राजेश बादल
पत्रकारिता में पच्चीस बरस की पारी बहुत लंबी नहीं होती, लेकिन इस पारी में एसपी ने वो कीर्तिमान कायम किए, जो आइन्दा किसी के लिए हासिल करना मुमकिन नहीं। इन पच्चीस वर्षों में करीब सत्रह साल तक मैंने भी उनके साथ काम किया। प्रिंट में एसपी ने रविवार के जरिए पत्रकारिता का अद्भुत रूप इस देश को दिखाया तो बाद में टेलिविजन पत्रकारिता के महानायक बन बैठे। सिर्फ बाइस महीने की टेलिविजन पारी ने एसपी को इस मुल्क की पत्रकारिता में अमर कर दिया
हिन्दुस्तान में जो स्थान संगीत में केएल सहगल, मोहम्मद रफी या लता का है, क्रिकेट में सुनील गावस्कर या सचिन तेंदुलकर का है, हॉकी में मेजर ध्यानचंद का है, फिल्म अभिनय में दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन का है, वही स्थान हिंदी पत्रकारिता में राजेंद्र माथुर और हिंदी टीवी पत्रकारिता में एसपी का है। जब चैनल नहीं थे तो उस दौर में एसपी ने टीवी पत्रकारिता के जो कीर्तिमान या मानक तय किए, वे आज भी मिसाल हैं
इन्हीं महानायक एसपी की पुण्यतिथि सत्ताइस जून को है। मेरा उनके साथ करीब सत्रह साल तक करीबी संपर्क रहा। उन दिनों सारे हिन्दुस्तान में खुशी की लहर ने लोगों के दिलों को भिगोना शुरू कर दिया था। आजादी की आहट सुनाई देने लगी थी। ये तय हो गया था कि दो-चार महीने में अंग्रेज हिन्दुस्तान से दफा हो जाएंगे। इसलिए मोहल्लों में मिठाइयां बंटा करती थी, दिन रात लोग झूमते, नाचते, गाते नजर आते। ऐसे ही माहौल में बनारस के पड़ोसी जिले गाजीपुर से आधे घंटे के फासले पर बसे पातेपुर गांव में जगन्नाथ सिंह के आंगन से मिठाइयों के टोकरे निकले और बच्चों से लेकर बूढों तक सबने छक कर मिठाई खाई।
जगन्नाथसिंह के घर बेटा आया था। नाम रखा गया सुरेन्द्र। आगे चलकर इसी सुरेन्द्र ने भारतीय हिंदी पत्रकारिता को एक नई पहचान दी। प्राइमरी की पढ़ाई पातेपुर स्कूल में हुई। ठेठ गांव के माहौल में देसी संस्कार दिल और दिमाग में गहरे उतर गए। पिता जगन्नाथ सिंह रौबीले और शानदार व्यक्तित्व के मालिक थे। वैसे तो कारोबारी थे, लेकिन पढ़ाई लिखाई के शौकीन थे। कारोबार के सिलसिले में बंगाल के गारोलिया कस्बे में जा बसे। पातेपुर के बाद गारोलिया स्कूल में सुरेन्द्र की पढ़ाई शुरू हो गई। पढ़ने का जुनून यहां तक था कि जेब खर्च के लिए जो भी पैसे मिलते, किताबें खरीदने में खर्च हो जाते। फिर अपने पर पूरे महीने एक पैसा खर्च न होता। बड़े भाई नरेन्द्र को भी पढ़ने का शौक था। मुश्किल यह थी कि गारोलिया में किताबों की एक भी दुकान नहीं थी। दोनों भाई करीब तीन किलोमीटर दूर श्यामनगर कस्बे तक पैदल जाते। किताबें खरीदते और लौट आते।
सुरेन्द्र ने कोलकाता विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर प्रथम श्रेणी में और सुरेन्द्रनाथ कॉलेज से कानून में स्नातक की डिग्री हासिल की। इसके बाद वो नौकरी की खोज में जुटे। दरअसल सुरेन्द्र के दोस्तों को यकीन था कि वो जहां भी अर्जी लगाएंगे तो वो नौकरी उन्हें मिल जाएगी। इसलिए जैसे ही कोई विज्ञापन निकलता, दोस्त सुरेन्द्र को घेर लेते और कहते कि वो आवेदन न करें क्योंकि इस नौकरी की ज्यादा जरूरत अमुक दोस्त को है। उसके घर की हालत अच्छी नहीं है। बेचारे सुरेन्द्र ने दोस्तों पर दया दिखाते हुए चार पांच नौकरियां छोड़ी। एक दो बार तो ऐसा हुआ कि नौकरी के लिए आवेदन सुरेन्द्र ने दिया और दोस्तों ने सिफारिश लगवाई सुरेन्द्र के पिताजी से। उनसे प्रार्थना की कि वो सुरेन्द्र से साक्षात्कार में न जाने के लिए कहें। सुरेन्द्र भला पिताजी की बात कैसे टाल सकते थे। क्या आज के जमाने में आप किसी नौजवान या उसके पिता से ऐसा आग्रह कर सकते हैं? बहरहाल इतनी दया दिखाने के बाद भी सुरेन्द्र बैरकपुर के नेशनल कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता बन गए।
उन दिनों दिनमान देश की सबसे लोकप्रिय राजनीतिक पत्रिका थी। सुरेन्द्र को इसका नया अंक आने का बेसब्री से इंतजार रहता। आते ही एक बैठक में पूरा अंक पढ़ जाते। इन्ही दिनों दिनमान में प्रशिक्षु पत्रकारों के लिए विज्ञापन छपा। सुरेन्द्र ने आवेदन कर दिया। बुलावा आ गया। इन्टरव्यू लेने के लिए रौबीले संपादक डॉक्टर धर्मवीर भारती बैठे थे। उनका खौफ ऐसा था कि दफ्तर में आ जाएं तो कर्फ्यू लग जाता। सुरेन्द्र पहुंचे तो उन्होंने सवाल दागा-
आप नौकरी में हैं तो यहां क्यों आना चाहते हैं?
सुरेन्द्र का उत्तर भी उसी अंदाज में।
बोले, “ये नौकरी उससे बेहतर लगी”।
डॉक्टर भारती का अगला सवाल तोप के गोले जैसा, “इसका मतलब कि अगली नौकरी इससे बेहतर मिलेगी तो ये भी छोड़ देंगे?
सुरेन्द्र का उत्तर भी तमतमाया सा। बोले, “बेशक छोड़ दूंगा, क्योंकि मुझे पता नहीं था कि यहां नौकरी नहीं गुलामी करनी होगी”।
धर्मवीर भारती ने उन्हें दस मिनट इंतजार कराया और नियुक्ति पत्र थमा दिया। ये अंदाज था सुरेन्द्र प्रताप सिंह का। प्रशिक्षु पत्रकार के तौर पर धर्मयुग में नौकरी शुरू कर दी। जाते ही धर्मयुग के माहौल में क्रांतिकारी बदलाव। कड़क और फौजी अंदाज गायब। जिन्दा और धड़कता माहौल। डॉक्टर भारती परेशान। उन्होंने सुरेन्द्र का तबादला जानी मानी फिल्म पत्रिका ‘माधुरी’ में कर दिया। माधुरी में सुरेन्द्र क्या गए, धर्मयुग में धमाल बंद। सन्नाटा पसर गया।
इन्ही दिनों सुरेन्द्र का लेख प्रकाशित हुआ- खाते हैं हिंदी का, गाते हैं अंग्रेजी का। छपते ही सुरेन्द्र प्रताप सिंह की धूम मच गई। डॉक्टर भारती ने सुरेन्द्र को वापस धर्मयुग में बुला लिया। सुरेन्द्र सबके चहेते बन चुके थे। मित्र मंडली ने नाम रखा एसपी। इसके बाद सारी उमर वो सिर्फ एसपी के नाम से जाने जाते रहे। उन दिनों एसपी को हर महीने चार सौ सड़सठ रुपए मिलते थे। किताबों के कीड़े तो बचपन से ही थे इसलिए आधा वेतन किताबों पर खर्च हो जाता और आधा शुरू के पंद्रह दिनों में। बाद के पन्द्रह दिन कड़की रहती। एक-एक जोड़ी कपड़े पन्द्रह से बीस दिन तक चलाते। छुट्टी होती तो दिन भर सोते। एक दोस्त ने वजह पूछी तो बोले, ‘जागूंगा तो भूख लगेगी और खाने के लिए पैसे मेरे पास नहीं हैं।
पत्रकारिता धुआंधार; पत्रकारिता में पच्चीस बरस की पारी बहुत लंबी नहीं होती, लेकिन इस पारी में एसपी ने वो कीर्तिमान कायम किए, जो आइन्दा किसी के लिए हासिल करना मुमकिन नहीं। इन पच्चीस वर्षों में करीब सत्रह साल तक मैंने भी उनके साथ काम किया। प्रिंट में एसपी ने रविवार के जरिए पत्रकारिता का अद्भुत रूप इस देश को दिखाया तो बाद में टेलिविजन पत्रकारिता के महानायक बन बैठे। सिर्फ बाइस महीने की टेलिविजन पारी ने एसपी को इस मुल्क की पत्रकारिता में अमर कर दिया।
जब आनंद बाजार पत्रिका से रविवार निकालने का प्रस्ताव मिला तो एसपी ने शर्त रखी- पूरी आजादी चाहिए और उन्नीस सौ सतहत्तर में देश ने साप्ताहिक रविवार की वो चमक देखी कि सारी पत्रिकाएं धूमिल पड़ गईं। शानदार, धारदार और असरदार पत्रकारिता। मैं भी इस दौर में लगातार रविवार में एसपी की टीम का सदस्य था। करीब सात साल तक समूचे हिन्दुस्तान ने हिंदी पत्रकारिता का एक नया चेहरा देखा।
रविवार के पहले अंक की कवर स्टोरी थी- रेणु का हिन्दुस्तान। उस दौर की राजनीति, भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियों और सरोकारों पर फोकस रविवार के अंक एक के बाद एक धूम मचाते रहे। ये मैगजीन अवाम की आवाज बन गई थी। बोलचाल में लोग कहा करते थे कि रविवार नेताओं और अफसरों को करंट मारती है। पक्ष हो या प्रतिपक्ष- एसपी ने किसी को नहीं बख्शा। खोजी पत्रकारिता का आलम यह था कि अनेक मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की बलि रविवार की समाचार कथाओं ने ली। कई बार तो ऐसा हुआ कि जैसे ही नेताओं को भनक लगती कि इस बार का अंक उनके भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ कर रहा है तो सभी बुक स्टाल्स से मैगजीन गायब करा दी जाती और तब एसपी दुबारा मैगजीन छपाते और खुफिया तौर पर वो अंक घर घर पहुंच जाता। जी हां हम बात कर रहे हैं आजादी के तीस-पैंतीस साल बाद के भारत की। एक बार मेरी कवर स्टोरी छपी- अर्जुन सिंह पर भ्रष्टाचार के आरोप और हमारी निष्पक्ष जांच। अर्जुन सिंह उन दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। जैसे ही रविवार का वो अंक बाजार में आया, चौबीस घंटे के भीतर सारी प्रतियां प्रदेश के सभी जिलों से गायब करा दी गईं। एसपी को पता चला तो दुबारा अंक छपा और गुपचुप बाजार में बंटवा दिया। अर्जुन सिंह सरकार देखती रह गई।
यूं तो एसपी भाषण देने से परहेज करते थे, लेकिन जब उन्हें बोलना ही पड़ जाता तो पेशे की पवित्रता हमेशा उनके जेहन में होती। पत्रकारों की प्रामाणिकता उनकी प्राथमिकताओं की सूची में सबसे ऊपर थी। एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा, ‘आज पत्रकारों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। छोटे शहरों में चले जाइए तो पाएंगे कि पत्रकार की इमेज अब पुलिस वाले की होती जा रही है। लोग उनसे डरते हैं। इस इमेज को तोड़ना पड़ेगा… आज पत्रकारिता के जरिए कुछ लोग अन्य सुविधाएं हासिल करने में लगे हैं इसलिए पत्रकारों में चारित्रिक गिरावट आई है। पर यह गिरावट समाज के हर अंग में आई है… ऐसे बहुत से लोग हैं जो पत्रकार रहते हुए नेतागीरी करते हैं और नेता बनने के बाद पत्रकारिता… दरअसल पत्रकार कोई देवदूत नहीं होता उनमें भी बहुत सारे दलाल घुसे हुए हैं और ये भी सच है कि समाज के बाहर रहकर पत्रकारिता नहीं हो सकती। यह कैसे हो सकता है कि समाज तो भारत का हो और पत्रकारिता फ्रांस की हो।’
एसपी के तेवर और अंदाज ने नौजवान पत्रकारों को दीवाना बना दिया था। उन दिनों हर युवा पत्रकार रविवार की पत्रकारिता करना चाहता था। इसी दौरान उन्नीस सौ बयासी में एसपी की मुलाकात राजेंद्र माथुर से हुई, जो उन दिनों नईदुनिया इंदौर के प्रधान संपादक थे। पत्रकारिता के दो शिखर पुरुषों की इस मुलाकात ने आगे जाकर भारतीय हिंदी पत्रकारिता में एक नया अध्याय लिखा। उन्नीस सौ पचासी में एसपी राजेन्द्र माथुर के सहयोगी बन गए। तब राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक की जिम्मेदारी संभाल रहे थे। वो एसपी को मुंबई संस्करण का स्थानीय संपादक बना कर मायानगरी ले आए। अगले ही साल एसपी राजेंद्र माथुर के साथ कार्यकारी संपादक के तौर पर दिल्ली में काम कर रहे थे, लेकिन मुंबई छोड़ने से पहले मायानगरी में बड़े परदे के लिए भी एसपी ने अदभुत काम किया।
जाने माने फिल्मकार मृणाल सेन की ‘जेनेसिस’ और ‘तस्वीर अपनी अपनी’ फिल्मों की पटकथा लिखी। विजुअल मीडिया के लिए एसपी की यह शुरुआत थी। गौतम घोष की फिल्म ‘महायात्रा’ और ‘पार’ फिल्में भी उन्होंने लिखीं लेकिन सराहना मिली ‘पार’ से। इस फिल्म को अनेक पुरस्कार मिले। पांच साल तक माथुर-एसपी की जोड़ी ने हिंदी पत्रकारिता में अनेक सुनहरे अध्याय लिखे। अखबार की भाषा, नीति और ले आउट में निखार आया।
एसपी की नई भूमिका और राजेंद्र माथुर जैसे दिग्गज का मार्गदर्शन अखबार में क्रांतिकारी बदलाव की वजह बना। लखनऊ, जयपुर, पटना और मुंबई संस्करणों की पत्रकारिता से लोग हैरान थे। वो दिन देश के राजनीतिक इतिहास में उथल पुथल भरे थे। जाहिर है पत्रकारिता भी अछूती नहीं थी। दोनों संपादक मिलकर रीढ़वान पत्रकारिता का नमूना पेश कर रहे थे। यह मेरे जीवन का भी यादगार समय था क्योंकि मैं तब इन दोनों महापुरुषों के साथ नवभारत टाइम्स में काम कर रहा था।
इन्ही दिनों जाने माने पत्रकार और संपादक प्रभाष जोशी ने जनसत्ता के जरिए एक नए किस्म की पत्रकारिता की मशाल जलाई थी। अखबार और पत्र पत्रिकाएं पढने वाले लोग नवभारत टाइम्स और जनसत्ता की ही चर्चाएं करते थे। उनके संपादकीय बहस छेड़ा करते थे। देश में संपादक के नाम पत्र लिखने वालों का आन्दोलन खड़ा हो गया था। तीन बड़े संपादक अपने अपने अंदाज में भारतीय हिंदी पत्रकारिता को आगे ले जा रहे थे
मेरी नजर में वैचारिक पत्रकारिता का यह स्वर्णकाल था। सिंह और माथुर की जोड़ी लोकप्रियता के शिखर पर थी कि अचानक नौ अप्रैल उन्नीस सौ इक्यानवे को दिल का दौरा पड़ने से राजेंद्र माथुर का निधन हो गया। पत्रकारिता के लिए बड़ा झटका। इन दिनों पत्रकारिता पर तकनीक और बाजार के दबाव का असर साफ दिखने लगा था। एसपी ने इन दबावों से मुकाबला जारी रखा। वो पत्रकारिता में बाजार के दखल को समझते थे लेकिन पत्रकारिता के मूल्य और सरोकार उनके लिए सर्वोपरि थे। नतीजा कुछ समय बाद नवभारतटाइम्स से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद एसपी ने स्वतंत्र पत्रकारिता का फैसला किया और फिर देश ने एसपी के गंभीर लेखन का नया रूप देखा। तमाम अखबारों में उनके स्तंभ छपते और चर्चा का विषय बन जाते। साम्प्रदायिकता के खिलाफ उनके लेखों ने लोगों को झकझोर दिया।
सिलसिला चलता रहा। एसपी लेखन को एन्जॉय कर रहे थे। इसी बीच कपिलदेव ने उनसे देव फीचर्स को नया रूप देने का अनुरोध किया। हालांकि यह पूर्णकालिक काम नहीं था, मगर एसपी ने थोड़े ही समय में उसे शानदार न्यूज एंड फीचर एजेंसी में तब्दील कर दिया। बताना प्रासंगिक है कि देव फीचर्स में भी मैं उनका सहयोगी था। इसके बाद संक्षिप्त सी पारी टाइम्स टेलीविजन के साथ खेली। वहां उन्हें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बुनियादी बातें जानने का मौका मिला। आलम यह था कि एसपी एक प्रस्ताव स्वीकार कर काम शुरू करते तो दूसरा प्रस्ताव आ जाता। इसी कड़ी में द टेलीग्राफ के राजनीतिक संपादक पद पर काम करने का न्यौता मिला। यहां भी एसपी ने निष्पक्ष पत्रकारिता की शर्त पर काम स्वीकार किया। आज के दौर में शायद ही कोई संपादक नौकरी से पहले इस तरह की शर्त रखता हो। वह अपने वेतन और अन्य सुविधाओं की शर्त रखता है, लेकिन निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता की आजादी की बात नहीं करता। अपनी नीति और प्रतिभा के चलते ही एसपी को इंडिया टुडे के सभी क्षेत्रीय संस्करणों के संपादन का आफर मिला। हर बार की तरह यहां भी उनकी शर्तें मान लीं गईं। इंडिया टुडे में उनके- मतान्तर और विचारार्थ बेहद लोकप्रिय कॉलम थे। इसके अलावा बीबीसी पर भारतीय अखबारों में प्रकाशित खबरों की समीक्षा का कॉलम भी शुरू हुआ। यह कॉलम इतना लोकप्रिय हुआ कि अनेक अखबारों में उनकी समीक्षा को सुनकर खबरों की नीति तय की जाने लगी। यह भी अपने तरह का अनूठा उदाहरण है।
दिन अच्छे कट रहे थे। उन दिनों दूरदर्शन ही भारतीय टेलीविजन का चेहरा था। विनोद दुआ के लोकप्रिय समाचार साप्ताहिक ‘परख’ और सिद्धार्थ काक की सांस्कृतिक पत्रिका ‘सुरभि’ दर्शकों में अपनी पहचान बना चुकी थीं अलबत्ता निजी प्रस्तुतकर्ताओं को दैनिक समाचार पेश करने की अनुमति अभी नहीं मिली थी। चंद रोज बाद विनोद दुआ को शाम का दैनिक बुलेटिन न्यूज वेब पेश करने का अवसर मिला। भारतीय टीवी पत्रकारिता के इतिहास में यह ऐतिहासिक कदम था। कुछ दिनों बाद ये बुलेटिन बंद हो गया और इंडिया टुडे समूह को डी डी मेट्रो पर ‘आजतक’ शुरू करने का प्रस्ताव मिला। आजतक की टीम में भी मैं उनके साथ था। थोड़े ही दिनों में आजतक ने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। शुरुआत में एसपी को टेलीविजन के लायक नहीं बताया जा रहा था, लेकिन बाद में जब कभी एसपी एक दिन के लिए भी अवकाश लेते तो दर्शक बेचैन हो जाते। पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण- चारों तरफ उनकी लोकप्रियता समान थी। एक दिन देश भर में ये खबर फैली कि सारे गणेश मंदिरों में गणेश जी दूध पी रहे हैं। फिर क्या था दफ्तरों में सन्नाटा छा गया। अंधविश्वास के कारण लाखों लीटर दूध बह गया। एसपी ने इसकी वैज्ञानिक व्याख्या की और पोल खोल कर रख दी। उन्होंने यह भी साफ किया कि आखिर गणेश जी के दूध पीने का प्रोपेगंडा करने की योजना कहां बनी थी। उन्नीस सौ छियानवे के लोकसभा चुनाव और उसके बाद केन्द्रीय बजट पर अपने खास सीधे प्रसारण के जरिए एसपी ने घर-घर में अपनी जगह बना ली थी। उनकी बेबाक टिप्पणियां लोगों का दिल खुश कर देतीं।
अंतिम विदाई: उस दिन की शक्ल बड़ी मनहूस थी। उपहार सिनेमा में लगी आग ने दिल्ली को झकझोर दिया था। मरने वालों की तादाद बढ़ती जा रही थी। कवरेज में लगे कैमरे एक के बाद एक दर्दनाक कहानियां उगल रहे थे। एसपी सहयोगियों को बुलेटिन के लिए निर्देश दे रहे थे, लेकिन अंदर ही अंदर उन्हें इस हादसे ने हिला दिया था। सुरक्षा तंत्र की नाकामी से अनेक घरों में भरी दोपहरी अंधेरा छा गया था। हर मिनट खबर का आकार और विकराल हो रहा था। एसपी ने तय किया कि पूरा बुलेटिन इसी हादसे पर केन्द्रित होगा। बुलेटिन भी क्या था दर्द भरी दास्तानों का सिलसिला। एसपी अपने को संभाल न पाए। जिन्दगी की क्रूर रफ्तार पर व्यंग्य करते हुए जैसे तैसे बुलेटिन खत्म किया और फूट फूट कर रो पड़े। उनके चाहने वालों के लिए एसपी का ये नया रूप था। अब तक उनके दिमाग में एसपी की छवि सख्त और मजबूत संपादक पत्रकार की थी। वो सोच भी नहीं सकते थे कि एसपी अंदर से इतने नरम, भावुक और संवेदनशील होंगे। उस रात एसपी सो न पाए और सुबह होते होते उन्हें ब्रेन हेमरेज होने की खबर जंगल में आग की तरह देश भर में फैल गई। अस्पताल में चाहने वालों का तांता लग गया। उनके फोन अगले कई दिन तक दिन रात व्यस्त रहे। देश भर से एसपी के चाहने वाले उनकी तबियत का हाल जानना चाहते थे। सैकड़ों की तादाद में लोगों ने अस्पताल में ही डेरा डाल लिया था। हर पल उन्हें इंतजार रहता कि डॉक्टर अभी आएंगे और उनके अच्छे होने का समाचार देंगे। लेकिन ये न हुआ। एक के बाद एक दिन गुजरते रहे। एसपी होश में नहीं आए और आखिर वो दिन भी आ पहुंचा, जब एसपी अपने उस सफर पर चल दिए, जहां से लौटकर कोई नहीं आता।
उनके देहावसान की खबर सुनते ही हर मीडिया हाउस में सन्नाटा छा गया था। देश भर के पत्रकार, संपादक, राजनेता, अधिकारी, छात्र, प्राध्यापक, तमाम वर्गों के बुद्धिजीवी सदमे में थे। हर प्रसारण केंद्र ने एसपी के निधन की खबर को जिस तरह स्थान दिया, वो बेमिसाल है। राजेंद्र माथुर के अलावा किसी पत्रकार को समाज की तरफ से इस तरह की विदाई नहीं मिली। एसपी अब नहीं हैं, लेकिन अपनी पत्रकारिता की वजह से वो इस देश के करोड़ों दिलों में हमेशा धड़कते रहेंगे।
Picture Courtesy The Quint