक कौशल होने पर ही हम किसी को प्रोफेशनल पत्रकार कह सकते हैं। समाचार में तथ्यों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए और न ही उनकी प्रस्तुति और लेखन में अपने विचारों को घुसाना चाहिए।
नवीनता
किसी भी घटना, विचार या समस्या के समाचार बनने के लिए यह बहुत जरूरी है कि वह नया हो। कहा भी जाता है ‘न्यू’ है इसलिए ‘न्यूज’ है। समाचार वही है जो ताजी घटना के बारे में जानकारी देता है। एक दैनिक समाचारपत्र के लिए आम तौर पर पिछले 24 घंटों की घटनाएं समाचार होती हैं। एक चौबीस घंटे के टेलीविजन और रेडियो चैनल के लिए तो समाचार जिस तेजी से आते हैं, उसी तेजी से बासी भी होते चले जाते हैं। लेकिन अगर द्वितीय विश्व युद्ध जैसी किसी ऐतिहासिक घटना के बारे में आज भी कोई नई जानकारी मिलती है जिसके बारे में हमारे पाठकों को पहले जानकारी नहीं थी तो निश्चय ही यह उनके लिए समाचार है। दुनिया के अनेक स्थानों पर अनेक ऐसी चीजें होती हैं जो वर्षों से मौजूद हैं लेकिन यह किसी अन्य देश के लिए कोई नई बात हो सकती है और निश्चय ही समाचार बन सकती है।
कुछ ऐसी घटनाएं भी होती हैं जो रातोंरात घटित नहीं होतीं बल्कि जिन्हें घटने में दसियों-बीसियों वर्ष लग सकते हैं। मसलन किसी गांव में पिछले 20 वर्षों में लोगों की जीवन-शैली में क्या-क्या परिवर्तन आए और इन परिवर्तनों के क्या कारण थे- यह जानकारी निश्चय ही एक समाचार है। लेकिन यह एक ऐसी समाचारीय घटना है, जिसे घटने में 20 वर्ष लगे। इस तरह की सूचनाएं या जानकारियां समाचार माध्यमों के लिए अच्छे समाचार बन सकती हैं।
जनरुचि
किसी विचार, घटना और समस्या के समाचार बनने के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों की उसमें दिलचस्पी हो। वे उसके बारे में जानना चाहते हों। कोई भी घटना समाचार तभी बन सकती है, जब लोगों का एक बड़ा तबका उसके बारे में जानने में रुचि रखता हो। स्वभावत: हर समाचार संगठन अपने लक्ष्य समूह (टार्गेट ऑडिएंस) के संदर्भ में ही लोगों की रुचियों का मूल्यांकन करता है। लेकिन हाल के वर्षों में लोगों की रुचियों और प्राथमिकताओं में भी तोड़-मरोड़ की प्रक्रिया काफी तेज हुई है और लोगों की मीडिया आदतों में भी परिवर्तन आ रहे हैं। कह सकते हैं कि रुचियां कोई स्थिर चीज नहीं हैं, गतिशील हैं। कई बार इनमें परिवर्तन आते हैं तो मीडिया में भी परिवर्तन आता है। लेकिन आज मीडिया लोगों की रुचियों में परिवर्तन लाने में बहुत बड़ी भूमिका अदा कर रहा है।
सामयिकता
एक घटना को एक समाचार के रूप में किसी समाचार संगठन में स्थान पाने के लिए इसका समय पर सही स्थान यानि समाचार कक्ष में पहुंचना आवश्यक है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि उसका समयानुकूल होना जरूरी है। एक दैनिक समाचारपत्र के लिए वे घटनाएं सामयिक हैं जो कल घटित हुई हैं। आमतौर पर एक दैनिक समाचारपत्र की अपनी एक डेडलाइन (समय सीमा) होती है जब तक के समाचारों को वह कवर कर पाता है। मसलन अगर एक प्रात:कालीन दैनिक समाचारपत्र रात 12 बजे तक के समाचार कवर करता है तो अगले दिन के संस्करण के लिए 12 बजे रात से पहले के चौबीस घंटे के समाचार सामयिक होंगे।
इसी तरह 24 घंटे के एक टेलीविजन समाचार चैनल के लिए तो हर पल ही डेडलाइन है और समाचार को सबसे पहले टेलीकास्ट करना ही उसके लिए दौड़ में आगे निकलने की सबसे बड़ी चुनौती है। इस तरह एक चौबीस घंटे के टेलीविजन समाचार चैनल, एक दैनिक समाचारपत्र, एक साप्ताहिक और एक मासिक के लिए किसी समाचार की समय सीमा का अलग-अलग मानदंड होना स्वाभाविक है, कहीं समाचार तात्कालिक है, कहीं सामयिक तो कहीं समकालीन भी हो सकता है।
निकटता
किसी भी समाचार संगठन में किसी समाचार के महत्व का मूल्यांकन यानी उसे समाचारपत्र या बुलेटिन में शामिल किया जाएगा या नहीं, का निधारण इस आधार पर भी किया जाता है कि वह घटना उसके कवरेज क्षेत्र और पाठक/दर्शक/श्रोता समूह के कितने करीब हुई? हर घटना का समाचारीय महत्व काफी हद तक उसकी स्थानीयता से भी निर्धारित होता है। सबसे करीब वाला ही सबसे प्यारा भी होता है। यह मानव स्वभाव है। स्वाभाविक है कि लोग उन घटनाओं के बारे में जानने के लिए अधिक उत्सुक होते हैं जो उनके करीब होती हैं। इसका एक कारण तो करीब होना है और दूसरा कारण यह भी है कि उसका असर उनपर भी पड़ता है। मसलन किसी एक खास कॉलोनी में चोरी-डकैती की घटना के बारे में वहां के लोगों की रुचि होना स्वाभाविक है। रुचि इसलिए कि घटना उनके करीब हुई है और इसलिए भी कि इसका संबंध स्वयं उनकी अपनी सुरक्षा से है।
प्रभाव
किसी घटना के प्रभाव से भी उसका समाचारीय महत्व निर्धारित होता है। अनेक मौकों पर किसी घटना से जुड़े लोगों के महत्वपूर्ण होने से भी उसका समाचारीय महत्व बढ़ जाता है। स्वभावत: प्रख्यात और कुख्यात अधिक स्थान पाते हैं। इसके अलावा किसी घटना की तीव्रता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जाता है कि उससे कितने सारे लोग प्रभावित हो रहे हैं या कितने बड़े भू भाग पर असर हो रहा है, आदि। सरकार के किसी निर्णय से अगर दस लोगों को लाभ हो रहा हो तो यह उतना बड़ा समाचार नहीं जितना कि उससे लाभान्वित होने वाले लोगों की संख्या एक लाख हो। सरकार अनेक नीतिगत फैसले लेती हैं जिनका प्रभाव तात्कालिक नहीं होता लेकिन दीर्घकालिक प्रभाव महत्वपूर्ण हो सकते हैं और इसी दृष्टिï से इसके समाचारीय महत्त्व को आंका जाना चाहिए।
पत्रकारिता के मूल्य- पत्रकारिता एक तरह से ‘दैनिक इतिहास’ लेखन है। पत्रकार रोज का इतिहास अखबार के पन्नों में दर्ज करते चलते हैं। उसका काम ऊपरी तौर पर बहुत आसान लगता है लेकिन वह इतना आसान होता नहीं। उस पर कई तरह के दबाव हो सकते हैं। अपनी पूरी स्वतंत्रता के बावजूद पत्रकारिता सामाजिक और नैतिक मूल्यों से जुड़ी रहती है। उदाहरण के लिए सांप्रदायिक दंगों का समाचार लिखते समय पत्रकार प्रयास करता है कि उसके समाचार से आग न भडक़े। वह सच्चाई जानते हुए भी दंगों में मारे गए या घायल लोगों के समुदाय की पहचान स्पष्टï नहीं करता। बलात्कार के मामलों में वह महिला का नाम या चित्र नहीं प्रकाशित करता ताकि उसकी सामाजिक प्रतिष्ठïा को कोई धक्का न पहुंचे। पत्रकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे पत्रकारिता की आचारसंहिता का पालन करें ताकि उनके समाचारों से बेवजह और बिना ठोस सबूतों के किसी की व्यक्तिगत प्रतिष्ठïा को नुकसान न हो और न ही समाज में अराजकता और अशांति फैले।
पाठक वर्ग
आमतौर पर हर समाचार का एक खास पाठक/दर्शक/श्रोता वर्ग होता है। किसी समाचारीय घटना का महत्त्व इससे भी तय होता है कि किसी खास समाचार का ऑडिएंस कौन हैं और उसका आकार कितना बड़ा है। इन दिनों ऑडिएंस का समाचारों के महत्व के आकलन में प्रभाव बढ़ता जा रहा है। अतिरिक्त क्रय शक्ति वाले सामाजिक तबकों, जो विज्ञापन उद्योग के लिए बाजार होते हैं, में अधिक पढ़े जाने वाले समाचारों को अधिक महत्व मिलता है।
नीतिगत ढांचा
विभिन्न समाचार संगठनों की समाचारों के चयन और प्रस्तुति को लेकर एक नीति होती है। इस नीति को ‘संपादकीय लाइन’ भी कहते हैं। मसलन समाचारपत्रों में संपादकीय प्रकाशित होते हैं जिन्हें संपादक और उनके सहायक संपादक लिखते हैं। संपादकीय बैठक में तय किया जाता है कि किसी विशेष दिन कौन-कौन सी ऐसी घटनाएं हैं जो संपादकीय हस्तक्षेप के योग्य हैं। इन विषयों के चयन में काफी विचार-विमर्श होता है। उनके निर्धारण के बाद उनपर क्या संपादकीय क्या लाइन ली जाए, यह भी तय किया जाता है और विचार-विमर्श के बाद संपादक तय करते हैं कि किसी मुद्दे पर क्या रुख या लाइन होगी। यही स्टैंड और लाइन एक समाचारपत्र की नीति भी होती है।
वैसे एक समाचारपत्र में अनेक तरह के लेख और समाचार छपते हैं और आवश्यक नहीं है कि वे संपादकीय नीति के अनुकूल हों। समाचारपत्र में विचारों के स्तर पर विविधता और बहुलता का होना अनिवार्य है। संपादकीय एक समाचारपत्र की विभिन्न मुद्दों पर नीति को प्रतिबिंबित करते हैं। निश्चय ही, समाचार कवरेज और लेखों-विश्लेषणों में संपादकीय नीति का पूरा का पूरा अनुसरण नहीं होता लेकिन कुल मिलाकर संपादकीय नीति का प्रभाव किसी भी समाचारपत्र के समूचे व्यक्तित्व पर पड़ता है।
पिछले कुछ वर्षों में समाचार संगठनों पर विज्ञापन उद्योग का दबाव काफी बढ़ गया है। मुक्त बाजार व्यवस्था के विस्तार तथा उपभोक्तावाद के फैलाव के साथ विज्ञापन उद्योग का जबर्दस्त विस्तार हुआ है। समाचार संगठन किसी भी और कारोबार और उद्योग की तरह हो गए हैं और विज्ञापन उद्योग पर उनकी निर्भरता बहुत बढ़ चुकी है। इसका संपादकीय/समाचारीय सामग्री पर गहरा असर पड़ रहा है। समाचार संगठन पर अन्य आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक दबाव भी होते हैं। इसी तरह अन्य कई दबाव भी इसकी नीतियों को प्रभावित करते हैं। इसके बाद जो गुंजाइश या स्थान बचता है वह पत्रकारिता और पत्रकारों की स्वतंत्रता का है। यह उनके प्रोफेशनलिज्म पर निर्भर करता है कि वे इस गुंजाइश का किस तरह सबसे प्रभावशाली ढंग से उपयोग कर पाते हैं।
महत्वपूर्ण जानकारियां
अनेक ऐसी सूचनाएं भी समाचार मानी जाती जिनका समाज के किसी विशेष तबके के लिए कोई महत्त्व हो सकता है। ये लोगों की तात्कालिक सूचना आवश्यकताएं भी हो सकती हैं। मसलन स्कूल कब खुलेंगे, किसी खास कॉलोनी में बिजली कब बंद रहेगी, पानी का दबाव कैसा रहेगा आदि।
अनोखापन
एक पुरानी कहावत है कि कुत्ता आदमी को काट ले तो खबर नहीं लेकिन अगर आदमी कुत्ते को काट ले तो वह खबर है यानी जो कुछ स्वाभाविक नहीं है या किसी रूप से असाधारण है, वही समाचार है। सौ नौकरशाहों का ईमानदार होना समाचार नहीं क्योंकि उनसे तो ईमानदार रहने की अपेक्षा की जाती है लेकिन एक नौकरशाह अगर बेईमान और भ्रष्टï है तो यह बड़ा समाचार है। सौ घरों का निर्माण समाचार नहीं है। यह तो एक सामान्य निर्माण प्रक्रिया है लेकिन दो घरों का जल जाना समाचार है।
निश्चय ही, अनहोनी घटनाएं समाचार होती हैं। लोग इनके बारे में जानना चाहते हैं। लेकिन समाचार मीडिया को इस तरह की घटनाओं के संदर्भ में काफी सजगता बरतनी चाहिए अन्यथा कई मौकों पर यह देखा गया है कि इस तरह के समाचारों ने लोगों में अवैज्ञानिक सोच और अंधविश्वास को जन्म दिया है। कई बार यह देखा गया है कि किसी विचित्र बच्चे के पैदा होने की घटना का समाचार चिकित्सा विज्ञान के संदर्भ से काटकर किसी अंधविश्वासी संदर्भ में प्रस्तुत कर दिया जाता है। भूत-प्रेत के किस्से-कहानी समाचार नहीं हो सकते। किसी इंसान को भगवान बनाने के मिथ गढऩे से भी समाचार मीडिया को बचना चाहिए।
पत्रकारिता के सिद्धांत
पत्रकारिता कुछ सिद्धांतों पर चलती है। एक पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह समाचार संकलन और लेखन के दौरान इनका पालन करेगा। आप कह सकते है कि ये पत्रकारिता के आदर्श या मूल्य भी हैं। इनका पालन करके ही एक पत्रकार और उसका समाचार संगठन अपने पाठकों का विश्वास जीत सकते हैं। किसी भी समाचार संगठन की सफलता उसकी विश्वसनीयता पर टिकी होती है। पत्रकारिता की साख बनाए रखने के लिए निम्नलिखित सिद्धांतों का पालन करना जरूरी है :
– यथार्थता
– वस्तुपरकता
– निष्पक्षता
– संतुलन
– स्रोत
यथार्थता
एक आदर्श रूप में मीडिया और पत्रकारिता यथार्थ या वास्तविकता का प्रतिबिंब हैं। इस तरह एक पत्रकार समाचार यथार्थ को पेश करने की कोशिश करता है। यह अपने आप में एक जटिल प्रक्रिया है। सच यह है कि मानव यथार्थ की नहीं, यथार्थ की छवियों की दुनिया में रहता है। किसी भी घटना के बारे में हमें जो भी जानकारियां प्राप्त होती हैं, उसी के अनुसार हम उस यथार्थ की एक छवि अपने मस्तिष्क में बना लेते हैं और यही छवि हमारे लिए वास्तविक यथार्थ का काम करती है। एक तरह से हम संचार माध्मों द्वारा सृजित छवियों की दुनिया में रहते हैं।
दरअसल, यथार्थ को उसकी संपूर्णता में प्रतिबिंबित करने के लिए आवश्यक है कि ऐसे तथ्यों का चयन किया जाए जो इसकी संपूर्णता का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन समाचार में हम किसी भी यथार्थ को अत्यंत सीमित चयनित सूचनाओं और तथ्यों के माध्यम से ही करते हैं। इसलिए यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि किसी भी विषय के बारे में समाचार लिखते वक्त हम किन सूचनाओं और तथ्यों का चयन करते हैं और किन्हें छोड़ देते हैं। चुनौती यही है कि ये सूचनाएं और तथ्य सबसे अहम हों और संपूर्ण घटना का प्रतिनिधित्व करते हों।
कैनेथ ब्रुक ने कहा था कि किसी एक पहलू पर केंद्रित होने का मतलब दूसरे पहलू की अनदेखी भी है। एक नस्ली, जातीय या धार्मिक हिंसा की घटना का समाचार कई तरह से लिखा जा सकता है। इसे तथ्यपरक ढंग से इस तरह भी लिखा जा सकता है कि किसी एक पक्ष की शैतान की छवि सृजित कर दी जाए और दूसरे पक्ष को इसके कारनामों का शिकार। घटना के किसी भी एक पक्ष को अधिक उजागर कर एक अलग ही तरह की छवि का सृजन किया जा सकता है। या फिर इस घटना में आम लोगों के दु:ख-दर्दों को उजागर कर इस तरह की हिंसा के अमानवीय और बर्बर चेहरे को भी उजागर किया जा सकता है। एक रोती विधवा, बिलखते अनाथ बच्चे या तो मात्र विधवा और अनाथ बच्चे हैं जिनकी जातीय या धार्मिक हिंसा ने यह हालत की है या फिर ये इसलिए विधवा और अनाथ हैं क्योंकि ये किसी खास जाति या धर्म के हैं। इस तरह समाचार को वास्तव में हकीकत के करीब रखने के लिए एक पत्रकार को प्रोफेशनल और बौद्धिक कौशल में महारथ हासिल करना जरूरी है।
वस्तुपरकता
वस्तुपरकता को भी तथ्यपरकता से आंकना आवश्यक है। वस्तुपरकता और यथार्थता के बीच काफी भी है लेकिन दोनों के बीच के अंतर को भी समझना जरूरी है। एक जैसे होते हुए भी ये दोनों अलग विचार हैं। यथार्थता का संबंध जहां अधिकाधिक तथ्यों से है वहीं वस्तुपरकता का संबंध इस बात से है कि कोई व्यक्ति तथ्यों को कैसे देखता है? किसी विषय या मुद्दे के बारे में हमारे मस्तिष्क में पहले से सृजित छवियां समाचार मूल्यांकन की हमारी क्षमता को प्रभावित करती हैं और हम इस यथार्थ को उन छवियों के अनुरूप देखने का प्रयास करते हैं।
हमारे मस्तिष्क में अनेक मौकों पर इस तरह की छवियां वास्तविक भी हो सकती हैं और वास्तविकता से दूर भी हो सकती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वस्तुपरकता की अवधारणा का संबंध हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक मूल्यों से अधिक है। हमें ये मूल्य हमारे सामाजिक माहौल से मिलते हैं। बचपन से ही हम स्कूल में, घर में, सडक़ चलते हर कदम, हर पल सूचनाएं प्राप्त करते हैं और दुनिया भर के स्थानों, लोगों, संस्कृतियों आदि सैकड़ों विषयों के बारे में अपनी एक धारणा या छवि बना लेते हैं। वस्तुपरकता का तकाजा यही है कि एक पत्रकार समाचार के लिए तथ्यों का संकलन और उसे प्रस्तुत करते हुए अपने आकलन को अपनी धारणाओं या विचारों से प्रभावित न होने दे। वैसे सच यह है कि यह दुनिया हमेशा सतरंगी और विविध रहेगी। इसे देखने के दृष्टिïकोण भी अनेक होंगे। इसलिए कोई भी समाचार सबके लिए एक साथ वस्तुपरक नहीं हो सकता। एक ही समाचार किसी के लिए वस्तुपरक हो सकता है और किसी के लिए पूर्वाग्रह से प्रभावित हो सकता है। लेकिन एक पत्रकार को जहां तक संभव हो, अपने लेखन में वस्तुपरकता का जरूर ध्यान रखना चाहिए।
निष्पक्षता
एक पत्रकार के लिए निष्पक्ष होना भी बहुत जरूरी है। उसकी निष्पक्षता से ही उसके समाचार संगठन की साख बनती है। यह साख तभी बनती है जब समाचार संगठन बिना किसी का पक्ष लिए सच्चाई सामने लाते हैं। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इसकी राष्टï्रीय और सामाजिक जीवन में अहम भूमिका है। इसलिए पत्रकारिता सही और गलत, अन्याय और न्याय जैसे मसलों के बीच तटस्थ नहीं हो सकती बल्कि वह निष्पक्ष होते हुए सही और न्याय के साथ होती है।
जब हम समाचारों में निष्पक्षता की बात करते हैं तो इसमें न्यायसंगत होने का तत्त्व अधिक अहम होता है। आज मीडिया एक बहुत बड़ी ताकत है। एक ही झटके में वह किसी की इज्जत पर बट्टïा लगाने की ताकत रखता है। इसलिए किसी के बारे में समाचार लिखते वक्त इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कहीं किसी को अनजाने में ही बिना सुनवाई के फांसी पर तो नहीं लटकाया जा रहा है।
संतुलन
निष्पक्षता की अगली कड़ी संतुलन है। आमतौर पर मीडिया पर आरोप लगाया जाता है कि समाचार कवरेज संतुलित नहीं है यानि वह किसी एक पक्ष की ओर झुका है। हम आमतौर पर समाचार में संतुलन की आवश्यकता वहीं पड़ती है जहां किसी घटना में अनेक पक्ष शामिल हों और उनका आपस में किसी न किसी रूप में टकराव हो। उस स्थिति में संतुलन का तकाजा यही है कि सभी संबद्ध पक्षों की बात समाचार में अपने-अपने समाचारीय वजन के अनुसार स्थान पाए।
समाचार में संतुलन का महत्त्व तब कहीं अधिक हो जाता है जब किसी पर किसी तरह के आरोप लगाए गए हों या इससे मिलती-जुलती कोई स्थिति हो। उस स्थिति में हर पक्ष की बात समाचार में अभिव्यक्त होनी चाहिए अन्यथा यह एकतरफा चरित्र हनन का हथियार बन सकता है। व्यक्तिगत किस्म के आरोपों में आरोपित व्यक्ति के पक्ष को भी स्थान मिलना चाहिए। लेकिन यह स्थिति तभी हो सकती है जब आरोपित व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में है और आरोपों के पक्ष में पक्के सबूत नहीं हैं या उनका सही साबित होना काफी संदिग्ध है। लेकिन घोषित अपराधियों या गंभीर अपराध के आरोपियों को संतुलन के नाम पर सफाई देने का अवसर देने की जरूरत नहीं है। संतुलन के नाम पर समाचार मीडिया इस तरह के तत्त्वों का मंच नहीं बन सकता।
संतुलन का सिद्धांत अनेक सार्वजनिक मसलों पर व्यक्त किए जाने वाले विचारों और दृष्टिïकोणों पर तकनीकी ढंग से लागू नहीं किया जाना चाहिए।
स्रोत
हर समाचार में शामिल की गई सूचना और जानकारी का कोई स्रोत होना आवश्यक है। यहां स्रोत के संदर्भ में सबसे पहले यह स्पष्टï कर देना आवश्यक है कि किसी भी समाचार संगठन के समाचार के स्रोत होते हैं और फिर उस समाचार संगठन का पत्रकार जब सूचनाएं एकत्रित करता है तो उसके अपने भी स्रोत होते हैं। इस तरह किसी भी दैनिक समाचारपत्र के लिए पी.टी.आई. (भाषा), यू. एन. आई. (यूनीवार्ता) जैसी समाचार एजेंसियां और स्वयं अपने ही संवाददाताओं और रिपोर्टरों का तंत्र समाचारों का स्रोत होता है। लेकिन चाहे समाचार एजेंसी हो या समाचारपत्र इनमें काम करने वाले पत्रकारों के भी अपने समाचार स्रोत होते हैं
समाचार की साख को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि इसमें शामिल की गई सूचना या जानकारी का कोई स्रोत हो और वह स्रोत इस तरह की सूचना या जानकारी देने का अधिकार और समर्थ हो। कुछ बहुत सामान्य जानकारियां होती हैं जिनके स्रोत का उल्लेख करना आवश्यक नहीं है लेकिन जैसे ही कोई सूचना ‘सामान्य’ होने के दायरे से बाहर निकलकर ‘विशिष्टï’ होती है उसके स्रोत का उल्लेख आवश्यक है। स्रोत के बिना उसकी साख नहीं होगी। एक समाचार में समाहित सूचनाओं का स्रोत होना आवश्यक है और जिस सूचना का कोई स्रोत नहीं है, उसका स्रोत या तो पत्रकार स्वयं है या फिर यह एक सामान्य जानकारी है जिसका स्रोत देने की आवश्यकता नहीं है।
आमतौर पर पत्रकार स्वयं किसी सूचना का प्रारंभिक स्रोत नहीं होता। वह किसी घटना के घटित होने के समय घटनास्थल पर उपस्थित नहीं होता। वह घटना घटने के बाद घटनास्थल पर पहुंचता है इसलिए यह सब कैसे हुआ, यह जानने के लिए उसे दूसरे स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। अगर एक पत्रकार स्वयं अपनी आंखों से पुलिस फायरिंग में या अन्य किसी भी तरह की हिंसा में मरने वाले दस लोगों के शव देखता है तो निश्चय ही वह खुद दस लोगों के मरने का स्रोत हो सकता है। उसे इसकी पुष्टिï करने की कोशिश जरूर करनी चाहिए।
पत्रकारिता के कार्य
पत्रकारिता के कार्यों को इस प्रकार निर्धारित किया गया है:
– सूचना
– शिक्षा
– मनोरंजन
इसके अलावा अब एजेंडा निर्धारण भी इसमें शामिल हो गया है। इससे आशय यह है कि मीडिया ही सरकार और जनता का एजेंडा तय करता है- मीडिया में जो होगा वह मुद्दा है और जो मीडिया से नदारद है वह मुद्दा नहीं रह जाता। एजेंडा निर्धारण में मीडिया की यह भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो गयी है। यहां हम मीडिया के मुख्य कार्यों पर निगाह डालें तो हम यह कह सकते हैं कि तथ्यों का सबसे अधिक संबंध समाचार से हैं और समाचार का सबसे अहम कार्य लोगों को सूचित करना है। सूचित करने की इस प्रक्रिया में लोग शिक्षित भी होते हैं दूसरे छोर पर अगर हम विचार को लें तो इसका संपादकीय और लेखों के जरिए वे हमें जागरुक बनाते हैं। फीचर आदि के जरिए मीडिया मनोरंजन भी करता है। इसके अलावा खेल, सिनेमा और जीवन शैली पर आधारित और फीचर का उद्देश्य मनोरंजन होता है।
पत्रकारिता के अन्य आयाम
समाचारपत्र पढ़ते समय पाठक हर समाचार से एक ही तरह की जानकारी की अपेक्षा नहीं रखता। कुछ घटनाओं के मामले में वह उसका विवरण विस्तार से पढऩा चाहता है तो कुछ अन्य के संदर्भ में उसकी इच्छा यह जानने की होती है कि घटना के पीछे क्या है? उसकी पृष्ठïभूमि क्या है? उस घटना का उसके भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा और इससे उसका जीवन तथा समाज किस तरह प्रभावित होगा? समय, विषय और घटना के अनुसार पत्रकारिता में लेखन के तरीके बदल जाते हैं। यही बदलाव पत्रकारिता में कई नए आयाम जोड़ता है। समाचार के अलावा विचार, टिप्पणी, संपादकीय, फोटो और कार्टून पत्रकारिता के अहम हिस्से हैं। समाचारपत्र में इनका विशेष स्थान और महत्व है। इनके बिना कोई समाचारपत्र स्वयं को संपूर्ण नहीं कट्टï सकता।
संपादकीय पृष्ठï को समाचापत्र का सबसे महत्वपूर्ण पन्ना माना जाता है। इस पृष्ठï पर अखबार विभिन्न घटनाओं और समाचारों पर अपनी राय रखता है। इसे संपादकीय कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेषज्ञ विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। आमतौर पर ‘संपादक के नाम पत्र’ भी इसी पृष्ठï पर प्रकाशित किए जाते हैं। वह घटनाओं पर आम लोगों की टिप्पणी होती है। समाचारपत्र उसे महत्वपूर्ण मानते हैं।
फोटो पत्रकारिता ने छपाई की टेक्ïनालॉजी विकसित होने के साथ ही समाचार पत्रों में अहम स्थान बना लिया है। कहा जाता है कि जो बात हजार शबï्दों में लिखकर नहीं कही जा सकती, वह एक तसवीर कह देती है। फोटो टिप्पणियों का असर व्यापक और सीधा होता है।
कार्टूनकोना लगभग हर समाचारपत्र में होता है और उनके माध्यम से की गई सटीक टिप्पणियां पाठक को छूती हैं। एक तरह से कार्टून पहले पन्ने पर प्रकाशित होने वाले हस्ताक्षरित संपादकीय हैं। इनकी चुटीली टिप्पणियां कई बार कड़े और धारदार संपादकीय से भी अधिक प्रभावी होती हैं।
रेखांकन और कार्टोग्राफ समाचारों को न केवल रोचक बनाते हैं बल्कि उन पर टिप्पणी भी करते हैं। क्रिकेट के स्कोर से लेकर सेंसेक्स के आंकड़ों तक-ग्राफ से पूरी बात एक नजर में सामने आ जाती है। कार्टोग्राफी का उपयोग समाचारपत्रों के अलावा टेलीविजन में भी होता है।
पत्रकारिता के कुछ प्रमुख प्रकार
खोजपरक पत्रकारिता
खोजपरक पत्रकारिता भारत में अब भी अपने शैशवकाल में है। समाचार माध्यमों में इस तरह की पत्रकारिता के प्रयास तीस वर्ष पहले शुरू हुए थे। इस तरह की पत्रकारिता में ऐसे तथ्य जुटाकर सामने लाए जाते हैं, जिन्हें आमतौर पर सार्वजनिक नहीं किया जाता। पत्रकारिता में एक वर्ग यह मानता है कि खोजपरक पत्रकारिता कुछ है ही नहीं क्योंकि कोई भी समाचार खोजी दृष्टिï के बिना नहीं लिखा जा सकता। पर इसका एक अन्य पक्ष भी है। जब जरूरत से ज्यादा गोपनीयता बरती जाने लगे और भ्रष्टïाचार व्यापक हो तो खोजी पत्रकारिता ही उसे सामने लाने का एकमात्र विकल्प बचती है। अमेरिका का वाटरगेट कांड खोजी पत्रकारिता का एक नायाब उदाहरण है, जिसमें राष्टï्रपति निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा।
विशेषीकृत पत्रकारिता
पत्रकारिता का अर्थ घटनाओं की सूचना देना मात्र नहीं है। पत्रकार से अपेक्षा होती है कि वह घटनाओं की तह तक जाकर उसका अर्थ स्पष्टï करे और आम पाठक को बताए कि उस समाचार का क्या महत्व है? इसके लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। पत्रकारिता में विषय के हिसाब से विशेषज्ञता के सात प्रमुख क्षेत्र हैं। इनमें संसदीय पत्रकारिता, न्यायालय पत्रकारिता, आर्थिक पत्रकारिता, खेल पत्रकारिता, विज्ञान और विकास पत्रकारिता, अपराध पत्रकारिता तथा फैशन और फिल्म पत्रकारिता शामिल हैं। इन क्षेत्रों के समाचार उन विषयों में विशेषज्ञता हासिल किए बिना देना कठिन होता है।
वॉचडॉग पत्रकारिता
लोकतंत्र में पत्रकारिता और समाचार मीडिया का मुख्य उत्तरदायित्व सरकार के कामकाज पर निगाह रखना है और कहीं भी कोई गड़बड़ी हो तो उसका पर्दाफाश करना है। इसे परंपरागत रूप से ‘वाचडॉग’ पत्रकारिता कहा जाता है। इसका दूसरा छोर सरकारी सूत्रों पर आधारित पत्रकारिता है जब समाचार मीडिया केवल वही समाचार देता है जो सरकार चाहती है और अपने आलोचनात्मक पक्ष का परित्याग कर देता है। आमतौर पर इन दो बिन्दुओं के बीच तालमेल के जरिए ही समाचार मीडिया और इसके तहत काम करने वाले विभिन्न समाचार संगठनों की पत्रकारिता का निर्धारण होता है।
एडवोकेसी पत्रकारिता
मीडिया व्यवस्था का ही एक हिस्सा होता है और व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाकर चलने वाले मीडिया को मुख्यधारा मीडिया कहा जाता है। इसके अलावा जो मीडिया वैकल्पिक सोच को अभिव्यक्त करती है उसे वैकल्पिक मीडिया कहा जाता है। इसी तरह अनेक समाचार संगठन ऐसे होते हैं जो किसी विचारधारा या किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए निकाल जाते हैं इस तरह की पत्रकारिता को पैरवी (एडवोकेसी) पत्रकारिता कहा जाता है।
समाचार माध्यमों में मौजूदा रुझान
देश में मध्यम वर्ग के तेजी से विस्तार के साथ ही मीडिया के दायरे में आने वाले लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। साक्षरता और क्रय शक्ति बढऩे से भारत में अन्य वस्तुओं के अलावा मीडिया के बाजार का भी विस्तार हो रहा है। इस बाजार की जरूरतों को पूरा करने के लिए हर तरह के मीडिया का फैलाव हो रहा है- रेडियो, टेलीविजन, समाचारपत्र, सेटेलाइट टेलीविजन और इंटरनेट सभी विस्तार के रास्ते पर है। लेकिन बाजार के इस विस्तार के साथ ही मीडिया का व्यापारीकरण भी तेज हो गया है और मुनाफा कमाने को ही मुख्य ध्येय समझने वाली पूंजी ने भी मीडिया के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर प्रवेश किया है।
व्यापारीकरण और बाजार होड़ के कारण हाल के वर्षों में समाचार मीडिया ने अपने ‘खास बाजार’ (क्लास मार्केट) को ‘आम बाजार’ (मास मार्केट) में तबï्दील करने की कोशिश की है। कारण है कि समाचार मीडिया और मनोरंजन की दुनिया के बीच का अंतर कम होता जा रहा है और कभी-कभार तो दोनों में अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है। समाचार के नाम पर मनोरंजन बेचने के इस रुझान के कारण आज समाचारों में वास्तविक और सरोकारीय सूचनाओं और जानकारियों का अभाव होता जा रहा है। आज निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा लोगों को ”जानकार नागरिक” बनने में मदद कर रहा है बल्कि अधिकांश मौकों पर यही लगता है कि लोग ”गुमराह उपभोक्ता” अधिक बन रहे हैं। अगर आज समाचार की परंपरागत परिभाषा के आधार पर देश के अनेक समाचार चैनलों का मूल्यांकन करें तो एक-आध चैनलों को ही छोडक़र अधिकांश इन्फोटेनमेंट के चैनल बनकर रह गए हैं।
आज समाचार मीडिया एक बड़ा हिस्सा एक ऐसा उद्योग बन गया है जिसका मकसद अधिकतम मुनाफा कमाना है और समाचार पेप्सी-कोक जैसी उपभोग की वस्तु बन गया है और पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के स्थान पर अपने तक सीमित उपभोक्ता बैठ गया है।
उपभोक्ता समाज का वह तबका है जिसके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और व्यापारीकृत मीडिया अतिरिक्त क्रय शक्ति वाले सामाजिक तबके में अधिकाधिक पैठ बनाने की होड़ में उतर गया है। इस तरह की बाजार होड़ में उपभोक्ता को लुभाने वाले समाचार उत्पाद पेश किए जाने लगे हैं और उन तमाम वास्तविक समाचारीय घटनाओं की उपेक्षा होने लगी है जो उपभोक्ता के भीतर ही बसने वाले नागरिक की वास्तविक सूचना आवश्यकताएं थी और जिनके बारे में जानना उसके लिए आवश्यक है। इस दौर में समाचार मीडिया बाजार को हड़पने की होड़ में अधिकाधिक लोगों की ‘चाहत’ पर निर्भर होता जा रहा है और लोगों की ‘जरूरत’ किनारे की जा रही है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि समाचार मीडिया में हमेशा से ही सनसनीखेज या पीत पत्रकारिता और ‘पेज-थ्री’ पत्रकारिता की धाराएं मौजूद रही हैं। इनका हमेशा अपना स्वतंत्र अस्तित्व रहा है, जैसे ब्रिटेन का टेबलायड मीडिया और भारत में भी ‘बिï्लट्ज’ जैसे कुछ समाचारपत्र रहे हैं। ‘पेज-थ्री’ भी मुख्यधारा पत्रकारिता में मौजूद रहा है। लेकिन इन पत्रकारीय धाराओं के बीच एक विभाजन रेखा थी जिसे व्यापारीकरण के मौजूदा रुझान ने खत्म कर दिया है।
यह स्थिति हमारे लोकतंत्र के लिए एक गंभीर राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट पैदा कर रही है। आज हर समाचार संगठन सबसे अधिक बिकाऊ बनने की होड़ में एक ही तरह के समाचारों पर टूट पड़ रहा है। इससे विविधता खत्म हो रही है और ऐसी स्थिति पैदा हो रही है जिसमें अनेक अखबार हैं और सब एक जैसे ही हैं। अनेक समाचार चैनल हैं। ‘सर्फ’ करते रहिए, बदलते रहिए और एक ही तरह के समाचार का एक ही तरह से प्रस्तुत होना देखते रहिए।
विविधता समाप्त होने के साथ-साथ समाचार माध्यमों में केन्द्रीकरण का रुझान भी प्रबल हो रहा है। हमारे देश में परंपरागत रूप से कुछ चन्द बड़े, जिन्हें ‘राष्टï्रीय’ कहा जाता था, अखबार थे। इसके बाद क्षेत्रीय प्रेस था और अंत में जिला-तहसील स्तर के छोटे समाचारपत्र थे। नई प्रौद्यौगिकी आने के बाद पहले तो क्षेत्रीय अखबारों ने जिला और तहसील स्तर के प्रेस को हड़प लिया और अब ‘राष्टï्रीय’ प्रेस ‘क्षेत्रीय’ में प्रवेश का रहा है या ‘क्षेत्रीय’ प्रेस राष्टï्रीय का रूप अख्तियार कर रहा है। आज चंद समाचारपत्रों के अनेक संस्करण हैं और समाचारों का कवरेज अत्यधिक आत्मकेन्द्रित, स्थानीय और विखंडित हो गया है। समाचार कवरेज में विविधता का अभाव तो है, ही साथ ही समाचारों की पिटी-पिटाई अवधारणों के आधार पर लोगों की रूचियों और प्राथमिकताओं को परिभाषित करने का रुझान भी प्रबल हुआ है।
लेकिन समाचार मीडिया के प्रबंधक बहुत समय तक इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकते कि साख और प्रभाव समाचार मीडिया की सबसे बड़ी ताकत होते हैं। आज समाचार मीडिया की साख में तेजी से ह्रïास हो रहा है और इसके साथ ही लोगों की सोच को प्रभावित करने की इसकी क्षमता भी कुन्ठित हो रही है। समाचारों को उनके न्यायोचित और स्वाभाविक स्थान पर बहाल कर ही साख और प्रभाव के ह्रïास की प्रक्रिया को रोका जा सकता है।
लेखक उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में कुलपति हैं. वे इग्नू और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन में जर्नलिज्म के प्रोफेसर रह चुके हैं. एकेडमिक्स में आने से पहले वे दस वर्ष पत्रकार भी रहे हैं .