गोविन्द सिंह
‘गाँधी संभवतःअब तक के सर्वश्रेष्ठ पत्रकार थे. और जो साप्ताहिक उन्होंने निकाले या संपादित किये, वे दुनिया के इतिहास में शायद महानतम साप्ताहिक पत्र थे’. – चेलापति राव
गाँधी जी के पत्रकार कर्म पर प्रख्यात पत्रकार स्व. चेलापति राव का यह कथन शायद सबसे सटीक टिप्पणी है.आज के युग में, जब व्यावसायिकता की आंधी आई हुई है, मुनाफे की आग में तमाम तरह की नैतिकताएं झुलस रही हैं, गाँधी जी बरबस याद आते हैं. गाँधी जी की पत्रकारिता न सिर्फ अपने समय के पेशेवर मानदंडों पर खरी उतरती है, बल्कि उन्होंने पत्रकारिता को सच्चे अर्थों में देश और समाज के हितों से जोड़ने का काम किया. सत्य के साथ अपने प्रयोगों और अपने विचारों को जनता तक पहुंचाने के लिए गांधी जी ने पत्रकारिता को एक औजार की तरह इस्तेमाल किया. गांधी जी का संचार किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं था, वह अपनी पत्रकारिता के माध्यम से समाज की अंतिम सीढी तक पहुंचना चाहते थे. उनकी भाषा और शैली अत्यंत सरल और सहज थी, जो समाज के हर तबके के समझने लायक थी. अपनी पत्रकारिता के जरिये गाँधी जी ने राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन को जन-जन तक पहुंचाया और बदले में पत्रकारिता ने गांधी जी को अपने प्रयोगों और विचारों को दिशा देने का काम किया. अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में गाँधी जी लिखते हैं कि ‘इंडियन ओपिनियन मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है…हफ्ता दर हफ्ता मैं इसके विभिन्न कॉलमों में अपनी आत्मा को उँडेलता रहा.’
गाँधी जी की पत्रकारिता की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी पत्रकारिता का लक्ष देश-समाज की उन्नति था, उस समाज की उन्नति, जिसमें वे रहते थे. वे जानते थे कि जिस समाज में वे रहते हैं, वह मूलतः वैसा नहीं था, जैसा कि वह दिखता है. उन्हें बरबस यह लगता था कि आज जिस तरह कि अशिक्षा, अंध-विश्वास और कुरीतियों में हिन्दुस्तानी लोग जी रहे हैं, जिस तरह की कूपमंडूकता में वे रह रहे हैं, जितने कमजोर और पिछलग्गू वे बन गए हैं, वास्तव में वे वैसे हैं नहीं. वे दुनिया के सामने सर उठा कर चलने लायक नहीं हैं तो उसकी कोई तो वजह होगी. इसलिए वे अपने जीते जी भारत और इसके वासियों को उस मुकाम पर खडा देखना चाहते थे, जहां से वे दुनिया की आँखों में सीधे देख सकें. इसलिए गाँधी जी भारतवासियों को तन-मन-धन से सबल बनाना चाहते थे. बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि वे भारतीयों को सबसे ज्यादा आत्मबल में मजबूत बनाना चाहते थे. इसलिए वे पाश्चात्य शिक्षा का भी विरोध करते थे. उन्हें लगता था कि जिस तरह की पाश्चात्य शिक्षा भारतीयों को दी जा रही है, उससे भारतीयों का स्वाभिमान जाता रहेगा. इसलिए धन-संपत्ति से भलेही भारतीय सबल हो जाएँ, लेकिन जब तक भीतर से वे आत्मनिर्भर नहीं होंगे, तब तक वे अंग्रेजों से नजरें मिला कर बात नहीं कर पायेंगे. इसके लिए वे चाहते थे कि भारतीयों का समग्रता में विकास हो, इसको पाने के लिए जरूरी था कि भारतीय जीवन शैली की स्थापना हो. इन तमाम लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वे पत्रकारिता को सबसे बड़ा हथियार मानते थे. इसलिए वकालत की पढाई के लिए लन्दन जाने के बाद जब उन्होंने अपने जीवन-लक्ष पर विचार किया तो उन्हें पत्रकारिता की जरूरत महसूस हुई.
गाँधी जी सन 1888 में लन्दन गए, तब उनकी उम्र 19 वर्ष थी. उससे पहले उन्होंने अखबार नहीं पढ़ा था. सिर्फ उनकी भारत से विदाई का समाचार काठियावाड़ समाचार में छपा तो उन्होंने उसे देखा. लेकिन लन्दन जाकर उन्होंने अखबार के महत्व और उसकी ताकत को जाना और समझा. 1890 में लन्दन की वेजिटेरियन सोसाइटी के पत्र ‘द वेजिटेरियन’ में उनके छः लेख प्रकाशित हुए. ये लेख शाकाहार के महत्व पर तो थे ही, साथ ही भारतीय जीवन-शैली के महत्व को भी प्रतिपादित करते थे. लन्दन में रहते हुए उन्हें भारतीय जीवन और चिंतन पर सोचने-विचारने का अवसर मिला. और उन्होंने पश्चिमी जीवन के बरक्स भारतीय जीवन को रखकर देखा. उसे समझा, महसूस किया और अभिव्यक्त किया. उन्होंने वहाँ दादाभाई नौरोजी के पत्र ‘इंडिया’ के लिए संवाद लिखने का काम किया. 1891 में वे वकालत पूरी करके भी लौट आए. उसके बाद उनकी असली पत्रकारिता शुरू हुई दक्षिण अफ्रीका जाकर. उन्होंने देखा कि दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों के पास अपनी बात कहने का कोई मंच नहीं है. इसलिए उन्होंने 1903 में ‘इंडियन ओपिनियन’ निकाला. वह भी केवल एक भाषा में नहीं, अंग्रेज़ी, गुजराती, हिंदी और तमिल में निकाला. ताकि भारतीयों को एक सबल आवाज मिल सके. इस पत्र को निकालने के लिए वे भोर में तीन बजे उठ जाते थे. और इसी ब्राह्म मुहूर्त में वे अपने विचारों को आकार देने का काम करते थे. निश्चय ही उनके प्रयोगों को व्यावहारिक मुकाम तक पहुंचाने में इंडियन ओपिनियन की बड़ी भूमिका है.
बाद में भारत लौटकर गाँधी जी ने अपने आन्दोलन की भावभूमि भी अखबारों के जरिये ही तैयार की. उन्होंने स्वदेश लौटकर छोटे-बड़े कुल छः अखबार निकाले या संपादित किये. इनमें सत्याग्रही (1919), नवजीवन (1919), यंग इंडिया (1919), तरुण भारत (1921), हरिजन (1933), हरिजन सेवक (1933) और हरिजन बंधु (1933) प्रमुख हैं. इन सभी अखबारों का अपना महत्व रहा है. वे भाषा की ताकत समझते थे. इसीलिए तमाम क्षेत्रीय भाषाओँ का भी सम्मान करते थे. दक्षिण अफ्रीका जैसे देश में उन्होंने अंग्रेज़ी के साथ साथ हिंदी, गुजराती और तमिल में भी अखबार निकाला था. वे जनता के पैसे से ही अखबार का खर्च निकालने के पक्षधर थे. इसलिए उनके अखबारों में विज्ञापन नहीं होते थे. वे ग्राहक-चंदे से ही अखबार की लागत निकालते थे. उन्होंने कहा है कि ‘अखबारों के लिए विज्ञापन लेना एक आवश्यक बुराई बन गया है. उसके नतीजे बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हैं.
एक तरफ अपने सम्पादकीय पन्नों पर अखबार शराबखोरी का विरोध करते हैं, वहीं दूसरी तरफ उसी अंक में शराब की तारीफ़ के विज्ञापन भी छापते हैं. इसी तरह से तम्बाकू के विज्ञापन और उसके विरोध में लेख छापते हैं. कई बार विज्ञापन अनैतिकता को भी बढ़ावा देते हैं. हर अखबार की यह जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे विज्ञापनों से खुद को दूर रखे. विज्ञापन की यह कुप्रवृत्ति पश्चिम से आई है. लेकिन हम इस पर ध्यान नहीं देते.’ गाँधी जी ने अपने अखबारों को इसीलिए इस प्रवृत्ति से बचा कर रखा था. बाद के वर्षों में जब उनकी व्यस्तता बहुत बढ़ गयी और उन्हें बार-बार जेल जाना पड़ता था, तब हरिजन का प्रसार बुरी तरह से प्रभावित हुआ. तब उन्हें हरिजन बंद करना पड़ा. उन्होंने एक पत्र में कहा भी कि यदि हरिजन का प्रसार 12 हज़ार भी हो जाए तो वह आत्मनिर्भर हो जाएगा. और उसे फिर से निकाला जा सकेगा.
गांधी जी की पत्रकारिता को यद्यपि मिशनरी पत्रकारिता कहा जाता है, लेकिन इससे भी ज्यादा वह विचार पत्रकारिता है. क्योंकि गांधी जी ने पत्रकारिता को अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के हथियार के तौर पर चुना. आरम्भ में जब उनका आमना-सामना पश्चिमी मूल्यों से हुआ, तब उन्होंने अपने भारतीय मूल्यों की रक्षा के लिए पत्रकारिता की. उसके बाद दक्षिण अफ्रीका जाने के बाद जब उन्होंने देखा कि वहाँ की गोरी सरकार नस्लभेद के जरिये वहाँ के तमान काले और गेहुए लोगों पर अत्याचार करती थी. उन्होंने रंगभेद और नस्लभेद के खिलाफ आवाज उठाई. और अखबारों को इसका हथियार बनाया. फिर वे भारत आये और उन्होंने अपना आगे का जीवन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष को समर्पित कर दिया.
इस काम के लिए उन्होंने पूरे देश को इकठ्ठा किया. गाँव और शहर, अमीर और गरीब, राजे-महाराजे और ब्रिटिश सरकार के मुलाजिम, लगभग हर वर्ग के लोगों को इस आन्दोलन से जोड़ने की कोशिश की. केवल अंग्रेजों पर ही प्रहार नहीं किया, बल्कि हमारे भीतर जो भी कमियाँ हैं, उन सबको उन्होंने निशाने पर लिया. इसका एक ही मकसद था कि अपने भीतर इतनी ऊर्जा पैदा करो कि अंग्रेजों से मुकाबले के लायक बन सकें. इस महान कार्य के लिए उन्होंने जो हथियार चुने उनमें से पत्रकारिता सबसे ऊपर है. हिन्द स्वराज के तौर पर भावी भारत की परिकल्पना को आकार देने का प्रकल्प हो या सत्याग्रह और अहिंसा जैसे उनके अस्त्र हों, यदि पत्रकारिता न होती तो गाँधी जी उन्हें जन-जन तक नहीं पहुंचा पाते. अपने अहिंसक संघर्ष के जो तौर-तरीके उन्होंने चुने, वे विशुद्ध रूप से भारतीय थे. चरखा, उपवास, मौन व्रत या अनशन नाम के हथियार इतने जाने-पहचाने थे कि उन्हें जनता ने हाथों हाथ लिया. और यह सब हुआ पत्रकारिता के बल बूते पर. धर्म- अध्यात्म, शांति और सद्भाव, ग्राम स्वराज यानी ग्राम की जिंदगी को स्थापित करना, अर्थव्यवस्था का न्यासवादी विचार गाँधी जी की वैचारिक यात्रा के महत्वपूर्ण बिंदु थे. गाँधी जी के पत्र इन तमाम औजारों को स्वर देने का काम करते थे.
ऐसा नहीं कि गाँधी जी के अखबार पूरे देश में प्रसारित होते थे. उस समय इतना प्रसार संभव भी नहीं था. लेकिन गाँधी जी ने अपने अनुयायियों का एक ऐसा विशाल समूह तैयार कर लिया था, जो उन्हीं की तरह से सोचते-विचारते और व्यवहार करते थे. उनकी दैनंदिन सक्रियता भी वैसी ही रहती थी जैसी कि गाँधी जी की. मसलन वे सब भी चरखा कातते थे, वे भी खडी पहनते थे, वे भी डायरी लिखते थे. और वे भी गाँधी जी की ही तरह लिखते-पढ़ते थे और अखबारों में लेख लिखते थे या खुद अखबार निकालते थे. इस तरह पूरे देश में इसी नेटवर्क के जरिये गंध जी के विचार फैले और स्वाधीनता आन्दोलन को गति मिली. पूरे देश में गाँधी जी की पत्रकारिता फैली. चूँकि वे स्वयं ही एक ब्रांड थे, अपनी पीआर एजेंसी स्वयं थे, वे मन और कर्म से सामान थे, इसलिए उनके सन्देश को देश के कोने-कोने तक पहुँचने में देरी नहीं लगी. सचमुच गाँधी एक समग्र पत्रकार थे.
लेखक भारतीय जन सन्चार संस्थान (IIMC) में प्रोफेसर और कोर्स डायरेक्टर हैं.