महेश शर्मा।
देश की करीब सवा सौ करोड़ आबादी के लिए दो जून की रोटी जुटाने वाले ग्रामीण किसान की लाइफ स्टाइल आजादी के इतने वर्ष बाद भी हमारी मीडिया की विषय वस्तु नहीं बन सकी है। वास्तविकता यह है कि मीडिया से गांव दूर होते जा रहे हैं। परिणाम स्वरूप वहां बसने वाले गरीब और किसान की समस्याओं को लेकर संजीदगी नहीं दिखती। इसके पीछे मीडिया संस्थानों की बाजारू प्राथमिकताएं जिम्मेदार तो हैं ही, ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे शिक्षित प्रशिक्षित पत्रकारों का भी अभाव है, जो ग्राम्य जीवन की कठिनाइयों को बेहतर ढंग से समझ कर उठा सकें।
ऐसे माहौल व मानसिकता में रीजनल रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों को धैर्य, समझ, ईमानदारी, संवेदनशीलता से निरंतर काम करना होगा। मेरा मानना है कि क्षेत्रीय रिपोर्टिंग भारत जैसे देश के लिए अति गंभीर विषय है। जिसमें सरकारी तंत्र, विशाल जन समुदाय, रिपोर्टिंग का बड़ा आयाम, पत्रकारों की पत्रकारीय समझ व मीडिया घरानों की बाजार बाद से जुड़ी सोच का ताना बाना है।
दुनिया भर में यह लाइफ स्टाइल पत्रकारिता का दौर है। भारतीय पत्रकारिता भी इससे कतई अछूती नहीं रह सकती। पेज थ्री पत्रकारिता का बढ़ता स्पेस इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। होना कुछ और चाहिए था लेकिन हो कुछ और रहा है। इलीट वर्ग तक सिमटी अंग्रेजी पत्रकारिता के बाद भाषाई और टीवी पत्रकारिता के बढ़ते दायरे के साथ इस बात की उम्मीद बढ़ी थी कि यह मीडिया वर्ग 70 फीसदी आबादी की कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, बिजली, पानी, सड़क आदि मूलभूत सुविधाओं के साथ ही अन्याय, उत्पीड़न, गैर बराबरी, जातिवाद व धर्मवाद के खिलाफ जोरदारी से आवाज उठा कर लोगों को जागरूक करेगा। लेकिन यहां भी बाजारवाद और मुनाफा तंत्र ही आडे़ आया।
गांव-गांव तक पहुंची भाषार्इ मीडिया की पहुंच ने समाचार पत्रों को क्षेत्रीय संस्करण निकालने को मजबूर किया। जिसके कारण मीडिया संस्थानों ने क्षेत्रीय स्तर पर पत्रकार भी रखने शुरू किए। लेकिन कम खर्च में ब्यूरो चलाने की फिक्र ने अधिकांश भाषाई समाचार पत्रों ने ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे पत्रकारों की फौज खड़ी कर दी जिनके सरोकार में क्षेत्रीय और आम जन की समस्याएं सबसे निचले पायदान पर हैं। इसके पीछे इनका अल्पशिक्षित और अप्रशिक्षित होना भी अहम कारण हैं।
बाजारवाद की मजबूरियों के चलते मीडिया संस्थानों ने भी ग्रामीण क्षेत्र में होने वाली आपराधिक घटनाओं को छोड़ कर वहां आम जन से जुड़ी समस्याओं को क्षेत्रीय संस्करणों से बाहर लाने में रूचि नही ली। टीवी पत्रकारिता भी ग्रामीण क्षेत्र के अंधविश्वास, भूत प्रेत, ऑनर किलिंग और सनसनीखेज अपराध की खबरों से ऊपर नही उठ सका। जिससे ग्रामीण जनमानस में मीडिया अपेक्षा के अनुरूप स्थान बनाना तो दूर धीरे-धीरे अविश्वासी की छवि जरूर बनाता नजर आ रहा है।
मीडिया बाजारवाद की मोह माया में फंस कर अपना दायित्व भूलता जा रहा है। मीडिया को मालूम है कि गांवों में भले ही देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा निवास करता हो, भले ही अपने गांव की याद भी लोगों को आती हो लेकिन गांव में रहना कोई पसंद नहीं करता है। रोजी-रोटी की मजबूरी, दिनों-दिन कम होती खेती-बाड़ी और अन्य कारणों के चलते गांवों से बड़े स्तर पर आबादी का पलायन शहरों की ओर रहा है। गांव से शहर आने के कई कारणों में से एक यह भी है कि गांवों पर कोई भी ध्यान नहीं देता है सरकारी मशीनरी के साथ मीडिया में इस जमात में शामिल है।
मीडिया ने गांव का कभी बिकाऊ माल समझा ही नहीं, उसकी सारी खोजबीन महानगरों, शहरों और कस्बों के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। मीडिया को बखूबी मालूम है कि शहर की मामूली घटना भी बिक सकती है उसकी टीआरपी और रीडरशिप है। जबकि ग्रामीण गांव में रहना पसंद नही करते तो खबरें दिखाओ या न दिखाओ, खबर लिखो चाहे न लिखो कोई पहाड़ टूटने वाला नहीं है। दरअसल होना यह चाहिए था कि ग्रामीण इलाकों में भी जनपक्षधरता वाली पत्रकारिता को बढ़ावा मिले। इसके लिए गांव के विकास के लिए संचालित सरकारी योजनाओं और उनमें होने वाली गड़बडि़या भाषाई मीडिया की विषय वस्तु बनें।
इन योजनाओं को बेहतर ढंग से संचालित करने वाले जनप्रतिनिधियों और सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों के साथ ही गांवों से पलायन रोकने के लिए आसपास उद्योग धंधे स्थापित करने वाले व्यवसायियों के प्रति नजरिया बदलने की जरूरत है। मीडिया ऐसे लोगों की इलाकाई ऑइकान के तौर पर महिमा मंडित कर उत्साह बढ़ाने के साथ ही उनको और बेहतर करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। घटते लिंगानुपात, विभिन्न बिमारियों के प्रति जागरूकता समेत जन सरोकारी विषयों को लेकर क्षेत्रीय आधार पर शोधपूर्ण खबरें प्रकाशित की जाएं। क्षेत्रीय पत्रकारिता से लेकर राष्ट्रीय फलक तक अपराधियों व दबंगों को हीरो के तौर पर महिमामंडन को हतोत्साहित किया जाना बेहद जरूरी है।
राजनीतिक क्षितिज में भी इनकी स्थापना को महत्वहीन करने से समाज को बेहतर दिशा मिल सकेगी। क्षेत्रीय आधार पर चलने वाले भाषाई समाचार पत्रों को शासन की ओर से बढ़ावा तो मिले, लेकिन उन पर सतर्क दृष्टि रखने के ऐसी नियामक संस्था की जरूरत भी महसूस की जा रही है, जो आए दिन होने वाली कीचड़ उछालू पत्रकारिता पर लगाम लगाने में सक्षम हो। इसके पीछे शहरी क्षेत्र के साथ ही ग्रामीण क्षेत्र में भी पैदा विश्वास के संकट से निपटा जा सकेगा।
70 फीसद आबादी की उपेक्षा कर सिर्फ 30 फीसद पर ही ध्यान केन्द्रित करने का परिणाम यह है कि देश की राजधानी में निर्भया के दोषियों को भले ही दंड मिल जाए। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आए दिन होने वाले ऐसे लोमहर्षक कांड़ों के दोषी सीना चौड़ा कर सड़कों पर घूमते नजर आते हैं और पीडि़त परिवार आत्महत्या या मुंह छिपा कर जीने को मजबूर होते हैं। इसका प्रमुख कारण ग्रामीण क्षेत्र की इन घटनाओं के राष्ट्रीय फलक में न आना होता है।
100 फीसद समाज को साथ लिए बगैर राष्ट्रीय मीडिया की परिकल्पना बेमानी ही कही जाएगी। इसके लिए मीडिया संस्थानों के साथ ही मीडिया संगठनों को भी आगे आना पडे़गा। क्षेत्रीय पत्रकारों के प्रशिक्षण के लिए कार्यशाला के आयोजन के साथ ही जीवन निर्वाह के लिए उन्हें समुचित वृत्तिका भी मिलनी चाहिए। मीडिया संगठन भी अपना जुड़ाव जाहिर कर आए दिन दबंगों व पुलिस प्रशासन द्वारा होने वाले उत्पीड़न के खिलाफ खड़े नजर आए, तो हालात में बदलाव दृष्टिगोचर होने लगेगा।
साभार : प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के प्रकाशन ” The Scribes World सच पत्रकारिता का”. लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के सदस्य हैं.