Study in International Communication:Chapter -2 of Many Voices One World, also known as the MacBride report, was a UNESCO publication of 1980 but still relevant to understand contemporary communication issues. The publication is a classic in the study of communication. The commission was chaired by Irish Nobel laureate Seán MacBride. Among the problems the report identified were concentration of the media, commercialization of the media, and unequal access to information and communication. The commission called for democratization of communication and strengthening of national media to avoid dependence on external sources, among others. Subsequently, Internet-based technologies considered in the work of the Commission, served as a means for furthering MacBride’s visions
अगर संसार को संपूर्णता में देखा जाए तो इसके राजनैतिक आयाम की बात के बगैर इसे समझा ही नहीं जा सकता है। इसके राजनैतिक संबंधों पर विचार किए बगैर समस्याओं को हल भी नहीं किया जा सकता है। अगर राजनीति शब्द का इस्तेमाल इसके ‘‘उन्नत’’ अर्थ में किया जाए तो संचार के साथ इसका अभिन्न संबंध है।
भिन्न-भिन्न लेकिन परस्पर सम्बद्ध दो सवालों पर विचार करना जरूरी है। राजनीति संचार को कितना और किस तरह प्रभावित करती है? और फिर संचार राजनीति को कितना और किस तरह प्रभावित करता है? संचार और सत्ता के बीच तथा संचार और स्वतंत्रता के बीच महत्त्वपूर्ण संबंध हैं। ये संबंध किस तरह के होने चाहिए इसके बारे में अनेक धारणाएं दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मौजूद हैं जो विभिन्न परंपराओं, संसाधनों, सामाजिक व्यवस्थाओं और विकास की जरूरतों से जुड़ी हुई हैं। इसके बावजूद सामान्य सहमति की गुंजाइश है अगर तर्कों में यथार्थवाद ज्यादा और शब्दाडंबर कम हो लचीलापन ज्यादा और पूर्वाग्रह कम हो। अभी तक तो ये अंतर्मुखी और असहिष्णु ही रहे हैं।
स्वतंत्रता के प्रयोग के तरीके उतने ही भिन्न-भिन्न हैं और होने चाहिए जितने तरह की कानूनी व्यवस्थाएं और संविधान हैं। आमतौर पर माना जाता है कि स्वतंत्रता का मेल कानून पालन के साथ होना चाहिए और इसका प्रयोग दूसरों की स्वतंत्रता को नुकसान पहुुंचाने के लिए नहीं करना चाहिए और कि स्वतंत्रता के प्रयोग का ही दूसरा पहलू यह भी है कि इसका प्रयोग जिम्मेदारी के साथ करना चाहिए। संचार के क्षेत्र में इसका अर्थ यह है कि सत्य के प्रति निष्ठïा होनी चाहिए और प्राप्त शक्ति का वैध इस्तेमाल करना चाहिए। यह भी समझना जरूरी है कि किन आधारों पर स्वतंत्रता की मांग की जा रही है। कोई नागरिक या सामाजिक समूह संचार के प्राप्तकर्ता और प्रदाता के बतौर पहुंच की स्वतंत्रता चाहे तो इसकी तुलना संचार माध्यमों से लाभ कमाने की निवेशक की स्वतंत्रता के साथ नहीं की जा सकती। इनमें से एक जहां मौलिक मानवाधिकार की रक्षा करती है वहीं दूसरी एक सामाजिक जरूरत के व्यापारीकरण को बढ़ावा देती है। इन सब बातों के बावजूद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में सिद्धांतत: कोई अपवाद नहीं है। मानवीय गरिमा के नाते यह स्वतंत्रता सारी दुनिया के लोगों को प्राप्त है।१ यह लोकतंत्र की सबसे कीमती उपलब्धि है, इसे राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों तथा सत्ताधीशों के साथ कठिन संघर्ष से हासिल किया जाता है और भारी बलिदान देकर, कभी-कभी जान देकर भी इसकी रक्षा की जाती है। साथ ही यह लोकतंत्र का रक्षक भी है। किसी भी देश के जीवन में स्वतंत्रता की मौजूदगी या अभाव है। दुनिया के कई देशों में आज भी स्वतंत्रता का दमन और उल्लंघन नौकरशाही के या व्यापारिक प्रतिबंधों के जरिए, स्वतंत्रताकर्मियों को प्रताडि़त या दंडित करने के जरिए तथा एकरूपता थोपने के जरिए किया जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कानून में मौजूदगी होने से ही व्यवहार में उसकी मौजूदगी की गारंटी नहीं होती। संचार के अधिकार के ही जरूरी अंग अन्य किस्म की स्वतंत्रताएं (संगठन बनाने, एकत्र होने और प्रदर्शन करने की स्वतंत्रता, टुडे यूनियनों का सदस्य होने की स्वतंत्रता) भी हैं। इन स्वतंत्रताओं का कोई भी हनन अनिवार्यत: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन भी होता है।
जहां कहीं सत्ता की ओर से इस स्वतंत्रता पर खुला हमला नहीं होता वहां संचारकर्ताओं द्वारा स्वयं अपने ऊपर सेंसर लगा देने के कारण यह सीमित हो सकती है। पत्रकारों के पास जो तथ्य हैं उन्हें भी वे कई कारणों के चलते प्रकाश में नहीं ले आते। भय के कारण, सत्ता संरचना के प्रति अत्यधिक सम्मान के कारण या कभी-कभी इस कारण कि अधिकारियों को यह बुरा लगेगा और पत्रकार सूचना स्रोतों से वंचित हो जाएगा। अपने ऊपर लागू की गई इस सेंसरशिप को नियमित व्यवहार की तरह अपना लिया जाए तो यह अधिकाधिक बंधनकारी होती जाती है। बहरहाल अपने ऊपर लागू की गई सेंसरशिप या थोड़ा बेहतरीन ढंग से कहा जाए तो आत्मानुशासन ऐसा नाजुक मुद्दा है कि इस पर बहस की गुंजाइश है।२३
संचार और सत्ता के बीच संबंध को लेकर भी अलग-अलग विचार हैं। एक दृष्टिïकोण यह है कि संचार सत्ता पर नियंत्रण रखने का महत्त्वपूर्ण औजार है। चूंकि संचार माध्यम सरकारों को आईना दिखाते हैं इसलिए वे सत्ता के प्रति तोल भी हैं।६ इसके विरुद्ध कुछ लोगों का विचार है कि सूचना को सरकार की सेवा करनी चाहिए ताकि मजबूत और स्थिर सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था का निर्माण हो सके
जो भी हो स्वतंत्रता की धारणा आधुनिक दुनिया की सभी राजनीतिक बहसों के केंद्र में है। नीतियों, निर्णयों से जुड़े हुए असंख्य विवाद इसमें शामिल हैं। इसे इतनी प्रतिष्ठïा प्राप्त हुई है कि हरेक राजनैतिक व्यवस्था इसे साकार करने या कम से कम इसकी ओर बढऩे का दावा करती है। यही एक चीज है जो अवगुण की ओर से गुण को प्राप्त होती है। यह सही है कि ‘‘लोकतंत्र’’, ‘‘समाजवाद’’ और ‘‘शांति’’ की तरह ही ‘‘स्वतंत्रता’’ ऐसा शब्द है जिसके विभिन्न अर्थ निकाले गए हैं इसलिए स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कोई सर्वमान्य परिभाषा बनाना तो असंभव है लेकिन हाल के इतिहास में स्वतंत्रता की जिन व्याख्याओं को ठोस शक्ल मिली है उन पर नजर डालना उचित होगा।
शुरुआत में जोर ‘‘विचारों और अभिमतों’’ की स्वतंत्रता पर दिया जाता था। प्रेस के थोड़ा स्थिर और विकसित हो जाने के बाद जोर सूचना (तथ्यों, और तात्कालिक घटनाओं के समाचार) के प्रचार प्रसार पर बढ़ गया। सूचना की स्वतंत्रता प्रथमत: सूचना का नागरिक अधिकार है, नागरिकों के दैनंदिन जीवन को प्रभावित करने वाले, निर्णय लेने में मददगार और चिंतन में उपयोगी सभी चीजों के बारे में जानने का अधिकार जैसे-जैसे नई तकनीकों के कारण राष्टï्रीय और विश्व स्तर पर नागरिकों की सूचना तक पहुंच बढ़ती गई वैसे-वैसे सूचना के इस अधिकार का दायरा बढ़ता गया। इस स्वतंत्रता का एक और पहलू तथ्यों और दस्तावेजों की शक्ल में जानकारी प्राप्त करने की स्वतंत्रता तथा पत्रकार को जो सूचना प्राप्त हुई है उसे प्रकाशित करने की स्वतंत्रता है ताकि जिस गोपनीयता के साथ राजनीतिक मामलों का संचालन होता है उसे उजागर किया जाए।
लेकिन तकनीक के विकास ने उस व्यवस्था को ही बदल दिया जिसमें इन मौलिक सिद्धांतों को लागू करना था और स्वतंत्रता के लिए नए खतरे पैदा हो गए। हरेक नई खोज के साथ ऊंचे स्तर के निवेश की जरूरत बढ़ती गई जो निजी या सार्वजनिक बड़ी पूंजी के मालिकों के लिए ही संभव है। ज्यादातर देशों में छापेखाने लगातार मंहगे हुए। इसके अलावा रेडियो और टेलीविजन जैसे नए माध्यमों तक इस विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की पहुंच का अर्थ था कि सीमित संपत्ति के मालिक अलाभकर शर्तों पर ही होड़ कर सकते थे। सिद्धांतत: सभी लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपभोग कर रहे थे लेकिन सभी लोग समान ढंग से इसका उपभोग नहीं कर सकते थे। चूंकि राज्य के पास सार्वजनिक संपत्ति थी और उसने संचार माध्यमों द्वारा जनता के चिंतन को प्रभावित करने के नए अवसरों को लक्षित कर लिया इसलिए उसने अभिव्यक्ति पर हमला करने की पुरानी रणनीति छोड़ दी और अपने उद्देश्यों के लिए नई तकनीकों के इस्तेमाल की अधिक सक्रिय नीति अपनाई। इसकी शुरुआत पहले ही कुछ तानाशाह अपने पास उपलब्ध साधनों के जरिए कर चुके थे। इन असमानताओं का असर केवल राष्टï्रीय स्तर पर ही नहीं पड़ा, अंतराषर््ष्टï्रीय स्तर पर भी संचार के क्षेत्र में अमीर और गरीब देशों के बीच वर्तमान असंतुलन का जन्म इनके कारण हुआ।
इस तरह संचार की समस्याएं, जो क्रमश: प्रेस की स्वतंत्रता, सूचना की स्वतंत्रता और सूचना के अधिकार के रूप में प्रकट हुईं, स्वभावत: अधिकाधिक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक होती गईं। इस तरह एक बुनियादी अंतर्विरोध प्रकट हुआ। समूची दुनिया में साक्षरता अभियानों, चेतना के उत्थान और राष्टï्रीय स्वाधीनता ने उन लोगों की संख्या बढ़ा दी है जो सूचना चाहते हैं और जो संभावित संदेश प्रसारक भी हैं। लेकिन इसी के समानांतर तेजी से केंद्रीकरण भी हुआ है। यह केंद्रीकरण तकनीकी प्रगति की वित्तीय जरूरतों से जुड़ा हुआ है। इसके फलस्वरूप संदेश प्रसारकों की संख्या सापेक्षिक रूप से घटी है। लेकिन इसी के साथ मौजूदा प्रसारकों की शक्ति बढ़ती गई है। एक बात साफ है – संचार इतना अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है कि जिन समाजों में संचार पर निजी स्वामित्व है वहां भी राज्य कुछ हद तक नियंत्रण लागू करता है। इसका हस्तक्षेप कई तरह का हो सकता है जिसमें पूर्ण राजनीतिक नियंत्रण से लेकर बहुलता को प्रोत्साहित करने वाले कदम तक शामिल हैं। कुछ सरकारें सूचना की अंतर्वस्तु पर संपूर्ण नियंत्रण को स्वाभाविक मानते हैं और जिस विचारधारा में उनका विश्वास है उसके आधार पर अपने कामों को जायज ठहराते हैं। शुद्ध परिणामवादी मानकों पर भी इस व्यवस्था को यथार्थवादी कहना मुश्किल है। अनुभव बताता है कि सूचना के साधनों पर व्यापारिक या राजनीतिक एकाधिकार अथवा राज्य द्वारा संचालित अनुकूलन कभी पूर्ण नहीं होता, और कि निरंतर एकालाप आलोचनात्मक विवेक या स्वतंत्र निर्णय की क्षमता को खत्म नहीं कर सकता। संचार माध्यमों पर सुस्त एकरसता छाई रहती है जो विश्वास की बजाय संदेह पैदा करता है।४
जब विरोधी आवाजों को खामोश कर दिया जाता है तो संचार माध्यमों की विश्वसनीयता कम हो जाती है, राज्य विवादों से भयभीत दिखाई देता है और लगता है कि वह सत्य के बतौर यथार्थ का जो संस्करण पेश कर रहा है उसमें उसका ही विश्वास नहीं है। नियंत्रित संचार माध्यमों का एकाधिकार संचार के वैकल्पिक तरीकों के इस्तेमाल से खत्म हो जाता है। समाचारों का प्रसारण जबानी होने लगता है, गैरकानूनी पर्चों का वितरण होने लगता है। प्राथमिक स्तर के होने के बावजूद इनमें जीवंतता होती है और उनका दमन उनकी विश्वसनीयता को और बढ़ाता है। अंतत: राज्य द्वारा अपनी सीमाओं के भीतर बनाए गए एकाधिकार में विदेशी प्रसारण अपनी घुसपैठ बढ़ाने लगते हैं।
राज्य के हाथ में कुछ नियंत्रक उपायों को रखते हुए भी कई सरकारें वैकल्पिक माध्यमों, जनभागीदारी, सूचना के स्रोतों तक जनता की पहुंच, समूह संचार, सूचना के साधनों के विकेंद्रीकरण इत्यादि की केवल अनुमति ही नहीं देती बल्कि इसे बढ़ावा भी देती हैं।
इससे एकदम अलग यह विचार है कि राज्य को स्वयं बहुलतावाद का संरक्षक बन जाना चाहिए, आर्थिक रूप से कमजोर लेकिन प्रतिनिधिक समूहों को आर्थिक सहायता देनी चाहिए भले ही इन समूहों का राजनीतिक दृष्टिïकोण शासकों के प्रति आलोचनात्मक हो। इससे उन कमजोर समूहों को व्यस्त आर्थिक हितों की गुलामी से आजादी मिलेगी और विचारों तथा सूचना के क्षेत्र में व्यापकतम विविधता बची रहेगी। इस नीति की भी अपनी समस्या है (जिनमें से कुछ तो तकनीकी है, मसलन कुछ रेडियो तरंगों का आवंटन)। हरेक समुदाय स्वीकार्य विचारों का एक बुनियादी ढांचा तय करता है, यह मानना बहुत मुश्किल है कि अत्यंत उदारवादी राज्य को भी बहुलतावाद के नाम पर किसी नस्लवादी प्रकाशन को आर्थिक सहायता देनी चाहिए। न ही यह उचित होगा कि लोकतांत्रिक तरीके से गठित किसी सरकार को साझा राष्टï्रीय लक्ष्यों के प्रवक्ता के बतौर संचार माध्यमों के जरिए अपनी नीतियों और कार्यवाहियों की व्याख्या करने से रोक दिया जाए, क्योंकि उस देश में संचार माध्यमों से संबंधित कानून इसकी इजाजत नहीं देते। दरअसल जब राष्टï्रीय लक्ष्य समवेत प्रयास की मांग करते हैं तो यह एक जरूरत हो जाती है। प्रगति और विकास ऐसे समवेत प्रयासों पर आधारित होते हैं जिनके लिए जनता की समझदार सहमति और समर्थन की बहुत जरूरत पड़ती है।
जिस ढांचे के भीतर संचार काम करता है उसका निर्धारण अंतत: समाज में मौजूद सामाजिक सहमति को आकार देने वाले राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों से होता है। किसी भी लोकतांत्रिक समाज में जिस तरह संचार को संगठित किया जाता है वह मूलत: एक राजनीतिक निर्णय होता है जो मौजूदा सामाजिक व्यवस्था के मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है। व्यावहारिक स्तर पर संचार की राजनीतिक समस्याओं का समाधान राज्य के वैध हितों और विभिन्न मत समूहों तक विस्तृत सूचना के अधिकार के बीच एक संतुलन पर निर्भर करता है यह समाधान अवश्य ही राजनैतिक संरचना, विकास की मात्रा और प्रत्येक देश के आकार तथा संसाधनों के मुताबिक अलग-अलग होंगे। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को उसकी वाजिब जगह से बेदखल करने के लिए व्यावहारिक जरूरत अथवा विचारधारा की मांग का तर्क नहीं देना चाहिए।
अगर यह संतुलन हासिल हो जाए तो भी कुछेक खतरों से सावधान रहना होगा। इनमें से एक तो अभिजातवाद है जिसकी चिंता स्वतंत्र प्रेस के शुरुआती दिनों में भी थी। ऐसा संचार जो मुख्यत: ऊपर से नीचे की ओर आता है और राजनीतिक नेताओं, राष्टï्रीय जीवन के तमाम क्षेत्रों में ऊंचे पदों पर काबिज लोगों या प्रमुख बुद्धिजीवियों की ही आवाज को विस्तारित करता है, अक्सर सामान्य नागरिकों को निष्क्रिय प्रापक बना देता है और उनकी चिंताओं, इच्छाओं तथा उनके अनुभव पर पर्दा डाल देता है। ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर दो तरफा संचार की व्यवस्था मुश्किल है। अभिताजवाद के खतरे के साथ ही अतिकेंद्रीकरण का खतरा भी रहता है। अगर राष्टï्रीय या अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से मजबूत समूहों की ही पहुंच संचार माध्यमों तक रहे तो इस बात का गंभीर खतरा है कि नृजातीय, सांस्कृतिक और धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरोधी आदर्श थोप दिए जाएं। उनके मूल्यों को स्वीकार करने के जरिए उन्हें भी आवाज देने की जरूरत बहुलतावाद की ही मांग है।
एक और खतरा तब पैदा होता है जब संचार माध्यमों तक पहुंचने वाले लोग अपने लिए पूरी स्वतंत्रता की मांग रखते हैं और जनता के प्रति थोड़ी जिम्मेदारी से भी इंकार करते हैं। उनका मानना है कि सूचना तो पूरी तरह निरपेक्ष है। कई बार स्वतंत्रता और जिम्मेदारी की धारणाओं को एक दूसरे का विरोधी समझा और प्रस्तुत किया जाता है जबकि ये दोनों ही सभ्यता के प्रमुख कारक हैं। कभी-कभी सूचना प्रसारण के नतीजों पर ध्यान नहीं दिया जाता न ही यह माना जाता है कि उसके साथ किसी तरह की जिम्मेदारी जुड़ी हुई है। यह मान्यता इस तथ्य पर पर्दा डाल देती है कि स्वतंत्रता और जिम्मेदारी में घनिष्ठï संबंध है और वे अखंड हैं। यह बात तमाम अन्य क्षेत्रों की तरह संचार के क्षेत्रों में भी लागू होती है। स्वतंत्रता के दुरूपयोग के विरुद्ध सबसे अच्छा हथियार उन्हीं लोगों द्वारा जिम्मेदारी का पालन है जो अपनी गतिविधियों और आचरण में स्वतंत्रता का उपभोग करते हैं। यह बात सही लगती है कि जब हरेक आदमी को अपनी गतिविधि के चुनाव की स्वतंत्रता नहीं होगी तो जिम्मेदारी भी नहीं हो सकती। बहरहाल यह भी सच है कि जब किसी काम के नतीजों पर ध्यान नहीं दिया जाता तो स्वतंत्रता के एक बुनियादी आयाम की अनदेखी हो जाती है। नैतिक जिम्मेदारी के साथ सूचना की स्वतंत्रता का सामंजस्य व्यक्ति के अधिकारों के प्रति सम्मान और संपूर्ण समाज के प्राधिकारों के बीच की कठिन राह पर चलकर ही बिठाया जा सकता है। जिम्मेदारी का आधार संवैधानिक अधिकार की बजाए सत्य के सम्मान की चिंता में होना चाहिए।
हालांकि ये चिंताएं विश्वव्यापी हैं फिर भी उन परिवर्तनों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता जो स्वतंत्रता और जिम्मेदारी की सापेक्षिकता को स्पष्टï कर दे रहे है और उन्हें नए आयाम प्रदान कर रहे हैं। इन आयामों को तय करने में (क) इतिहास क्रम (ख) संचार के औद्योगीकरण से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का शासित होना (ग) सामाजिक प्रक्रिया में व्यक्ति और समाज द्वारा निभाई जा रही भूमिकाओं में परिवर्तन का ध्यान रखना चाहिए। राष्टï्रीय या क्षेत्रीय परिस्थितियों पर ध्यान दिए बगैर सार्वभौमिक समाधान की बात नहीं की जा सकती, तीखे विवाद का खतरा उठाकर भी कहा जा सकता है कि सूचना की स्वतंत्रता का एक बुनियादी मानदंड स्रोतों की विविधता और इन स्रोतों तक लोगों की अबाध पहुंच है। शक्तिशाली समूहों के नियंत्रण में इन स्रोतों का केंद्रीकरण स्वतंत्रता का माखौल ही साबित होगा, चाहे राजनीतिक व्यवस्था कोई भी हो। सार्वजनिक मुद्दों पर सुविचारित निर्णय लेने के लिए नागरिकों को तैयार करने हेतु सूचना और अभिमतों का इंद्रधनुष आवश्यक है और जनतांत्रिक समाज में संचार व्यवस्था का जरूरी अंग है, राष्टï्रीय और अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर विविध स्रोतों तक नागरिकों की पहुंच भी होनी चाहिए। बहरहाल दो बातों को सावधानीवश याद रखना चाहिए। एक तो यह कि स्रोतों की विविधता से सूचना की विश्वसनीयता अपने आप नहीं बन जाती हालांकि इसके कारण जानबूझकर झूठ बोलना मुश्किल हो जाता है। दूसरे यह कि विविधता का मतलब बहुलतावाद, खासकर विचारों का बहुलतावाद, नहीं होता। सूचना स्रोतों में जितनी विविधता आपेक्षित है सूचना नेटवर्कों और निकास द्वारों को भी उतना ही विविधतापूर्ण तथा एक दूसरे से स्वतंत्रत होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होगा तो विविधता मुखौटा भर बनकर रह जाएगी।५
संचार और सत्ता के बीच संबंध को लेकर भी अलग-अलग विचार हैं। एक दृष्टिïकोण यह है कि संचार सत्ता पर नियंत्रण रखने का महत्त्वपूर्ण औजार है। चूंकि संचार माध्यम सरकारों को आईना दिखाते हैं इसलिए वे सत्ता के प्रति तोल भी हैं।६ इसके विरुद्ध कुछ लोगों का विचार है कि सूचना को सरकार की सेवा करनी चाहिए ताकि मजबूत और स्थिर सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था का निर्माण हो सके। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अनेक देशों का अनुभव बताता है कि संचार माध्यमों की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक पुनरूत्थान की मुख्य पूंजी है लेकिन इसी के साथ हो रहे अन्य परिवर्तनों की दिशा को भी समझना होगा। इन प्रचारों के कारण संचार और सत्ता के बीच का संबंध अभूतपूर्व रूप से महत्त्वपूर्ण हो गया है। नेताओं और जनता के बीच की पुरानी शत्रुता एक और टकराव के कारण जटिल हो गयी है।
सूचना के विशाल तंत्र पर काबिज उद्यमों और सामान्य लोगों के बीच टकराव बढ़ा है। लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाली चीजों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। सूचना की अधिसंरचनात्मक अनेक संस्थाओं (प्रेस एजेंसियां, जनमत संस्थान, प्रलेखन केंद्र ) और कई अनुशासनों (सांख्यिकी, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, व्यावहारिक शोध, व्यवस्था विश्लेषण) का मूल काम आंकड़ों का प्रयोग है। इसलिए संचार बहुत कुछ संकेतों और निर्देशों का शस्त्रागार बन गया है जो सरकारी या निजी, राष्टï्रीय अथवा अंतर्राष्टï्रीय बड़े संगठनों की ताकत को मजबूती प्रदान करता है। ऐसा कोई भी संगठन सूचना के छोटे हिस्सों के स्वामी नागरिकों के असंगठित समूहों के मुकाबले योजना बनाने और निर्णय लेने के मामले में ज्यादा सक्षम होगा। फलत: तमाम प्रयुक्त सूचनाएं शक्ति का स्रोत हो जाती हैं। इसलिए उन लोगों के दृष्टिïकोण और आचरण में परिवर्तन की जरूरत है जो सूचना के स्रोतों और प्रसारण के साधनों पर नियंत्रण रखते हैं।
संचार के बारे में दुनिया भर में चल रही बहस अनिवार्यत: राजनैतिक है क्योंकि चिंताओं, लक्ष्यों और तर्कों का चरित्र राजनैतिक है। समस्याओं के असली रूप को ढकने से या यथास्थिति के लिए आसन्न खतरों को न पहचानने से कुछ भी नहीं हासिल होगा। अगर हमें व्यावहारिक और यथार्थपरक समाधान खोजना है तो बहस में शामिल हरेक तत्त्व पर नजर रखनी होगी। (जारी है to be continued )