महेंद्र नारायण सिंह यादव।
मीडिया का काम सत्ता पर नजर रखना, उसकी मनमानी पर अंकुश लगाने की कोशिश करना, उसके गलत कार्यों को जनता के सामने लाना भी है। मानवाधिकार संरक्षण का वह महत्वपूर्ण कारक है। हालाँकि यह भी सही है कि मानवाधिकार खुद मीडिया के लिए भी जरूरी है। अगर मानवाधिकारों की स्थिति अच्छी नहीं है तो मीडिया को भी स्वतंत्र रूप से कार्य करने में दिक्कत होती है। यद्यपि ऐसी परिस्थिति में मीडिया की असली परीक्षा होती है। ऐसी भी मिसालें अनेक हैं जिनमें जटिल परिस्थितियों में मानवाधिकारों के हनन के बीच नुकसान सहकर भी मीडिया ने अपना दायित्व निभाया और मानवाधिकार बहाली में भी सफल योगदान दिया।
पत्रकारिता का पेशा ही ऐसा है कि अक्सर पत्रकारों को मानवाधिकार हनन की स्थिति का सामना करना पड़ जाता है। भारत जैसे देश में, जहाँ पर अब भी सामंतवादी मूल्य जड़ें जमाए बैठे हैं, वहाँ तो यह अक्सर ही होता है। छोटे शहरों, गांवों, आदिवासी अंचलों में तो स्थिति खराब है ही, पर बड़े शहरों में भी मानवाधिकार हनन के मामले लगातार सामने आते रहते हैं।
गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखना, हवालात में कैदियों के साथ दुर्व्यवहार, हत्याएँ और प्रताड़ना के मामले अक्सर ही सामने आते रहते हैं। खुद मीडियाकर्मियों के साथ भी ऐसी घटनाएं घटती हैं और आम जनता के साथ होने वाली ऐसी घटनाओं को कवर करने से उन्हें रोका भी जाता है। पत्रकारों की मौजूदगी गैरकानूनी काम करने वाले हर व्यक्ति, अधिकारी या वर्ग को अखरती ही है क्योंकि वो ही उनकी अनैतिक और गैरकानूनी गतिविधियों को जनता और सरकार के सामने लाते हैं। ऐसा होने पर ही सत्ता भी उनके खिलाफ कार्रवाई करने पर मजबूर हो जाती है। अगर सत्ता कहीं कार्रवाई करने में ढिलाई भी बरतती है तो जनता राजनीतिक तरीके से उसका प्रतिकार करती है और चुनावों के जरिए सत्तासीन दलों को दंड भी देती है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर युद्ध या उपद्रवग्रस्त इलाकों में मानवाधिकारों की स्थिति बहुत कमजोर होने की आशंका रहती है। ऐसे में पत्रकारों के जरिए ही सही स्थिति विश्व के सामने आ पाती है। हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के लिए तो मानवाधिकार हनन वाली मीडिया रिपोर्टों की अहमियत काफी रहती है।
सिद्धांत रूप में इस बात पर अंतरराष्ट्रीय सहमति है कि युद्ध के दौरान भी दोनों पक्ष पत्रकारों को संकटग्रस्त इलाके में स्वतंत्रतापूर्वक आने जाने देने और खबर करने देने की अनुमति देंगे तथा उन्हें किसी तरह की प्रताड़ना नहीं देंगे। हालांकि वास्तविकता में ऐसा नहीं होता है। पत्रकारों को अक्सर बंदी भी बना लिया जाता है और कई बार मार भी दिया जाता है। इतना ज़रूर है कि जब भी पत्रकारों के साथ कोई ऐसी घटना घटती है तो वो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनती है। संबंधित पक्षों पर अंतरराष्ट्रीय दबाव भी पड़ता है और कई बार सफलता भी मिलती है।
मानवाधिकारों की अवधारणा कई सालों में विकसित हो सकी है। पौराणिक कथाओं में युद्ध धर्मयुद्ध के रूप में लड़े जाते थे और इस तरह से उनमें मानवाधिकारों की सुरक्षा की जाती थी। आधुनिक युग में सोलहवीं शताब्दी में, चीनी योद्धा सुन त्ज़ू ने युद्ध के तौर तरीकों को नियंत्रित करने के सुझाव प्रस्तुत किए थे। 1215 में हुए मैग्नाकार्टा समझौते को विश्व का पहला मानवाधिकार घोषणा पत्र माना जाता है। सत्ता के अधीन रहने वाले लोगों के अधिकारों को पहली बार इसमें जगह दी गई और तभी से लोकतंत्र की राह तैयार हुई थी। इसी के जरिए प्रजा को अपनी संपत्ति रखने, संपत्ति के उत्तराधिकार जैसे अधिकार दिए गए। 15 जून 1215 को मैग्नाकार्टा समझौते पर इंग्लैंड के किंग जॉन और उनके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कुलीन क्षत्रपों ने इस पर हस्ताक्षर किए थे। मैग्नाकार्टा को ब्रिटिश संविधान और आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार कहा जाता है। बाद में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदियों में अनेक यूरोपीय विद्वानों ने मानव के प्राकृतिक अधिकारों की परिकल्पना प्रस्तुत की।
इसी दौर में रेड क्रॉस सोसायटी के संस्थापक जीन हेनरी ड्यूनेंट ने युद्धकाल में घायलों और बीमारों की स्थिति पर चिंता व्यक्त की और 1864 में हुए पहला जेनेवा सम्मेलन कराने में सफलता पाई। बाद में उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में राजनीतिक और धार्मिक समूहों को भी इसी तरह के अधिकार मिलने की शुरुआत हुई और दासप्रथा समाप्त करने और श्रमिकों के अधिकार संरक्षण की दिशा में प्रयास हुए।
इन्हीं सब मूल्यों को कुछ और विस्तार करके आज मानवाधिकार का नाम दिया जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में भी ये सब मूल्य शामिल किए गए। इसकी प्रस्तावना में ही कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य मूलभूत मानवाधिकारों में विश्वास बढ़ाना, महिला-पुरुषों के समान अधिकार और मर्यादा का संरक्षण करना है। इसे अक्टूबर 1945 में लागू किया गया था।
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बीसवीं शताब्दी में तेजी से फैला। 1946 में नाजी सेना और राजनीतिक नेतृत्व पर नागरिकों के खिलाफ 213 युद्ध अपराधों के लिए न्यूरेमबर्ग में मुकदमा चलाया गया। तभी से ‘मानवता के विरुद्ध अपराध’ की अवधारणा अस्तित्व में आई। 1948 में संयुक्त राष्ट्र में सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र जारी किया। इसमें आधुनिक अंतरराष्ट्रीय समुदाय का हिस्सा माने जाने की इच्छा रखने वाले हर देश में मूलभूत मानवाधिकारोंको आवश्यक शर्त माना गया। घोषणापत्र के अनुच्छेद 19 में प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को विशेष रूप से उल्लिखित किया गया।
शीतयुद्ध के दौर में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आंदोलन कुछ धीमा पड़ा, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का एक विषय यह हमेशा बना रहा। अनेक मानवाधिकार संस्थाएं दुनिया भर में स्थापित हुईं। अनेक संगठनों ने अपनी ओर से मानवाधिकार के नियम कायदे बनाए और घोषित किए। 1990 में इस्लामिक कॉन्फ्रेंस ऑर्गनाइजेशन ने घोषणा की कि सभी इंसान जन्म से स्वतंत्र पैदा हुए हैं और सभी के समान अधिकार हैं।
1993 में संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया भर में मानवाधिकारों और उनकी स्थिति की निगरानी के लिए मानवाधिकार उच्चायोग की स्थापना की। यूगोस्लाविया और रवांडा में मानवता के विरुद्ध अपराधों, युद्ध अपराधों और नरसंहारों के दोषियों पर मुकदमा चलाने के लिए न्यायाधिकरणों की स्थापना की गई। संयुक्त राष्ट्र ने कंबोडिया, ईस्ट तिमोर और सिएरा लियोन को युद्ध अपराधियों पर मुकदमा चलाने के लिए राजी किया।
जुलाई 2002 में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के रोम अधिनियम को लागू किया गया और मानवता के विरुद्ध अपराधों और नरसंहार के दोषियों के लिए स्थायी अदालत की स्थापना की गई।
मानवाधिकारों की रिपोर्टिंग के लिए उतनी ही लगन और ईमानदारी की जरूरत होतीहै जितनी कि अन्य किसी भी गंभीर विषय की, बल्कि संवेदनशीलता को देखते हुए पत्रकारों को कुछ अधिक सतर्कता बरतने की जरूरत होती है। उन्हें संभावित खतरों को भी ध्यान में रखना होता है, और यह भी समझना होता है कि संकटग्रस्त क्षेत्र में दुनिया को जानकारी उन्हीं की कलम के जरिए होने वाली है। ऐसे में किसी भी तरह की चूक या पूर्वाग्रह दुनिया को भ्रमित करने के कारण हो सकते हैं।
अधिकतर विवादों में कोई एक पक्ष दूसरे पक्ष का मानवाधिकार हनन करता है जिसे पत्रकार आसानी से रिपोर्ट कर सकते हैं। हालांकि, यह कार्य अच्छी तरह से तभी हो सकता है, जब पत्रकार ऐसी किसी भी घटना की गहराई में जाए। केवल पहली नजर में जो दिख रहा है, उसे ही खबर बना देना बहुत उचित फैसला नहीं कहा जा सकता।
मानवाधिकार के मूलभूत सिद्धांतों को ध्यान में रखना ज़रूरी है, जिनके अनुसार, हर व्यक्ति को जीवन संरक्षण का अधिकार है। धर्म, जाति, नस्ल या लिंग से परे उसे किसी भी तरह की प्रताड़ना से बचने का अधिकार है। ऐसे में मानवाधिकार हनने के मामलों की रिपोर्टिंग में अधिक से अधिक सबूत जुटाने चाहिए ताकि किसी भी तरह की चूक की गुंजाइश न रह जाए। मौक पर मौजूद किसी भी सबूत को किसी भी तरह से नुकसान पहुँचाए बिना अधिक से अधिक सबूत जुटाने चाहिए। ज़रूरी जानकारियों के लिए संबंधित पक्षों से बार-बार सवाल कीजिए और उनके उत्तरों के मिलान कीजिए। जहाँ तक संभव हो, वीडियो रिकॉर्डिंग या साउंड रिकॉर्डिंग भी कीजिए ताकि आपके सबूत पुख्ता हों और समय पर आप उन्हें कहीं भी प्रस्तुत कर सकें। मानवाधिकार के क्षेत्र में काम कर रहे संगठनों और व्यक्तियों से ज़रूर मिलना चाहिए और उनके बताए तथ्यों को भी गंभीरता से अपनी रिपोर्ट में शामिल करना चाहिए।
मानवाधिकार उल्लंघन की कोई भी घटना अक्सर अखबारों या टीवी चैनल की सुर्खी बन जाती है। जिस पक्ष पर मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगता है, वह एकाएक विरोधियों के निशाने पर आ जाता है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की उसके बारे में धारणा खराब बनने लगती है। विरोधी राजनीतिक दल इसका लाभ लेने लगता है। ऐसे में पत्रकारों को किसी खास गुट का नाम लेने से बचना भी चाहिए और जितनी सामग्री पेश करें, उसके बारे में ठोस प्रमाण रखने और देने चाहिए।
मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप आधुनिक लोकंतंत्रवादी युग में काफी गंभीर माने जाते हैं, इसलिए इस तरह के आरोपों को बिना तथ्यपरक जांच के स्वीकार करना पत्रकारिता के मूल्यों के खिलाफ हो सकता है। मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप
युद्धकाल में (और शांतिकाल में भी) तो दुष्प्रचार का अंग भी हो जाते हैं। कोसोवो युद्ध के समय कई बड़े पत्रकारों ने नरसंहार की खबर दे दी थी, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था और उन्हें कुछ सूत्रों ने भ्रमित करने वाली जानकारी दे दी थी। युद्ध समाप्त होने के बाद पता चला था कि ऐसे अनेक लोग जिंदा थे जिनके नरसंहार में मारे जाने की खबर दे दी गई थी।
बात केवल इतनी सीधी ही नहीं है। मानवाधिकार के उल्लंघन के आरोप गंभीर होते हैं, इसलिए इस तरह के आरोपों को सहज खारिज भी नहीं करना चाहिए। 1970 के दशक के अंत में जब कंबोडियाई लोग खमेर रूज के अत्याचारों से पीड़ित होकर थाईलैंड भागकर आने लगे, तब पत्रकारों ने उनके आरोपों को गंभीर नहीं माना। उनकी सुनाई कहानियाँ इतनी भयावह थीं कि किसी को यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है। कई सालों बाद ये पुष्टि हो सकी कि खमेर रूज के अत्याचारों की खबरें सही थीं।
इस तरह की खबरें निकालते समय पत्रकारों को अपने सूत्रों की सुरक्षा का भी ध्यान रखना चाहिए। युद्धकाल में दूसरे देशों से आए पत्रकार तो गंभीर संकट के समय या अपना काम करने के बाद वापस अपने देश चले जाते हैं लेकिन उनके सूत्र, अनुवादक, ड्राइवर, स्थानीय मित्र आदि तो वहीं रहते हैं। ऐसे में पत्रकार के लिए यह सही नहीं है कि वह खबर निकालने और उसकी पुष्टि करने के प्रमाण जुटाने को ही अपना दायित्व समझे। सूत्रों पर उसके जाने के बाद किसी तरह का खतरा न आए, यह सुनिश्चित करना भी उसका दायित्व होता है।
पीड़ितों और प्रत्यक्षदर्शियों से बात करना और उनका इंटरव्यू लेना पत्रकार के लिए बहुत ज़रूरी हो जाता है। यह कोशिश करनी चाहिए कि पीड़ितों से या अन्य सूत्रों से बात यथासंभव अकेले में की जाए। समूह में अक्सर लोग सही बात बता पाने में समर्थ नहीं होते या बहुधा बढ़ा-चढ़ाकर घटनाओं का वर्णन करने लगते हैं। उन्हें पत्रकार न्याय का साधन लगने लगते हैं, इसलिए वो हर हाल में दूसरे पक्ष की कारगुजारियों को ज्यादा बढ़ाचढ़ाकर बताने लगते हैं और अपने साथ हुए अत्याचार की घटनाओं को भी बढ़ाचढ़ाकर बताने लगते हैं। बेहतर हो, कि आप उन्हें वास्तविकता से परिचित कराएँ, जिसकी शुरुआत आप अपने और अपने संगठन के सही परिचय से करें। किसी तरह की अव्यावहारिक आशाएँ उनके मन में पैदा न करें।
अगर पीड़ितों के मन में कुछ डर है तो उनके डर को समझने की जरूरत है क्योंकि उन्हें वहाँ वहीं की परिस्थितियों में आगे भी रहना है और हर समय या कभी भी आप उनकी मदद के लिए वहाँ नहीं रहने वाले। ऐसे में आपको वैकल्पिक सूत्रों की तलाश करनी चाहिए या पीड़ितों के नाम छिपाने का इंतजाम करना चाहिए। ऐसी कठिन स्थिति में पीड़ित से जितनी जानकारी हो सके, एक बार में ही ले लेनी चाहिए और यह मानकर चलना चाहिए कि आपकी उससे मुलाकात बार-बार संभव नहीं हो सकेगी।
घटनाओं का विवरण क्रमबद्ध रूप से तैयार करें। घटनाएँ घटित होने के समय की सही जानकारी हासिल करें और बार-बार पुष्टि करें। इस्तेमाल होने वाले हथियारों के बारे में भी पूछें। बहुत संभव है कि पीड़ित सारी घटनाओं को सिलसिलेवार न बता पा रहे हों तो ऐसे में अन्य सूत्रों से मिली जानकारी का विश्लेषण करके सारी घटनाओं को सिलसिलेवार तैयार करना पत्रकार का अपना दायित्व होता है। पीड़ितों की ही बात को पूरा सत्य न मानें और प्रत्यक्षदर्शियों से भी घटना का पूरा ब्यौरा लेने का प्रयत्न करें।
पत्रकार के रूप में मानवाधिकार हनन की किसी घटना को कवर करते समय पीड़ितों मिलना तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन साथ ही आरोपियों से भी मिलना जरूरी होता है। हालांकि यह खतरनाक होता है क्योंकि संबंधित पक्ष को पहले से ही आशंका रहती है कि कुल मिलाकर खबर उसके खिलाफ ही जाने वाली है। अगर आप आरोपी पक्ष से बात करने में सफल हो गए तो आपकी खबर मजबूत हो जाएगी। आरोपी से बात करते समय खुले दिल से ईमानदारी बरतते हुए काम करें। उसे यह समझाने की कोशिश करें कि सत्य जानने के लिए उससे बात करना जरूरी है और अगर वो अपना पक्ष बताता है तो इससे उसको कुछ मदद ही मिलेगी, अन्यथा जो पीड़ित पक्ष कहेगा, वही सारी दुनिया सही मानेगी। पत्रकारिता में भी संदेह करना ज़रूरी होता है। ऐसे में दोनों पक्षों को सुनना और दोनों पर संदेह करना आपकी खबर को पुष्ट बनाने में मददगार साबित होगा।
मानवाधिकार उल्लंघन की खबरों को केवल युद्धकाल के नजरिए से ही नहीं देखना चाहिए। देश के अंदर सामान्य दिनों में भी मानवाधिकार हनन की अनेक घटनाएं होती हैं, जिनको कवर करते समय इन्हीं सावधानियों का ध्यान रखना जरूरी होता है। इन्हीं सावधानियों की बदौलत घोर नक्सली इलाकों में होने वाली वारदातों और घटनाओं का कवरेज करने में पत्रकार सफल होते हैं।