सुभाष धूलिया
मीडिया उद्योग एक तरह के सांस्कृतिक और वैचारिक उद्योग हैं। इन उद्योगों पर नियंत्रण का अर्थ होता है किसी देश की राजनीति और संस्कृति पर नियंत्रण. दुनिया के अनेक देशों में अमेरिकी सांस्कृतिक आक्रमण को लेकर असंतोष पनप रहा है जिनमें केवल विकासशील देश ही नहीं बल्कि यूरोप के अनेक विकसित देश भी शामिल हैं. नव उदारवादी भूमंडलीकरण के झंडावरदार विश्व व्यापार संगठन में यह मांग भी उठाई गई थी की इन संस्कृति को व्यापार से अलग रखा जाए लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया और आज विचार और संस्कृति दोनों ही व्यापार के अधीन दिखाई पड़ते हैं. व्यापरिकृत मीडिया मुनाफे से संचालित होता है. मुनाफे को अधिकतम स्तर पर पहुँचने ले लिए बाज़ार की होड़ पैदा हुयी । इसके कारण एक नरम (सॉफ्ट) मीडिया का उदय हुआ है जो कडे-कठोर विषयों का नरमी से पेश कर लोगों को रिझाना चाहता है और कुल मिलाकर इस तरह गंभीर राजनीतिक विमर्श ह्रास हो रहा है।
इस बाजार होड के कारण मीडिया उन उत्पादों की ओर झुकने लगा जो व्यापक जनसमुदाय को आकृष्ट कर सकें। यह मीडिया तंत्र पर उन वैश्विक ताकतों का नियंत्रण है जो अपने व्यापारिक एजेंडा थोपने के लिए राजनीतिक, सामाजिक और संस्कृतिक जीवन के हर पक्ष का मनोरंजनीकरण कर रहे हैं। आज विज्ञानं से लेकर खेल तक हर चीज मनोरंजन है बाजार को हथियाने की होड़ में ‘इन्फोटेनमेंट’ नाम के नये मीडिया उत्पाद का जन्म हुआ है जिसमें सूचना के स्थान पर मनोरंजन को प्राथमिकता मिलती है। इसके तहत सूचना की विद्गायवस्तु बौद्धिक स्तर पर इतनी हल्की और मनोरंजक बना दी जाती है कि वह एक विच्चाल जनसमुदाय को आकृष्ट कर सके।
मनोरंजन से अधिक लोगों को आकृष्ट किया जा सकता है लेकिन अत्यधिक मनोरंजन से सूचना के तत्त्व का ह्रास होता है ओर इस प्रक्रिया में मीडिया लोगों को सूचना देने के बजे उन्हें लुभाकर विज्ञापनदाताओं के हवाले करता है ।अनेक अवसरों पर इस तरह के समाचार और समाचार कार्यक्रम पेच्च किये जाते है कि वे लोगों का ध्यान खींच सकें भले ही साख और विश्वनीयता के स्तर पर वे कार्यक्रम खरे न उतरते हों।नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के उदय के उपरांत उपभोक्ता की राजनीति और उपभोक्तावादी संस्कृति का उदय हुआ और इसका सीधा असर समाचारों पर पड़ा। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में नये-नये उपभोक्ता उत्पाद बाजार में आए और इनको बेचने के लिए नयी-नयी मीडिया तकनीकों का इस्तेमाल किया गया जिसके परिणामस्वरूप ‘सेलेब्रिटी लाइफस्टाइल’ पत्रकारिता का उदय हुआ। एक नये मेट्रो बाजार का उदय हुआ और इसके अनुरूप नये-नये उपभोक्ता उत्पादों की बाढ -सी आ गयी लेकिन देर सवेर इस बाजार इस बाजार की मांग में ठहराव आना स्वाभाविक है।
इस स्थिति में बााजार और समाचार के संबंध भी प्रभावित होंगे। इसके साथ ही ‘पॉलिटिकॉटेनमेंट’ की अवधारणा का भी उदय हुआ है जिसमें राजनीति और राजनीतिक जीवन पर मनोरंजन उद्योग हावी हो रहा है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के विद्गायों का चयन, इनकी व्याखया और प्रस्तुतीकरण पर मनोरंजन के तत्व हावी होते चले जा रहे हैं। कई मौकों पर बडे राजनीतिक विषयों को सतही रूप से और तमाशे के रूप में पेश किया जाता है और आलोचनात्मक होने का आभास भर पैदा कर वास्तविक आलोचना किनारे कर दी जाती है। कई अवसरों पर टेलीविजन के परदे पर प्रतिद्वंदी राजनीतिज्ञों की बहसों का इस दृद्गिट से मूल्यांकन करें तो यह तमाशा ही अधिकनज र आता है। इन बहसों में वास्तविक विषयों और विभिन्न राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य नदारद रहते हैं। इस तरह के कार्यक्रम बुनियादी राजनीति मदभेदों के स्थान पर तू तू-मैं मैं के मनोरंजन की ओर ही अधिक झुके होते हैं। इससे अनेक बुनियादी सवाल पैदा होते हैं और राजनीति के इस सतहीकरण और एक हद तक विकृतीकरण से लोकतंत्र के हृास का आकलन करना जरूरी हो जाता है।
व्यापारीकरण के उपरांत राजनीतिक जीवन और राजनीतिक मुद्दों के सतहीकरण और मनोरंजनीकरण का रुझान प्रबल हुआ है। राजनीति और राजनीतिक जीवन के सतहीकरण की इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा हथियार सेलेब्रिटी संस्कृति का उदय है। सेलीब्रिटीज का राजनीति में प्रवेच्च हो रहा है जिससे राजनीतिज्ञ सेलेब्रिटीज बन रहे हैं। सेलेब्रिटी संस्कृति की वजह से राजनीतिक विमर्च्च के संदर्भ में एक नये टेलीविजन का उदय हुआ है। इससे वास्तविक मुद्दों को दरकिनार कर सतही मुद्दों पर जोर दिया जाता है और कई अवसरों पर तो गैर-मुद्दे भी मुद्दे बना दिए जाते हैं। गैर-मुद्दों को मुद्दा बना देने का रुझान का कुछ विचित्र आयाम ग्रहण कर रहा है। व्यापारीकरण और उपभोक्ता संस्कृति के समानांतर एक नई राजनीतिक संस्कृति का भी उदय हुआ है जिसमें पत्रकारिता और पत्रकार अपनी स्वायतता काफी हद तक खो चुकें हैं और व्यापारिक हितों के अधीन होने को वाध्य हैं ।
इस कारण उपभोक्ताओं को आकृष्ट करने की होड में समाचारों को मनोरंजन के तत्वों का विस्तार होता जा रहा है और किसी तरह के भी पत्रकारीय प्रतिरोध का स्पेस सीमित हो गया है । मीडिया के जबरदस्त विस्तार और चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों के कारण भी समाचारों की मांग बेहद बढ गयी जिसकी वजह से ऐसी अनेक घटनाएं भी समाचार बनने लगी जो मुखयधारा की पत्रकारिता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थी। शीत युद्ध के दौरान विचारधारात्मक राजनीतिक संघर्ष समाचारों के केंद्र में होते थे और लोगों की इनमे रूचि भी होती थे क्योंकि इनका परिणाम उनके जीवन और भविष्य को प्रभावित करता था । विकास की गति बढ ने से ऐसे सामाजिक तबकों का उदय हुआ जो उन तमाम मुद्दों के प्रति उदासीन होते चले गए जो इससे पहले तक ज्वलंत माने जाते थे और क्योंकि व्यापारित मीडिया का सरोकार इसी तबके से था इसलिए इसकी रुचियों तक ही मीडिया सीमित होता चला गया और वे समाचार हासिये पर जाते चले गए जिनका समाज के व्यापक तबकों से सरोकार था। इसी के समानांतर अतिरिक्त क्रय शक्ति वाले सामाजिक तबके के विस्तार के कारण मीडिया के व्यापारीकरण का दौर भी शुरू हुआ।
यह नया तबका ही बाजार था और इस बाजार ने एक नया सामाजिक माहौल पैदा किया जिसमें ‘ज्वलंत’ समाचार ‘ज्वलंत’ नहीं रह गये और एक तरह की अराजनीतिकरण की प्रक्रिया द्राुरू हुई। अराजनीतिकरण की यह प्रक्रिया समाचारों से शुरू हुई और फिर स्वयं समाचारों के चयन को ही प्रभावित करने लगी। इस कारण भी समाचारों का मूल स्वभाव और चरित्र प्रभावित हुआ और व्यापारीकरण की गति तेज हुई। लेकिन व्यापारीकरण की इस प्रक्रिया के प्रभाव और परिणामों के संदर्भ में विकसित और विकासशील देशों के बीच एक बड़ा बुनियादी अंतर है। विकसित देशों में व्यापारीकरण की यह प्रक्रिया तब द्राुरू हो गयी जब लगभग पूरा समाज ही विकास का एक स्तर हासिल कर चुका था। लेकिन विकासशील देशों में विकास की यह प्रक्रिया तभी द्राुरू कर दी गयी जब समाज का एक छोटा-सा तबका ही विकसित की श्रेणी में आ पाया था।
विकासच्चील देशों में विकासशीलता के दौर में मीडिया से सहभागी होने की अपेक्षा की जाती थी जो संभव नहीं हो पायी और व्यापारीकरण के कारण विकास का एजेंडा काफी हद तक किनारे हो गया। विकासच्चील समाज पर व्यापारीकरण की इस प्रक्रिया के प्रभाव और परिणामों का सही मूल्यांकन कर पाना अभी संभव नहीं दिखता लेकिन इतना अवच्च्य कहा जा सकता है कि इसके नकारात्मक परिणाम सकारात्मक परिणामों की तुलना में कहीं अधिक व्यापक और गहरे होने जो रहे हैं। अपेक्षतया बौद्धिक रूप से कुशल उपभोक्ता-नागरिक और एक विकासशील समाज के एक ‘आम’ नागरिक पर एक ही तरह के मीडिया उत्पाद का प्रभाव भिन्न होगा- कहीं यह मनोरंजन-रोमांच पैदा कर सकता है, तो अन्यत्र यह वैज्ञानिक सोच पर कुठाराघात कर अन्धविश्वाश की जडों को गहरा कर सकता है।