सुभाष धूलिया
तानाशाहियों की तुलना में मुक्त समाजों में सेंसरशिप असीमित रूप से कही अधिक परिष्कृत और गहन होती है क्योंकि इस से असहमति को चुप कराया जा सकता है और प्रतिकूल तथ्यों को छिपाया जा सकता है- जोर्ज ऑरवेल
आज की दुनिया औपचारिक रूप से अधिक लोकतान्त्रिक है लेकिन फिर भी लोगों को लगता है की उनके समाज के बुनियादी फैसले अधिकाधिक उनके नियंत्रण से बाहर होते जा रहे हैं- रॉबर्ट मैकचेस्नी
पिछले तीन दशकों में मानव विकास की दिशा और दशा मैं बुनियादी परिवर्तन आये हैं । समाज पर व्यापार के आधिपत्य की नवउदारवादी विचारधारा आज विश्व राजनीति के केंद्र में हैं । नवउदारवाद का आधार एक उपभोक्ता समाज और विश्व को एक बाज़ार में तब्दील कर देना है । एक ऐसे समाज का निर्माण है जिस पर व्यापार का प्रभुत्व हो इस तरह की व्यवस्था कायम करने मैं मीडिया की केंद्रीय भूमिका है । अस्सी-नब्बे के दशक की कुछ घटनाओं ने राजनीतिक, आर्थिक और सूचना संचार की अंतर्राद्गट्रीय व्यवस्थाओं को एक तरह से फिर से परिभाषित कर दिया जिससे विश्व राजनीति के चरित्र और स्वभाव में बड़े परिवर्तन आए।
अस्सी के दशक में विकास के सोवियत समाजवादी मॉडल के चरमराने की प्रक्रिया शुरू हुई और 1991 में सोवियत संघ का अवसान हुआ। इस घटना को पश्चिमी उदार लोकतंत्र और मुक्त अर्थव्यवस्था की विजय के रूप में देखा गया। इसी दशक में सूचना क्रांति ने भी बेमिसाल ऊँचाइयां हासिल की और इसी के समांतर दुनिया भर में मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर उन्मुख आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया भी शुरू हुई।
शीतयुद्धकालीन वैचारिक राजनीति के अवसान के उपरांत नवउदारवादी भूमंडलीकरण से एक नए व्यापारिक मूल्यों और एक नयी उपभोक्ता संस्कृति का उदय हुआ। इन सबका जबरदस्त प्रभाव जनसंचार माध्यमों पर भी पड़ा। जनसंचार माध्यम काफी हद तक इस प्रक्रिया का हिस्सा बन गये और राजनीतिक और व्यापारिक हितों के अधीन होते चले गए। व्यापारीकरण की यह प्रक्रिया आज अपने चरम पर है। भले ही विभिन्न देशों और विभिन्न समाजों में इसका रूप-स्वरूप कितना ही भिन्न क्यों न हो।
शीतयुद्ध के बाद दो विचारधाराओं के बीच संघर्ष का अंत हो गया। पश्चिम की पूंजीवादी विचारधारा ही प्रभुत्वकारी बन गयी और इसका कोई वास्तविक रूप से प्रभावशाली विकल्प नहीं उभर पाया। इन कारणों से शैली की पश्चिमी उदार लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक स्तर पर मुक्त अर्थतंत्र और नवउदारवादी भूमंडलीकरण- यही आज की विश्व व्यवस्था के मुखय स्तंभ हैं। राजनीतिक अर्थव्यवस्था के इस स्वरूप के अनुरूप ही सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य ढल रहे हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था में पश्चिमी जीवन शैली और सांस्कृतिक मूल्यों का ही विस्तार हो रहा है और वैश्विक मीडिया इसमें अग्रणी भूमिका अदा कर रहा है। सांस्कृतिक समरूपीकरण प्रक्रिया को जन्म दे रहा है । राजनैतिक स्तर पर यह पश्चिमी उदार लोकतंत्र, आर्थिक स्तर पर मुक्त आर्थिकव्यवस्था और सांस्कृतिक स्तर पर पश्चिमीकरण की प्रक्रिया दिनोदिन तेज़ होती जा रही है. एक बहुरंगी और विविध दुनिया को समरूप बनकर एक वैश्विक सुपर मार्केट में तब्दील होती प्रतीतं होती है ।
इस संदर्भ में सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की अवधारणा भी नया स्वरूप ग्रहण कर रही है और आज यहपहले से कहीं अधिक व्यापक, गहरी और विशालकाय हो चुकी है। वैच्च्िवक सूचना और संचार तंत्र पर आज पश्चमी देशों का नियंत्रण और प्रभुत्व उससे कहीं अधिक मजबूत हो चुका है जिसे लेकर कुछ दशकपहले विकासशील देशों में विरोध के प्रबल स्वर उठ रहे थे। नयी विश्व व्यवस्था ने विकासशील देशों कीउन तमाम दलीलों को ठुकरा दिया जो उन्होंने विश्व में एक नयी सूचना और संचार व्यवस्था कायम करनेके लिए छठे और सातवें दच्चक में पेश की थीं और जिन्हें 1980 में यूनेस्को में मैक्ब्राइड कमीच्चन की रिपोर्ट के रूप में एक संगठित अभिव्यक्ति प्रदान की। विकासशील देश विश्व में सूचना और समाचारों के प्रवाह में संतुलन की मांग करे रहे थे लेकिंग नयी विश्व व्यवस्था में एकतरफI प्रवाह ही अधिक तेज़ हो गया . इसी दौरान सूचना क्रांति एक ऐसी मंजिल तक पहुंच चुकी थी जिसमें दूरसंचार, सेटेलाइट और कंप्यूटर प्रौद्योगिकी के बल पर एक ऐसे तंत्र का उदय हुआ जिसमें सूचना समाचारों के प्रवाह पर किसी भी तरह का अंकुच्च लगाना संभव ही नहीं रह गया। विकासच्चील देच्च सूचना-समाचारों के लिए एकतरफा प्रवाह की च्चिकायत करते थे उसका आवेग इस नये दौर में अब पहले से कहीं अधिक तेज हो गया और इसे रोक पाना वास्तविक रूप से संभव नहीं रह गया था। शीत युद्ध के बाद उभरी विश्व व्यवस्था में विकासशील देशों सामूहिक सौदेबाजी की क्षमता क्षीण हो गयी है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन और विकासशील देशों के अन्य संगठन या तो अपना अर्थ खो बैठे या अप्रसांगिक हो गए। इसका मुख्य कारण यह था कि विकासशील देशों में इस मांग को उठाने वाले अधिकांच्च देच्चों ने आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के मॉडल का रास्ता छोड़कर नवउदारवादी भूमंडलीकरण का रास्ता अपना लिया था।
विकासशील देशों सरकारों के स्तर पर इस तरह के प्रभुत्व का कोई प्रतिरोध न होने के कारण एक सीमा तक यह प्रतिरोध धार्मिक कट्टरपंथ जैसे नकारात्मक रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। नयी विश्व व्यवस्था राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से पश्चिम का दबदबा है और वैश्विक मीडिया को भी यही नियंत्रित करता है। मीडिया पर नियंत्रण का मतलब किसी भी व्यक्ति, देश , संस्कृति, समाज आदिकी छवि पर भी नियंत्रण करना है । मीडिया ऐसे मूल्य और मानक तय करता है जिनसे सही-गलत, सभ्य- असभ्य के पैमाने निर्धारित होते हैं। इसी निर्धारण से सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की सीमा शुरू नब्बे के दशक में दुनिया भर में नवउदारवादी आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ। इस दौरान निजीकरण और नयी प्रौद्योगिकी की मदद से उत्पादकता और कुशलता में तेज इजाफा हुआ। निजी क्षेत्र का उद्योग नयी प्रौद्योगिकी को आत्मसात करने में अधिक गतिच्चील साबित हुआ और जिसकी वजह से इसकी उत्पादकता और कुशलता में भारी वृद्धि हुई और संपति के सृजन की इसकी क्षमता नये आसमान छूने लगी। इसी दौरान सार्वजनिक क्षेत्र पर टिकी अर्थव्यवस्था जड ता का च्चिकार होती चली गयी औरचंद अपवादों को छोड कर सार्वजनिक प्रतिद्गठान आर्थिक रूप से टिकाऊ साबित नहीं हो सके। उदारीकरण और निजीकरण के इस दौर में आर्थिक समृद्धि का एक बड़ा उफान आया और एक नया वर्ग पैदा हुआ जिसके पास अच्छी खासी क्रय द्राक्ति थी और यह पारंपरिक मध्यमवर्ग की तुलना में कहीं बड ा उपभोक्ता था। आज जो उपभोक्ता क्रांति देखने को मिल रही है उसका झंडाबरदार यही वर्ग है। यह उपभोक्ता क्रांति अभी जारी है और एक नये दौर की मीडिया क्रांति इसी वर्ग पर टिकी है। इस नये बाजार केउदय के बाद अन्य उपभोक्ता उत्पादों के साथ-साथ मीडिया उत्पादों की मांग में भारी वृद्धि हुई। मीडिया उत्पादों के वैश्विक प्रवाह के बाधाविहीन बनने के बाद एक नए तरह का सूचना और संचार का प्ररिदृश्य पैदा हुआ है। समाज के नए-नए तबके मीडिया बाजार में प्रवेश कर रहे हैं और अपनी क्रय शक्ति के आधार पर मीडिया उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं। सूचना की इस क्रांति के उपरांत दुनिया में जितना संवाद आज हो रहा है वो बेमिसाल हैं लेकिनइस इस संवाद का आकार जितना बड़ा है इसकी विषयवस्तु उतनी हे सीमित होती जा रही है। लोग अधिकाधिक मनोरंजित होते जा रहे हैं और अधिकाधिक कम सूचित/जानकर होते जा रहे हैं । इसी दौरान लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र में ही भारी बुनियादी परिवर्तन आए और इसी के अनुरूप मीडिया तंत्र के साथ इसके संबंध पुनः परिभाषित हुए। विश्व भर में आर्थिक विकास से उपभोक्ताओं कीनयी पीढ का का उदय हुआ। इससे मीडिया के लिए नये बाजार पैदा हुए और इस बाजार में अधिक से अधिक हिस्सा पाने के लिए एक नयी तरह की बाजार होड पैदा हुई।दरअसल नवउदारवादी भूमंडलीकरण की मौजूदा प्रक्रिया एक ”टोटल पैकेज” है जिसमें राजनीति, आर्थिक और संस्कृतिक तीनों ही पक्ष शामिल हैं। मीडिया नयी जीवन शैली और नये मूल्यों का इस तरह सृजन करता है जिससे नये उत्पादों की मांग पैदा की जा सके और एक बाजार का सृजन किया जा सके। अनेक अवसरों पर मीडिया ऐसे उत्पादों की भी मांग पैदा करता है जो स्वाभाविक और वास्तविक रूप से किसी समाज की मांग नहीं होते हैं। मीडिया और मनोरंजन उद्योग का तेजी से विस्तार इसी उपभोक्ता क्रांति के बल पर हो रहा है। इन रूझानों के चलते 1990 के दशक में मीडिया के व्यापारीकरण का नया दौर शुरू हुआ जिसकी गति और आकार अपने आप में बेमिसाल थी। इस दौर में मीडिया व्यापार की ओर अधिकाधिक झुकता चला गया और सार्वजनिक हित की पूर्ति करने की इसकी भूमिका ह्रास हुआ। मीडिया अब सार्वजनिक-व्यापारिक उद्यम से हटकर व्यापारिक-सार्वजनिक उद्यम बन गया जिसे व्यापारिक हित ही संचालित करतें हैं । आज मीडिया के व्यापारीकरण की यह प्रक्रिया अपने चरम पर है।सूचना क्रांति से एक ऐसे वैश्विक गाँव का उदय हुआ जो दुनिया के सम्पनों के एकीकरण से जन्मा है । सूचना समाचारों और इस तरह के मीडिया उत्पदों का प्रवाह बाधाविहीन होने के उपरांत वैश्विक मीडिया के स्वरूप में भी बडा परिवर्तन आया। पहले वैश्विक मीडिया विश्व भर में सूचना और समाचारों के प्रवाह का नियंत्रण करता था लेकिन उसका काफी हद तक एक देश के भीतर इसका सीधा नियंत्रण नहीं होता था, यानी नियंत्रण का स्वरूप अप्रत्यक्ष था और ये संगठनों के माध्यम से उस देश के ही घरेलू बाजार में मीडिया उत्पाद वितरित करते थे। लेकिन आज वैश्विक मीडिया का प्रसार देश की सीमा के भीतर तक हो चुका है जहां वह प्रत्यक्ष रूप से मीडिया के बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें तमाम राजनितिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दीवारें ढह रहीं हैं जो परंपरागत रूप से एक तरह के सुरक्षा कवच का काम करतीं थीं ।