प्रियदर्शन
हिन्दी पत्रकारिता की दुनिया इन दिनों हलचलों से भरी है। जो कभी छोटे और मझोले अखबार कहलाते थे, उनके कई-कई संस्क रण दिखाई पड़ रहे हैं। वे अपने राज्योंख और जिलों की सीमाएं लांघ रहे हैं और दूर-दराज के इलाकों में फैल-पसर रहे हैं। कई जगहों पर वे राष्ट्री य अखबारों के सामने चुनौती रख रहे हैं और उनके दांत खट्टे कर रहे हैं। कई शहरों में वे पुराने जमे हुए दैनिकों की नींद हराम कर रहे हैं। हिंदी का पाठक पुलक के साथ देख रहा है कि उसके सामने अपने शहर का अखबार पाने के विकल्पक बढ़ गए हैं। अब वे अखबार भी उसके शहर से निकल रहे हैं, जो कल तक उसके लिए दूर के और इसलिए पराए थे। यही नहीं, संस्क रणों की इस नयी बाढ़ ने अखबारों की कीमत पर अंकुश लगा दिया है। फिर कम से कम पैसे में ज्याोदा से ज्या दा पृष्ठत देने की भी प्रतियोगिता चल रही है। साथ ही कागज और छपाई की गुणवत्ताा पर विशेष ध्या न दिया जा रहा है और रंगीन छपाई के साथ-साथ चिकने पृष्ठों् से पाठक का मन मोहा जा रहा है।
इस सुहाने परिदृष्यह का एक सकारात्मछक पहलू छोटे शहरों में पत्रकारों के वेतन और सुविधाओं से भी जुड़ा है, यानी यह देखा गया है कि वर्षों से जमे-जमाए जो अखबार अपने पत्रकारों को काफी कम पैसे पर रखते थे, उन्हें अचानक उनका पैसा बढ़ाना पड़ा है। बाहर से आ रहे नए अखबार पत्रकारों के सामने ज्यावदा आकर्षक पेशकश रख रहे हैं और अपने यहां से भगदड़ रोकने के लिए यह जरूरी है कि पत्रकारों को कुछ अतिरिक्तस सहूलियत दी जाए। इसलिए छोटे शहरों में पत्रकारिता से जुड़े लोग पहले की तुलना में कुछ अधिक पैसा हासिल कर ले रहे हैं।
लेकिन इस नयी प्रवृत्ति के ज्याीदा चिंतित करने वाले पक्ष कहीं और खुलते हैं। भारत में पत्रकारिता का इतिहास आजादी की लड़ाई के आंदोलन से जुड़ा हुआ है। कम से कम भाषायी पत्रकारिता का सच तो यही है, हालांकि इस पत्रकारिता को पूंजी का ग्रहण उसी वक्ति से लगना शुरू हो गया था और गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों तक ने अखबारों में मजबूत होती पूंजी की घुसपैठ को लेकर चिंता जाहिर की थी।
धीरे-धीरे यह चिंता पुरानी पड़ती चली गई और यह कहना कुछ फैशन और कुछ वक्ती की जरूरत बनता चला गया कि अब पत्रकारिता एक पेशा है, जिससे रोटी कमाई जाती है। निश्चूय ही पेशों की भी अपनी एक आचार संहिता होती है, मगर पता नहीं पत्रकारिता में यह धारणा कहां से मजबूत होती चली गई कि पेशे का मतलब किसी प्रतिबद्धता से दूर, किसी सरोकार से परे होना होता है। कायदे से शिक्षक या डॉक्टबर की तरह पत्रकार का पेशा भी एक निश्चित आचार संहिता की ही नहीं, बल्कि सुस्परष्ट मानवीय सरोकार की भी मांग करता है, लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में व्यधवसायीकरण को पेशे का पर्याय मान लिया गया और इसलिए यह नकली बहस चल पड़ी कि पत्रकारिता पेशा है या सेवा।
बहरहाल, पूंजी की गोद में बैठी पत्रकारिता के वे अंतर्विरोध बहुत दिनों तक अगर ढंके-छुपे रहे, जो इस प्रक्रिया की अपरिहार्य उपज थे तो इसलिए कि बीते दिनों की पूंजी का चरित्र इतना हिंसक, आक्रामक और आत्म केंद्रित नहीं था। उसका लक्ष्यज सिर्फ खुद को बढ़ाना नहीं था। वह अपने समय से एक सरोकार महसूस करती थी, अपने समाज के प्रति अपना कोई दाय मानती थी। इसीलिए एक दौर में व्यावसायिक प्रतिष्ठापनों से भी बड़ी रचनात्मदक किस्मल की पत्रकारिता का विकास देखने को मिलता है। धर्मयुग, साप्तानहिक हिन्दुास्ता न, दिनमान, रविवार जैसी पत्रिकाएं उसी स्वैस्थ् दौर की उपज रहीं और उनका झिलमिल प्रतिबिंबन उस वक्त् के अखबारों में भी दूर-दराज तक दिखाई पड़ता था। इस दौर में पूंजी और पत्रकारिता हमजोली थे। पूंजी साधनों की व्य-वस्थाख करती थी, मगर अपनी सीमा रेखाओं के प्रति सजग-सावधान थी। ऐसी नहीं है कि यह आत्मा नुशासन टूटता नहीं था, मगर आमतौर पर संपादक और संपादकीय कक्ष की गरिमा को प्रबंधन स्वीाकार करता था और उसे सम्मापन देता था।
मगर नब्बे् के दशक में आकर हम देखते हैं कि पूंजी और पत्रकारिता का रिश्तान बदल गया है और अखबारों का स्वंरूप और चरित्र भी। पूंजी भी आत्माकेंद्रित हुई है और पत्रकार भी। दोनों का अपने समाज और समय से नाता टूटा है। दोनों को अपने-अपने ढंग से प्रतिष्ठामन की ताकत चाहिए। ताकत के इस खेल में निश्च य ही पूंजी का हाथ ऊंचा है। बहुत कम पत्रकारों के पास वह ताकत है कि वे इस पूंजी से बराबरी पर समझौता या गठजोड़ कर सकें। ऐसा करते हुए भी उनकी निगाह में पत्रकारिता के आदर्श कम होते हैं, अपनी सहूलियतें और सेवा शर्तें ज्याहदा। इसलिए नए दौर की पत्रकारिता में पत्रकारों के दो वर्ग बन गए हैं। एक छोटा-सा वर्ग वह है, जिसे बहुत पैसा मिलता है। दूसरा बड़ा वर्ग वह है, जिसे नहीं के बराबर पैसा मिलता है। इसलिए यह अनायास नहीं है कि पत्रकारिता के फूलने-फलने के ये दिन पत्रकारों से ज्याादा मालिकों को रास आ रहे हैं।
इससे कहीं ज्यानदा बुरी बात यह हुई है कि अखबार अब समाज का आईना नहीं रहे। वे साबुन या तेल की तरह बिकने का सामान हो गए हैं। साबुन और तेल से न करें तो उनकी तुलना मुख्यह धारा के हिंदी सिनेमा से कर सकते हैं। उन्हें। ज्यादा से ज्या्दा लोगों तक पहुंचना है, इसलिए सारे समझौते स्वीहकार्य हैं। इस प्रक्रिया में विचार और सरोकार ही गौण नहीं हुए हैं, तथ्य, और सूचनाओं की वस्तुरनिष्ठ ता भी संदिग्धह हुई है। इसकी जगह उन टोटकों ने ले ली है, जिन्हें। ज्याुदा से ज्यादा दर्शक खींचने के लिए पहले सिर्फ हिंदी फिल्में आजमाया करती थीं। खासकर अखबारों के साप्ताहिक परिशिष्ठों पर इसकी मार सबसे बुरी पड़ी है, जिनमें रंग-रोगन से रंगीनी पैदा करने की कोशिश तो बहुत की जाती है, मगर यह यत्नर नहीं के बराबर रहता है कि वे किसी सार्थक समझ के वाहक बनें। अखबार अगर इन्हीं प्रयत्नोंि से बेचे जा रहे हैं और बेचे जाने हैं तो हम कह सकते हैं कि यह पूंजी की पत्रकारिता है, कलम की नहीं।
पूंजी की इस पत्रकारिता की मार दोहरी है। हिंदी अखबारों की दुनिया में पहली बार विज्ञापन और प्रसार से संबंद्ध विभागों का कद संपादकीय विभागों से बड़ा हुआ है, यानी पूंजी को इस बात से बहुत सरोकार नहीं है कि अखबार अपनी सामग्री के लिहाज से कैसा है। हां, उसे यह विश्वाहस है कि अगर उसकी मार्केटिंग की टीम मजबूत है तो वह कुछ भी बेच लेगी। यहां से पाठक के साथ वह धोखा शुरू होता है, जो अखबार को दूसरे उत्पाेदों की तरह महज एक उत्पारद में बदल कर किया जाता है। पाठक को निश्चूय ही सस्तास अखबार मिलता है, ज्यापदा वजनी, चमकीला और रंगीन भी, मगर क्या यह अखबार पाठक की बौद्धिक जरूरत के साथ भी न्यालय करता है? कह सकते हैं कि अगर पाठक को ऐसा ही अखबार चाहिए तो कोई क्याऔ करे? मगर क्याक यही तर्क हिंदी के लोकप्रिय सिनेमा का भी नहीं है?
दूसरी बात यह कि इस नयी प्रतिद्वंदि्वता के दौर में अखबारों की अपनी स्थाीनिकता और उनका निजी वैशिष्ट्यद नष्टं हुए हैं। कहने को उनमें स्था नीय खबरें बढ़ी हैं, मगर ये खबरें बहुत रुटीन किस्मन की हैं। वे समस्याेओं की नब्ज् पर हाथ नहीं रखतीं, समाजों की सांस्कृ तिक-ऐतिहासिक विरासत को पहचानने-पकड़ने की बात तो बहुत दूर की है। कई जगहों से निकल रहा एक अखबार या एक ही जगह से निकल रहे कई अखबार दरअसल अब अलग-अलग नहीं हैं। वे बिल्कुजल एक से हैं, एक-सी खबरों से भरे, एक-सी फैशन सामग्री और सिने-गॉसिपों से लदे और एक ही तरह की चीजों में प्रतियोगिता करते हुए, यानी ढेर सारे चेनलों के बीच भी जो बहुत साफ किस्मं की एकरसता दिखाई पड़ती है—एक-से जासूसी सीरियल, एक-से भूत-प्रेतों पर आधारित धारावाहिक, एक जैसी परिवारिक तनावों की कथाएं—वह अखबारों में भी चली आई हैं। जहां तक खबरों का सवाल है, वे कुछ इस तरह लिखी जाती हैं कि प्रतिष्ठा।न को बहुत असुविधा न हो।
सबसे बुरी बात यह है कि हिंदी के ये अखबार हिंदी पाठक और समाज की एक गलत तस्वी र पेश कर रहे हैं। इन अखबारों की मार्फत हिंदी के पाठक संसार के बारे में राय बनाई जाए तो वह यही बनेगी कि हिंदीभाषी समाज को अपने देशकाल से कोई मतलब नहीं है। उसे संजीदा विषयों पर संजीदा ढंग से तैयार की गई सामग्री नहीं चाहिए। उसे बस रंगीन तस्वीषरें चाहिए और ज्यारदा से ज्या दा हिंदी फिल्मोंी के गॉसिप, विश्व सुंदरियों की खबरें और रोचक-रोमांचक जान पड़ने वाली सूचनाएं। कहने की जरूरत नहीं कि यह एक निहायत भ्रामक तस्वी र है। हिंदी का समाज अपने समय के प्रति सावधान-संजीदा समाज है। इसके प्रमाण दिल्लीक में बैठे-बैठे भले न दिखाई पड़ते हों, लेकिन दूर-दराज के क्षेत्रों में निकल जाएं तो खूब नजर आएंगे। हिंदीभाषी पट्टी में जितने सामाजिक विकल्पों से जुड़े आंदोलन चल रहे हैं, बड़े बांधों और बड़ी परियोजनाओं और विकास की आधुनिक अवधारणा के विरुद्ध जो बहस चल रही है, उसको संभव करने वाली सामूहिक चेतना इसी हिंदी प्रदेश की है, यह कम से कम हिंदी के अखबार देखकर नहीं लगता।
अखबारों में लगातार जड़ जमा रही इस सरोकारविहीनता ने दरअसल समाचार की परिभाषा भी बदल दी है। अब समाचार वह हे, जो अधिकृत सूत्रों से और ताकत की जगहों पर बैठे लोगों से मिलता है। वह नहीं है, जो आम आदमी बताता और महसूस करता है। इसलिए दिल्लीै में बैठा बड़ा पत्रकार वह है, जिसके प्रधानमंत्री और विभिन्नस मंत्रियों से रिश्तेह हों। उसकी नकल पर राज्योंब की राजधानियों में बैठे पत्रकार मुख्यममंत्रियों और अफसरों से ताल्लुककात रखने की कोशिश करते हैं, छोटे शहरों के पत्रकार वहां के उपायुक्तोंस और पुलिस अधिक्षकों से और गांवों और कस्बोंह से जुड़े स्ट्रिंगर ब्लॉुक के बीडीओ से। नतीजा यह हुआ कि खबर में जन का पक्ष कमजोर पड़ा है और तंत्र की पूछ मजबूत हुई है।
इसका असर खबर लिखने के एंग पर भी पड़ा है। ज्याुदातर अखबारों से गुजरते हुए लगता है कि न सिर्फ खबरें लिखने के जरूरी पेशेवर कौशल का अभाव है, बल्कि वे ढेर सारे जरूरी सरोकार सिरे से गायब हैं, जिनसे न सिर्फ समाचार बनते हैं, बल्कि विचार और भविष्यय के सवाल भी बनते हैं। इन अखबारों में आधुनिकता का मतलब आधुनिक फैशन, नए नायक, नयी फिल्मेंइ, आधुनिक समझी जाने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताएं, मॉडलिंग आदि भर हैं, ज्ञान-विज्ञान की तमाम शाखाओं में जो नया काम हो रहा है, वह नहीं है। यह महज संयोग नहीं है कि जो पीढ़ी हमारे सामने बन रही है, वह अपनी विरासत, अपने भविष्यध और अपनी दुनिया से बहुत अनजान है या इन सबको समझने के लिए एक दूसरी भाषा यानी अंग्रेजी का सहारा लेने को मजबूर है और इन पर अंग्रेजी के सिखाए हुए ढंग से ही विचार करती है।
मगर पूंजी की पत्रकारिता का अंत यहीं नहीं है। पूंजी का सब कुछ को खरीद सकने का विश्वातस और बाजार में विज्ञापनों की प्रतियोगिता से आगे निकल जाने का चतुर भरोसा इतना पुख्तार है, न सिर्फ नंबर वन होने की, बल्कि अपना एकाधिकार जमाने की आक्रामक मनोवृत्ति उसमें इतनी गहरी हुई है कि लगता है जैसे वह सब कुछ नष्टक करके भी अपना घर बसाने को आमादा हो। दिल्लीन में यह मारकाट कम दिखती है, या सिर्फ अंग्रेजी अखबारों में दिखती है, मगर चंडीगढ़ से लेकर रांची तक हिंदी की दुनिया में पूंजी का यह बवाल काबिले दीदार है। इन दिनों रांची में पत्रकारिता के भीतर यह खेल दिलचस्प ढंग से चल रहा है। वहां दो मुख्यी स्थािनीय अखबारों को एक राष्ट्री य प्रतिद्वंद्वी का सामना करना पड़ रहा है। दोनों अखबारों के ढेर सारे कर्मचारी इस राष्ट्रीरय अखबार के स्थावनीय संस्क रण में चले गए हैं। इन दोनों अखबारों से जुड़े लोग यह आशंका ही नहीं जता रहे, बल्कि आरोप भी लगा रहे हैं कि यह कुछ दिनों के लिए उनका प्रकाशन रोकने की कोशिश है।
हो सकता है, यह आरोप निराधार हो, सिर्फ अपनी व्याेवसायिक जरूरत के हिसाब से अखबारों से जुड़े लोगों को नौकरी देना उपयोगी समझा गया हो और वर्षों से कम वेतन पर काम कर रहे इन अखबारों के पत्रकारों को भी लगा हो कि उन्हें एक अच्छा अवसर मिल रहा है तो क्योंभ नहीं जाना चाहिए, लेकिन छोटी जगहों से बड़े अखबारों का आगमन अखबारों के लिए एक व्याभवसायिक चुनौती तो रख रहा है, पत्रकारिता संबंधी चुनौती नहीं रख रहा। वे पूंजी के कंधों पर सवार पत्रकारिता के उदाहरण बनकर आ रहे हैं, जिनकी सफलता की जिम्मे दारी संपादकीय विभाग की तुलना में दूसरे विभागों पर कहीं अधिक है। इस चुनौती का सामना किसी नयी दृष्टि से नहीं, बल्कि ज्या दा से ज्याचदा पूंजी से ही किया जा सकता है। खतरे से ज्या दा यह मजबूरी है कि स्थाीनीय अखबार भी ऐसा ही करने की कोशिश करें।
ऐसी स्थिति में पत्रकार फिर पीछे वाली सीट पर जाएंगे और विज्ञापन और प्रबंधन से जुड़े लोग आगे आएंगे, मगर यह सिर्फ एक संस्था न के भीतर पत्रकार की ताकत या हैसियत का सवाल ही नहीं है, बल्कि अखबार के चरित्र और पत्रकारिता की विरासत का भी सवाल है। हमारे देश में पत्रकारिता सत्ता और पूंजी से टकराव के रास्तेभ आगे बढ़ी थी, बाद में एक स्व स्थस साझेदारी का जमाना आया, मगर आज स्थिति बदली हुई है। आज पत्रकारिता पूंजी की दासी है, मगर इससे पूंजी का भी भला नहीं होना है, क्योंरकि अंतत: यह प्रवृत्ति अखबारों पर ही पलटकर वार करेगी। जब अखबारों का अपना कोई वैशिष्ट्यर नहीं बचेगा तो वे दूसरे माध्यजमों का सामना कैसे करेंगे? चैनलों के बीच के महासंग्राम में आज ही अखबार दोयम दर्जे का सूचना माध्य म बनते दिखाई पड़ रहे हैं और उनके औचित्यद पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। अपना औचित्यप साबित करने की यह चुनौती आने वाले दिनों में और विराट होगी। इसका सामना करने के तरीके पर पत्रकारिता को ही विचार करना होगा, पूंजी यह काम नहीं करेगी। वह तो हाथ झटककर दूसरे माध्यवम में चली जाएगी। (28 जुलाई, 2000 : जनसत्ता )
प्रियदर्शन ‘एनडीटीवी इंडिया’ में 2003 से सीनियर एडिटर के रूप में काम कर रहें हैं. इससे पहले वे हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में सहायक संपादक और हिंदी दैनिक ‘रांची एक्सप्रेस’ में काम कर चुकें हैं.उनकी प्रकाशित किताबों में ज़िंदगी लाइव (उपन्यास), उसके हिस्से का जादू (कहानी संग्रह), बारिश, धुआं और दोस्त (कहानी संग्रह), नष्ट कुछ भी नहीं होता (कविता संग्रह), इतिहास गढ़ता समय (आलेख संग्रह), ख़बर बेख़बर (पत्रकारिता पर केंद्रित किताब), ग्लोबल समय में कविता (आलोचना), ग्लोबल समय में गद्य (आलोचना), नए दौर का नया सिनेमा (सिने केंद्रित पुस्तक), कविता संग्रह मराठी अनुवाद में प्रकाशित और उपन्यास ज़िंदगी लाइव (अंग्रेज़ी में अनूदित) शामिल हैं.