गोविन्द सिंह |
- लेखन: स्वरूप एवं अवधारणा
लेखन का संबंध मानव सभ्यता से जुड़ा है। जब आदमी के मन में अपने आप को अभिव्यक्त करने की ललक जगी होगी, तभी से लेखन की शुरुआत मानी जा सकती है। सवाल यह पैदा होता है कि हम क्यों लिखते हैं? कुछ लोग कहते हैं, अपने मन को हलका करने के लिए लिखते हैं, जैसा कि कविवर सुमित्रानंदन पंत ने कहा, ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान’। आदिकवि वाल्मीकि से जब मैथुनरत क्रौंच पक्षी जोड़े को बहेलिए द्वारा मार गिराए जाने का दृश्य देखा तो वे तड़प उठे. तब अनायास ही उनके मुख से निकले शब्द दुनिया की पहली कविता के रूप में हमें मिली:
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वं गमः शाश्वती शमा,
यत्क्रौंच मिथुनादेकं वधीः काममोहितम्।।
(अरे बहेलिये, तू ने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी।)
उनकी यह करुणा अपने चरम तक पहुँच गई और उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य “रामायण” (जिसे कि “वाल्मीकि रामायण” के नाम से भी जाना जाता है) की रचना कर डाली और “आदिकवि वाल्मीकि” के नाम से अमर हो गये।
लेकिन ऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं, कि हम तब लिखते हैं, जब दुखी होते हैं? या तब, जब जरूरत से ज्यादा खुश होते हैं? या तब, जब हम अपनी कोई ऐसी बात औरों के साथ बांटना चाहते हैं, जिसे और लोग नहीं जानते। लेखन की इन्हीं जरूरतों से साहित्य की भी उत्पत्ति होती है और पत्रकारिता की भी। इसलिए एक तरफ लेखन को नितांत वैयक्तिक क्षणों में आत्माभिव्यक्ति माना जाता है तो दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं, जो यह कहते हैं कि लेखन दूसरों को बताए-सुनाए बिना संभव ही नहीं है। एक अमेरिकी अखबार ने बीस अलग-अलग लेखकों से लेखन का अर्थ पूछा तो सबने अलग-अलग अर्थ बताया। हेनरी मिलर नामक उपन्यासकार ने कहा कि लेखन अपने आप में एक पुरस्कार है। तो महान उपन्यासकार फ्रेंज काफ्का का कहना था कि लेखन नितांत एकाकीपन है, अपने आपको तलाशने की कोशिश। एक और उपन्यासकार कार्लोस फ्यूंटेस कहते हैं, लेखन खामोशी के खिलाफ संघर्ष का नाम है। लेकिन ऐसे लेखक भी हैं, जिनका मानना है कि लेखन संचार है, आत्माभिव्यक्ति नहीं।
- पत्रकारीय लेखन एवं सृजनात्मक लेखन
भाषा और साहित्य की पुस्तकों में आपने पढ़ा होगा कि साहित्य दो प्रकार का होता है:
ज्ञान का साहित्य
ऊर्जा का साहित्य
ज्ञान का साहित्य यानी वे तमाम विषय जिनसे हम कुछ न कुछ सीखते हैं, जानकारी प्राप्त करते हैं। मसलन इतिहास, भूगोल और ज्ञान-विज्ञान की तमाम विधाएं। जिनका आधार सूचना या जानकारी या ज्ञान होता है। जबकि ऊर्जा का साहित्य हमारी सृजनात्मक ऊर्जा को जगाता है। हमें सृजनात्मक स्तर पर ऊर्जस्वित करता है। मसलन- कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि। सृजनात्मक साहित्य का संबंध हमारे संवेगों से होता है, हमारी जानकारियों या सूचनाओं से नहीं।
इससे यह बात निकलती है कि जहां तक सृजनात्मक साहित्य का संबंध है, उसमें आत्माभिव्यक्ति प्रमुख कारक है, जबकि ज्ञान के साहित्य में आपके पास जो ज्ञान या जानकारी है, उसे दूसरे तक पहुंचाना प्रमुख कारक है। तो सवाल यह है कि पत्रकारीय लेखन क्या है? पत्रकारिता में हम दोनों तरह के साहित्य को प्रकाशित करते हैं, और अनेक बार कोई सूचना या जानकारी कोरी जानकारी न रह कर संवेगों में लिपट कर पाठक तक पहुंचती है, इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि पत्रकारिता विशुद्ध रूप से किस तरह का साहित्य है? कभी वह एकदम जानकारी भर होता है तो कभी कविता-कहानी से भी ज्यादा सृजनात्मक। यदि हम अखबार के पन्नों पर छपने वाली सामग्री को भी इतिहास-भूगोल की किताबों की तरह से लिखेंगे तो शायद वह बेहद उबाऊ हो जाएगा। फिर हम अपने अखबारों में कविता-कहानी भी छापते हैं तो समसामयिक घटनाओं पर आधारित लेख और हर रोज घटने वाली घटनाओं का रोजनामचा भी। जो भी हो, जैसा कि हमारे संस्कृत ग्रंथ कहते हैं, साहित्य में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह है सह हित का भाव। इसके बिना न सृजनात्मक लेखन संभव है और न ही पत्रकारीय लेखन।
हम यहां सृजनात्मक लेखन की बारीकियों में न जाकर पत्रकारीय लेखन तक ही अपने को सीमित रखेंगे। भलेही हम पत्रकारिता में हर तरह के साहित्य को प्रकाशित करते हैं, भलेही हम अपने रिपोर्ताज को, संस्मरणों को, रेखाचित्रों को सृजनात्मक बनाकर प्रकाशित करते हों, लेकिन वास्तव में वे हमारी जानकारी के परिक्षेत्र को ही बढ़ाते हैं। इसलिए उसे साहित्य नहीं, साहित्य का कच्चा माल कहा जाता है। अत: समग्रता में पत्रकारिता को ज्ञान का साहित्य ही माना जाएगा।
प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर ने एक बार रिपोर्ट और कहानी के फर्क को समझाने के लिए एक कहानी सुनाई। एक बार एक राजा को कोई असाध्य बीमारी हुई। देश भर से वैद्य बुलाए गए। सबसे बड़े राजवैद्य ने उपाय सुझाया कि मानसरोवर के हंसों का मांस खिला कर ही राजा को इस असाध्य बीमारी से बचाया जा सकता है। राजा के सिपाही मानसरोवर पहुंचे अपने तमाम लाव-लश्कर के साथ। फौजियों ने मोर्चा लिया और अपनी राइफलें ताने हुए सरोवर की तरफ निकले। उन्हें देखते ही हंस दूर भाग निकले। सिपाही रोज तैयार होकर सरोवर के पास जाते और हंस दूर भाग जाते। सिपाही निराश होकर अपने बेसकैंप में लौट आते। यहां तक वास्तविक कहानी है, जिसे रिपोर्ट बनाकर अखबार के पन्नों पर छापा जा सकता है कि मानसरोवर से फौजी बैरंग लौट आए। लेकिन कहानीकार यहीं चुप होकर नहीं बैठ जाता। वह अपनी कल्पना को दौड़ाता है। कहानी यों बनती है: लगातार सात दिन तक कदम-ताल करने के बाद जब फौजियों को सफलता नहीं मिली तो एक दिन एक सिपाही के दिमाग में एक विचार आया। और उसकी युक्ति काम कर गई। आठवें दिन फौजी हंसों का शिकार करने में कामयाब हो गए। कैसे? ऐसे कि आठवें दिन फौजी अपने पारंपरिक वेश में बंदूक ताने न जाकर साधुओं के वेश में सरोवर के पास गए। और आज हंस उन्हें देख कर भागे नहीं, पास आकर दाना चुगने लगे। और मौका देखते ही फौजियों ने उन्हें दबोच लिया। यानी हंसों के विश्वास का हनन करके वे अपने राजा को बचाने में कामयाब हुए। यह कहानी है, जो हमें झकझोरती है, हमारे मर्म का स्पर्श करती है।
- पत्रकारीय लेखन के विविध रूप
पत्र-पत्रिकाओं में हम अनेक प्रकार की सामग्री प्रकाशित करते हैं. सबसे ज्यादा तो खबरें ही छपती हैं. जाहिर है की उन्हें लिखने का भी एक ख़ास तरीका होता है. उसमें हम आम तौर पर सीधे-सीधे, बिना किसी लाग-लपेट के लिख देते हैं. उसमें भाषा को चिकनी-चुपड़ी बनाने की जरूरत नहीं पड़ती. फिर खबरे भी कई किस्म की होती हैं. अर्थात कुछ खबरे ऐसी भी होती हैं, जिन्हें मार्मिक भाषा में लिखना होता है. खैर यह सब हम रिपोर्टिंग वाले पर्चे में पढेंगे, यहाँ हम उन्हीं विधाओं को ले रहे हैं, जो रिपोर्ट के इतर हैं और जिन्हें रूढ़ अर्थों में लेखन के रूप में जानते हैं. यानी ये वे विधाएं हैं, जिन्हें अखबार में नौकरी किये बिना भी लिखा और छपवाया जा सकता है. इनमें से कुछ रूपों का हम यहाँ उल्लेख कर रहे हैं:
3.1. फीचर
3.1.1. फीचर क्या है
मोटे तौर पर समाचार पत्रों में खबर के इतर जो कुछ छपता है, वह फीचर की परिधि में आता है. या यह भी कहा जा सकता है कि समाचार पत्रों में जो बड़े आलेख छपते हैं, वे फीचर कहलाते हैं. लेकिन यहाँ हम विषय का कुछ और परिसीमन करते हुए, फीचर के उसी अर्थ को लेते हैं, जहां से उसकी शुरुआत हुई थी.
एक और लेखक कहते हैं, मानव की भावनाओं तथा मन को उत्प्रेरित करने वाला लेख फीचर कहलाता है. एक और लेखक के शब्दों में, मनोरंजक ढंग से लिखे गए लेख को फीचर कहते हैं.
जेम्स लेविस के शब्दों में: फीचर समाचारों को नया आयाम देता है, उनका परीक्षण करता है, विश्लेषण करता है, तथा उन पर नए ढंग से प्रकाश डालता है.
3.1.2. फीचर के रूप
फीचर के भी अनेक रूप होते हैं. उनके अलग से परिशिष्ट छपते हैं, रोज-ब-रोज अखबार के पन्नों में खबरों के बीच भी वे छपते हैं. कुछ स्थायी किस्म के फीचर होते हैं तो कोइ एकदम सामयिक किस्म के फीचर. यहाँ हम आपको तमाम किस्म के फीचरों की जानकारी दे रहे हैं:
- सामान्य फीचर: लोकरूचि की कोई भी सूचना या विवरण इस श्रेणी में रखी जा सकती है. लेकिन उसे पढने- सुनाने में पाठकों की रूचि होनी चाहिए. उससे पाठको की जानकारी, संवेदना का दायरा बढना चाहिए. किसी व्यक्ति, स्थान के बारे में हो सकता है, किसी त्यौहार, उत्सव, महोत्सव, कार्यक्रम के बारे में भी फीचर हो सकता है. ऐसे समाजों, जनजातियों, रीति रिवाजों के बारे में भी फीचर बन सकता है, जिनके बारे में लोग नहीं जानते या जिनमें जनता की दिलचस्पी होती है. मसलन, बस्तर या संथाल परगना के आदिवासियों की जीवन शैली हमेशा ही फीचर का विषय बनती है. अंदमान की कुछ जातियां, जो शहरी समाज से दूर रहती हैं, सदैव ही लेखन का विषय बंटी हैं. इसी तरह यदि किसी देश का महोत्सव अपने देश में हो रहा है या अपने देश का महोत्सव उनके देश में हो रहा है, तो वह भी फीचर के रूप में कवर हो सकता है. यदि कोई व्यक्ति अचानक चर्चा में आ गया है, पुरस्कृत हो गया है, बीमार चल रहा है, देहांत हो गया है, तो उसके बारे में भी फीचर छपता है. इतिहास, पुरातत्व, भूगर्भशास्त्र, साहित्य-संस्कृति, कला-संगीत सब विषयों पर फीचर लिखे जा सकते हैं. इसी तरह पर्यटन, पर्यटन स्थलों, नदी-पहाड़ों, समुद्र, पर्यावरण, मौसम ये कुछ ऐसे विषय हैं, जिन पर हमेशा फीचर लिखे जा सकते हैं. सबसे स्थायी फीचर कैलेण्डर को देखकर लिखे जा सकते हैं, जब आप महीने पहले किस तीज-त्यौहार या दिवस के बारे में फीचर लिख सकते हैं. ये सारे फीचर सामान्य फीचर की श्रेणी में आते हैं.
- भेंटवार्ता, साक्षात्कार या इंटरव्यू: किसी व्यक्ति के साथ किसी विशेष मकसद के साथ की गयी बातचीत भेंटवार्ता कहलाती है. इसमें व्यक्ति प्रमुख होता है. वह ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो महत्वपूर्ण हो. जिसके बारे में जानने-सुनने की दिलचस्पी पाठकों में होनी चाहिए. भेंटवार्ता भी मुख्यतः दो प्रकार की होती है:
- ऐसे व्यक्ति के साथ वार्ता, जो बहुत महत्वपूर्ण हो. जिसके बारे में लोग यों ही जानना चाहते हैं. उस व्यक्ति के साथ किसी अवसर पर भी वार्ता हो सकती है, और बिना अवसर के भी. ऐसा व्यक्ति अपने क्षेत्र में बहुत नामी होता है. जैसे आप मुंबई गए, और आपको वहाँ दिलीप कुमार मिल गए तो आपने उनका बड़ा सा इंटरव्यू लिया. या आप पाकिस्तान गए, वहाँ के बड़े कहानीकार इंतिजार हुसैन से मिल आये, यह इंटरव्यू कहीं भी छप जाएगा. या किसी व्यक्ति को नोबेल पुरस्कार मिल गया, भारत रत्ना मिल गया, ऐसे व्यक्ति का इंटरव्यू कोइ भी छापना चाहेगा.
- घटना-प्रधान इंटरव्यू: जब भी कोई बड़ी घटना घटती है,हम उसके बारे में आलेख छापते हैं,समाचार विश्लेषण छापते हैं,ताकि पाठक को यह समझा सकें की वह घटना क्यों घटी,कैसे घटी या उसका क्या प्रभाव भविष्य में पड़ सकता है?ऐसे समय पर हम साप्ताहिक पत्रिकाओं की आवरण कथाएं भी छापते हैं. तब हमें ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ती है,जो उस घना से सम्बंधित हो, या उस विषय का विशेषज्ञ हो. ऐसे लोगों के इंटरव्यू भी हम छापते हैं. लेकिन जरूरी नहीं कि ऐसे इंटरव्यू हमेशा प्रश्नोत्तर शैली में ही हों. लेकिन ऐसे व्यक्ति का इंटरव्यू छपने से पहले उनका संक्षिप्त परिचय या पदनाम देना जरूरी होता है. ऐसा इंटरव्यू एक-दो पेज का भी हो सकता है और एक बॉक्स में भी.
- रिपोर्ताज: इसे आप रिपोर्ट की बड़ी बहन भी कह सकते हैं. जब आप किसी इलाके, घटना या प्रवृत्ति की गहन छानबीन करते हैं, तमाम तरह के तथ्य एकत्रित करते हैं, उन्हें सुन्दर शब्दों में पिरो कर एक सुन्दर शब्द-चित्र प्रस्तुत करते हैं तो इसे रिपोर्ताज कहते हैं. यह अंग्रेज़ी के Reportage का हिन्दी प्रतिरूप है. बाढ़, सूखा, प्राकृतिक आपदा, युद्ध, दंगा या किसी तरह के संकट से प्रभावित इलाके का समग्र चित्र प्रस्तुत करने वाली रिपोर्ट को रिपोर्ताज कहते हैं. जरूरी नहीं कि इलाका संकटग्रस्त ही हो, संकट की जगह कोई सकारात्मक बात भी हो सकती है. जाहिर है इसका आकार सामान्य रिपोर्ट से बड़ा होता है. यदि गंभीरता से लिखा जाए यह साहित्य की कोटि में आ सकता है. १९७४ के बिहार आन्दोलन पर कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखे गए रिपोर्ताज, रेणु द्वारा ही नेपाल की क्रान्ति पर लिखे गए रिपोर्ताज अपने आप में दुर्लभ हैं. धर्मवीर भारती द्वारा बांग्लादेश युद्ध के दौरान रणभूमि से लिखे गए रिपोर्ताज आज सृजनात्मक साहित्य की धरोहर हैं. इसके साथ ही विशेष रिपोर्ट, गहरी छानबीन परक रिपोर्ट या खोजबीन परक रिपोर्ट भी अखबारों में छपती हैं, जिनमें समाचार-विश्लेषण, फीचर और लेख के गुण समाहित होते हैं. इन्हें लिखने के लिए भी एक अलग तरह के भाषिक सौष्ठव की जरूरत होती है.
- संस्मरण: साहित्यिक पत्रकारिता में संस्मरण एक अत्यंत लोकप्रिय विधा है. पत्रिकाओं में अक्सर पुराने दिनों के बारे में, पुराने साहित्यकारों के बारे में संस्मरण छपा करते हैं. संस्मरण का लेखक एक दर्शक, साक्षी होता है. किसी अन्य व्यक्ति, उससे सम्बंधित किसी रोचक, आकर्षक और प्रेरक घटना को पूरी आत्मीयता के साथ याद करता है. संस्मरण में लेखक अपनी भावना और संवेदना के सूक्ष्म और गहरे स्टारों पर औरों से सम्बंधित अपने अनुभव तथा अनुभूति को भी अभिव्यक्ति देता है. संस्मरण का सम्बन्ध अतीत से होता है और अतीत, चाहे कितना ही दुखदायी क्यों न हो, सुनने में अच्छा लगता है. इसलिए संस्मरण हमेशा ही प्रासंगिक रहेगा और इसकी मांग भी बनी रहेगी. संस्मरण के भी दो रूप हैं: 1- Reminiscences- जब व्यक्ति अपनी स्मृति द्वारा चुने गए जीवन-प्रसंगों में स्वयं अपने ही बारे में बात करता है तो उन्हें रिमिनिसेंसिज कहा जाता है. 2- Memoirs- जब लेखक किसी अन्य व्यक्ति को अपनी भावनापूर्ण अभिव्यक्ति का आधार बनता है तो इन्हें मेम्वायर्स कहा जाता है. हिन्दी में दोनों के लिए संस्मरण ही कहा जाता है. साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर संस्मरण छपते हैं. यदि सृजनात्मक तरीके से लिखे जाएँ तो ये भी स्थायी तौर पर साहित्य की धरोहर बन जाते हैं. बंगला और मराठी में संस्मरण का काफी महत्व है. वहाँ दुर्गा पूजा और गणपति के अवसर पर निकलने वाले विशेषांकों में बड़ी तादाद में संस्मरण छपते हैं. हिन्दी में भी १९९१ से पहले की पत्र-पत्रिकाओं में संस्मरण काफी छपते थे.
- व्यक्ति चित्र/ शब्द चित्र/ रेखाचित्र: व्यक्ति, स्थान या प्राणी के चरित पर आधारित रचना को रेखाचित्र या प्रोफाइल कहते हैं. यह शब्द चित्रकला से आया है. वहाँ किसी व्यक्ति, वस्तु या दृश्य का पेन, पेन्सिल या कूची से रेखांकन किया जाता है. जबकि साहित्यिक पत्रकारिता में यह काम शब्दों के जरिये होता है. इसीलिए इसे शब्द-चित्र भी कहा जाता है. अखबारों के साप्ताहिक परिशिष्टों में चर्चित व्यक्तियों के चरित-चित्रण की परंपरा अब भी है लेकिन उनमें वह साहित्यिक पुट नजर नहीं आता. जबकि यदि आप महादेवी वर्मा के अपने जीव-जंतुओं के बारे में लिखे गए रेखाचित्र पढ़ें तो उनमें एक शाश्वत सौन्दर्य दिखाई पड़ता है. इसीलिए साहित्य की पुस्तकों में उनकी जगह सुरक्षित है. रेखाचित्र में विषय का कोई बंधन नहीं होता लेकिन यह अमूमन एक ही विषय पर केन्द्रित होता है. अनेक बार रेखाचित्र भी संस्मरण पर आधारित होते हैं लेकिन अखबारी प्रोफाइल तथ्यों पर ज्यादा आधारित होते हैं और उन्हें सामयिक जरूरत के हिसाब से लिखा जाता है. यदि भाषा सुन्दर हो और चित्रण खूबसूरत तो रेखाचित्र को साहित्य में आने से कोई रोक नहीं सकता.
- मृत्यूपरांत जीवनी: अंग्रेज़ी में इसे ओबिचुअरी या ओबिट कहते हैं. आप अक्सर देखते होंगे कि जब भी किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का देहांत होता है, तत्काल उसकी जीवनी छाप जाती है. यही ओबिचुअरी है. जाहिर है, इसके लिए सम्पादकीय विभाग को पहले से ही तैय्यारी करके रखनी पड़ती है. पेशेवर पत्र-प्रतिष्ठानों में सन्दर्भ या रीसर्च विभाग होते हैं, जहां इसकी तैयारी चलती रहती है. हरेक सेलिब्रिटी या महत्वपूर्ण व्यक्ति के बारे में छपने वाली सूचनाओं या खबरों या फीचरों की एक फ़ाइल बनाई जाती है. उसमें स तरह की जानकारियाँ जमा होती रहती हैं. जब भी कोइ महत्वपूर्ण बात घटित होती है, इस फ़ाइल में रखी गयी क्लिपिंग्स काम आती हैं. जब कोई व्यक्ति बीमार चल रहा होता है, या वयोवृद्ध है, तो उसकी जीवनी या प्रोफाइल तैयार कर ली जाती है और जरूरत पड़ने पर काम आती है.
- यात्रा वृत्तान्त: पत्र-पत्रिकाओं में यात्रा वृत्तान्त भी खूब छापते हैं. व्यक्ति के भीतर उन जगहों, व्यक्तियों के बारे में जानने की हमेश इच्छा होती है जिन्हें वे नहीं मिले हैं या जहां वे नहीं गए हैं. यदि आप किसी जगह गए हैं या किन्हीं व्यक्तियों से मिले हैं तो उनके बारे पढने की भी आपके मन में उत्कंठा होती है. अपनी यात्रा को हम तुरंत किसी और के यात्रा संस्मरण से मिलान करके देखना चाहते हैं. इसलिए संस्मरण की ही तरह यात्रा वृत्तान्त का महत्व भी हमेशा ही बना रहेगा. यात्रा वृत्तान्त में भी स्थायी साहित्य में जगह बनाने की प्रबल सम्भावनाएँ होती हैं, बशर्ते कि वह अच्छी तरह से लिखा जाए. लेकिन गर्मियों में हिल स्टेशनों के बारे में छपने वाले वृत्तान्त बहुत सामान्य श्रेणी के वृत्तान्त होते हैं, जिनका साहित्यिक महत्व नहीं होता है. फिर भी यदि आप सामान्य स्तर का यात्रा विवरण लिखना भी जानते हैं तो उससे अखबार की जरूरत पूरी होती है. भारतीय भाषाओं के साहित्य में, खासकर बांगला में यात्रा वृत्तान्त की समृद्ध परम्परा है. हिन्दी में भी पत्र-पत्रिकाएन यात्रा साहित्य से भरी रहती हैं. यात्रा वृत्तान्त की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि आप किस हद तक किसी स्थान या स्थानों का हू-ब-हू चित्रण कर पाते हैं. इसलिए किसी भी यात्रा लेखक को अपने साथ डायरी जरूर रख लेनी चाहिए और उसमें स्थानों के बारे में जरूरी सूचनाएं, जगहों के ठीक-ठीक नाम और वहाँ की विशेषताएं जरूर लिख लेनी चाहिए. स्थानीय लोगों से बातचीत करनी चाहिए, उनके विचारों को भी नोट कर लेना चाहिए. ताकि लिखते समय आप उसे समेकित रूप से प्रस्तुत कर सकें.
- समीक्षा: हर अखबार-पत्रिका में कई तरह की समीक्षाएं छपा करती हैं. फिल्म समीक्षा, कला समीक्षा, नृत्य समीक्षा, संगीत समीक्षा, नाटक समीक्षा, मंडी समीक्षा, शेयर बाजार समीक्षा, टीवी समीक्षा, रेडियो समीक्षा आदि. जो भी चीज चर्चा में हो, उसकी समीक्षा हो सकती है. या जिसमें लोगों को दिलचस्पी हो, जिसमें लोगों को सलाह-मशविरे की जरूरत हो, उसकी समीक्षा होती है. मसलन कोई नई किताब प्रकाशित होती है, पाठकों को क्या पता की किताब कैसी है. ऐसे में यदि किसी अखबार में समीक्षा छपती है और उसमें किताब की तारीफ लिखी होती है तो लोग तुरंत उसे खरीदते हैं. बहुत से लोग केवल समीक्षा पढ़कर ही किसी किताब के बारे में जानकारी ले लेते हैं. बहुत से लोग समीक्षा पढ़कर ही फिल्म देखने जाते हैं. समीक्षा का मतलब है, किसी चीज को अच्छी तरह से देखना. उसके गुण-दोषों के साथ देखना. यह तभी संभव हो सकता है, जबकि आप उस विषय के जानकार हों, विशेषज्ञ हों. आप खुद ही विषय के जानकार नहीं है और पाठकों को अच्छे-बुरे की सलाह दे रहे हैं, तो बात कैसे बनेगी? इसलिए किसी भी समीक्षक के लिए अपने विषय की गहरी जानकारी होनी जरूरी है. यदि आप नाटक या संगीत के समीक्षक बनाना चाहते हैं तो आपको इन कलाओं की बारीक पकड़ तो होनी ही चाहिए. तभी आपकी बात में प्रामाणिकता भी आ पायेगी.
- फोटो फीचर: फीचर का एक रूप फोटो फीचर भी है, जिसमें फीचर अपने असली रूप में प्रकट होता है. यहाँ शब्द कम होते हैं, उनकी जगह सुन्दर छायाचित्र होते हैं. लेकिन चित्रों को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त भी करना होता है. जहां हम फीचर से यह अपेक्षा करते हैं कि उसमें शब्दों के जरिये किसी व्यक्ति, स्थान या परिस्थिति का चित्रण किया गया हो, वहीं फोटो फीचर में चित्र पहले से ही उपलब्ध होते हैं. जो रिक्त स्थान रह जाते हैं, उन्हें ही शब्दों के जरिये भरना होता है. इसलिए यहाँ अत्यंत सुन्दर और प्रासंगिक शब्दों की जरूरत होती है. यहाँ हमारे पास शब्दों के लिए जगह बहुत ही कम होती है. कई बार कैप्शन या चित्र परिचय की तरह से विवरण प्रस्तुत करना होता है. इसलिए यहाँ भाषा-शैली की विशेष महत्ता है. सुन्दर चित्रों के बीच असुंदर शब्द नहीं चल सकते.
- इतर विधाएं: इनके अतिरिक्त और भी अनेक विधाएं फीचर के अंतर्गत आती हैं. हास्य-व्यंग्य के कालम, कार्टून कथाएं, फिल्मी या राजनीतिक गॉसिप, फीचर परिशिष्टों में छपने वाले परामर्शदाताओं के प्रश्नोत्तर के कॉलम, धर्म से सम्बंधित सामग्री और ज्योतिष के कॉलम, कविता के कॉलम और साहित्यिक रचनाएं भी छपती हैं. इन विधाओं का अपना महत्व है. इनमें से बहुत सी भलेही पत्रकारीय रचनाएं न हों लेकिन उनके बिना अखबार नहीं चलता. वे अखबार की जरूरत होते हैं. उनका वही महत्व है, जो भोजन के साथ अचार का होता है.
- फीचर के स्रोत: सवाल यह है की आखिर फीचर के विषय कहाँ से आते हैं. जहां तक खबरों का सवाल है, उन्हें किसी का इन्तजार नहीं करना पड़ता. वे खुद आसमान से टपक पड़ती हैं, इसलिए आपको उन्हें कवर करना ही पड़ता है. इसी तरह लेखादि भी खबरों से ही जुड़े होते हैं. उन्हें आपको तलाशना नहीं पड़ता. आपको उपलब्ध घटनाओं में से सिर्फ चयन करना होता है. लेकिन फीचर के लिए आपको विषय तलाशने होते हैं. तो कहाँ से तलाशें विषय? यहाँ हम कुछ सूत्र दे रहे हैं: १- खबरें अर्थात अखबार, पत्रिकाएं, टीवी, रेडियो या इन्टरनेट, जहां भी खबरें मिलें, उन्हें ध्यान से देखी, सुनिए, आपको जरूर फीचर के लायक विषय मिलेंगे. कोई नया मेहमान शहर में आया हो तो आप उनका इंटरव्यू ले सकते हैं. किसी व्यक्ति के बारे में रेखाचित्र लिख सकते हैं. या कुछ भी. २- लोग-बाग़: लोग भी फीचरों के महत्वपूर्ण स्रोत हैं. उनसे आपको तरह-तरह की जानकारियाँ मिलती हैं. कई बार लोग स्वयं भी फीचर के विषय होते हैं, बस जरूरत इस बात की है कि आप उन्हें पहचानें. ऐसे छुपे रुस्तम आपको अपने आसपास मिल जायेंगे, जिन्होंने अपने जीवन में संघर्ष किया हो, जिन्होंने सिर्फ अपने संघर्ष की बदौलत जीवन का कोइ बड़ा मुकाम हासिल किया हो. इसी तरह लोगों की सफलता की कहानियां भी अच्छा फीचर बनती हैं. ३- स्थान: जगहें भी फीचर के बेहतर स्रोत हैं. किसी इलाके में कोई आपदा आयी हो, कोइ आन्दोलन चल रहा हो या किसी नई बीमारी का संक्रमण फैला हो, उस जगह के बारे में आसानी से फीचर लिखा जाता है. आदिवासी इलाके, पर्यटक स्थल, पुरातात्विक महत्व के स्थल हमेशा फीचर के विषय बनते हैं. इसलिए जब भी कहीं घूमने-फिरने जाएँ, जरूर उस इलाके के बारे में जानकारियाँ एकत्र करें. ४- जीव-जंतु: जीव जंतु भी आपको लेख लिखने के लिए आकर्षित करते हैं. कोई गाय ज्यादा दूध दे रही हो, किसी इलाके में अचानक कोई दुर्लभ जीव दिखाई पड़े, किसी इलाके में मवेशियों को कोई बीमारी हो जाए, तो वे फीचर का विषय बनते हैं. ५- पुस्तकें: पुस्तकें हमें नई-नई जानकारियाँ देती हैं. जब कोई घटना घटती है, तो उससे सम्बंधित पुस्तक से हमें उसकी तह तक जाने में सुविधा होती है. यों भी पुस्तकें अपने आप में फीचर का विषय बनती हैं. ६- अनुसंधान: नए-नए अनुसंधानों के बारे में पाठकों को जानकारी देना भी पत्रकारिता का काम होता है. क्योंकि उनके ऊपर लोगों की नजरें लगी रहती हैं. उनसे मानव जाति को क्या-क्या फायदे होंगे और किस तरह से दुनिया बदल जायेगी, यह जानने की इच्छा सबकी रहती है. अनुसंधान केवल बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में ही नहीं होते, वे सामान्य लोगों के द्वारा भी होते हैं. खेत-खलिहानों में, छोटी-छोटी कर्मशालाओं में भी नई-नई चीजें खोजी जाती हैं, उन्हें प्रकाश में लाना भी फीचर लेखकों का काम होता है. ७- प्रकृति: प्रकृति के बदलते रंग अर्थात अलग-अलग मौसमों की छाता तो अपने आप में फीचर बनती ही हैं साथ ही प्राकृतिक आपदा, उसका बदलता व्यवहार, पर्यावरण, और मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते हमेशा से अध्ययन के विषय रहे हैं. इनके अलावा भी अनेक स्रोत हो सकते हैं फीचर के विषय जानने के लिए. बस जरूरत इतनी सी है कि आप अपने कान और आँख खुली रखें.
- फीचर की संरचना
फीचर की संरचना खबर से एकदम भिन्न होती है. खबर की संरचना के लिए यदि हम उलटा पिरामिड का उदाहरण देते हैं तो फीचर की संरचना इसके विपरीत चलती है. फीचर के मुख्यतः निम्न हिस्से होते हैं: १- शीर्षक २- इंट्रो यानी आमुख ३- विषय वस्तु या कहानी और ५- उपसंहार. इसका शीर्षक जहां अत्यधिक आकर्षक होता है, दूर से ही पाठक की संवेदनाओं को पकड़ लेता है, वहीं इंट्रो भी एकदम नया होता है. जरूरी नहीं की खबर की तरह सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ही शुरू में हों, असल बात यह है कि जो भी बात लिखी जाए, वह पाठक को पकड़ ले. कहानी की तरह वह अपरिहार्य होना चाहिए. खबर के शीर्षक की तरह वह १० मरे, २० घायल शैली का नहीं होना चाहिए. वह पाठक के दिल को छू ले, ऐसी कोशिश होनी चाहिए. इसी तरह फीचर का इंट्रो उत्सुकता जगाने वाला होना चाहिए. इसके बाद आती है फीचर की कहानी. वह बीच में टूटनी नहीं चाहिए. लघु कथा की तरह कसी होनी चाहिए. लगातार उत्सुकता बनी रहनी चाहिए. उसमें तथ्य भी होते हैं, उसमें लोगों के कथन भी होते हैं और सीख भी. फिर भी वह उबाऊ नहीं होता. और फिर आता है उपसंहार. जो पाठक को सोचने को मजबूर करे, वही सही उपसंहार है. वह कहीं न कहीं लगना चाहिए. वह बेकार न जाए. कभी-कभी ऐसे भी फीचर छापते हैं, जिन्हें पढ़कर आंसू आ जाते हैं. इसी में फीचर की कामयाबी है.
- फीचर-लेखन प्रक्रिया:
फीचर लिखने के लिए यह जरूरी है कि आप तथ्यों का संकलन ठीक से करें. डायरी रखें, एक-एक चीज नोट करें, हो सके तो टेप रिकॉर्डर रखें, कैमरा रखें. लोगों के संवाद उनकी अपनी भाषा में रिकॉर्ड करें. पहले घटना या विषय को पूरी तरह से आत्मसात करें और तब शब्दों में ढालें. लिखते समय कोशिश करें कि अपने विचार थोपने की जगह ज्यों का त्यों चित्र प्रस्तुत करें. दृश्य को शब्द दें. ऐसे दृश्य खींचें जो मार्मिक हों, जो पूरी कहानी का प्रतिनिधित्व करें. आमुख में जगी जिज्ञासाओं को विस्तार दें. तथ्यों और जानकारियों को कहानी की तरह पिरोयें. जबरदस्ती का कथन न ठूसें. कोई भी अप्रासंगिक सूचना न हो. वह नदी की तरह बहती हुई हो. उसमें भाषा का प्रवाह हो और भावनाएं बहती हों, तभी फीचर सफल होता है. कुल मिलाकर फीचर का केन्द्रीय तत्व भावना है. मानवीय रूचि न हो तो फीचर सफल नहीं हो सकता.
3.2. लेख
दैनिक अखबार में फीचर के बाद सबसे ज्यादा छपने वाली विधा है लेख या आलेख. हर रोज सम्पादकीय पेज पर लेख छापा जाता है. लेख किसी भी अखबार की विचार शक्ति है. इसके न होने पर अखबार से बौद्धिक लोग नहीं जुड़ते. इसलिए अखबार के बौद्धिक कलेवर के लिए अच्छे व विचारोत्तेजक लेखों का छपना अनिवार्य होता है. सम्पादकीय पेज में आम तौर पर सम्पादकीय या अग्रलेख होते हैं. इनकी संख्या अलग-अलग हो सकती है. कुछ अखबार एक सम्पादकीय छापते हैं तो कुछ दो और कुछ तीन भी छापते हैं. सम्पादकीय के विषय अमूमन सुबह होने वाली संपादक-मंडल की बैठक में तय होते हैं. वे अक्सर सामयिक घटनाओं, मुद्दों और बहस के विषयों पर होते हैं. ऐसी घटनाएं जिन पर पाठक अपने प्रिय अखबार से यह अपेक्षा करे कि वह उस पेचीदा विषय पर उसका मार्गदर्शन करेगा. कोशिश होती है कि बहस के मुद्दों पर आपस में सहमति बन जाए. या फिर अखबार की सम्पादकीय नीति के अनुसार पक्ष लिया जाए. ऐसे मुद्दे अक्सर समाज में उछलते रहते हैं, जिन पर विभिन्न वर्गों में विवाद-बहस की स्थिति हो. इसलिए इस पृष्ठ को विचारपूर्ण होना ही चाहिए. सम्पादकीय पेज पर अक्सर दो-तीन लेख, टिप्पणियाँ, स्तंभ और सामयिक व्यंग्य भी छपते हैं. विदेशी अखबारों में आम तौर पर ये लेख स्टाफ के लेखक ही लिखते हैं. वहाँ बाहरी लेखकों के लेख ओप-एड पेज यानी सम्पादकीय पेज के सामने वाले पेज में छपते हैं, लेकिन भारत में, खासकर हिन्दी में ओप-एड बहुत ही कम अखबारों में हैं. इसलिए सम्पादकीय पेज में ही बाहरी लोगों के लेख भी छपा करते हैं. ये लेख भी अक्सर सामयिक विषयों पर होते हैं.
3.2.1. लेख क्या है?
लेख पत्रकारीय लेखन का सबसे पुराना रूप है. एक ज़माना था, जब राजनेता, विद्वान्, अध्यात्मिक संत, अकादमिक व्यक्ति या कलाकार अपने सिद्धांतों के प्रतिपादन और प्रचार के लिए लेख लिखा करते थे. गांधी जी के विचार पहले पहल अखबारों में लेख के जरिये ही बाहर आये. लेख का सम्बन्ध अपने समय की बड़ी और जटिल समस्या से होता है. इस प्रकार किसी भी सामयिक विषय का विश्लेषणात्मक अध्ययन लेख है. फीचर की आत्मा जहां भावनाओं में बसती है, वहीं लेख की आत्मा बुद्धि में वास करती है. हालांकि लेख का जन्म भी भावना में हो सकता है लेकिन उसका पालन-पोषण बुद्धि के सहारे ही होना चाहिए. एक लेख का लेखक किसी वकील की तरह अपने मुद्दे पर तर्कों के साथ बहस करता है और पाठक को किसी नतीजे तक पहुंचाता है. यह समाचार-विश्लेषण और सम्पादकीय टिप्पणी का अग्रज है, क्योंकि इसका लेखक अपने विषय की पूरी छानबीन करते हुए पक्ष-विपक्ष के जरिये अपने उपसंहार तक आता है. यानी जिस अंत तक वह पाठक को ले जाता है, उसके तमाम पहलुओं से वाकिफ करवाता चलता है. इसकी भाषा तार्किक होती है. यह विशेष रिपोर्ट और फीचर से इस मायने में भिन्न होता है कि उसमें लेखक के विचारों को पर्याप्त प्रमुखता डी जाती है. ये विचार तथ्यों और सूचनाओं पर आधारित होते हैं, और लेखक इनके विश्लेषण और अपने तर्कों के जरिये अपनी राय प्रस्तुत करता है. लेख लिखने के लिए पर्याप्त तैयारी जरूरी होती है. विषय से सम्बंधित तमाम तथ्यों और सूचनाओं की जानकारी तो होनी ही चाहिए साथ ही उसकी पृष्ठभूमि का भी लेखक को पता होना चाहिए.
3.2.2. लेखों के चयन का आधार
हर अखबार में लेख के चयन का आधार अलग-अलग होता है. कोई समसामयिकता के आधार पर लेख लिखवाता है, और कोई सेलिब्रिटी लेखकों को ढूँढता है. कोई कंटेंट पर ध्यान देता है, कोई बड़े नाम देखता है. फिर हर अखबार की अपनी सम्पादकीय नीति भी होती है. पुराने जमाने में लेखक लेख भेजते थे, और संपादक उनमें से चुनता था. अब ऐसा नहीं है. टीवी के आ जाने से तत्काल लेख देने की जरूरत होती है. इसलिए हर अखबार के लेखकों का अपना पैनल होता है. इसलिए उन्हीं में से लेख लिखवा लिया जाता है. दैनिक अखबार के सम्पादकीय पेज के लिए अमूमन सामयिक विषयों को तरजीह दी जाती है. कभी-कभार गंभीर और वैचारिक विषयों पर भी लेख दिए आते हैं. पर अब यह परम्परा क्षीण होती जा रही है.
लेख के चयन में जहां अच्छे विषय और लेखन शैली को वरीयता डी जाती है, वहीं अब सेलिब्रिटी को भी देखा जाता है. आज की व्यावसायिक पत्रकारिता में नाम का भी काफी महत्व है. पूंजीवाद व्यक्ति को काफी महत्व देता है. इसलिए यह भी देखा जाता है कि बात को उठाने वाला कौन है? किसके नाम से लेख पढ़ा जाएगा. हालांकि यह कोई अच्छा ट्रेंड नहीं है, लेकिन वक्त का तकाजा यही है.
3.2.3. लेख के विषय: आम तौर पर लेख के विषय हम रोज-ब-रोज की घटनाओं से ही खोजते हैं. यों, राजनीति, अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम, समाज और संस्कृति के मुद्दों से लेख के विषय मिलते हैं. लेख लिखने के विषय-क्षेत्र इस प्रकार हैं: राजनीति, अर्थ-व्यापार, खेल, विज्ञान-टेक्नोलोजी, कृषि, विदेश, कूटनीति, समर नीति, रक्षा, पर्यावरण, शिक्षा, स्वास्थय, फिल्म-मनोरंजन, अपराध, सामाजिक मुद्दे, क़ानून आदि.
3.2.4. लेख कैसे लिखें?
सबसे पहले विषय का चयन करें. बेहतर हो की अखबार के सम्पादक, या जहां आप उसे छपवाना चाहते हों, उससे सलाह-मशविरा कर लें. विषय से सम्बंधित सभी तथ्य संकलित कर लें. विषय का अध्ययन इतना गहरा हो कि उस पर आपका अपना कोई दृष्टिकोण जरूर हो. अपने पक्ष के विरुद्ध विचारों को भी जरूर समझ लें और अपनी अकाट्य दलीलों के सहारे उनका जवाब दें. तब जाकर अपने उपसंहार तक पहुंचें.
3.3 सम्पादकीय
लेख की ही तरह अखबार में सम्पादकीय भी अखबार के विचार पक्ष का द्योतक होता है. सम्पादकीय पेज में आम तौर पर सम्पादकीय या अग्रलेख होते हैं. इनकी संख्या अलग-अलग हो सकती है. कुछ अखबार एक सम्पादकीय छापते हैं तो कुछ दो और कुछ तीन भी छापते हैं. सम्पादकीय के विषय अमूमन सुबह होने वाली संपादक-मंडल की बैठक में तय होते हैं. वे अक्सर सामयिक घटनाओं, मुद्दों और बहस के विषयों पर होते हैं. ऐसी घटनाएं जिन पर पाठक अपने प्रिय अखबार से यह अपेक्षा करे कि वह उस पेचीदा विषय पर उसका मार्गदर्शन करेगा. कोशिश होती है कि बहस के मुद्दों पर आपस में सहमति बन जाए. या फिर अखबार की सम्पादकीय नीति के अनुसार पक्ष लिया जाए. ऐसे मुद्दे अक्सर समाज में उछलते रहते हैं, जिन पर विभिन्न वर्गों में विवाद-बहस की स्थिति हो. इसलिए इस पृष्ठ को विचारपूर्ण होना ही चाहिए. सम्पादकीय को आम तौर पर सम्पादक का विचार माना जाता है. लेकिन जरूरी नहीं की उसे सम्पादक ही लिखेगा. सम्पादकीय पेज पर काम करने वाले सहयोगी सम्पादक इस काम को अंजाम देते हैं. ये सम्पादकीय-लेखक एक तरह से संपादक की आत्मा में प्रवेश करके सम्पादकीय लिखता है. लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि इन दोनों के विचारों में कोई मतभेद हो ही नहीं सकता. अनेक मौके ऐसे भी आते हैं, जब मतभेद दिखाई पड़ते हैं लेकिन दोनों एक-दूसरे के विचारों के आदान-प्रदान के साथ इस गुत्थी को सुलझा लेते हैं. जिस अखबार में मतभेद की जितनी ज्यादा गुंजाइश हो, उसकी सम्पादकीय नीति उतनी ही उदार होती है. यदि हम सम्पादकीय लेखन की पृष्ठभूमि में जाएँ तो पता चलता है कि पत्रकारिता के शुरुआती दिनों से ही सम्पादकीय लेखन की शुरुआत हो गयी थी. बल्कि समाचार से ज्यादा विचारों की अभिव्यक्ति के लिए आरंभिक दौर के पत्र निकले. सोसाइटी फॉर प्रोफेशनल जर्नलिस्ट्स, अमेरिका के अनुसार, ‘सम्पादकीय लेखक पाठकों को सूचना देते हैं, जागरूक करते हैं, उनका पथ-प्रदर्शन करते हैं, उनकी तरफ से लड़ते हैं और चुनौती देते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि वे पाठक को अपने साथ जोड़े रखते हैं. साथ ही वे पाठकों को अपने-अपने समुदाय, अपनी सरकार, अपने संगठनों और अपनी दुनिया में भी सक्रिय रहने को प्रेरित करते हैं. इसके लिए पत्रकारिता में उनका महत्व अक्षुण्ण रहेगा.’ वेबस्टर डिक्शनरी के मुताबिक़, ‘सम्पादकीय किसी समाचार पत्र या पत्रिका में छपने वाला वह लेख है, जो प्रकाशक, संपादक या संपादकों के अभिमत का परिचायक है.’
3.4 स्तम्भ: स्तम्भ भी एक तरह की सम्पादकीय टिप्पणी ही है. बस सिर्फ अंतर यह है की स्तम्भ में इसके लेखक का नाम छपता है, जबकि सम्पादकीय बिना नाम के छपता है. इसके अलावा स्तम्भ की एक निश्चित अवधी होती है. अर्थात हर सप्ताह या हर पखवाड़े स्तम्भ छपता है. इसलिए इसे लिखने वाला एक मंजा हुआ लेखक होता है. वक कतई उबाऊ नहीं होना चाहिए. यही वजह है की खुशवंत सिंह का साप्ताहिक कॉलम ९५ वर्ष की उम्र में भी नियमित रूप से छाप रहा है. इसकी विषय वस्तु भिन्न-भिन्न हो सकती है. इसकी असली विशेषता यह है कि वह आवधिक हो.
4-पत्रकारीय लेखन के लिए ध्यान देने योग्य बातें:
1- लेखन में भाषा, व्याकरण, वर्तनी और शैली का ध्यान रखना जरूरी होता है. भाषा आसान रखें एकदम बोलचाल की. फीचर में जरूर कभी-कभार साहित्यिक भाषा का भी इस्तेमाल हो सकता है.
2- समय-सीमा और आवंटित जगह के अनुशासन का पालन करें. यानी यदि आपको शनिवार तक लेख देना है तो आपके लिए यह जरूरी है की आप उससे पहले ही लेख दे दें. इसी तरह आपको १००० शब्द लिखने को कहा गया है तो आप २००० या ५०० शब्द का लेख नहीं दे सकते. हद से हद १०० शब्द ऊपर-नीचे हो सकते हैं.
3- अशुद्धियाँ कम से कम हों. कृपया लेख छपने से पहले दो बार पढ़ लें. ताकि किसी तरह की गलती न हो.
4- लेखन प्रवाहपूर्ण होना चाहिए. तारतम्यता जरूरी है. वरना वह उबाऊ हो जाएगा.
5- वाक्य छोटे और आसान रखें.
लेखक उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग के निदेशक हैं.