सुरेश नौटियाल।
समाचार लिखते समय ऑब्जेक्टिव होना अत्यंत कठिन होता है, चूंकि पत्रकार की निजी आस्था और प्रतिबद्धता कहीं न कहीं अपना असर दिखाती हैं। इसी सब्जेक्टिविटी के कारण एक ही समाचार को दस संवाददाता दस प्रकार से लिखते हैं। पर, उद्देश्य और नीयत खबर को सही प्रकार और सार्वजनिक हित में ही पहुंचाने का उपक्रम होना चाहिए।
यह बात सच है कि जब हमारे जुबानी तीर चूक जाते हैं, तब हम मौन का सहारा लेते हैं चूंकि मौन की भाषा अधिक प्रभावशाली और शक्तिशाली मानी जाती है। पर, पत्रकारिता में ऐसा नहीं हो सकता। यह बिना शब्दों और भाषा के हो नहीं सकती। शब्दों का इसलिए पत्रकारिता में अत्यंत ही महत्व है और यह भी कि शब्दों को हम किस प्रकार उपयोग में लाते हैं। दूसरी तरह से कहें तो लिखते समय ऐसे शब्दों का इस्तेमाल खास ढंग से करना पडेगा ताकि वे खास अर्थ और परिप्रेक्ष्य पैदा कर सकें मनुष्य को सोचने के लिये और अपनी सोच से अन्य को अवगत कराने के लिए शब्द और भाषा ही चाहिये। और शब्द जब बिना व्याकरण के लोकव्यवहार में होते हैं या व्याकरण के नियमों के अनुसार जुटते हैं तो खास तरह का अर्थ और प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
जब आप मन ही मन में कुछ सोच रहे हों और अपने शब्दों के चयन से प्रसन्न नहीं हों तब आप नये और भिन्न शब्दों का चयन कर अपनी बात को बेहतर ढंग से सोचने और कहने का प्रयास करते हैं। पत्रकारिता में भी कुछ ऐसे ही है। आप एक समाचार या लेख लिखते हैं अपने श्रेष्ठतम शब्दों और अभिव्यक्ति के साथ पर जब आपकी कॉपी संपादक के पास पहुंचती है तो उसमें कुछ न कुछ और सुधार आ ही जाता है और यदा-कदा त्रुटियां भी उजागर हो जाती हैं। यह इसलिये कि शब्दों के संयोजन और विचार-विन्यास की सटीकता में कुछ न कुछ कमी रह जाती है या आप जो कहना चाहते हैं उसे ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं। और यह इसलिए होता है क्योंकि आप शब्दों का सटीक उपयोग नहीं करते हैं।
दूसरी ओर, कई बार इसके उलट भी होता है। आपकी भाषा और विचार में पूरी स्पष्टता रहती है पर आपके परिप्रेक्ष्य को आपका संपादक नहीं समझ पाता और गुड को गोबर बना देता है। अनेक बार किसी लेख में विचार तो नहीं होता पर शब्दों का जाल मंत्रमुग्ध कर देता है। कुल मिलाकर यह शब्दों का ही खेल है।
समाचार की भाषा कैसी हो, इस पर भी खासी बहस होती ही रहती है। मोटे तौर पर यह बहस ऑब्जेक्टिविटी और सब्जेक्टिविटी के बीच झूलती रहती है।
पत्रकार का अत्यंत संवेदनशील होने के साथ-साथ विचारवान व्यक्ति तथा प्रतिबद्ध और जनपक्षीय नागरिक होना भी आवश्यक है। इन गुणों के अभाव में व्यक्ति सही मायने में पत्रकार नहीं हो सकता है। और वह कैसा पत्रकार है, यह उसकी भाषा, उसके शब्द चयन, अभिव्यक्ति की कला और विचारों की धार से ही पता चलता है। आजकल खासकर देशी समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में जिस प्रकार की लापरवाह भाषा, निर्धन अभिव्यक्ति और दुर्गंध वाली विचारहीनता दिखाई देती है, उससे पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चिंता ही नहीं होती बल्कि कभी-कभी पत्रकार होने पर शर्म भी आती है।
किस समय कितना कहा और लिखा जाना चाहिए, यह भी महत्वपूर्ण है! वर्ष 1992 में 6 दिसंबर को जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाई जा रही थी उस समय यूनिवार्ता की समाचार डेस्क का इंचार्ज मैं था। अयोध्या से हमारे संवाददाता ने मस्जिद के ढहाए जाने का फ्लैश भेजा तो फ्लैश की तात्कालिकता के महत्व को समझते हुये भी मैंने उसे तुरंत ट्रांसमिशन के लिए क्रीडरूम नहीं दिया, जबकि मैं जानता था कि मेरे ऐसा करने के कारण दूसरी बडी समाचार एजेंसी लीड ले सकती है। फ्लैश तुरंत भेजने के स्थान पर मैंने सावधानी बरतनी ठीक समझी और ब्यूरो प्रमुख से आग्रह किया कि वह एमएचए यानी गृह मंत्रालय से इस बारे में पुष्टि करें। हमारे जिस संवाददाता ने यह फ्लैश भेजा था वह सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध पत्रकार और मेरा सीनियर था पर मैं किसी प्रकार के दबाव में न आकर सावधानी की मुद्रा में ही रहा। मुझे याद था कि एक समाचार एजेंसी की लापरवाह खबर के कारण कैसे दंगे भडक गये थे। बहरहाल, ब्यूरो प्रमुख ने तुरंत गृह मंत्रालय में किसी ऊंचे अधिकारी से बात की और पुष्टि के बाद हमने फ्लैश चलाया। मैं यह नहीं कह रहा कि यदि मैंने फ्लैश तुरंत चला दिया होता तो देश में तुरंत ही दंगे शुरू हो जाते; पर इतना तो कहना ही चाहता हूं कि ऐसी सावधानी बरतनी ही चाहिए चाहे। केवल लीड लेने के लिए आप पत्रकारिता को गैरजिम्मेदार नहीं बना सकते। आजकल खबरिया चैनेल जिस प्रकार सनसनीपूर्ण ढंग से ब्रेकिंग न्यूज देते हैं उससे समाचार के बम में परिवर्तित हो जाने का खतरा बराबर बना रहता है। यह पत्रकारिता के स्वास्थ्य और भविष्य के लिए उचित नहीं है।
समाचार या लेख लिखते समय शब्दों का चयन भी अर्थपूर्ण होता है। जब हम लिखते हैं कि फलां-फलां जगह दंगा होने की संभावना है तो उसका निहितार्थ इससे अलग होता है जब हम लिखते हैं कि फलां-फलां जगह दंगा होने की आशंका है। संभावना शब्द सकारात्मक और आशापूर्ण है, जबकि आशंका शब्द नकारात्मक और चेतावनीपूर्ण। चूंकि हम दंगे के लिए उम्मीद नहीं लगा सकते और मन ही मन में उसके घटित नहीं होने की कामना करते हैं तब संभावना के स्थान पर आशंका ही लिखा जाना ठीक होता है। शब्दों का इस प्रकार का चयन पत्रकार की आस्था और प्रतिबद्धता भी उजागर करता है। इसी प्रकार, किसी गैस संयंत्र में दुर्घटना या विस्फोट की आशंका ही हो सकती है, संभावना नहीं क्योंकि निहितार्थ तो यही है कि ऐसा न हो!
समाचार लिखते समय ऑब्जेक्टिव होना अत्यंत कठिन होता है, चूंकि पत्रकार की निजी आस्था और प्रतिबद्धता कहीं न कहीं अपना असर दिखाती हैं। इसी सब्जेक्टिविटी के कारण एक ही समाचार को दस संवाददाता दस प्रकार से लिखते हैं। पर, उद्देश्य और नीयत खबर को सही प्रकार और सार्वजनिक हित में ही पहुंचाने का उपक्रम होना चाहिए। आजकल तो समाचारपत्रों के मालिकान समाचारों को अपने-अपने लालच के हिसाब से प्रभावित करने लगे हैं। कुल मिलाकर पाठक तक समाचार को ऑब्जेक्टिव ढंग से पहुंचाने में मालिकों की कोई आस्था नहीं है।
शब्दों के चयन का एक और नमूना देखिए। दूरदर्शन समाचार में अतिथि संपादकत्व के समय की बात है। दिल्ली में सेक्सुअल ऑरगैज्म पर एक सम्मेलन हुआ था जिसमें इस विषय के विभिन्न पहलुओं पर बातचीत हुयी थी। सम्मेलन के विजुअल्स के साथ यह समाचार प्रसारित किया जाना था। समाचार बुलेटिन के संपादक ने वहां उपस्थित हम सभी संपादकों की ओर देखा और फिर मुझे कहा कि समाचार ऐसे लिखो कि पूरी बात दर्शकों की समझ में आ जाए और रत्तीभर भी शब्दों की अभद्रता और अश्लीलता न हो। यह तब की बात है जब दूरदर्शन समाचार की तूती बोलती थी। तब ढेर सारे बातूनी न्यूज चैनेल्स नहीं थे।
समाचारों में शब्दों के सटीक चयन की बात से याद आता है कि जब पंजाब में ‘आतंकवाद’ चल रहा था तो उन्हीं दिनों श्रीलंका में ‘उग्रवाद’ पनप रहा था. आप देखिए कि दोनों एक ही तरह की परिस्थितियां थीं पर हम लोग अलग-अलग परिप्रेक्ष्य के लिए भिन्न-भिन्न पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग कर रहे थे
बहरहाल, मैंने अंग्रेजी में लिखे टेक्स्ट को दो-तीन बार पढा और उसे एक ओर रख दिया। अपनी समझ के हिसाब से मैंने उस टेक्स्ट को अपने ढंग से रिकनस्ट्रक्ट किया और शालीन शब्दों का इस्तेमाल करते हुये पूरी बात कह दी कि सेक्सुअल ऑरगैज्म क्या होता है। मैं जानता था कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समाचार का कैसे अलग तरह का इम्पैक्ट होता है। पूरा परिवार एक साथ बैठकर समाचारों को सुनता है। वैसे भी, संवेदनशील समाचार को समाचारपत्र में स्वयं पढने और उसे टीवी चैनेल पर सुनने में अंतर तो है ही! समाचारवाचिका ने भी धीर-गंभीर मुद्रा के साथ यह समाचार पढा। दर्शक के नाते मुझे भी अच्छा लगा कि बिना किसी सनसनी के इतना संवेदनशील समाचार लिखा और पढा गया। इस संवेदनशीलता को मैंने भाषा के माधुर्य और चातुर्य तथा शब्दों के सटीक चयन और संयोजन से अश्लील नहीं होने दिया और उसकी जीवंतता भी बनाए रखी।
समाचारों में शब्दों के सटीक चयन की बात से याद आता है कि जब पंजाब में ‘आतंकवाद’ चल रहा था तो उन्हीं दिनों श्रीलंका में ‘उग्रवाद’ पनप रहा था। आप देखिए कि दोनों एक ही तरह की परिस्थितियां थीं पर हम लोग अलग-अलग परिप्रेक्ष्य के लिए भिन्न-भिन्न पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग कर रहे थे। यह ऐसे ही कुछ था जिस प्रकार अंग्रेज हुक्मरान भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को आतंकवादी मानते थे तो हम उन्हें क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी मानते हैं! पंजाब में जो कुछ हो रहा था वह चूंकि भारत राज्य के खिलाफ था, इसलिए ‘आतंकवाद’। दूसरी ओर, श्रीलंका में भारतीय मूल के तमिल लोग श्रीलंका राज्य के खिलाफ थे, इसलिए हमारे लिए वह ‘उग्रवाद’ मात्र था। आजकल तो क्या अखबार और क्या समाचार चैनेल, सबने अपने-अपने हिसाब से अपनी सनसनीखेज भाषा-शैली अपना ली है। भाषाई संयम का कम होना पत्रकारिता के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
समाचारों को लिखने का ढंग भी कई तरह से तय होता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि पानी की गगरी को आप आधा भरा हुआ या आधा खाली देखते हैं। उदाहरण के लिए यदि देश के किसी प्रांत में आजादी के बाद से अब तक 60 फीसद विद्युतीकरण हुआ है तो संवाददाता अपने-अपने परिप्रेक्ष्य के अनुसार समाचार लिखेगा। एक लिखेगा कि देश की आजादी के 66 वर्ष बाद भी फलां राज्य में केवल 60 फीसद ही विद्युतीकरण हो पाया है। दूसरा लिखेगा कि देश में भीषण गरीबी के बावजूद फलां-फलां राज्य आजादी के मात्र 66 वर्ष के भीतर 60 फीसद विद्युतीकरण करने में कामयाब रहा है। तीसरा यह भी लिख सकता है कि जब जनता के पेट में रोटी ही नहीं, तब विद्युतीकरण का मतलब ही क्या है। इस प्रकार, जितने संवाददाता उतने प्रकार की रिपोर्टें !
कुल मिलाकर यह कि पत्रकारिता एक मिशन का हिस्सा है और इसका निष्पादन इसी भावना से किया जाना चाहिए। पत्रकार का उत्तरदायित्व जनता के प्रति हो और आवश्यकता पडने पर सरकार को डपटने का उसमें साहस हो। पत्रकार जिस विषय पर लिख रहा हो, उसकी जनपक्षीय समझ का होना तो सबसे अधिक आवश्यक है क्योंकि पत्रकारिता वह अपने लिए नहीं, समाज के लिए करता है!
ऊपर वर्णित तत्व इस गुण के बाद ही महत्वपूर्ण हैं! मैथ्यू आर्नोल्ड कहते हैं कि पत्रकारिता जल्दबाज़ी में लिखा साहित्य है। हमारा कहना है कि यदि यह साहित्य है तो समाज का दर्पण है और समाज के लिए इसमें प्रतिबद्धता होनी आवश्यक है! संक्षेप में, ऑब्जेक्टिविटी और सब्जेक्टिविटी के बीच संतुलन बनाते हुये पत्रकारिता में जनपक्षीय सरोकारों के लिए सर्वोच्च स्थान होना चहिए।
सुरेश नौटियाल ने 1984 में पत्रकार के रूप में जार्ज फर्नांडिस द्वारा संपादित हिंदी साप्ताहिक “प्रतिपक्ष” से कैरियर आरंभ और अगले साल के आरंभ में इस पत्र से त्यागपत्र दिया। 1985 में दूरदर्शन समाचार में अतिथि संपादक के रूप में कार्य आरंभ और करीब 24 वर्ष यह काम किया। साथ ही, आठ-दस साल आकाशवाणी के हिंदी समाचार विभाग में भी अतिथि संपादक के रूप में कार्य किया। 1985 में ही “यूनीवार्ता” हिंदी समाचार एजेंसी में प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में कार्य आरंभ और 1993 में वरिष्ठ उप–संपादक पद से स्वेच्छा से त्यागपत्र दिया। 1994 में अंग्रेज़ी दैनिक “ऑब्ज़र्वर ऑफ बिजनेस एंड पालिटिक्स” संवाददाता के रूप में ज्वाइन किया और जनवरी 2001 में विशेष संवाददाता के रूप में त्यागपत्र दिया। 2001 अक्तूबर में “अमर उजाला” हिंदी दैनिक पत्र विशेष संवाददाता के रूप में ज्वाइन किया और अगले वर्ष जनवरी में छोड़ दिया। 2002 सितंबर से 2005 जून तक सी.एस.डी.एस. के एक प्रोजेक्ट में समन्वयक के साथ-साथ संपादक रहे। 2002 से 2012 तक स्वयं का हिंदी पाक्षिक पत्र “उत्तराखंड प्रभात” भी प्रकाशित किया। 2005 जुलाई से 2006 जनवरी तक सिटीजंस ग्लोबल प्लेटफ़ार्म का समन्वयक और संपादक रहे। 2006 मई से 2009 मार्च तक अंग्रेज़ी पत्रिका “काम्बैट ला” के सीनियर एसोसिएट एडीटर रहे और साथ ही इस पत्रिका के हिंदी संस्करण का कार्यकारी संपादक भी रहे।
2001 से निरंतर पी.आई.बी. (भारत सरकार) से मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार। 1985 से लेकर अब तक हिंदी-अंग्रेज़ी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति, पारिस्थितिकी, मानवाधिकार, सिनेमा सहित विभिन्न विषयों पर लेखन जारी।
सुरेश अनेक इंटरनेशनल संस्थाओं से जुड़े हैं। वे डेमोक्रेसी इंटरनेशनल, जर्मनी के बोर्ड मेम्बर हैं। ब्रुसेल्स स्थित ग्लोबल ग्रीन के सदस्य हैं। वे थिंक डेमोक्रेसी इंडिया के चेयरपर्सन भी हैं। स्वीडन स्थित फोरम फॉर मॉडर्न डायरेक्ट डेमोक्रेसी से भी जुड़े हैं।
सुरेश पत्रकार के अलावा एक आदर्शवादी एक्टिविस्ट भी हैं जो इससे जाहिर है की वे किस तरह से नौकरियां ज्वाइन करते रहे और छोड़ते रहे पर समझौता नहीं किया।