अतुल सिन्हा।
करीब डेढ़ दशक पहले जब टेलीविज़न न्यूज़ चैनल्स की शुरुआत हुई तो इसकी भाषा को लेकर काफी बहस मुबाहिसे हुए … ज़ी न्यूज़ पहला न्यूज़ चैनल था और यहां जो बुलेटिन बनते थे उसमें हिन्दी के साथ साथ अंग्रेज़ी भी शामिल होती थी जिसे बोलचाल की भाषा में ‘हिंग्लिश’ कहा जाने लगा। फिर ये मुद्दा उठा कि टीवी चैनल्स हिन्दी को बरबाद कर रहे हैं – खासकर अखबारों में इस्तेमाल होने वाली भाषा और टीवी की भाषा में काफी फर्क होता। मिसाल के तौर पर अखबारों में जो खबर हिन्दी के मुश्किल शब्दों और मुहावरों के साथ लिखी होती, उसे टीवी में लिखने के लिए अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल होने लगा – जैसे अखबार यदि एक खबर को कुछ यूं लिखते – ‘लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में विज्ञान और प्रोद्योगिकी मंत्री ने कहा कि…’ तो न्यूज़ चैनल में इसे कुछ इस तरह पढ़ा जाता ‘लोकसभा में एक सवाल के जवाब में साइंस और टेक्नॉलॉजी मंत्री या मिनिस्टर ने कहा…’
यानि उर्दू और अंग्रेज़ी के इस्तेमाल से टीवी की भाषा को बोलचाल की भाषा बनाने की कोशिश की गई। इसका असर ये हुआ कि अखबारों में भी बोलचाल की भाषा इस्तेमाल करने की कोशिश हुई।
एनडीटीवी ने जब स्टार न्यूज़ का हिन्दी चैनल शुरू किया तो वहां पूरी तरह अनुवाद के आधार पर खबरें लिखी जाती रहीं। भाषा को दुरुस्त करने के नाम पर मृणाल पांडे को इससे जोड़ा गया लेकिन बोलचाल की भाषा की बजाय यहां हिन्दी के परंपरागत और जटिल शब्दों का इस्तेमाल बढ़ा – मसलन – स्वीकारोक्ति, प्रस्तावना, विद्वता, अनहद, संतुष्टि, वाचाल आदि…
लेकिन दूरदर्शन पर आधे घंटे के समाचार कार्यक्रम ‘आजतक’ की शुरुआत और एस पी सिंह की बोलचाल की भाषा ने टीवी न्यूज़ की भाषा को नया कलेवर देने की कोशिश की। चैनल आने के बाद वहां अखबारों की ही तरह टीवी में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों के लिए एक स्टाइल शीट बनाई गई, जिसमें करीब पांच सौ ऐसे शब्द छांटे गए जिसे बोलचाल वाले अंदाज़ में कहा गया। जैसे – ‘प्रयोग’ की जगह ‘इस्तेमाल’, ‘पुस्तक’ की जगह ‘किताब’, ‘समाचार’ की जगह ‘खबर’, ‘प्रस्तुत’ की जगह ‘पेश’ आदि..
इंडिया टीवी ने भी स्टाइल शीट बनवाई लेकिन कभी उसका इस्तेमाल नहीं हुआ।
अब ये आम धारणा है कि टीवी की भाषा और खबरों को परोसने के अंदाज़ ने ही समाज में अपराध, गाली गलौज, आतंकवाद और घरेलू हिंसा को बढ़ाया है। ‘बलात्कार’ जैसे शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल करके इसे एक तरह से सामाजिक मान्यता दिला दी गई है और इसे मज़ाक की तरह पेश करके बच्चों की ज़बान का हिस्सा बना दिया गया है। अब इस शब्द को और ‘सम्मानजनक’ तरीके से पेश करने के लिए अंग्रेज़ी में ‘रेप’ का जमकर इस्तेमाल हो रहा है। फिल्मों में इस्तेमाल होने वाली गाली गलौज को घर घर तक पहुंचाने का काम टीवी ने किया है और वह भी पूरे पूरे कार्यक्रम के तौर पर पेश करके घर घर में लोगों के मन में हर बात को लेकर आशंकाएं भर देने और एक दूसरे के प्रति अविश्वास पैदा करने वाले वाक्यों का इस्तेमाल धड़ल्ले से होने लगा। धर्म और ज्योतिष के नाम पर परोसे जाने वाले कार्यक्रमों में भाषा के साथ होने वाले खिलवाड़ ने टीवी की खबरों को एक मज़ाक बना दिया। रिश्तों को शर्मसार करने वाले, पति पत्नी के बीच दरार पैदा करने वाले और शक की दीवार खड़ी करने वाले तथाकथित रियलिटी शोज़ के न्यूज़ चैनलों पर होने वाले इस्तेमाल ने भी एक नई भाषा गढ़ी है। टीआरपी के नाम पर मनोरंजन से जुड़े कार्यक्रमों में भी सेक्स और सेक्सी, फिगर और ग्लैमर जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर इसके नाम पर ऐसे विजुअल्स की भरमार कर दी गई।
मौजूदा वक्त में न्यूज़ चैनल्स की भरमार है… और किसी भी तरह खबर परोस देने की हड़बड़ी है। तमाम चैनल स्टाइल शीट भूल चुके हैं, ज्यादातर को पता ही नहीं कि ये होती क्या है। किसी भी चैनल में भाषा को लेकर अब न तो कोई सीमा रेखा है और न ही अपनी कोई स्टाइल। हालत ये है कि एक दूसरे को देखकर हू ब हू उन्हीं शब्दों के इस्तेमाल के साथ खबरें नकल कर ली जाती हैं। न्यूज़ चैनल्स में अब कॉपी डेस्क की परंपरा खत्म हो चुकी है, अगर है भी तो महज औपचारिकता के लिए.. यहां तक कि जो लोग कॉपी डेस्क पर हैं, वो भी खबरों की हड़बड़ी में भाषा देखने की बजाय बस किसी तरह चार छह लाइनें लिख देने में ही भरोसा करते हैं। हड़बड़ी के नाम पर भाषा कहीं गुम हो गई है। अब इसे लेकर नियुक्तियों के वक्त भी कहीं कोई गंभीरता नज़र नहीं आती।
चैनलों की इस भीड़ में कभी कभार कुछ बेहतरीन कॉपी और भाषा के कुछ शानदार प्रयोग भी ज़रूर नज़र आ जाते हैं और इन्हें लिखने वाले वो लोग हैं जो कभी न कभी अखबारों से जुड़े रहे हैं या फिर जो लिखते पढ़ते रहे हैं। लेकिन ऐसे लोग आपको गिनती के ही मिलेंगे।
जाहिर है अगर टीवी की भाषा के बारे में गंभीरता से काम करना है तो इसके लिए नियुक्ति प्रक्रिया से लेकर डेस्क की संरचना तक के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। पत्रकारिता को एक व्यावसायिक कोर्स का दर्ज़ा देने वाले तमाम संस्थानों में कोर्स की जो संरचना है, जिस तरह के पाठ्यक्रम बनाए गए हैं, उनमें व्यावहारिक टेलीविज़न कम और सैद्धांतिक पढ़ाई ज्यादा होती है। भाषा को लेकर अलग से कहीं कोई क्लास नहीं होती और न ही शब्द ज्ञान बढ़ाने की कोशिश होती है। जटिल हिन्दी शब्दों को बोलचाल की भाषा में बदलने की कोशिश भी बेहद कम नज़र आती है और न ही साहित्य और पत्रकारिता का कोई रिश्ता बचा है। जब तक आप साहित्य नहीं पढ़ेंगे, आपकी भाषा और शब्दों का ज्ञान नहीं बढ़ेगा और जबतक आप लगातार लिखने की आदत नहीं डालेंगे, स्क्रिप्ट में भी वो बात नहीं आएगी। आज टेलीविज़न पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले ज्यादातर छात्रों की दिलचस्पी महज स्क्रीन पर दिखने और कुछ हद तक इसके तकनीकी पहलू को समझने की होती है, भाषा उनकी प्राथमिकता में कहीं नहीं होती। यही आज टीवी चैनलों का दुर्भाग्य है और नई नस्ल की पत्रकारिता का एक बड़ा संकट।
अतुल सिन्हा पिछले करीब तीस वर्षों से प्रिंट और टीवी पत्रकारिता में सक्रिय।लगभग सभी राष्ट्रीय अखबारों में विभिन्न विषयों पर लेखन।अमर उजाला, स्वतंत्र भारत, चौथी दुनिया के अलावा टीवीआई, बीएजी फिल्म्स, आज तक, इंडिया टीवी, नेपाल वन और ज़ी मीडिया के विभिन्न चैनलों में काम। अमर उजाला के ब्यूरो में करीब दस वर्षों तक काम और विभिन्न विषयों पर रिपोर्टिंग। आकाशवाणी के कुछ समसामयिक कार्यक्रमों का प्रस्तुतिकरण। दैनिक जागरण के पत्रकारिता संस्थान में तकरीबन एक साल तक काम और गेस्ट फैकल्टी के तौर पर कई संस्थानों में काम। एनसीईआरटी के लिए संचार माध्यमों से जुड़ी एक पुस्तक के लेखक मंडल में शामिल और टीवी पत्रकारिता से जुड़े अध्याय का लेखन। फिलहाल ज़ी मीडिया के राजस्थान चैनल में आउटपुट हेड।