संतोष भारतीय
प्रधान संपादक, चौथी दुनिया
वे कैसे संपादक हैं, जो सामने आई स्क्रिप्ट में से सत्य नहीं तलाश सकते या ये नहीं तलाश सकते कि इसमें कहां मिर्च-मसाला मिला हुआ है। आप भारतीय जनता को, भारत के दर्शक को वो दे रहे हैं, जो नहीं देना चाहिए। ये सिर्फ सामाजिक जिम्मेदारी की बात नहीं है, ये पत्रकारीय जिम्मेदारी की बात है कि जो सत्य नहीं, उसे आप सत्य बनाकर पेश कर रहे हैं। इसका मतलब आप लोगों को ये प्रेरणा दे रहे हैं कि आप दूध पीने के बजाय शराब पीएं। बिल्कुल ऐसा ही हो रहा है
श्रीदेवी का पार्थिव शरीर मुंबई में अंतिम दर्शन के लिए उनके घर के पास एक स्पोट्र्स क्लब में रखा गया था। राजनेता और फिल्मों के लगभग सभी बड़े स्टार्स उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि देने पहुंचे। जनता भी उनके अंतिम दर्शन के लिए मुंबई की सड़कों से लेकर विले पार्ले के श्मशान स्थल तक खड़ी थी। मैं ये तो नहीं कहूंगा कि श्रीदेवी की खबर को लेकर हमारे सूत्र बहुत सही थे, लेकिन बहुत सारे टेलिविजन चैनल्स के संवाददाताओं से ज्यादा अच्छे जरूर थे। हमने अपनी रिपोर्ट में जिन चीजों के बारे में कहा था, वो सौ प्रतिशत सच हैं। हमने कल्पनाशीलता को पत्रकारिता बनाने की कोशिश करने वाले अपने साथियों पर थोड़ा रोष भी व्यक्त किया। चैनलों की रिपोर्टिंग देखकर मुझे काफी दुख हुआ।
जब मैंने सोशल मीडि पर देखा कि श्रीदेवी को तो हम वापस ले आए, लेकिन पत्रकारिता की लाश दुबई में होटल के उस टब में ही छोड़ आए। किसी ने बहुत सही कमेंट किया है। हमने लाशें तो कई छोड़ी हैं। जनता ने भी अपने भावनाओं की लाश छोड़ी है। अभी श्रीदेवी जी की बात पर लौटते हैं। श्रीदेवी जी से मेरा भी आमना-सामना हुआ था। मैं दो-तीन घटनाओं को यहां याद करना चाहूंगा। उन दिनों मैं रविवार का संवाददाता था। हमारे संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह ने हमें टास्क दिया था कि हम रेखा जी का इंटरव्यू करें।
उन दिनों रेखा सबसे चर्चित अभिनेत्री थीं, बल्कि यूं कहें कि भारतीय सिनेमा की पहली बड़ी सुपरस्टार थीं। उनके पास नायिका और स्टार दोनों का स्टेटस था। नर्गिस जी जैसी बड़ी अभिनेत्रियां उनसे पहले आकर जा चुकी थीं। 80 के दशक की सबसे बड़ी अभिनेत्रियों में रेखाजी का नाम था। कोई पत्रकार उनका इंटरव्यू नहीं ले पाता था। सुरेंद्र प्रताप सिंह ने मुझे कहा कि क्या तुम रेखा का इंटरव्यू ला सकते हो? एक अच्छे पत्रकार का कर्तव्य होता है कि संपादक द्वारा दिए गए टास्क को जी-जान से पूरा करे। पत्रकार पूरा न कर पाए, वो अलग बात है, पर पूरी शिद्दत से कोशिश जरूर करे। मैंने कोशिश की और रेखाजी का तीन-चार बार इंटरव्यू लेने में सफल रहा।
इस बीच मैं रेखा जी का थोड़ा करीबी भी हो गया था। मेरे कहने पर रेखा जी ने एक कमाल कर दिया। उन्होंने शबाना आजमी के घर पर जाकर उनका इंटरव्यू लिया। शबाना जी कहीं बाहर गई हुई थीं। रेखा जी ने उस टास्क को पूरा करने के लिए एक घंटा शबाना जी के घर पर इंतजार किया। उस समय शबाना जी जानकी कुटीर, जुहू में रहती थीं। अभी वे दूसरी जगह रहती हैं। उस समय एक छोटा फ्लैट था, जिसमें उनकी मां शौकत आजमी और कैफी आजमी भी रहते थे। बाबा आजमी, जो प्रसिद्ध फोटोग्राफर हैं, वे भी उसी फ्लैट में रहते थे। मैं और रेखा जी वहां एक-डेढ़ घंटे तक इंतजार करते रहे। फिर शबाना आईं। शबाना को मैंने पहले ही बता दिया था। रेखा ने शबाना जी का इंटरव्यू लिया। बहरहाल, रेखा से जुड़ी हुई बहुत सारी घटनाएं हैं। दिल्ली में हम एक साथ कार में घूमे। वसंत ऋृतु में सूखे पत्तों पर गाड़ियों के पहियों के गुजरने की आवाज। ऐसी कई यादें हैं, लेकिन अभी विषय श्रीदेवी जी का है।
मैं रेखा जी का इंटरव्यू या शायद बातचीत करने के लिए सेठ स्टूडियो गया था। मुंबई में सेठ स्टूडियो बहुत अच्छा स्टूडियो माना जाता था। मैं और रेखा जी बात कर रहे थे कि तभी एक चुलबुली सी लड़की फुदकती हुई अंदर आई। शायद डांस सिक्वेंस के कारण लड़की फुल मेकअप और फिल्मी ड्रेस में थी। रेखाजी ने उसे पास बुलाया। उन दिनों मैं ज्यादा फिल्में नहीं देखता था, इसलिए श्रीदेवी को पहचान नहीं सका। लेकिन मुझे वो बहुत अच्छी लगीं।
श्रीदेवी जी आईं। रेखा जी के गाल पर उन्होंने एक चुम्बन लिया। रेखा जी ने भी दोगुने जोश से उनके गाल पर चुम्बन दिया। फिर श्रीदेवी जी ने पूछा कि क्या मैं थोड़ी देर इंतजार करूं? रेखाजी ने कहा, नहीं, तुम बैठो, ये अपने ही हैं। श्रीदेवी वहां बैठ गईं। उस समय श्रीदेवी और रेखा जी की बातचीत हो रही थी और मैं मंत्रमुग्ध होकर सुन रहा था। बाद में मुझे समझ में आया कि इनकी तो मैं कई फिल्में देख चुका हूं। ये श्रीदेवी जी हैं। रेखा जी ने मेरा भी उनसे परिचय कराया। मेरा उनसे आमने-सामने का बस इतना परिचय है।
उसके बाद 2000 में हिन्दुस्तान का पहला उर्दू चैनल प्लान हुआ। सीएम इब्राहिम, जो देवेगौड़ा जी की सरकार में एविएशन मिनिस्टर थे और मुसलमानों के बड़े नेता हैं, उन्होंने उर्दू चैनल प्लान किया। उन्होंने मुझे उस चैनल का सीईओ बनाया। उस पद पर रहते हुए उस चैनल की पब्लिसिटी इतनी हो गई कि बहुत सारे लोग मुझसे कई चीजों जैसे जॉब या प्रोग्राम के सिलसिले में, मिलने आने लगे। उस दौरान बोनी कपूर की जी पहली पत्नी मोना कपूर मुझसे मिलने दो बार दिल्ली आईं। उस समय तक उनका अलगाव हो चुका था।
उनके पास कई सारी सीरियल्स की फेहरिस्त थीं। मोना जी ने अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू किया था। वे चाहती थीं कि फलक चैनल पर जो सीरियल्स आएं, उसमें उनको ज्यादा जगह मिले। स्क्रिप्ट बहुत अच्छी थी। मोना कपूर का बड़ा नाम था। अब मेरे अंदर का जो पत्रकार था, वो कुलबुला गया। मैंने दोनों बार उनको कुरेदने की कोशिश की और उनके सामने बोनी कपूर की बुराई भी की। मैंने कहा कि आपके जैसी सुंदर और टैलेंटेड महिला के साथ बोनी कपूर ने ये क्या कर दिया? मोना कपूर ने एक भी शब्द बोनी कपूर के खिलाफ नहीं कहा, न भाव-भंगिमा से और न ही अल्फाज से। वे दोबारा आईं, तो मैंने फिर इस बात को घुमाकर के छेड़ा।
मैंने कहा, देखिए, ये कैसे लोग होते हैं? जहां थोड़ा ग्लैमर मिला, वे बदल जाते हैं। मोना जी ने फिर कोई बात नहीं की। मोना जी के जाने के बाद मोना जी के पिताजी, बोनी कपूर के ससुर साहब भी सात-आठ बार मेरे पास आए। कॉन्ट्रैक्ट फार्म लाए, उसमें कुछ सुधार हुआ। उन्होंने अपनी स्क्रिप्ट हमको भेजी। मुझे क्या पता था कि आज ये दिन देखना पड़ेगा। हम वो स्क्रिप्ट संभालकर रखते। फलक के फाइलों में ही उनकी सात-आठ स्क्रिप्ट कहीं पड़ी होंगी। बहुत अच्छा सीरियल था। मैंने उनसे भी बोनी कपूर और श्रीदेवी जी को लेकर कई सवाल किए। उन दोनों ने बोनी कपूर के खिलाफ एक भी लफ्ज नहीं कहा। ये दो घटनाएं मैं आपको इसलिए बता रहा हूं, क्योंकि मोना जी के मन में बहुत कुछ रहा होगा। लेकिन उन्होंने न कभी इसके लिए श्रीदेवी को जिम्मेदार ठहराया, न ही बोनी कपूर को। अब श्रीदेवी जी हमारे बीच में नहीं हैं।
भारतीय जनता पार्टी के सांसद सुब्रमण्यम स्वामी अपनी अकेली सेना के अकेले सेनापति और कमांडो हैं। उन्होंने कहा कि इसमें कोई दो राय नहीं कि श्रीदेवी की हत्या हुई। उनके पास क्या सबूत हैं, पता नहीं। कई और लोग भी ये मान रहे हैं कि श्रीदेवी जी की मौत स्वाभाविक नहीं है। कुछ तो इसमें अस्वाभाविक है। पर ये कहकर हम दुबई पुलिस पर आरोप लगा रहे हैं। मैंने दुबई में गल्फ टाइम्स और खलीज टाइम्स में अपने सूत्रों से बात की। एयर बाई टेलीविजन चैनल के जो लोग दुबई में हैं, उनसे भी बातचीत की। मुंबई में भी लोगों से बातचीत की। इसके बावजूद, जो मैंने पहले कहा था, मैं अब भी उसपर कायम हूं कि श्रीदेवी जी की मौत एक दुर्घटना थी।
ये हमारे हिन्दुस्तानी पत्रकार मित्र हैं, जिन्होंने इसमें नुक्ते निकाले हैं, जिन्होंने इसमें संदेह निकाला है, जिन्होंने इसमें अपनी कल्पना घोली है। इनका सेडिस्प्लेजर ये था कि इन्होंने बोनी कपूर को इशारों-इशारों में हत्यारा साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिस तरह के सवाल टेलीविजन चैनल दिखा रहे थे, मुझे तो उनके संपादकों पर हैरानी होती थी। वे कैसे संपादक हैं, जो सामने आई स्क्रिप्ट में से सत्य नहीं तलाश सकते या ये नहीं तलाश सकते कि इसमें कहां मिर्च-मसाला मिला हुआ है। आप भारतीय जनता को, भारत के दर्शक को वो दे रहे हैं, जो नहीं देना चाहिए। ये सिर्फ सामाजिक जिम्मेदारी की बात नहीं है, ये पत्रकारीय जिम्मेदारी की बात है कि जो सत्य नहीं, उसे आप सत्य बनाकर पेश कर रहे हैं। इसका मतलब आप लोगों को ये प्रेरणा दे रहे हैं कि आप दूध पीने के बजाय शराब पीएं। बिल्कुल ऐसा ही हो रहा है।
हमारे देश के दो प्रधानमंत्री, जिनकी मृत्यु हमलोगों के काल में हुई, श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और श्री चन्द्रशेखर जी थे। इन दोनों की मौत भी टेलीविजन चैनलों पर कहीं नहीं दिखी। अखबारों को भी नहीं दिखी। उन्होंने इनकी मौत को अपने यहां स्थान न देकर के अपनी तरफ से घृणापूर्ण श्रद्धांजलि दी। हमारे टेलीविजन चैनल और प्रिंट मीडिया भी एक तरीके से पत्रकारिता नहीं करते, माखौल करते हैं। जनता ने भी इस पर गुस्सा प्रकट नहीं किया कि दो प्रधानमंत्री थोड़े समय के अंतराल पर इस दुनिया से चले गए और उन्हें मीडिया ने क्यों जगह नहीं दी?
दूसरा सेडिस्प्लेजर जिन लोगों ने लिया, उनके घर में लगता है कि कभी कोई मरा नहीं या कभी सामाजिकता नहीं देखी। मरने वाले की शान में अपशब्द नहीं कहे जाते हैं। मरने वाले को गालियां नहीं दी जाती हैं। जब श्रीदेवी जी मर गईं, तो इस सवाल को बार-बार उठाने का क्या मतलब है कि श्रीदेवी का मिथुन चक्रवर्ती के साथ गुप्त रूप से शादी हो गई या उनके साथ उनका नाम जुड़ा था। इस तथ्य को इस समय उजागर करने का क्या मतलब है कि मिथुन चक्रवर्ती की उपस्थिति में श्रीदेवी ने बोनी कपूर को राखी बांधी थी और फिर बोनी कपूर ने श्रीदेवी जी के साथ शादी कर ली। ये राखी बांधने वाला मसला कल्पना है।
ये उन येलो जर्नलिज्म करने वालों के दिमाग की उपज है, जिसे हिन्दुस्तान के तथाकथित नेशनल न्यूज मीडिया और चैनल्स ने साबित किया और एक मृत आत्मा को गालियां दीं। श्रीदेवी जी की माताजी अमेरिका में बुरी तरह बीमार थीं। श्रीदेवी के आस-पास कोई नहीं था। उस समय बोनी कपूर ने श्रीदेवी जी की मदद की थी। उनकी हर समस्या का निपटारा बोनी कपूर ने खुद किया था। ये सिर्फ महिलाएं समझ सकती हैं कि जब ऐसी परिस्थिति हो, तब लोग किस तरह से उन्हें परेशान करते हैं। ऐसे समय चाहे वो कोई लड़की हो या लड़का, उसे साथ की बहुत जरूरत होती है, क्योंकि आदमी खासकर ऐसी परेशानी में सभी समस्याएं खुद नहीं निपटा सकता।
बोनी कपूर ने श्रीदेवी जी की वहां मदद की। और जब वे हिन्दुस्तान लौटे, तब श्रीदेवी भी बदल चुकी थीं। नर्गिस जी का नाम भी किसी और से जोड़ा जाता था, लेकिन जिस दिन नर्गिस जी मदर इंडिया के सेट पर आग में घिरीं, उन्हें आग से निकालने का काम जिस बहादुरी के साथ सुनील दत्त जी ने किया, वो बहादुरी नर्गिस जी के दिल में घर कर गई। वही बहादुरी धीरे-धीरे नर्गिस जी की चाहत और प्यार में बदल गई और उन्होंने सुनील दत्त जी से शादी कर ली। यहां पर भी बोनी कपूर ने अमेरिका में जिस तरह से श्रीदेवी का साथ दिया था, उसने श्रीदेवी जी को मोह लिया।
यही उनके रिश्ते का आधार बना। ये मानसिक या मनःस्थिति वो नहीं समझ सकते, जिनके पास मन नहीं है। ये वही समझ सकते हैं, जिनके पास हृदय और मन है। जिन लोगों ने भी ये दोनों सवाल उठाए कि उनकी शादी मिथुन चक्रवर्ती से हो चुकी थी और मिथुन चक्रवर्ती के सामने उन्होंने बोनी कपूर को राखी बांधी, ये बीमार दिमाग के लोग हैं। फिल्मी पत्रिकाओं की गॉसिप को इन्हें सत्य नहीं बनाना चाहिए। मैं तो कहता हूं कि सत्य रहा भी हो, तो इस समय नहीं उठाना चाहिए।
भारत की जनता के बारे में जरूर एक बात कहना चाहूंगा। पिछली पंद्रह फरवरी को भारत का एक फाइटर जेट दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें विंग कमांडर वत्स और विंग कमांडर जेम्स दोनों की मौत हो गई। विंग कमांडर वत्स की पत्नी मेजर कुसुम डोगरा ने पांच दिन पहले ही अपने बच्चे को जन्म दिया था। जब उनके पति विंग कमांडर की लाश आई, तो उन्होंने पूरी ड्रेस पहनकर पांच दिन के बच्चे को साथ लेकर अपने पति की शहादत का स्वागत किया। आंख से एक आंसू भी नहीं बहे। लेकिन हमारे टेलीविजन न्यूज चैनलों को ये घटना नहीं दिखी। इस घटना को लेकर 5 मिनट का फुटेज भी नहीं चला। ये टेलीविजन चैनलों की मानसिकता है। अखबारों में भी इस खबर को कोई स्थान नहीं मिला।
हम केवल देशप्रेम का ढोंग करते हैं। पाकिस्तान और चीन से युद्ध करने का हौसला दिखाते हैं। टेलीविजन चैनलों का देशप्रेम ढोंग है। विंग कमांडर वत्स की लाश पड़ी थी और उनकी पत्नी मेजर कुसुम डोगरा हाथ में पांच दिन का बच्चा लिए हुए उनकी लाश के पास खड़ी थीं। लोग रो रहे थे, पर वो बहादुर महिला अविचल अपने पति को शान से जाता हुआ देख रही थी। हमारे न्यूज चैनलों को यह घटना नजर नहीं आई। श्रीदेवी जी की मौत की खबर में 6 दिन लगा दिए।
आखिर में एक बात और। हमारे देश के दो प्रधानमंत्री, जिनकी मृत्यु हमलोगों के काल में हुई, श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और श्री चन्द्रशेखर जी थे। इन दोनों की मौत भी टेलीविजन चैनलों पर कहीं नहीं दिखी। अखबारों को भी नहीं दिखी। उन्होंने इनकी मौत को अपने यहां स्थान न देकर के अपनी तरफ से घृणापूर्ण श्रद्धांजलि दी। हमारे टेलीविजन चैनल और प्रिंट मीडिया भी एक तरीके से पत्रकारिता नहीं करते, माखौल करते हैं। जनता ने भी इस पर गुस्सा प्रकट नहीं किया कि दो प्रधानमंत्री थोड़े समय के अंतराल पर इस दुनिया से चले गए और उन्हें मीडिया ने क्यों जगह नहीं दी? अफसोस की बात है।
ये जनता का अपना ऐसा कृत्य है, जिसकी निन्दा नहीं हो सकती। ये शायद इसलिए है कि हमने अपनी पीढ़ी के सामने या हिन्दुस्तान की जनता के सामने आजादी के सिपाहियों का, आजादी के बाद जिन्होंने हिन्दुस्तान की जनता को कुछ दिया, जिन्होंने इतिहास बदलने की कोशिश की, उन लोगों को हमने हीरो नहीं बनाया। हमने हीरो बनाया सलमान खान, संजय दत्त को। हमने उन लोगों को हीरो बनाया, जिनके नक्शेकदम पर चलकर देश आगे नहीं बढ़ सकता। हां, मनोरंजन तो हो सकता है। अब ये दो हिस्से हैं। एक तरफ श्रीदेवी जी के प्रति लोगों का स्नेह और वो ज्यादातर इसलिए गए, ताकि वो उनके साथ आए हुए जीवित अभिनेता या अभिनेत्रियों को देख सकें।
अभी मैं टेलीविजन चैनल पर देख रहा था। लोग श्रीदेवी जी के बारे में बात नहीं कर रहे थे। वे बात कर रहे थे, वो देखो, वो फलाना है, वो देखो, वो आ गई। उसने कैसे सफेद नहीं, ऑफ वाईट पहना है आदि। हमने देश में जो माहौल बना दिया है, इस माहौल में हम सोचें कि हमें देशभक्त नौजवान मिलेंगे, तो मुझे नहीं लगता है कि ऐसा होगा। इसका सारा जिम्मा हमारे राजनेताओं पर है, जिन्होंने इस देश के लोगों में राजनेताओं को हीरो नहीं बनाया, बल्कि उन लोगों को हीरो बनाया, जिनका देश और समाज से सीधा सरोकार नहीं रहा है। एक हिस्से को उन्होंने प्रभावित किया, पर देश को प्रभावित नहीं किया। इसलिए आज की स्थिति थोड़ी सी दुर्भाग्यपूर्ण है। मीडिया तो नहीं सोचेगा, जनता को तो सोचना चाहिए। (साभार: चौथी दुनिया)